Thursday 22 July 2021

लाचारी और बेबसी को भी ग़ज़ल बना देने वाले फ़न का नाम है राजेश रेड्डी


 अपनी लाचारी और बेबसी को भी ग़ज़ल बनाने के फ़न का नाम है राजेश रेड्डी। यूँ तो राजेश रेड्डी मूलतः हैदराबाद के हैं पर इनकी परवरिश गुलाबी शहर जयपुर में हुई।

राजेश रेड्डी  का जन्म 22 जुलाई 1952 को नागपुर में हुआ। इनके पिता श्री शेष नारायण रेड्डी जयपुर के बाशिंदे थे लेकिन नागपुर में राजेश रेड्डी की ननिहाल थी। इनके पिता पोस्टल एवं टेलीग्राफ महकमें में थे पर संगीत उनका जुनून था, सो घर के हर गोशे में संगीत बसा हुआ था। राजेश रेड्डी की पूरी तालीम जयपुर में ही हुई। राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर से इन्हेंने एमए हिन्दी साहित्य में किया। अपने कॉलेज के ज़माने से राजेश रेड्डी को शायरी के प्रति रुझान हुआ। बशीर बद्र, निदा फ़ाज़ली और मोहम्मद अल्वी के क़लाम ने इन्हें मुतास्सिर किया पर शायरी के पेचीदा पेचो- ख़म, शायरी की बारीकियां, बात कहने का सलीक़ा सीखने के लिए राजेश रेड्डी ने ग़ालिब के दीवान को अपना उस्ताद मान लिया। इनके पिता जयपुर की नामी संगीत संस्था “राजस्थान श्रुति मंडल” से जुड़े थे, घर में मौसिक़ी का माहौल था सो संगीत राजेश रेड्डी के दिलो-दिमाग़ में रच बस गया। पढ़ाई पूरी करने के बाद राजेश रेड्डी कुछ समय तक राजस्थान पत्रिका की “इतवारी पत्रिका” के उप-सम्पादक रहे और फिर 1980 से शुरू हो गई आकाशवाणी की मुलाज़मत।
1980 के आस-पास राजेश साहब ने अपने अनूठे अंदाज़ में शे’र कहने शुरू किये। इसी वक़्त राजेश साहब को लगा की ग़ज़ल की रूह तक पहुँचने के लिए उर्दू लिपि का आना ज़रूरी है तो अपनी मेहनत और लगन से इन्होने शीरीं ज़बां उर्दू बा-क़ायदा सीखी।
राजेश रेड्डी ने अपनी शाइरी का एक मौज़ूं इंसानियत को बनाया और इंसानियत को उन्होंने मज़हब की मीनारों से भी ऊपर माना।
राजेश रेड्डी ने अपनी शायरी में न तो कभी महबूब की चौखट की परस्तिश की न ही कभी हुस्न की तारीफ़, मगर अपने जज़्बों का इज़हार बड़ी बेबाकी से किया यहाँ तक कि जब लहजे को शिकायती बनाया तो ख़ुदा से भी ये कह डाला-

फ़लक से देखेगा यूँ ही ज़मीन को कब तक
ख़ुदा है तू तो करिश्मे भी कुछ ख़ुदा के दिखा

शाम को जिस वक़्त ख़ाली हाथ घर जाता हूँ मैं
मुस्कुरा देते हैं बच्चे और मर जाता हूँ मैं

मिरे दिल के किसी कोने में इक मासूम सा बच्चा
बड़ों की देख कर दुनिया बड़ा होने से डरता है

किसी दिन ज़िंदगानी में करिश्मा क्यूँ नहीं होता
मैं हर दिन जाग तो जाता हूँ ज़िंदा क्यूँ नहीं होता

दिल भी इक ज़िद पे अड़ा है किसी बच्चे की तरह
या तो सब कुछ ही इसे चाहिए या कुछ भी नहीं

किस ने पाया सुकून दुनिया में
ज़िंदगानी का सामना कर के

कुछ परिंदों को तो बस दो चार दाने चाहिए
कुछ को लेकिन आसमानों के ख़ज़ाने चाहिए

कुछ इस तरह गुज़ारा है ज़िंदगी को हम ने
जैसे कि ख़ुद पे कोई एहसान कर लिया है

बहाना कोई तो ऐ ज़िंदगी दे
कि जीने के लिए मजबूर हो जाऊँ

ग़म बिक रहे थे मेले में ख़ुशियों के नाम पर
मायूस हो के लौटे हैं हर इक दुकाँ से हम

मिरी इक ज़िंदगी के कितने हिस्से-दार हैं लेकिन
किसी की ज़िंदगी में मेरा हिस्सा क्यूँ नहीं होता

मयस्सर मुफ़्त में थे आसमाँ के चाँद तारे तक
ज़मीं के हर खिलौने की मगर क़ीमत ज़ियादा थी

जुस्तुजू का इक अजब सिलसिला ता-उम्र रहा
ख़ुद को खोना था कहीं और कहीं ढूँढना था

सोच लो कल कहीं आँसू न बहाने पड़ जाएँ
ख़ून का क्या है रगों में वो यूँही खौलता है

या ख़ुदा अब के ये किस रंग में आई है बहार
ज़र्द ही ज़र्द है पेड़ों पे हरा कुछ भी नहीं

Saturday 17 July 2021

सावन के महीने का राग है… राग Malhar: कैसे हुआ इसका इस्‍तेमाल?


 सावन शुरू होने में हालांकि अभी चंद दिन बाकी हैं लेकिन लोगों को मेघों के बरसने का इंतज़ार है क्‍योंकि अभी आधा-अधूरा मानसून तो आया है। न तन भीगा, न मन नहाया। धरती की कोख से सौंधी ख़ुशबू भी नहीं फूटी, न मोर नाचे न कोयल कूकी, हां सावन की दस्‍तक ने ही उस राग का ध्यान जरूर करा द‍िया है ज‍िसे राग मल्हार कहते हैं ।

इस मौसम में हम शिव की पूजा करते हैं क्योंकि शिव काम के शत्रु हैं, इसीलिए सावन प्रकृति और मनुष्य के रिश्तों को समझने और उसके निकट जाने का मौका भी देता है।
बहरहाल, आज बात राग की करते हैं जो Malhar के बारे में उत्सुकता जगाता है। तो आइये जानते हैं क‍ि क्या है राग Malhar और इसी राग का लोकगायकी में कैसे इसका इस्तेमाल क‍िया गया है।

भारत का राष्ट्रीय गीत ‘वन्दे मातरम’ भी मल्हार राग में गाया गया 

मल्हार का मतलब बारिश या वर्षा है और माना जाता है कि मल्हार राग के गानों को गाने से वर्षा होता है। मल्हार राग को कर्नाटिक शैली में मधायामावती बुलाया जाता है। तानसेन और मीरा मल्हार राग में गाने गाने के लिए मशहूर थे। माना जाता है के तानसेन के ‘मियाँ के मल्हार’ गाने से सुखा ग्रस्त प्रदेश में भी बारिश होती थी।

मल्हार राग/ मेघ मल्हार, हिंदुस्तानी व कर्नाटक संगीत में पाया जाता है।

मल्हार राग के प्रसिद्द रचनायें हैं- कारे कारे बदरा, घटा घनघोर , मियाँ की मल्हार

दीपक राग से बुझे हुए दिये जलाने और मेघ मल्हार राग से बारिश करवाने की दंत कथाएँ तो हर पीढ़ी ने अपने बुजुर्गों से सुनी हैं। लेकिन क्या सचमुच ऐसा होता था? आइये समय के गलियारों से गुजरते हुए थोड़ा इतिहास के झरोखों से झांक कर देखें और पता करें की क्या तानसेन राग मल्हार का आलाप कर सच में वर्षा करवा देते थे।

मेघ-मल्हार और वर्षा
भारतीय संगीत की सबसे बड़ी खूबी यह है की इसका हर सुर, राग और हर पल, घड़ी, दिन और मौसम के हिसाब से रचे गए हैं। किस समय किस राग को गाया जाना चाहिए, इसकी जानकारी संगीतज्ञों को होती है। जैसे दीपक राग में दिये जलाने की शक्ति है, यह वैज्ञानिक रूप से सत्य है। इसका कारण, इस राग में सुरों की संरचना इस प्रकार की है की गायक के शरीर में गर्मी उत्पन्न हो जाती है। यही गर्मी वातावरण में भी आ जाती है और ऐसा प्रतीत होता है मानों अनेक दिये जल गए। यही नियम राग मेघ-मल्हार के संबंध में भी है। दरअसल मेघ-मल्हार राग की रचना, दीपक राग की गरम तासीर को कम करने के लिए करी गयी थी। इसलिए जब मेघ-मल्हार राग गाया जाता था तो वातावरण ऐसा हो जाता था, मानों कहीं बरसात हुई है।

तानसेन द्वारा मेघ-मल्हार को गाना और बरसात का होना, मात्र संयोग हो सकता है, जो बार-बार नहीं होता।

सुन‍िए श्री प्रकाश विश्वनाथ रिंगे की राग मेघ मल्हार में  रचना 

https://youtu.be/EVUQR_jaDzc


- प्रस्‍तुत‍ि : अलकनंदा स‍िंंह

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