Painting: Self portrait by Freida Kahlo |
क्षणभंगुर होते जाने तक यूं तो
स्त्री के 'इन' चार दिनों के प्रवास ने
पूरी सृष्टि को उलझाया है,
आज मुझे अपने गौरव का ये पन्ना
बस, बरबस ही याद आया है।
प्रकृति और प्रेम की हैं ये निशानी,
निज संबंधों के भावों का तोलमोल करते
प्रेम की परिभाषा को देते नये-नये नाम
स्त्री में कर्मज्ञान की गांठ बांधते 'ये दिन'
आज हमें सुनाने को आतुर हैं...
प्रकृतिप्रदत्त इस सतरूपा के संग,
मनु-सृजन के 'इन' चार दिनों की कहानी।
प्रकृति की ये जाल-बुनावट टिकी हुई
'इन' चार दिनों की एक धुरी पर... बस,
रिश्ते की हर गांठ...हर आस के धागे
'इन' दिनों के भंवर में डूबते-उतराते
भूत और भविष्य के पग भी स्त्री के
'इन' दिनों के पाश में ही तो बंधे हुये हैं
इनके आने पर विह्वल होकर... कोई जननी
बेटी का बोझ बढ़ा लेती है दिल पर,
इनके 'ना होने' पर अभिशापों का गुंठन
लक्ष्यहीन कर देता स्त्री-जीवन को....
सृष्टिकर्म की इस लंबी यात्रा में
धन्यवाद 'इन' चार दिनों का
देने को मन आतुर है क्योंकि...
संबंधों के सृजित पदों पर बैठा के ,
'इन' दिनों ने....ही तो ठहराया है
स्त्री को संसार-रचना की अधिष्ठात्री
मां..बहन..पत्नी..और बेटी बनाया इन्हीं ने
संबंधों की हर नींव में बिखरी है
गंध 'इन' दिनों के होने और ना होने की
एक सा होता है इनका आना और जाना भी
दोनों में ही पीड़ा का होता साम्राज्य
कष्ट से उपजता है एक नया व्यक्तित्व
आते में भी ...जाते में भी..
दोनों ही संधि-वय में जन्म लेता है
अनुभूतियों का नया पुलिंदा,जिसे...
सामने पटक कर हंसता है समय... ठटाकर
हंसता रहता है..कि देख.. हे स्त्री तू भी
अभिमान कर स्वयं पर कि...
यही तो माया है 'प्रकृति' के 'इन' दिनों की
उसी पर डालती है बोझ जिसके कंधों में
शक्ति हो सह लेने की और...
अब मैं नतमस्तक हूं 'इन' दिनों के आगे।
- अलकनंदा सिंह