Friday, 20 December 2013

बेटियां...पलकों की कोरों में..

हम तो हव्‍वा की औलादें हैं जो..
अपनी पलकों की कोरों में ही
पानी लेकर  ही पैदा होती हैं ,तब
उन्‍हीं में भीगते हुये ही एक मां भी...
बेटी के संग फिर से पैदा होती है,

फिर से जीती वो अपना अतीत
फिर करती अतीत का आवाहन
कालखंड की बूंदों पर छापे हों जैसे 
ईश्‍वर ने दोनों ही के युगल हस्‍ताक्षर

मां की आंखों में बेटी जब
अपने सपने गीले करती है,
बोये जाते हैं तब दोनों के भविष्‍य
पलकों से ही कांटे चुनचुन कर अपने
सपनों को पहनाती.. दोनों पुष्‍पहार,
एक दूजे का करती हैं अभिनंदन

सहयात्री मां के सपनों की बन
पथ को बेटी ही निष्‍कंटक करती
समय के कांधे पर चढ़कर कब
संग बहते-बहते एकरंग हो जाती दोनों,
एक दर्द और आशा की दोनों में बहती
एक सी ही फुहार.. एक सी ही धार

फिर सपनों को कैसी धूप दिखानी...
पलने दो इन्‍हें हौले हौले...,
कुछ जोड़ी और पलकों में इनको
भाप बनकर उड़ रहे रिश्‍तों की सांसें
इन्‍हीं में तो बाकी रहती हैं,
इनकी पलकों की कोरें ही तो
सब रिश्‍तों को भिगोये रहती हैं
गीलेपन से उर्वर होते रिश्‍तों की-
सब सांसों को जोड़े रखने को,
मां- बेटी की पलकों की कोरें
अभी गीली ही रहने दो...
अभी सपने ही पलने दो..

- अलकनंदा सिंह
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