मैं कहती हूं कि-
आकाश से धरती तक फैला वैक्यूम...
खींचता है मुझे...उस तत्व की ओर,
जो विलीन कर देता है
सारा अस्तित्व सारी सोच
सारा अपने-पराये का स्पंदन
सुख-दुख, राग-द्वेष, प्रेम-विरह,
और मैं स्वयं होती जाती हूं
कभी आकाश सी अनंत तो कभी
समुद्र की काई को फाड़ कर,
होती जाती हूं धरती सी गहरी...।
मैं जानती हूं कि-
आकाश से धरती तक फैला है वैक्यूम...
कचरा मन का हो या ब्रह्मांड का,
उसका बह जाना, समा जाना इसी वैक्यूम में...जरूरी है,
जो धरती और आकाश दोनों में,
बहता है संग संग,
अपने अपने अपने लिए अनंत ,
ये दोनों ही वैक्यूम की गंगायें समा लेती हैं-
हर लेती हैं ताप पाप सब मन के...,
ब्रह्मांड के भी...सब चुंबक बनकर ,
शुद्ध कर देती हैं प्राणवायु को...अंतरिक्ष को भी,
मैं मांगती हूं कि-
हे गंगा! वैक्यूम की हो, आकाश की हो... ,
धरती की... या मन की...,
मेरे कुत्सित को निगल कर तू मुझे आकाश बना दे...,
मुझमें अपनी गंध कर प्रवाहित, हो जाऊं शून्य...
और अदृष्ट, अपरिमित -अनंत,
मैं आकाश बन वैक्यूम को भीतर समेट लूं,
अपरिमित प्रेम में पगी भी रहूं...और खाली भी...
वैक्यूम हो जाए 'स्व' , और मैं बन जाऊं
आकाश-धरती-समुद्र-प्रेम-उत्सर्ग-और मनुष्यता।
- अलकनंदा सिंह