Monday, 30 December 2013

करो आगत का स्‍वागत यूं...

आकांक्षायें जब बढ़ती हैं
    करतीं हैं ये स्‍वच्‍छ मन पर
    दूषित क्षणों का आच्‍छादन
    तभी बढ़ता देखो मन:क्रंदन
    ठहरो...जाते वर्ष का यूं तुम
    मत करो क्रंदन से अभिनंदन

सूर्य से तप्‍त, मन की रेत पर
    बरसने देना प्रेम का सोने सा रंग
    जब लुभाये भावों का अभेद्य दुर्ग
    दूर कर देना अंतर्मन का द्वंद
    फिर नहीं होगा ऐसा कि..
    प्रेम-किरण पर भारी पड़ जाये
    कुछ मांसपेशियों का अभि-मान
    तब देखना तुम..भी 

कि वह नीड़ भयावह- आसक्‍ति का
    खोखला हो बज उठेगा जोर से,
    जाते वर्ष ने पीडा भोगी है बहुत
    अभिव्‍यक्‍ति-इच्‍छाओं का दलन था जो
   मन तक रिस रहा है अब भी
    मूल से शिख तक जाती शिराओं में
    कराहें भी जोर से दौड़ती रहीं
    मगर अब...बस ! अब.. और नहीं

चलो छोड़ो अब जाने दो बीते को
     अब ये घोर निराशा क्‍यों है छाई
     शांत करो अपना मन:क्रंदन
     इससे बाहर अब आना होगा
     क्रंदन से उपजेगा ज्‍योतिपुंज
     न होगा दमन ना ही दलन
     हर समय रहेगा प्रेम का स्‍पंदन
     अभिलाषाओं के कपाट पर
     जब नन्‍हें बच्‍चे की सी..
     किलकारी एक उगाओ...
     याद करो..आगत का स्‍वागत तो
     सदैव ऐसे ही होता आया है।
  
    - अलकनंदा सिंह

   

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