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Monday, 9 September 2013

यूं चुकाया उसने अपने औरत होने का कर्ज़

मूक परछाईं सी- हठात बैठी वह,
कभी आंगन की उन ईंटों को कुरेदती -
 कभी आत्‍मा के चिथड़ों को समेटती
इधर उधर ताकती,दीवारों को तराशती

बूझती उनसे अगले पल की कहानी
ढूंढ़ती नजरें..  अपनी शुद्धता की निशानी
क्‍योंकि आज खून से खौलती आंखों को
उसने अपने शरीर का मोल देकर
खरीद ही लिया इस समय को --
उसकी आज़ादी वाली सोच को 
उसकी आधुनिकता को,

आज इस दंगे की हवस में
मांस मज्‍जा और अहं से बना शरीर
अगर काम न आता- तो वह
कैसे बचा पाती भला
उस कमसिन बच्‍ची की लाज
जिसने देखे थे बस तेरह बसंत,
गिद्धों के पंजों से  उसको बचाकर
स्‍वयं को उधेड़ कर, उस नन्‍हीं
बच्‍ची के बिखरे सपनों को  सींना
इस नश्‍वर शरीर का  दे गया मोल,
कर स्‍वयं को अनमोल- निभा दिया फ़र्ज़
कुछ यूं चुकाया उसने अपने औरत होने का कर्ज़

-अलकनंदा सिंह
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