Monday 22 November 2021

शरद ॠतु पर ल‍िखी पढ़‍िए कुछ प्रस‍िद्ध कव‍िताऐं



5 सितम्बर, 1948 को इलाहाबाद प्रवास के समय ल‍िखी अज्ञेय की कव‍िता-  शरद 


सिमट गयी फिर नदी, सिमटने में चमक आयी 

गगन के बदन में फिर नयी एक दमक आयी 

दीप कोजागरी बाले कि फिर आवें वियोगी सब 

ढोलकों से उछाह और उमंग की गमक आयी 


बादलों के चुम्बनों से खिल अयानी हरियाली 

शरद की धूप में नहा-निखर कर हो गयी है मतवाली 

झुंड कीरों के अनेकों फबतियाँ कसते मँडराते 

झर रही है प्रान्तर में चुपचाप लजीली शेफाली 


बुलाती ही रही उजली कछार की खुली छाती 

उड़ चली कहीं दूर दिशा को धौली बक-पाँती 

गाज, बाज, बिजली से घेर इन्द्र ने जो रक्खी थी 

शारदा ने हँस के वो तारों की लुटा दी थाती 


मालती अनजान भीनी गन्ध का है झीना जाल फैलाती 

कहीं उसके रेशमी फन्दे में शुभ्र चाँदनी पकड़ पाती! 

घर-भवन-प्रासाद खण्डहर हो गये किन-किन लताओं की जकड़ में 

गन्ध, वायु, चाँदनी, अनंग रहीं मुक्त इठलाती! 


साँझ! सूने नील में दोले है कोजागरी का दिया 

हार का प्रतीक - दिया सो दिया, भुला दिया जो किया! 

किन्तु शारद चाँदनी का साक्ष्य, यह संकेत जय का है 

प्यार जो किया सो जिया, धधक रहा है हिया, पिया! 

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सुमित्रानंदन पंत द्वारा ल‍िखी गई कव‍िता- शरद चाँदनी!


शरद चाँदनी!

विहँस उठी मौन अतल

नीलिमा उदासिनी!


आकुल सौरभ समीर

छल छल चल सरसि नीर,

हृदय प्रणय से अधीर,

जीवन उन्मादिनी!


अश्रु सजल तारक दल,

अपलक दृग गिनते पल,

छेड़ रही प्राण विकल

विरह वेणु वादिनी!


जगीं कुसुम कलि थर् थर्

जगे रोम सिहर सिहर,

शशि असि सी प्रेयसि स्मृति

जगी हृदय ह्लादिनी!

शरद चाँदनी!

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केदारनाथ अग्रवाल द्वारा रच‍ित कव‍िता - दिवस शरद के


मुग्ध कमल की तरह

पाँखुरी-पलकें खोले,

कन्धों पर अलियों की व्याकुल

अलकें तोले,

तरल ताल से

दिवस शरद के पास बुलाते

मेरे सपने में रस पीने की

प्यास जगाते !

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कव‍ि गिरधर गोपाल द्वारा रच‍ित - शरद हवा 

शरद की हवा ये रंग लाती है,

द्वार-द्वार, कुंज-कुंज गाती है।


फूलों की गंध-गंध घाटी में

बहक-बहक उठता अल्हड़ हिया

हर लता हरेक गुल्म के पीछे

झलक-झलक उठता बिछुड़ा पिया


भोर हर बटोही के सीने पर

नागिन-सी लोट-लोट जाती है।


रह-रह टेरा करती वनखण्डी

दिन-भर धरती सिंगार करती है

घण्टों हंसिनियों के संग धूप

झीलों में जल-विहार करती है


दूर किसी टीले पर दिवा स्वप्न

अधलेटी दोपहर सजाती है।


चाँदनी दिवानी-सी फिरती है

लपटों से सींच-सींच देती है

हाथ थाम लेती चौराहों के

बाँहों में भींच-भींच लेती है


शिरा-शिरा तड़क-तड़क उठती है

जाने किस लिए गुदगुदाती है।

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सन् 1966 में पंकज सिंह  द्वारा रच‍ित कव‍िता- शरद के बादल 

फिर सताने आ गए हैं

शरद के बादल


धूप हल्की-सी बनी है स्वप्न

क्यों भला ये आ गए हैं

यों सताने

शरद के बादल


धैर्य धरती का परखने

और सूखी हड्डियों में कंप भरने

हवाओं की तेज़ छुरियाँ लपलपाते

आ गए हैं

शरद के बादल।

प्रस्‍तुत‍ि- अलकनंदा स‍िंह





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