Wednesday 28 August 2013

टैटू

मां, बाबा, भाई, सब कहते थे..
चुपकर रहो अभी तुम, क्‍योंकि -
शरीर उसका सुख उसका
कैद उसकी उसी की रिहाई
...तो फिर तेरा क्‍या

मैं भी गढ़ती रही- इस सच को, कि
जो भी हैं वो चंद बातें
चंद रातें- चंद अहसास- चंद सांसें-
जब सब ही उसके हैं ...
..तो फिर मेरा क्‍या

पायलों की रुनझुन
चूड़ियों की खनखन
कलम की स्‍याही
पलों की इबारत
जब सब ही उसकी हैं
...तो फिर मेरा क्‍या

पर नहीं... तुम गलत सोचते हो,
मन मेरा है सोच मेरी
बात बात पर हंसकर
नीम को भी मिश्री बनाये
पत्‍थर में जो प्‍यार जगाये
वो तासीर मेरी है,
मां बाबा भाई सब देखो,
हूं ना मैं..बहुत खूब
मैं हूं मन के भीतर की खुश्‍बू,
मैं हूं नींवों तक समाई हुई दूब
जो निगल जाये मन का अंधेरा
मैं हूं जीवन की वो धूप

अब बोलो, क्‍या कहते हो
तेरा मेरा करके तुमने जीवन-
का आधा भाग जिया है
अमृत अपने हाथों में रखा
मुझको गरल दिया है
संततियों के माथे पर तुमने
क्‍यों भेद का टैटू छाप दिया है

अभी समय है देखो तुमको
राह अगर लंबी चलनी है
साथ मेरा ही लेना होगा
नई वृष्‍टि हो अहसासों की,
नई सृष्‍टि हो जज्‍़बातों की
नया जगत भी गढ़ना होगा
फिर मैं से हम में परिवर्तन का
नया राग भी बन जायेगा
कह न सकोगे तुम फिर ऐसा
कि तेरा क्‍या है...मेरा क्‍या..

- अलकनंदा सिंह




Monday 26 August 2013

बंजर कब्रें

सोचों की कब्र से यूं
धूल झाड़कर उठते
नया जन्‍म लेते रिश्‍ते
कभी देखे हैं तुमने
नहीं ना, तो...फिर अब देखो

मांस के लोथड़ों पर टपकती
पल पल ये लारें, ये निगाहें
किस तरह पूरे वज़ूद को
बदल देती हैं एक ज़िंदा कब्र में
फिर कोई रिश्‍ता नहीं जन्‍मता ,
बंजर सोच की ज़मीन में।

- अलकनंदा सिंह

Tuesday 20 August 2013

अपने भीतर की सड़क

''सखी, मैं तुम्‍हारे शहर से होकर गुजरूंगा...''  जब भी ये शब्‍द उसके कानों में पड़ते तभी उसे अहसास हो जाता कि कितनी छोटी है ये दुनिया। गोल गोल घूम कर उसके ही गिर्द अपना घेरा कस लेती है हर बार। 
अरे, ये भी कोई बात हुई...भला कोई कहीं से भी गुजरे...शहर की सड़क तो साझा होती है सबकी...जिस सड़क से उसे गुज़रना है वो कहने को तो शहर के बदन को छूती होगी मगर जिस सड़क को उसके सखा के पांव छुयेंगे वो कोई और नहीं उसके शरीर में रेंगती एक एक धमनी और धमनी में जुड़ती तमाम कोशिकाओं से मिलकर बनी सड़क ही है या फिर ऐसी कई सड़कों का जंजाल जो उसके दिल को जकड़े हुये हैं। मगर अच्‍छी तरह जानती थी वो कि सखा महज उसके शहर की सड़क से गुजरने वाला नहीं वह तो पूरे वज़ूद से रिसता हुआ मन में बह रहा है, और उसे यूं नचाये ही जा रहा है...पता ही नहीं चला कब से ...हर बार की तरह इस बार भी ऐसा ही होने वाला है...जब वो गुजर रहा होगा इसी बाहरी या फिर भीतरी सड़क से।

आंख मिचौनी के खेल में वो माहिर है, आज तक जिसने भी उसे चाहा, इसी भ्रम में रहा कि वो उसी को सबसे ज्‍यादा मान देता है ,उसे भी यही भ्रम था;.. भ्रम ही रहा और भ्रम ही रहेगा ... पलक झपकते ही हवा हो जाने की आदत जो थी उसकी .... कोई हवा को पकड़ पाया है भला, फिर वो किसतरह उसकी पकड़ में आता ।

वो अच्‍छी तरह से जानता था कि दुनिया के गोल गोल चक्‍करों में घिरी उसकी सखी न तो उसे ढूढ़ने सड़कों पर घूमेगी और न ही किसी मंदिर - मठ में उसका पता पूछेगी फिर वो बार बार क्‍यों ये जताना चाहता था कि वो मेरे शहर से होकर गुजरेगा तो सखी खुशी से उछल पड़ेगी, वो जानता था कि उसके अंतरमन पर उसका काबू अच्‍छा था, इसीलिए कहीं वो उसे चिढ़ाता तो नहीं ....।
''मैं तुम्‍हारे शहर से होकर गुजरूंगा'' की पगडंडी पर गुजरते हुये एक तलाश सी आंखों में लिए समय पल पल अपनी उम्र घटाता जा रहा था.. जब भी ये वाक्‍य उसके वज़ूद से टकराते तो लगता अभी और ना जाने कितने साल ऐसे ही गुजरने वाले हैं...उसकी बाट जोहते हुये... कि कभी तो मिलेगा...बहुतेरे लोगों के दिन ऐसे ही उसे तलाशते हुये गुज़र गये, सखी के भी गुज़र ही जायेंगे। फिर वो कोई अनोखी तो ना थी  ...मगर वह खुद को अनोखी समझती जरूर थी। वह अपने पर गुस्‍सा भी करती और गुमान भी...करे भी क्‍यों ना .. वो होगा किसी के लिए अप्राप्‍य ...उसका तो सखा था..है..रहेगा। ओह!  तो सताने के लिए ही वह कहता था कि आज या कल या फ़लां दिन मैं तुम्‍हारे शहर से होकर गुजरूंगा। पता नहीं क्‍यों वो यह बताते हुये थकता न था...आज तक ना उसने बताना बंद किया और न सखी के ज़हन से ये ख्‍याल जाता कि आज नहीं तो कल वह यहीं कहीं से गुज़र रहा होगा तो ? क्‍या पता कहीं किसी ठौर वह मिल भी सकता है।
आज वो सोच रही थी...और मन ही मन सखा को सराह भी रही थी कि अप्राप्‍य को कैसे प्राप्‍त किया जा सकता है। किसी ने यूं ही नहीं कह दिया कि मोकूं कहां ढूढ़े रे बंदे मैं तो तेरे पास में...
आज तक तो वह नहीं मिला- सखी अब भी खोज रही है, हर सड़क- हर तिराहे- हर चौराहे पर उसके मिलने की आस में... जब भी शहर में निकलती है.. आंखें उसे ही खोजती रहतीं..वो ऐसा होगा वो वैसा होगा..वो मुझे देखेगा तो क्‍या सोचेगा..कि मेरी सखी ऐसी मलिन...? वो झट से बिना एक भी पल गंवाये कह देगी- ''ना ना सखा मैं इतनी मलिन नहीं, वो तो तुम्‍हें खोजते हुये ये हाल हुआ है मेरा या तुम्‍हारे सांवले रूप की छाया ने घेर लिया था मुझे..या फिर कह देगी कि तुम्‍हारी आंखों में जो देख ले वह तुम जैसा ही होने लगता है..एकदम सांवला सा.. या फिर कह देगी कि तुम्‍हारी आंखें उनींदी हो रही हैं मेरे शहर की सड़कों पर घूमते हुये शायद थक गये हो इसीलिए मैं भी तुम्‍हें थकी और मलिन दिख रही हूं या फिर कह देगी कि तुम्‍हारी इन आंखों में जो थकान के लालिमा उतरी है उसीसे मेरा चेहरा भी तप कर सांवला हुआ है..इसी लिए मैं तुम्‍हें मलिन नजर आती हूं...या...।''
उफ ! ऐसे कितने ही सवाल उसके मन में जवाब देने को तैयार हो रहे थे...लेकिन नहीं, वो ऐसा क्‍यों सोचेगा, वह तो मन में झांक लेता है, फिर मन तो उजला है ना। हर बार की तरह इस बार भी यही सब सोचते हुये वक्‍त उड़ता जा रहा है मगर उसकी तलाश अब भी जारी है ...कि कभी तो भेंट होगी सखा से ...तब वो उसे पकड़ कर पूछ ही लेगी कि हर बार उसके ही शहर से गुजरने की... और गुजरते हुये उसे बताने की...क्‍या जरूरत थी...क्‍या वह यह बताते समय उसके सखा से रूपांतरित हो फिर से वही निष्‍ठुर मंदिर वाला काला पत्‍थर बन जाता है। जरूर ऐसा ही होता होगा तभी तो वह सिर्फ बताता है मिलता नहीं...तभी तो वह सिर्फ पागल बनाता है... इलाज नहीं करता...तभी तो उसने सांसों को मुट्ठी में भींच रखा है...इस बार मिलते ही वह कह ही देगी कि वो भी तो उसी की सखी है, कोई पुतुल नहीं ....वो आज़ादी नहीं चाहती...बस हर वक्‍त हर जगह हर एक में उसी सखा को ही तो खोजती रहती है कि क्‍या पता उसका वो शहर जिसकी सड़कों से उसे गुज़रना है कहीं सखी के मन से होते हुये उसकी रगों में तो नहीं समा गया....कई सवाल हैं जिनके उत्‍तर अनंतकाल से ढूढ़े जा रहे हैं । कोई तो है जो इनके जवाब जानता है। सखी हमेशा से पूछती आई है और सखा के चेहरे पर हमेशा की तरह विस्‍मयकारी मुस्‍कान के रहस्‍य...मौज़ूद हैं। वो तो चेतना के हर उस शहर से गुज़र कर आया है जो सखी तक पहुंचती है फिर क्‍यों शहर से गुजरने की इत्‍तिला पर वह बेचैन है...आज तक। आगे भी उसकी सड़क तो अंतहीन ही है।
- अलकनंदा सिंह

Friday 16 August 2013

कि...कोई नहीं समझ पाया है

कि...कोई नहीं समझ पाया है

बाईं ओर उसी छाती में
दर्द का इक सैलाब आया है
रिश्‍तों की जकड़न कैसी थी कि...
कोई नहीं समझ पाया है

तितली के पंखों से झड़कर
टपक रही थी जो तेरी आहें
उनका सदका यूं मैंने पाया कि...
कोई नहीं समझ पाया है

आइने से मुझ तक पहुंची
उसकी आवाज़ सुनी जैसे ही
खुश्‍बू तैर गई ज़ख्‍मों पर कि...
कोई नहीं समझ पाया है

नापजोख के व्‍यवहारों में
मित्र कहां मिल पाते ऐसे
नाव तुमने साधी ये कैसे कि....
कोई नहीं समझ पाया है।
- अलकनंदा सिंह







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