Saturday 27 July 2019

शुजा ख़ावर की शायरी में दिखता है उनका सूफियाना मिज़ाज


मिट्टी था, किसने चाक पे रख कर घुमा दिया
वह कौन हाथ था कि जो चाहा बना दिया।
उर्दू शायरी की दुनिया में शुजा ख़ावर अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज करते हैं। उनका सूफियाना मिज़ाज उनकी शायरी में बखूबी दिखता है। 24 दिसंबर 1946 को दिल्ली में पैदा हुए शुजा साहब सूफ़ी मिज़ाज के शायर थे।
ख़्वाबों से भी मिलते नहीं हालात के डर से
माथे से बड़ी हो गईं यारों शिकनें क्या।
उनका असली नाम शुजाउद्दीन साज़िद था। पेशे से वे कुछ समय के लिए अध्यापक थे लेकिन ज्यादा दिन नहीं रह पाए, आई.पी.एस की परीक्षा पास की और पुलिस ऑफिसर बन गए, लेकिन उनके अंदर का शायर हमेशा उस प्रशासक से लड़ता रहता था। क्योंकि उनकी पहचान बतौर शायर ज्यादा थी।
ख़्वाब इतने हैं यही बेचा करें
और क्या इस शहर में धंधा करें
क्या ज़रा सी बात का शिकवा करें
शुक्रिये से उसको शर्मिंदा करें
तू कि हमसे भी न बोले एक लफ़्ज़
और हम सबसे तेरा चर्चा करें
सबके चेहरे एक जैसे हैं तो क्या
आप मेरे ग़म का अंदाज़ा करें
ख़्वाब उधर है और हक़ीक़त है इधर
बीच में हम फँस गये हैं क्या करें
हर कोई बैठा है लफ़्ज़ों पर सवार
हम ही क्यों मफ़हूम का पीछा करें
अपने शायराना मिज़ाज को ज्यादा तवज्जो देते हुए शुजा साहब ने 1994 में रिटायरमेंट से पहले ही अवकाश ले लिया और शायरी की दुनिया में पूरी तरह से सक्रिय हो गए। जीवन की कड़वी सच्चाइयों को अपनी कलमकारी में शामिल करने वाला यह शायर अपने आप में अलहदा है।
आज की नफ़ासत भरी जिंदगी और चकाचौंध से अलग एक कलमकार के स्वाभिमान की बातें वे ऐसे करते हैं-
समझते क्या हैं इन दो चार रंगों को उधर वाले
तरंग आई तो मंज़र ही बदल देंगे नज़र वाले
इसी पर ख़ुश हैं कि इक दूसरे के साथ रहते हैं
अभी तन्हाई का मतलब नहीं समझे हैं घर वाले
सितम के वार हैं तो क्या क़लम के धार भी तो हैं
गुज़ारा ख़ूब कर लेते हैं इज़्ज़त से हुनर वाले
कोई सूरत निकलती ही नहीं है बात होने की
वहाँ ज़ोअम-ए-ख़ुदा-वंदी यहाँ जज़्बे बशर वाले।
कुछ समय के लिए उन्होंने सियासत भी की लेकिन वहां भी उनका जी नहीं लगा। शायरी की दुनिया हमेशा उन्हें अपनी तरफ खींच लाती। ठेठ दिल्ली की खूबसूरत टकसाली जबान के शायर थे। उनकी शायरी में उर्दू अल्फ़ाज़ और मुहाबरों का खूबसूरत प्रयोग देखने को मिलता है।
रुख़ हवा का ये कि जैसे उस को आसानी पड़े
दिल की आग ऐसी कि हम को रोज़ सुलगानी पड़े
नूर हो अंदर तो बाहर मात क्यूँ खानी पड़े
वो तजल्ली क्या मियाँ जो तूर से लानी पड़े
ज़िंदगी की क़द्र तब तुम पर खुलेगी दोस्तों
उस के कूचे से जब एक इक साँस मंगवानी पड़े
एक तो मुश्किल को झेलूँ और ऊपर से ये है
अपनी मुश्किल रोज़ उस को जा के समझानी पड़े
ख़ुद वो मिलने आए तो हाएल रहे ये बे-ख़ुदी
मैं जो मिलने जाऊँ तो रस्ते में हैरानी पड़े ।
खावर के तहँ जबान और बयान में कोइ फर्क नहीं है, इसीलिए उन्हें आम पाठक भी खूब पसंद करते हैं। शायरी की गंभीर समझ रखने वाले भी उनके कायल हैं।
उस के आने पे भी नहीं आई
दर्द में कुछ कमी नहीं आई
उम्र भर दोस्तों ने मेहनत की
पर हमें दोस्ती नहीं आई
अपने ही घर पे आ निकलते हैं
हम को आवारगी नहीं आई
दोस्तों के किसी लतीफ़े पर
आज हम को हँसी नहीं आई ।
21 जनवरी 2012 को उर्दू शायरी की दुनिया के इस चमकते सितारे ने अंतिम सांस ली। आम तौर पर वे ग़ज़ल कहते थे लेकिन उन्होंने कई जगह शेर भी कहे हैं।
दो चार नहीं सैंकड़ों शेर उस पे कहे हैं
इस पर भी वो समझे न तो क़दमों पे झुकें क्या
जिस्मानी ताल्लुक़ पे ये शर्मिंदगी कैसी
आपस में बदन कुछ भी करें इस से हमें क्या।

Tuesday 23 July 2019

23 जुलाई को पैदा हुआ था प्रेम और बिरह के गीतों का रचयिता ‘बटालवी’

पंजाबी भाषा के एक विख्यात कवि शिव कुमार ‘बटालवी’ का जन्‍म 23 जुलाई 1936 को अविभाजित भारत (अब पाकिस्तान) के पंजाब स्‍थित बड़ापिंड शकरगढ़ में हुआ था।
भारत के विभाजन के बाद उनका परिवार गुरदासपुर जिले के बटाला चला आया, जहां उनके पिता ने पटवारी के रूप में अपना काम जारी रखा और बाल शिव ने प्राथमिक शिक्षा पाई।
7 मई 1973 को मात्र 36 वर्ष की उम्र में शिव कुमार ‘बटालवी’ ने दुनिया छोड़ दी। उनकी मृत्‍यु पठानकोट के कीर मंग्याल में हुई। रोमांटिक कविताओं के लिए सबसे ज्यादा पहजाने जाने वाले ‘बटालवी’ ने भावनाओं का उभार, करुणा, जुदाई और प्रेमी के दर्द का बखूबी चित्रण किया है।
वो 1967 में साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाले सबसे कम उम्र के साहित्यकार बन गये। साहित्य अकादमी (भारत की साहित्य अकादमी) ने यह सम्मान पूरण भगत की प्राचीन कथा पर आधारित उनके महाकाव्य नाटिका लूणा (1965) के लिए दिया, जिसे आधुनिक पंजाबी साहित्य की एक महान कृति माना जाता है और जिसने आधुनिक पंजाबी किस्सागोई की एक नई शैली की स्थापना की। आज उनकी कविता आधुनिक पंजाबी कविता के अमृता प्रीतम और मोहन सिंह जैसे दिग्गजों के बीच बराबरी के स्तर पर खड़ी है, और भारत- पाकिस्तान दोनों जगह लोकप्रिय है।
उन्हें विख्यात पंजाबी लेखक गुरबख्श सिंह प्रीतलड़ी की बेटी से प्यार हो गया, जिन्होंने दोनों के बीच जाति भेद होने के कारण एक ब्रिटिश नागरिक से शादी कर ली। वह प्यार में दुर्भाग्यशाली रहे और प्यार की यह पीड़ा उनकी कविता में तीव्रता से परिलक्षित होती है।
1960 में उनकी कविताओं का पहला संकलन पीड़ां दा परागा (दु:खों का दुपट्टा) प्रकाशित हुआ, जो काफी सफल रहा।
पेश हैं प्रेम और बिरह से सजे उनके कुछ गीत-
इक कुड़ी जिद्हा नां मुहब्बत
गुम है-गुम है-गुम है
साद-मुरादी सोहनी फब्बत
गुम है-गुम है-गुम है
अज्ज दिन चड़्हआ तेरे रंग वरगा
तेरे चुंमन पिछली संग वरगा
मैं सोचदा कि जुलफ़ दा नहीं
ज़ुलम दा नग़मा पड़्हां
लोकीं पूजन रब्ब
मैं तेरा बिरहड़ा
सानूं सौ मक्क्यां दा हज्ज
वे तेरा बिरहड़ा
मैं सारा दिन कीह करदा हां
आपने परछावें फड़दा हां
तूं ख़ुद नूं आकल कहन्दा हैं
मैं ख़ुद नूं आशक दस्सदा हां
अज्ज फेर दिल ग़रीब इक पांदा है वासता
दे जा मेरी कलम नूं इक होर हादसा
हुन तां मेरे दो ही साथी
इक हौका इक हंझू खारा
चन्गा हुन्दा सवाल ना करदा,
मैंनू तेरा जवाब ले बैठा
माए नी माए
मेरे गीतां दे नैणां विच
बिरहों दी रड़क पवे
अद्धी अद्धी रातीं
उट्ठ रोन मोए मित्तरां नूं
माए सानूं नींद ना पवे

Friday 19 July 2019

पिछले वर्ष आज ही के दिन गुजरा था गोपाल दास नीरज का कारवां

4 जनवरी 1925 को जन्‍मे प्रसिद्ध कवि, गीतकार और साहित्‍यकार गोपाल दास नीरज की आज पहली पुण्‍यतिथि है। नीरज का देहांत पिछले साल 19 जुलाई को हुआ था।
पद्म श्री और पद्म भूषण से सम्‍मानित गोपाल दास नीरज को फ़िल्मों में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिये लगातार तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार से भी नावाज गया।
अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक गोपाल दास नीरज वहीं मैरिस रोड स्‍थित जनकपुरी में स्थायी आवास बनाकर रहने लगे थे।
पहली ही फ़िल्म में उनके लिखे कुछ गीत जैसे कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे और देखती ही रहो आज दर्पण न तुम, प्यार का यह मुहूरत निकल जायेगा बेहद लोकप्रिय हुए जिसका परिणाम यह हुआ कि वे बम्बई में रहकर फ़िल्मों के लिये गीत लिखने लगे। फिल्मों में गीत लेखन का सिलसिला मेरा नाम जोकर, शर्मीली और प्रेम पुजारी जैसी अनेक चर्चित फिल्मों में कई वर्षों तक जारी रहा।
किन्तु बम्बई की ज़िन्दगी से भी उनका मन बहुत जल्द उचट गया और वे फिल्म नगरी को अलविदा कहकर फिर अलीगढ़ वापस लौट आये।
अपने बारे में उनका यह शेर आज भी मुशायरों में फरमाइश के साथ सुना जाता है:
इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में, लगेंगी आपको सदियाँ हमें भुलाने में।
न पीने का सलीका न पिलाने का शऊर, ऐसे भी लोग चले आये हैं मयखाने में॥
गोपालदास नीरज साहित्य के आसमान के ऐसे सितारे हैं जिनसे गीतों की रौशनी बहती है। नीरज और उनका काव्य भी उसी अधिकार के साथ साहित्यांबर में यात्रा करते हैं। इसीलिए लोग उन्हें गीत-ऋषि कहते हैं।
यूं तो नीरज को गुजरे एक साल बीत चुका है लेकिन कवि की दैहिक यात्रा ही समाप्त हो सकती है। उनकी कलम से निकले शब्द तो अनंत काल तक लोक में भ्रमण करते हुए लोगों को तृप्त करते हैं। सरल शब्दों में अपनी बात को किसी पानी की धार की तरह छोड़ देना नीरज बखूबी जानते हैं।
आदमी को आदमी बनाने के लिए
ज़िंदगी में प्यार की कहानी चाहिए
और कहने के लिए कहानी प्यार की
स्याही नहीं, आँखों वाला पानी चाहिए
नीरज अपने गीतों और कविताओं में भावनाओं के धरातल से बात करते हैं। कोई भी बात आसमान में दिखाई नहीं देती। चूंकि वह ज़मीन से बात करते हैं इसलिए लोगों को उन्हें पकड़ लेना भी बेहद आसान है। वह अक्सर प्रेम की बात करते हैं। कहते हैं कि
जो पुण्य करता है वह देवता बन जाता है
जो पाप करता है वह पशु बन जाता है
और जो प्रेम करता है वह आदमी बन जाता है
कमाल यह है कि जितना गहरा प्रेम का आकर्षण उन्हें है उतने ही वह आध्यात्मिक भी हैं। वह जीवन के मोह-पाश से मुक्त नज़र आते हैं। मानो किसी सन्यासी की तरह मुक्ति-मार्ग को प्रशस्त कर रहे हैं।
कफ़न बढ़ा तो किस लिए नज़र तू डबडबा गई?
सिंगार क्यों सहम गया बहार क्यों लजा गई?
न जन्म कुछ न मृत्यु कुछ बस इतनी सिर्फ़ बात है-
किसी की आँख खुल गई, किसी को नींद आ गई
इसके साथ ही किसी देवदूत की तरह उन्हें इंसानी कौम की चिंता भी होती है। वह नफ़रतों में उलझी इस सभ्यता को सचेत करना चाहते हैं। तभी वह लिखते हैं कि-
अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए
नीरज के कलाम वह ख़त हैं जो हज़ारों रंग के नज़ारे देता है। उसमें प्रेम, अध्यात्म और सौहार्द तो है ही साथ ही आशा के दीपक भी हैं।
पढ़ें उनकी सबसे मशहूर कविता
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे
स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे
नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई
पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई
चाह तो निकल सकी न पर उमर निकल गई
क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा
क्या जमाल था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ़ जमीन और आसमाँ उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा
एक दिन मगर यहाँ ऐसी कुछ हवा चली
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली
और हम लुटे-लुटे वक्त से पिटे-पिटे
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ
होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ
हो सका न कुछ मगर शाम बन गई सहर
वह उठी लहर कि ढह गये किले बिखर-बिखर
और हम डरे-डरे नीर नैन में भरे
ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
माँग भर चली कि एक जब नई-नई किरन
ढोलकें धुमुक उठीं ठुमक उठे चरन-चरन
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन चली दुल्हन
गाँव सब उमड़ पड़ा बहक उठे नयन-नयन
पर तभी ज़हर भरी गाज़ एक वह गिरी
पुँछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी
और हम अजान से दूर के मकान से
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे

Sunday 14 July 2019

इक्कीस साल बाद आया अरुंधति रॉय का दूसरा उपन्यास

इक्कीस साल बाद अरुंधति रॉय अपना दूसरा उपन्यास ‘द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ लेकर आयी हैं. वर्ष 1997 में अपने पहले ही उपन्यास ‘गॉड ऑफ स्माल थिंग्स’ के लिए उन्हें बुकर पुरस्कार मिला था. उसके बाद उन्होंने अपनी सक्रियता सामाजिक जन आंदोलनों से जूझने में लगा दी. अब इसका हिंदी अनुवाद प्रख्यात कवि मंगलेश डबराल ने ‘अपार खुशी का घराना’ शीर्षक से किया है.


राजकमल प्रकाशन से आये इस उपन्यास को पढ़ने से पहले यह ध्यान रखना जरूरी है कि बीते इक्कीस सालों के दौरान अरुंधति रॉय लगातार राजनीति और पर्यावरण पर लिखती रहीं. नर्मदा बचाओ आंदोलन के पक्ष में खड़ी हुईं, माओवादियों के साथ रहीं और कश्मीर पर अपने विचारों को लेकर आलोचना की शिकार हुईं. इन सब हलचलों का प्रभाव ‘अपार खुशी का घराना’ के पन्नों पर दर्ज भी हुआ है.


यह उपन्यास परिवार, वर्ग और जाति की कहानी तो कहता ही है, साथ ही कश्मीर में आतंकवाद, हिंदू राष्ट्रवाद की बढ़ती सक्रियता का भी जिक्र करता है.


और यह भी कि भारत और उसके जनसंख्या पर अंधाधुंध औद्योगिकीकरण के दुष्प्रभाव एवं एक प्रतिकूल वातावरण में एक हिजड़े के जीवन जीने का क्या अर्थ है?


इसका कथानक बहुत विस्तृत है. इसके दो छोर हैं. एक छोर पर अंजुम हिजड़ा है. जन्म के समय उसका नाम आफताब था, वह अपना जीवन चलाने के लिए दिल्ली में संघर्षरत है. संघर्ष का परिणाम इतना ही आया है कि वह एक कब्रिस्तान के निकट गेस्ट हाउस की मालकिन है, जिसकी पनाहगाह में आसपास के खोये हुए, टूटे हुए और अपने समाज से बहिष्कृत लोगों की बस्ती है, जो निरंतर बड़ी होती जा रही है.


दूसरे छोर पर तिलो है, जो अत्यंत सम्मोहक आर्किटेक्ट है. वह अपने लिए एक्टिविस्ट की भूमिका चुनती है. उसके तीन पुरुष मित्र हैं. तिलो एक बच्ची को गोद ले लेती है. तिलो की सोच का एक अंश- ‘बच्चे का पिता कौन है. उसने सोचा. ऐसे ही चलने दिया जाए. क्यों नहीं? अगर लड़का हुआ तो गुलरेज. अगर लड़की हुई तो जबीन. उसने कभी न मां के रूप में अपनी कल्पना की थी और न दुल्हन के रूप में, हालांकि वह दुल्हन रह चुकी थी, बन चुकी थी और बची हुई रही थी. फिर यह भी क्यों नहीं?’


इस ‘क्यों नहीं?’ के प्रश्नवाचक चिह्न को डीकोड करने के लिए उपन्यास पढ़ा जाना जरूरी है.

Sunday 7 July 2019

नये दिन के साथ एक पन्ना खुल गया कोरा हमारे प्यार का!...कवि केदारनाथ सिंह

आज कवि केदारनाथ सिंह का जन्‍म दिन है। केदार नाथ सिंह आज की युवा पीढ़ी पर अपनी गहरी छाप छोड़ते हैं। अपनी पूरी रचनात्मकता के साथ एक गहरा प्रतिरोध का स्वर भी उनकी कविता में किसी न किसी रूप में मौजूद रहता है।
7 जुलाई १९३४ को जन्‍मे थे, केदारनाथ सिंह हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि व साहित्यकार थे। वे अज्ञेय द्वारा सम्पादित तीसरा सप्तक के कवि रहे। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा उन्हें वर्ष २०१३ का 49वां ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया था। वे यह पुरस्कार पाने वाले हिन्दी के 10वें लेखक थे।
उनकी ‘बाघ’ कविता संग्रह पाठकों के बीच बहुत लोकप्रिय रही है। ‘बाघ’ कविता के हर टुकड़े में बाघ चाहे एक अलग इकाई के रूप में दिखाई पड़ता हो, पर आख़िरकार सारे चित्र एक दीर्घ सामूहिक ध्वनि-रूपक में समाहित हो जाते हैं। कविता इतने बड़े फलक पर आकार लेती है कि उसमें जीवन की चुप्पियाँ और आवाजें साफ-साफ़ सुनाई देंगी।
‘बाघ’ कविता संग्रह के विषय में वे लिखते हैं, ”आज का मनुष्य बाघ की प्रत्यक्ष वास्तविकता से इतनी दूर आ गया है कि जाने-अनजाने बाघ उसके लिए एक मिथकीय सत्ता में बदल गया है। पर इस मिथकीय सत्ता के बाहर बाघ हमारे लिए आज भी हवा-पानी की तरह प्राकृतिक सत्ता है, जिसके होने के साथ हमारे अपने होने का भविष्य जुड़ा हुआ है। 
 ‘बाघ’ कविता का एक अंश देखिए---
समय चाहे जितना कम हो स्थान चाहे उससे भी कम चाहे शहर में बची हो बस उतनी-सी हवा जितनी एक साइकिल में होती है पर जीना होगा जीना होगा और यहीं यहीं इसी शहर में जीना होगा इंच-इंच जीना होगा चप्पा-चप्पा जीना होगा और जैसे भी हो यहाँ से वहाँ तक समूचा जीना होगा
इस प्राकृतिक ‘बाघ’ के साथ उसकी सारी दुर्लबता के बावजूद-मनुष्य का एक ज़्यादा गहरा रिश्ता है, जो अपने भौतिक रूप में जितना पुराना है, मिथकीय रूप में उतना ही समकालीन।” उनकी कविताओं में ‘बाघ’ कई रूपों में पाठकों के सामने आता है।

कवि केदारनाथ सिंह ने अपने कविता संग्रह ”आंसू का वज़न” में लिखा है –
नये दिन के साथ
एक पन्ना खुल गया कोरा
हमारे प्यार का!
सुबह,
इस पर कहीं अपना नाम तो लिख दो।
बहुत से मनहूस पन्नों में
इसे भी कहीं रख दूँगा।
और जब-जब
हवा आकर
उड़ा जायेगी अचानक बन्द पन्नों को;
कहीं भीतर
मोरपंखी की तरह रखे हुए उस नाम को
हर बार पढ़ लूँगा।
समकालीन हिंदी कविता के क्षेत्र में केदारनाथ सिंह उन गिने-चुने कवियों में से हैं जिनमें ‘नयी कविता’ उत्कर्ष पर पहुँचती है। गाँव और शहर, लोक और आधुनिकता, चुप्पी और भाषा एवं प्रकृति और स्कृति सभी पर संवाद चलता रहता है।
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