Thursday, 5 September 2013

अक्‍स दर अक्‍स

एक हथेली भर ज़िंदगी
एक मुट्ठीभर अहसास
नापने बैठी जब भी सुख
तिर गये वे सारे दुख
हर पल देता गया मुझे
तेरे होने का अहसास

तू है, तो फिर मुझे दिखना चाहिए
नहीं है, तो गायब होता क्‍यों नहीं
मेरी बेटी की हंसी और
मां की दुआ में मुझे
तू ही तू, अक्‍स दर अक्‍स
दिखता क्‍यूं है मेरे बरक्‍स



 - अलकनंदा सिंह

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