Sunday 18 August 2024

अटल बिहारी वाजपेयी और मनोहरश्याम जोशी जी के बीच एक खतो- क‍िताबत देख‍िए और आनंद लीज‍िए

 विदेश मंत्री के अपने कार्यकाल में अटल बिहारी वाजपेयी और साप्ताह‍िक ह‍िन्दुस्तान अख़बार के सम्पादक श्री मनोहरश्याम जोशी जी के बीच एक खतो- क‍िताबत देख‍िए और आनंद लीज‍िए इस अनूठे पत्र व्यवहार का .. ..

Monday 5 August 2024

मनोहर श्याम जोशी.. नाम लेते ही याद आता है बुन‍ियाद, कक्का जी कह‍िन या और भी बहुत कुछ


 मनोहर श्याम जोशी का नाम लेते ही याद आता है एक साहित्‍यकार व्यंग्यकार, पत्रकार, संपादक, स्तंभ लेखक दूरदर्शन धारावाहिक लेखक, विचारक, फिल्म पटकथा लेखक, डबिंग आर्टिस्‍ट…. 

उनका नाम लेते ही ‘कुरु-कुरु स्वाहा’, ‘कसप’, ‘हमज़ाद’, ‘क्‍याप’ जैसे उपन्‍यास याद आते हैं. उनका नाम सुनते ही दूरदर्शन के पहले प्रसिद्ध और लोकप्रिय धारावाहिक ‘बुनियाद’, ‘हमलोग’, ‘कक्‍काजी कहिन’, ‘मुंगेरी लाल के हसीन सपने’ के किरदार स्‍मृति में तैर जाते हैं. दूरदर्शन का विस्‍तार उनके बिना पूर्ण नहीं होता. ‘दिनमान’ और ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के संपादक रहते हुए की गई पत्रकारिता याद आती है. विज्ञान से लेकर राजनीति तक लिखे गए स्‍तंभों का स्‍मरण हो जाता है. हिंदी में विज्ञान लेखन को प्रोत्‍साहित और पुष्पित करने वाला दूरदृष्‍टा संपादक के रूप में उनका उल्‍लेख होता है.

9 अगस्त 1933 को राजस्थान के अजमेर में जन्‍मे मनोहर श्‍याम जोशी की जड़ें कुमाऊं उत्‍तराखंड से जुड़ी थी और उनका उपन्‍यास ‘कसप’ कुमाऊं आंचलिकता के कारण ही श्रेष्‍ठ प्रेम उपन्‍यासों में शुमार किया जाता है. लखनऊ विश्वविद्यालय से विज्ञान में ग्रेजुएशन करने वाले मनोहर श्याम जोशी अपने साक्षात्‍कारों में खुद बताते हैं कि हमारे घर में बड़ा साहित्यिक माहौल था खुद मुझे साहित्य में कोई रूचि नहीं थी. मैं ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकें ज्यादा पढ़ा करता था. बीएससी के पहले साल में शिक्षामंत्री सम्पूर्नांद ने मेरे निबंध ‘रोमांस ऑफ इलेक्ट्रांस’ पर ‘कल के वैज्ञानिक पुरस्कार’ दिया था. आने वाले कल में वैज्ञानिक तो नहीं बने लेकिन पत्रकारिता और साहित्‍य के बड़े नाम जरूर बने. वैसे अपने इस पुरस्‍कार तथा मसिजीवी बने जाने पर उन्‍होंने खुद कहा है कि यह तो निबंध के शीर्षक से ही जाहिर हो जाना चाहिए था कि यह लड़का साहित्यिकार हो जाए तो हो जाए वैज्ञानिक नहीं हो सकता.

वर‍िष्ठ पत्रकार पंकज शुक्ला ल‍िखते हैं क‍ि वे लेखक बने लेकिन विज्ञान छूटा नहीं. अपने प्रिय विषय विज्ञान का ज्ञान हिंदी के पाठकों तक पहुंचाने में उन्होंने अपने संपादकीय अधिकार का भरपूर प्रयोग किया. ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान ‘ में ‘विज्ञान कथा’ विशेषांक प्रकाशित होना इस दिशा में बड़ा कदम माना जाता है. अंग्रेज़ी साप्ताहिक ‘वीकेंड रिव्यू’ का संपादन करते वक्त हिंदी पत्रकारिता में भी अंग्रेज़ी जैसी विविधता और ‘बोल्डनेस’ लाने का प्रयत्‍न किया. भारतीय पत्रकारिता में ‘क्रिकेट-विशेषांक’ सबसे पहले ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में निकाला गया. इसी तरह मनोवैज्ञानिक समस्याओं पर स्तंभ शुरू किया गया. महिलाओं, युवाओं, बच्चों, बूढ़ों आदि के बारे में सर्वेक्षण आधारित कई आलेख प्रस्तुत किए गए, जिसका अनुसरण आज का मीडिया कर रहा है.

फिर टेलीविजन धारावाहिक ‘हम लोग’ लिखने के लिए सन् 1984 में संपादक की कुर्सी छोड़ दी और तब से आजीवन स्वतंत्र लेखन किया. उन्होंने ‘हे राम’, ‘पापा कहते हैं’, ‘भ्रष्टाचार’ आदि अनेक फिल्मों की भी पटकथाएं लिखीं. दक्षिण की फिल्‍मों की हिंदी डबिंग करवाने में उनका सानी कोई नहीं था. इसके लिए भाषा का व्‍यापक ज्ञान होना आवश्‍यक है क्‍योंकि संवाद बोल रहे किरदार के लिपसिंक हों ऐसे तमिल के पर्याय हिंदी शब्‍दों का उपयोग कर डायलॉग लिखना आसान नहीं होता.

जाने कितना है जो उनके बिना अधूरा ही रहता फिर भी जीवन के अंतिम दिनों में वे ‘अधूरेपन’ से परेशान थे. ‘पालतू बोहेमियन मनोहर श्‍याम जोशी एक याद’ संस्‍मरण में प्रभात रंजन लिखते हैं कि जीवन के अंतिम समय में उनकी निराशा बढ़ती जा रही थी. एक तरह की जल्दबाजी लगती थी. वे अपने सभी अधूरे उपन्यासों को पूरा कर लेने की लगातार कोशिश कर रहे थे. इसीलिए कभी एक को लिखने लगते, कभी दूसरे को. ऐसा लग रहा था, जैसे वे कोई काम अधूरा छोड़कर नहीं जाना चाहते थे, उनकी कई कहानियां जो 1950 के दशक में प्रकाशित हुई थीं और जिनकी प्रति उनके पास नहीं थी, उन पत्रिकाओं के अंकों की तलाश के लिए वे अपने सभी मिलने-जुलने वालों से कह रहे थे. पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित स्तंभों की फाइलें सहेज रहे थे. यहां तक कि प्रभात रंजन को बुला कर उन्‍होंने अपने अधूरे उपन्‍यासों की सूची बनवाई थी.

लेखन का यह अधूरापन

खूब मेहनत और शोध के बाद मारवाड़ी जीवन पर ‘शुभ लाभ’ की पटकथा लिखी जानी थी लेकिन इसे अधूरा छोड़ दिया गया. इसका कारण था कि वे ‘शुभ लाभ’ लिख पाते इसके पहले अलका सरवगी का ‘कलि कथा वाया बाईपास’ आ गया था. उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उन्‍होंने कहा था कि अब मारवाड़ी समुदाय पर दोबारा इतना अच्छा कथात्मक साहित्य नहीं लिखा जा सकता है. ‘जीवन में संयोग भी होते हैं’, कहते हुए वे दूसरे कमरे में चले गए.

ऐसे कई संयोग हुए और इसे दुर्योग ही कहिए कि पूरी मेहनत के बाद भी संयोग से उसी विषय पर कोई ओर कृति पहले आने के कारण वह रचना अधूरी ही रह गई. और ऐसे एक नहींं कई काम इसलिए अधूरे रह गए कि उनके पूर्ण होने के ठीक पहले कोई और  कृति आ गई. सबकुछ होने के बाद भी इस तरह  अधूरे छूट जाने की भी खास किस्‍म की कसक होती है.

कृतित्‍व में अधूरेपन का होना शायद जीवन में अधूरेपन के दंश का ही प्रभाव रहा. इसे स्‍वीकार करते हुए अपने एक साक्षात्‍कार में उन्‍होंने कहा था कि मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि मुझे बुनियादी साहित्य-संस्कार और तेवर मां से विरासत में मिला है. मां का व्यक्तित्व विचित्र प्रकार का था. एक तरफ वह बहुत धर्मपरायण और धर्मभीरु महिला थीं. निहायत दबी-ढकी, नपी-तुली जिंदगी जीने वाली. हमें धर्मभीरुता का संस्कार भी उसी से मिला. उसी के चलते अपने तमाम तथाकथित विद्रोह के बावजूद, जनेऊ को कील पर टांग देने और मुसलमानों के घड़े से पानी पी लेने के बावजूद कर्मकांड को कभी पूरी तरह से अस्वीकार नहीं कर पाया हूं. और इस मामले में मेरी माननेवालों और न माननेवालों के बीच की स्थिति बन गई.

7-8 वर्ष की उम्र में पिता को खो देने वाले जोशी जी बताते हैं कि पिता की अनुपस्थिति  के कारण मेरे जीवन में ही नहीं साहित्य में भी जबर्दस्त अनाथ काम्पलेक्स ढूंढा और दिखाया जा सकता है. मुझे खुद ही कभी-कभी आश्चर्य होता है मेरे लिए कोई व्यक्ति पिता प्रतीक बन जाता है और मुझे अपने बारे में उसकी राय अच्छी बनाने की, अपने किए पर उसकी दाद पाने की जरूरत महसूस होती है. कभी-कभी अपनी इस कमजोरी पर मैं इतना झुंझलाता हूं कि उसके द्वारा उपेक्षित किए जाने पर अपना आपा खो बैठते हुए उल्टा-सीधा कहने लगता हूं. मृत्युभय और असुरक्षा की सतत भावना भी मेरे अनाथ काम्पलेक्स के हिस्से हैं.

वे बताते हैं कि कुछ पैदाइशी डर था और कुछ परिस्थितियों ने बना दिया. कोई विद्रोह करते हुए या बड़ा खतरा मोल लेते हुए मुझे यह डर सताता रहा. इसी के चलते विशेष महत्वाकांक्षी न होते हुए भी मैंने महत्वपूर्ण गोया लायक बनने कर कोशिश की और अपने को बराबर नालायक ही पाता रहा. इसी के चलते मैं न तो कलाकारों वाले सांचे में फिट हो सका और न घरेलू सांचे में. जैसा कि मैंने बहुत पहले अपने बारे में कहा था मैं एक पालतू बोहेमियन होकर रह गया. लेखक जोशीजी घर-परिवार में थोड़े बोहेमियन होने के नाते विचित्र समझे गए और बोहेमियन बिरादरी को उनका घरेलूपन अजीब नज़र आया. यह उनके पालतू बोहेमियन, अधूरे विद्रोही होने का ही प्रमाण है कि शराब पीते हुए भी उनका सारा ध्यान इस ओर रहा कि कहीं होश न खो बैठूं. इसी के चलते उन्हें हर सुरा-संध्या के अंत में किसी लड़खड़ाते मित्र को उनके घर पहुंचाने का और उनके स्वजनों की फटकार सुनने का सौभाग्य प्राप्त होता रहा.

एक रचनाकार अपने गढ़े पात्रों के जरिए खुद भी यात्रा करता है. यह यात्रा एक रचना से दूसरी और एक विधा से दूसरी विधा तक जारी रहती है. फिर भी जो संपूर्ण दिखता है, वह भीतर कहीं अधूरा भी रहता है. विशिष्‍टता इसमें हैं कि उस अधूरेपन को महसूस, स्‍वीकार कर पूर्ण करने के जतन होते रहें. इस‍ लिहाज से मनोहर श्‍याम जोशी के साहित्‍य से अलग उनकी जीवन यात्रा भी एक सबक है, पूर्णता पाने के जतन का सबक. अपना काम ईमानदारी से करते जाने का सबक.

प्रस्तुत‍ि : अलकनंदा स‍िंंह 

Sunday 30 June 2024

मथुरा के चतुर्वेद समाज का अखाड़ा संगीत: अपनी ख़ुशी को सार्वजानिक बनाने का एक विलक्षण संगीत समारोह


 मथुरा जनपद की जनसंख्या में चतुर्वेदी समाज की उपस्थिति कम भले ही हो लेकिन ब्रज की सभ्यता, संस्कृति, इतिहास, संगीत, साहित्य में इस समाज के योगदान और इनकी विलक्षण जीवन शैली देश-दुनिया के समाज वैज्ञानिकों का ध्यान अपनी ओर खींचती रही है।  


चार दशक पूर्व अमेरिका के एक विश्व विद्यालय से प्रो ० लिंच मथुरा के चतुर्वेदी समाज का अध्ययन करने मथुरा आये थे, ढाई वर्ष चौब‍िया पाड़े में रहे और फिर एक पुस्तक लिखी थी। 


मुझे यहां ब्याहे हुए 33 साल हो चुके हैं, मथुरा के चतुर्वेदी विद्वानों की शागिर्दी और इनके जीवन जीने के अंदाज़ आमजन से बहुत हटकर है, ज‍ितना भी जानो तब भी इस समाज का कोई न कोई रीति रिवाज अपने नए रूप में हमारे सामने आ जाता है।  


पिछले दिनों डॉ. हरिवंश चतुर्वेदी ने अपने नाती के मुंडन के शुभ अवसर पर आयोजित एक संगीत कार्यक्रम में काफी चर्चा में रहा।  


बेहद निजी -पारिवारिक कार्यक्रम में एक दर्जन संगीतकार तीन चार वाद्य  यंत्रों की संगत पर  मुक्तकण्ठ से गा रहे थे और बीच- बीच में ठुमके भी लगा रहे थे। परिवार की महिलायें, पुरुष, बच्चे सभी गले की पूरी वर्जिश के साथ निकले स्वरों पर झूम झूम रहे थे। इस संगीत टोली का नेतृत्व  प्रसिद्ध संगीतकार लव, कुश चतुर्वेदी कर रहे थे। सभी जानते हैं जुड़वां भाई लव, कुश शस्त्रीय संगीत में बड़े हस्ताक्षर हैं। 


एक परिवार में जन्में शिशु के आगमन पर फ़िल्मी नहीं बल्कि शास्त्रीय संगीत की धूम देख विस्मित करता हुआ यह संगीत समारोह चतुर्वेदी समाज में करीब दो सौ साल से बच्चे के जन्म पर खुशियां मनाने का एक रिवाज है।    


इस संस्कृति का सबसे शानदार पहलू है होली के बाद एक सप्ताह तक चलने वाला अखाड़ा संगीत। अखाड़ा संगीत को ‘चौपाई’कहते हैं। मथुरा में जैसे पहलवानों के अखाड़े होते थे उसी प्रकार संगीत के अनेक अखाड़े थे, अब सिर्फ गोविंद गढ़ अखड़ा और उसकी  गायकों की टीम ही शेष है।   


चौबिया पाड़े में एक बालक के जन्म की ख़ुशी में जो भी परिवार इस टोली को आमंत्रित करता है, गोविंद गढ़ अखाड़ा के संगीतकारों की यह मदमस्त टोली  उसके दरवाज़े पर जाकर एक स्थान पर खड़े होकर गाते, बजाते हैं। संकरी गलियों में बसे चौबिया पाड़े में एक दर्जन कंठों ने निकले मधुर स्वर जब आसपास के दर्जनों मकानों से टकराते हैं तो  महिला-पुरुष अपने घर -गृहस्थी की काम काज छोड़कर मकानों की खिड़ियों से झांककर इस 'स्ट्रीट संगीत ' का भरपूर आनंद लेते हैं।  


इस संगीत में कोई स्टेज नहीं बनती। गीत की एक बानगी देखिये ----


वदरा मतवारे ,

मत जा रूक जा सुन जा घन कारे ,

नैना बरसे त्यौं वरसियो 

ब्रज वासिन की गरज अरज कहियौ 

https://www.facebook.com/Abhinewsindia/videos/971764077817090

https://www.facebook.com/watch/?v=291824372462366


छोटे छोटे स्वरचित गीतों का यह आयोजन एक घंटा चलता है। गली में जाने वाले राहगीर के कदम ठहर जाते हैं। साहित्यकार डॉ. राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी ने बताया " यह तान साहित्य है, इसे सुनने के लिए भारतेंदु हरिश्चंद्र जी आए थे। उन्होंने उस समय बुदौआ अखाड़े को सुना था। फिर भारतेंदु जी ने स्वयं भी कुछ तान बनाई थी।"


इस टीम का सबसे शानदार पक्ष है ब्रजभाषा और ब्रज के गीत का शास्त्रीय और अर्द्ध-शास्त्रीय रुप। नगाड़ा, ढोलक और मंजीरा इन तीन वाद्य यंत्रों का कलात्मक-प्रयोग देख मुझ जैसा अज्ञानी दर्शक भी हैरत में पड़ जाता है।  


डॉ. जगदीश्वर चतुर्वेदी का कहना है-''अखाड़ा संगीत की गायन मंडली पैसे के लिए दूसरों की ख़ुशी में शामिल नहीं होती,बल्कि इसकी रुचि है ब्रज संगीत-गीत की मौलिक सृजन परंपरा को बनाए और बचाए रखने की। यह काम ये लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी करते आ रहे हैं जिसके दरवाज़े पर जाकर संगीत संध्या पेश करते हैं वह अपनी ख़ुशी से जो भी राशि भेंट कर देता है ले लेते हैं । यह राशि अखाड़े की व्यवस्था में खर्च की जाती है न कि संगीतकारों को पारिश्रमिक बतौर दी जाती है। ''


मेरे लिए अखाड़ा संगीत पुराने ज़माने का ‘स्ट्रीट म्यूज़िक’है। इसके कलाकारों को आमतौर पर मीडिया में कोई ख़ास कवरेज नहीं मिलता।    चौपाई परंपरा अपनी अंतिम साँसें ले रही है।अधिकतर अखाड़े ख़त्म हो गए हैं।  मेरे मन में एक सवाल गूँज रहा है-'क्या चतुर्वेदी समाज का अखाड़ा संगीत ब्रज संस्कृति का हिस्सा नहीं माना जाना चाहिए, क्या इस छोटी सी कौम की प्यारी ,मनमोहक संस्कृति की विरासत की हिफाजद नहीं किया जाना जरूरी है ?' 


प्रदेश सरकार ने 'उत्तर प्रदेश ब्रज तीर्थ विकास परिषद् ' का गठन किया है।  परिषद् को चाहिए कि चतुर्वेदी समाज के इस अखाड़ा संगीत (‘स्ट्रीट म्यूज़िक’)को व्यापक अर्थों में पारिभाषित कर संरक्षित करे। बचे खुचे एक अखाड़े को आर्थिक मदद देकर प्राचीन संगीत परम्परा को समृध्द करे।  

 संगीत का यह आयोजन हमारा मनोरंजन ही नहीं करता बल्कि एक निजी ख़ुशी को सार्वजनिक ख़ुशी में तब्दील करने का इससे बड़ा उदात्त उदाहरण और क्या हो सकता है ?     


Wednesday 5 June 2024

एक कहानी- फेसबुक वॉल से... जो बदल देगी आपका नज़र‍िया

 


जैसे ही खबर मिली कि रामाधीर चल बसा, मैं भागता हुआ उसके घर की ओर निकल पड़ा।

मुझे उस पर विश्वास ही नहीं करना चाहिए था। पैसे से तो गरीब ही था पर गांव में उसकी बहुत इज्जत थी। कुछ महीने पहले ही तो आया था वो

"विक्रम बाबू! पचास हजार रुपये चाहिए, वही दो प्रतिशत ब्याज पर, अगले साल फरवरी में दे दूंगा"

इससे पहले भी उसने मुझसे दो चार बार पैसे उधार लिए थे। और तय वक़्त पर सूद समेत लौटा भी दिए थे। 

किसान आदमी था..मेहनती भी था। उसकी ईमानदारी पर शक नहीं था। पर चिंता की बात ये है कि इस लेन देन का कोई हिसाब है नहीं मेरे पास। बेटे के एडमिशन में लाखों का खर्चा भी है, और फिर आज ये खबर मिली

मैं उसके घर पहुंचा तो गांव के कुछ लोग भी थे। 

रामाधीर अब रहा नहीं, मैं कहूँ भी तो कहूँ किससे। मुझे देख उसका बेटा, जो लगभग अठारह वर्ष का होगा, वो आया

"बैठिए..चाचा"

"हां.. कैसे..अचानक.."

"सीने में दर्द उठा..कल रात में.. हॉस्पिटल ले जाते वक़्त ..रास्ते में ही..."

"ओह"

इसके अलावा मेरे मुंह से उसे देख कुछ निकला ही नहीं। और उनकी गरीबी, और लाचारी देख शायद..कुछ महीने निकलेगा भी नहीं। कुछ देर बैठ..मैं निकलने ही वाला था कि एक वृद्ध व्यक्ति बगल के ही गांव से आया और आते ही, अपने गमछे से अपने आंसू पोंछता, मेरी तरफ इशारा करते हुए कहा

"ये पचास हजार रुपये.. तुम्हारे बापू ने.. इसी विक्रम बाबू से लिये थे"

मैं आश्चर्य से उन्हें देखने लग गया

"बिटिया की शादी और घर मरम्मत के लिए जरूरत थी, हम गरीब को कौन इतनी बड़ी रकम देता..तो रामाधीर ने बड़ी मदद की थी उस समय" उसने लगभग रोते हुए वो पैसे उसके बेटे को दे दिए

उस वृद्ध व्यक्ति की आँखों में रामाधीर के लिए श्रद्धा भाव देख, मन मेरा भी भर आया और मैं सोचने लगा कि, हमसे सूद पर पैसे लेकर, उस महान व्यक्ति ने किसी गरीब की समय पर मदद की और उससे सूद भी नहीं लिया..

और..मैं..! मेरा मन मुझे धिक्कारने लग गया। 

तभी उसका बेटा मेरे करीब आया

"चाचा ये आपके पैसे" वो पैसे पकड़ा..अपने पिता के अंतिम संस्कार की तैयारी के लिए बढ़ा ही था

"सुनो बेटे..रामाधीर ने मुझसे चालीस ही लिए थे..ये दस उसी के थे"

मैं जानता हूँ, मैंने झूठ कहा था..पर ये मेरी ओर से उस गुरु को गुरुदक्षिणा थी..जो जाते जाते मुझे..मानवता का पाठ पढ़ा गया..!......आंख भिगो दी रामाधीर तुमने तो |


साभार- Pravin Agrawal  #कहानीवाला 

Thursday 21 March 2024

मृगनयनी को यार नवल रसिया (हवेली संगीत-रसिया)....ब्रज की होली.. हो...ली

आज ब‍िरज में होरी रे रस‍िया..... 


 बनारस एवं ब्रज, मथुरा और वृंदावन क्षेत्र में अधिक लोकप्रिय है। रसिया ‘रस की खान’ कहे जाते हैं। इसमें लोकमानस अपने जीवन के सुख-दुख, हर्ष-विषाद, उमंग और उल्लास की कथा का वर्णन अधिकतर रसिया शैली में ही व्यक्त किया जाता है। यह शैली लोकशैली के अंतर्गत मानी जाती है। रसिया शैली को होली के समय गाया जाता है। एक प्रचलित लोकगीत रसिया शैली में इस प्रकार से है:


“आज बिरज में होली रे रसिया।

होली रे रिसिया बरजोरी रे लिया।”


एक अन्य गीत में लोकमानस के भावों की अभिव्यक्ति हुई है जिसमें नायिका की सुंदर आँखों का बहुत ही सुंदर ढंग से रसिया लोकगीत शैली में प्रस्तुत किया है:


निराली कार्तिक, अंकिता जोशी की आवाज़ में सुन‍िए ये होली 

https://youtu.be/Z_dJOT9JbUA

मृगनयनी को यार नवल रसिया, 

मृगनयनी को।।       


बड़ी-बड़ी अँखिया नैंनन में सुरमा, 

तेरी टेढ़ी चितवन मेरे मन बसिया ||1||


अतलस को याको लेंहगा सोहे,

झूमक सारी मेरो मन बसिया ||2||


छोटी अंगूरिन मुंदरी सोहे,

याके बीच आरसी मन बसिया. ||3||


याके बांह बड़ाे बाजूबन्द सोहे,

याके हियरे हार दिपत छतिया ||4||


रंगमहल में सेज बिछाई,

याके लाल पलंग पचरंग तकिया ||5||


पुरुषोत्तम प्रभु देख विवश भये,

सबे छोड़ ब्रज में बसिया.. ||6||


एक और #होली भजन...!! ज‍िसे सुनकर आनंद‍ित हुए ब‍िना नहीं रह सकेंगे आप। 

https://www.youtube.com/watch?v=bIytLwl4HIk

होली खेलन आयो श्याम

आज याहे रंग में घोलो री

रंग में घोलो री

आज याहे रंग में घोलो री

होली खेलन आयो श्याम

आज याहे रंग में घोलो री ….2

कोरे कोरे कलश मंगाओ री

रंग केसर का घोलो री

मुख पे केसर मालो करो

कालो से गोरो री

होली खेलन आयो श्याम

आज याहे रंग में घोलो री ….2

पड़ोसन पास बुलाये लायो जी

आँगन में थको घेरो री

पीताम्बर लियो चीयर याहे

पहनाये देव लहंगों री ….2

होली खेलन आयो श्याम

आज याहे रंग में घोलो री ….2

याकि बांस की बसुरिया

जाहे तुम तोड़ मरोड़ो री

ताली दे दे यह नचाओ

अपनी आओरो री ….2

होली खेलन आयो श्याम

आज याहे रंग में घोलो री ….2

चाँद सखी की यही विनती

करे तोसे मैं हारी री

आअहा हाय पड़े जब पाया

तब ही छोड़े री ….2

होली खेलन आयो श्याम

आज याहे रंग में घोलो री ….2

रंग में घोलो री

आज याहे रंग में घोलो री

होली है ………….

होली खेलन आयो श्याम

आज याहे रंग में घोलो री ….4

होली है …...


पुष्ट‍िमार्ग के समाज संगीत में होली गायन सुन‍िए -  


होली खेलन आयो श्याम 

सोंवरो होरी खेलन आयो,

मैं दधि बेचन गयी री वृंदावन,

मारग आडो आयो.।।

महीं माट मेरो सघरो ढुलायो,

माखन लूंटी लूंटी खायो.

ऐ जशोदाजी को जायो सोंवरो।।१।।

वृंदावनकी कुंज गली में,

खेल भारी मचायो,

लाल गुलाल अबीर उडायो,

मुठी भरी भरी धायो

सावरे बादल छायो ।।२।।

सब सखीयन मिलि मोहन घेर्यो,

रंग दयी करने रिझायो।।

"सूरश्याम " प्रभु तिहारे मिलन कुं,

चरण कमल चित्त लायो,

सखी मैने महासुख पायो सावरो।।३।।


https://www.youtube.com/watch?v=bIytLwl4HIk


खेलन लागे होरी रसिक दोउ (बसंत होली धमार कीर्तन) पुष्टिमार्ग हवेली संगीत


https://youtu.be/xD-YuU5r680

- अलकनंदा स‍िंंह 

Saturday 13 January 2024

आज के ही दिन हुआ था ''बर्बाद गुलिस्तां... लिखने वाले शायर का इंतकाल


 ‘बर्बाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफ़ी है, हर शाख पे उल्लू बैठे हैं अंजाम ऐ गुलिस्तां क्या होगा।’ जैसा शेर लिखने वाले शौक़ बहराइची का इंतकाल आज के ही दिन यानी 13 जनवरी 1964 को हुआ था। उनका जन्‍म भगवान श्रीराम की नगरी अयोध्‍या के सैयदवाड़ा मौहल्‍ले में 6 जून 1884 हुआ। शौक़ बहराइची का वास्तविक नाम 'रियासत हुसैन रिज़वी' था। ये बहुत प्रसिद्ध शायर थे। नेताओं व ग़लत कार्यों में लिप्त व्यक्तियों पर कटाक्ष करने के लिए इस्‍तेमाल किया जाने वाला बहुचर्चित शेर ''बर्बाद गुलिस्तां करने को... इन्‍हीं के द्वारा लिखा गया था किंतु बहुत कम लोग हैं, जिन्हें यह पता होगा कि इस शेर को लिखने वाले शायर का नाम 'शौक़ बहराइची' है। 

जीवन परिचय
एक साधारण शिया मुस्लिम परिवार में पैदा हुए शौक़ बहराइची, बहराइच में जा बसने के कारण 'बहराइची' कहलाने लगे। यहीं पर उन्होंने ग़रीबी में भी शायरी से नाता जमाए रखा। रियासत हुसैन रिज़वी उर्फ ‘शौक़ बहराइची’ के नाम से शायरी के नए आयाम गढ़ने लगे। उनके बारे में जो भी जानकारी प्रामाणिक रूप से मिली, वह उनकी मौत के तकरीबन 50 साल बाद बहराइच निवासी व लोक निर्माण विभाग के रिटायर्ड इंजीनियर ताहिर हुसैन नक़वी के नौ वर्षों की मेहनत का नतीजा है। उन्होंने उनके शेरों को संकलित कर ‘तूफ़ान’ किताब की शक्ल दी गयी है। 
ग़रीबी में बीता जीवन
ताहिर हुसैन नक़वी बताते हैं “जितने मशहूर अन्तर्राष्ट्रीय शायर शौक़ साहब हुआ करते थे उतनी ही मुश्किलें उनके शेरों को ढूँढने में सामने आईं। निहायत ग़रीबी में जीने वाले शौक़ की मौत के बाद उनकी पीढ़ियों ने उनके कलाम या शेरों को सहेजा नहीं। अपनी खोज के दौरान तमाम कबाड़ी की दुकानों से खुशामत करके और ढूंढ ढूंढकर उनके लिखे हुए शेरों को खोजना पड़ा”। शौक़ बहराइची की एक मात्र आयल पेंटिग वाली फोटो के बारे में ताहिर नक़वी बताते हैं “यह फोटो भी हमें अचानक एक कबाड़ी की ही दुकान पर मिल गई अन्यथा इनकी कोई फोटो भी मौजूद नहीं थी।” 
व्यंग्य जिसे उर्दू में तंज ओ मजाहिया कहा जाता है, इसी विधा के शायर शौक़ ने अपना वह मशहूर शेर बहराइच की कैसरगंज विधानसभा से विधायक और 1957 के प्रदेश मंत्री मंडल में कैबिनेट स्वास्थ मंत्री रहे हुकुम सिंह की एक स्वागत सभा में पढ़ा था जहाँ से यह मशहूर होता ही चला गया। ताहिर नक़वी बताते हैं कि यह शेर जो प्रचलित है उसमें और उनके लिखे में थोड़ा सा अंतर कहीं कहीं होता रहता है। 
वह बताते हैं कि सही शेर यह है
 “बर्बाद ऐ गुलशन की खातिर बस एक ही उल्लू काफ़ी था, 
हर शाख पर उल्लू बैठा है अंजाम ऐ गुलशन क्या होगा।”

गुमनाम शायर
शौक़ बहराइची की मौत के 50 वर्ष बीत जाने के बाद भी उनके बारे में कहीं कोई सुध ना लेना, एक मशहूर शायर को गुमनाम मौत देने के लिए साहित्य की दुनिया को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। शौक़ की इस गुमनामियत पर उनका ही एक और मशहूर शेर सही बैठता है।
“अल्लाहो गनी इस दुनिया में सरमाया परस्ती का आलम, 
बेज़र का कोई बहनोई नहीं ज़रदार के लाखों साले हैं”
शौक़ बहराइची के  दिन बहराइच में काफ़ी ग़रीबी में बीते। यहाँ तक कि उन्हें कोई मदद भी नहीं मिली। आज़ादी के बाद सरकार की ओर से कुछ पेंशन बाँध देने के बाद भी जब पेंशन की रकम उन तक नहीं पहुंची तो बहुत बीमार चल रहे शायर शौक़ के मन ने उस पर भी तंज कर ही दिया।
“सांस फूलेगी खांसी सिवा आएगी लब पे जान हजी बराह आएगी, 
दादे फ़ानी से जब शौक़ उठ जाएगा तब मसीहा के घर से दवा आएगी”

पढ़‍िए उनकी कुछ और गज़लें - 

1.

ईमान की लग़्ज़िश का इम्कान अरे तौबा

ईमान की लग़्ज़िश का इम्कान अरे तौबा 
बद-चलनी में ज़ाहिद का चालान अरे तौबा 

उठ कर तिरी चौखट से हम और चले जाएँ 
इंग्लैण्ड अरे तौबा जापान अरे तौबा 

है गोद के पालों से अब ख़ौफ़-ए-दग़ा-बाज़ी 
ये अपने ही भांजों पर बोहतान अरे तौबा 

इंसानों को दिन दिन भर अब खाना नहीं मिलता 
मुद्दत से फ़रोकश हैं रमज़ान अरे तौबा 

लिल्लाह ख़बर लीजे अब क़ल्ब-ए-शिकस्ता की 
गिरता है मोहब्बत का दालान अरे तौबा 

दामान-ए-तक़द्दुस पर दाग़ों की फ़रावानी 
इक मौलवी के घर में शैतान अरे तौबा 

अब ख़ैरियतें सर करी मालूम नहीं होतीं 
गंजों को है नाख़ुन का अरमान अरे तौबा 

मशरिक़ पे भी नज़रें हैं मग़रिब पे भी नज़रें हैं 
ज़ालिम के तख़य्युल की लम्बान अरे तौबा 

ऐ 'शौक़' न कुछ कहिए हालत दिल-ए-मुज़्तर की 
होता है मसीहा को ख़फ़्क़ान अरे तौबा ।

2. 

है शैख़ ओ बरहमन पर ग़ालिब गुमाँ हमारा


है शैख़ ओ बरहमन पर ग़ालिब गुमाँ हमारा 
ये जानवर न चर लें सब गुल्सिताँ हमारा 

थी पहले तो हमारी पहचान सई-ए-पैहम 
अब सर-बरहनगी है क़ौमी निशाँ हमारा 

हर मुल्क इस के आगे झुकता है एहतिरामन 
हर मुल्क का है फ़ादर हिन्दोस्ताँ हमारा 

ज़ाग़ ओ ज़ग़न की सूरत मंडलाया आ के पैहम 
कस्टोडियन ने देखा जब आशियाँ हमारा 

मक्र-ओ-दग़ा है तुम से इज्ज़-ओ-ख़ुलूस हम से 
वो ख़ानदाँ तुम्हारा ये ख़ानदाँ हमारा 

फ़रियाद मय-कशों की सुनता नहीं जो बिल्कुल 
बहरा ज़रूर है कुछ पीर-ए-मुग़ाँ हमारा 

दर पर हमारे गुम हो हर इक हसीं तो कैसे 
हर आस्ताँ से ऊँचा है आस्ताँ हमारा 

हर ताजवर की इस पर ललचा रही हैं नज़रें 
है जैसे हल्वा सोहन हिन्दोस्ताँ हमारा 

हो गर तुम्हारी मर्ज़ी तो बहर-ए-रंज-ओ-ग़म से 
हो जाए पार बेड़ा अल्लाह-मियाँ हमारा 

चाह-ए-ज़क़न से उन के सैराब तो हुए हम 
मीठे कुओं से अच्छा खारा कुआँ हमारा 

हों शैख़ या बरहमन सब जानते हैं मुझ को 
है 'शौक़' नाम-ए-नामी ऐ मेहरबाँ हमारा ।

3.

ज़ाहिरन ये बुत तो हैं नाज़ुक गुल-ए-तर की तरह

ज़ाहिरन ये बुत तो हैं नाज़ुक गुल-ए-तर की तरह 
दिल मगर होता है कम-बख़्तों का पत्थर की तरह 

जल्वा-गाह-ए-नाज़ में देख आए हैं सौ बार हम 
रंग-ए-रू-ए-यार है बिल्कुल चुक़ंदर की तरह 

मूनिस-ए-तन्हाई जब होता नहीं है हम-ख़याल 
घर में भी झंझट हुआ करता है बाहर की तरह 

आप बेहद नेक-तीनत नेक-सीरत नेक-ख़ू 
हरकतें करते हैं लेकिन आप बंदर की तरह 

जिस के हामी हो गए वाइ'ज़ वो बाज़ी ले गया 
अहमियत है आप की दुनिया में जोकर की तरह 

अल्लाह अल्लाह ये सितम-गर की क़यामत-ख़ेज़ चाल 
रोज़ हंगामा हुआ करता है महशर की तरह 

पूछने वाले ग़म-ए-जानाँ की शीरीनी न पूछ 
ग़म के मारे रोज़ उड़ाते हैं मुज़ा'अफ़र की तरह 

ज़ेब-ए-तन वाइ'ज़ के देखी है क़बा-ए-ज़र-निगार 
सर पे अमामा है इक धोबी के गट्ठर की तरह 

दोस्त के ईफ़ा-ए-व'अदा का है अब तक इंतिज़ार 
गुज़रा अक्टूबर नवम्बर भी सितंबर की तरह 

नाज़ में अंदाज़ में रफ़्तार में गुफ़्तार में 
अर्दली भी हैं कलेक्टर के कलेक्टर की तरह 

नश्शा-बंदी चाहते तो हैं ये हामी दीन के 
फिर भी मिल जाए तो पी लें शीर-ए-मादर की तरह 

हो रहा है जिस क़दर भी 'शौक़'-साहब इंसिदाद 
उतनी ही कटती है रिश्वत मूली गाजर की तरह।

- अलकनंदा सि‍ंंह  
 

Wednesday 13 December 2023

आज व‍िश्व कव‍िताओं में से कुछ अनूद‍ित कव‍ितायें आप भी पढ़ें

 

 नोबल पुरस्कार से सम्मानित बॉब डिलन का मशहूर गीत 'ब्लॉइंग इन द विंड' का हिंदी अनुवाद


कितने रास्ते तय करे आदमी
कि तुम उसे इंसान कह सको?
कितने समन्दर पार करे एक सफ़ेद कबूतर
कि वह रेत पर सो सके ?
हाँ, कितने गोले दागे तोप
कि उनपर हमेशा के लिए पाबन्दी लग जाए?
मेरे दोस्त, इनका जवाब हवा में उड़ रहा है
जवाब हवा में उड़ रहा है।
हाँ, कितने साल क़ायम रहे एक पहाड़
कि उसके पहले समन्दर उसे डुबा न दे?
हाँ, कितने साल ज़िन्दा रह सकते हैं कुछ लोग
कि उसके पहले उन्हें आज़ाद किया जा सके?
हाँ, कितनी बार अपना सिर घुमा सकता है एक आदमी
यह दिखाने कि उसने कुछ देखा ही नहीं?
मेरे दोस्त, इनका जवाब हवा में उड़ रहा है
जवाब हवा में उड़ रहा है।
हाँ, कितनी बार एक आदमी ऊपर की ओर देखे
कि वह आसमान को देख सके?
हाँ, कितने कान हो एक आदमी के
कि वह लोगों की रुलाई को सुन सके?
हाँ, कितनी मौतें होनी होगी कि वह जान सके
कि काफ़ी ज़्यादा लोग मर चुके हैं ?
मेरे दोस्त, इनका जवाब हवा में उड़ रहा है
जवाब हवा में उड़ रहा है।

मूल अँग्रेज़ी से अनुवाद : भोला रबारी
......

Pakistani poet of Urdu language

Obaidullah Aleem: 

गुज़रो न इस तरह कि तमाशा नहीं हूँ मैं

गुज़रो न इस तरह कि तमाशा नहीं हूँ मैं
समझो कि अब हूँ और दोबारा नहीं हूँ मैं
इक तब्अ' रंग रंग थी सो नज़्र-ए-गुल हुई
अब ये कि अपने साथ भी रहता नहीं हूँ मैं
तुम ने भी मेरे साथ उठाए हैं दुख बहुत
ख़ुश हूँ कि राह-ए-शौक़ में तन्हा नहीं हूँ मैं
पीछे न भाग वक़्त की ऐ ना-शनास धूप
सायों के दरमियान हूँ साया नहीं हूँ मैं
जो कुछ भी हूँ मैं अपनी ही सूरत में हूँ 'अलीम'
'ग़ालिब' नहीं हूँ 'मीर'-ओ-'यगाना' नहीं हूँ मैं 
.....

Pakistani poet of Urdu language
परवीन शाकिर की नज़्म 'आज की शब तो किसी तौर गुज़र जाएगी'


आज की शब तो किसी तौर गुज़र जाएगी
रात गहरी है मगर चाँद चमकता है अभी
मेरे माथे पे तिरा प्यार दमकता है अभी
मेरी साँसों में तिरा लम्स महकता है अभी
मेरे सीने में तिरा नाम धड़कता है अभी
ज़ीस्त करने को मिरे पास बहुत कुछ है अभी
तेरी आवाज़ का जादू है अभी मेरे लिए
तेरे मल्बूस की ख़ुश्बू है अभी मेरे लिए
तेरी बाँहें तिरा पहलू है अभी मेरे लिए
सब से बढ़ कर मिरी जाँ तू है अभी मेरे लिए
ज़ीस्त करने को मिरे पास बहुत कुछ है अभी
आज की शब तो किसी तौर गुज़र जाएगी!
आज के ब'अद मगर रंग-ए-वफ़ा क्या होगा
इश्क़ हैराँ है सर-ए-शहर-ए-सबा क्या होगा
मेरे क़ातिल तिरा अंदाज़-ए-जफ़ा क्या होगा!
आज की शब तो बहुत कुछ है मगर कल के लिए
एक अंदेशा-ए-बेनाम है और कुछ भी नहीं
देखना ये है कि कल तुझ से मुलाक़ात के ब'अद
रंग-ए-उम्मीद खिलेगा कि बिखर जाएगा
वक़्त पर्वाज़ करेगा कि ठहर जाएगा
जीत हो जाएगी या खेल बिगड़ जाएगा
ख़्वाब का शहर रहेगा कि उजड़ जाएगा

- Legend News

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...