Saturday 30 June 2018

जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊं, जन कवि हूं मैं साफ कहूंगा क्यों हकलाऊं

हरफनमौला कवि बाबा नागार्जुन के जन्‍मदिवस पर विशेष

बाबा नागार्जुन का जन्‍म 30 जून 1911 को वर्तमान मधुबनी जिले के सतलखा, हुसैनपुर में हुआ था। यह उन का ननिहाल था।
उनका पैतृक गाँव वर्तमान दरभंगा जिले का तरौनी था। उनका असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था परंतु हिन्दी साहित्य में उन्होंने नागार्जुन तथा मैथिली में यात्री उपनाम से रचनाएँ कीं। इनके पिता श्री गोकुल मिश्र तरौनी गांव के एक किसान थे और खेती के अलावा पुरोहिती आदि के सिलसिले में आस-पास के इलाकों में आया-जाया करते थे। उनके साथ-साथ नागार्जुन भी बचपन से ही ‘यात्री’ हो गए। आरंभिक शिक्षा प्राचीन पद्धति से संस्कृत में हुई किन्तु आगे स्वाध्याय पद्धति से ही शिक्षा बढ़ी। राहुल सांकृत्यायन के ‘संयुक्त निकाय’ का अनुवाद पढ़कर वैद्यनाथ की इच्छा हुई कि यह ग्रंथ मूल पालि में पढ़ा जाए। इसके लिए वे लंका चले गए जहाँ वे स्वयं पालि पढ़ते थे और मठ के ‘भिक्खुओं’ को संस्कृत पढ़ाते थे। यहाँ उन्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली और विख्यात बौद्ध दार्शनिक के नाम पर अपना नाम नागार्जुन रखा।
नागार्जुन की पहली प्रकाशित रचना एक मैथिली कविता थी जो १९२९ ई० में लहेरियासराय, दरभंगा से प्रकाशित ‘मिथिला’ नामक पत्रिका में छपी थी। उनकी पहली हिन्दी रचना ‘राम के प्रति’ नामक कविता थी जो १९३४ ई० में लाहौर से निकलने वाले साप्ताहिक ‘विश्वबन्धु’ में छपी थी।
नागार्जुन ने हिन्दी में छह से अधिक उपन्यास, करीब एक दर्जन कविता-संग्रह, दो खण्ड काव्य, दो मैथिली (हिन्दी में भी अनूदित) कविता-संग्रह तथा एक मैथिली उपन्यास के अतिरिक्त संस्कृत एवं बाङ्ला में भी मौलिक रूप से लिखा।
जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊं 
जन कवि हूं मैं साफ कहूंगा क्यों हकलाऊं
ये पंक्तियां सही मायनों में जन कवि बाबा नागार्जुन की पहचान हैं। साफगोई और जन सरोकार के मुद्दों की मुखरता से तरफदारी उनकी विशेषता रही। अपने समय की हर महत्वपूर्ण घटनाओं पर प्रहार करती कवितायें लिखने वाले बाबा नागार्जुन एक ऐसी हरफनमौला शख्सियत थे जिन्होंने साहित्य की अनेक विधाओं और भाषाओं में लेखन के साथ-साथ जनान्दोलनों में भी बढ़-चढ़कर भाग लिया और कुशासन के खिलाफ तनकर खड़े रहे।
रोजी-रोटी हक की बातें जो भी मुंह पर लाएगा 
कोई भी हो निश्चय ही वो कम्युनिस्‍ट कहलाएगा 
दो हज़ार मन गेहूं आया दस गांवों के नाम
जब वह बौद्ध धर्म की दीक्षा लेकर वापिस स्वदेश लौटे तो उनके जाति भाई ब्राह्मणों ने उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया। लेकिन बाबा ने ऐसी बातों की कभी परवाह नहीं की। राहुल सांस्कृत्यायन के बाद हिन्दी के सबसे बडे़ घुमक्कड़ साहित्यकार होने का गौरव भी बाबा को ही प्राप्त है। बाबा की औपचारिक शिक्षा अधिक नहीं हो पायी। उन्होंने जो कुछ सीखा जीवन अनुभवों से सीखा और वही सब लिखा जो हिंदी कविता के लिए अमूल्य धरोहर हैं।
दो हज़ार मन गेहूं आया दस गांवों के नाम
राधे चक्कर लगा काटने, सुबह हो गई शाम 
सौदा पटा बड़ी मुश्किल से, पिघले नेताराम
पूजा पाकर साध गये चुप्पी हाकिम-हुक्काम
गरीबों और मजलूमों की आवाज
स्पष्ट विचार, धारदार टिप्पणी, गरीबों और मजलूमों की आवाज उनकी कविताओं में प्रमुखता से शामिल रही। हिंदी कविता में सही मायनों में कबीर के बाद कोई फक्कड़ और जनकवि कहलाने का उत्तराधिकारी हुआ तो वो थे बाबा नागार्जुन। घुमक्कड़ी स्वभाव और फक्कड़पन के बीच बाबा के मन में एक बेचैनी थी जो उनकी कविताओं में साफ दिखाई पड़ती है। बाबा, सामाजिक सरोकारों के कवि थे। आजादी के बाद जो मोहभंग की स्थिति हुई उससे उनको बड़ी पीड़ा होती थी। भ्रष्टाचार और बेईमानी से बड़े खिन्न होते थे लेकिन मुखर होकर शासन की करतूतों को अपनी कविता में शामिल करते थे।
घुमक्कड़ी स्वभाव के थे इसलिए लगातार यात्राएं करते रहते थे लेकिन समाज के पिछड़े, वंचित तबकों और गरीबों के लिए उनकी चिंता जगजाहिर थी। 1941 के आस-पास जब बिहार में किसान आंदोलित हुए तो बाबा भी सब कुछ छोड़कर आंदोलन का हिस्सा बन गये और जेल भी गये। अपनी बेबाकियों में एक स्वप्न वो हमेशा देखा करते थे समता मूलक समाज के लिए। बाबा हमेशा कहा करते थे कि हमने जनता से जो लिया है उसे कवि के रूप में जनता को लौटाना होगा। इसीलिए उनकी कविताएं सत्ता से सीधे सवाल करती थीं, टकराती थीं।
बापू के भी ताऊ निकले तीनों बन्दर बापू के !
सरल सूत्र उलझाऊ निकले तीनों बन्दर बापू के !
सचमुच जीवनदानी निकले तीनों बन्दर बापू के !
ज्ञानी निकले, ध्यानी निकले तीनों बन्दर बापू के!
जल-थल-गगन-बिहारी निकले तीनों बन्दर बापू के!
लीला के गिरधारी निकले तीनों बन्दर बापू के! 
साहित्य के मनीषियों का मानना है कि बाबा ने हमेशा गांधीजी का सम्मान किया लेकिन धीरे-धीरे समय बीतता गया और गांधीजी के अनुयायियों के व्यवहार में परिवर्तन दिखाई देने लगा। यह परिवर्तन बाबा को खलने लगा और इसीलिए उन्होंने कविता लिखी-बापू के भी ताऊ निकले तीनों बन्दर बापू के!।
आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी की नीतियों के खिलाफ जो सबसे मजबूत आवाज थी वो थी लोकनायक जयप्रकाश नारायण की। बाबा को जब भी कहीं कोई उम्मीद की किरण नजर आती थी तो उसे प्रोत्साहित जरूर करते थे लेकिन वो उम्मीद जैसे ही टूटती थी बाबा निराश होते थे और उतनी ही दृढ़ता से प्रहार भी करते थे। पटना में कुछ बुद्धिजीवियों के साथ जेपी के समर्थन में बैठे थे।
अपनी एक महत्वपूर्ण कविता में देश के जिन पांच सेनानियों को जगह देते हैं, उसमें जेपी भी शामिल हैं। कविता में उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से जिनको शामिल किया उसमें नेहरू, चन्द्रशेखर आजाद, नेताजी सुभाषचंन्द्र बोष, जिन्ना तो थे ही साथ ही साथ जेपी भी शामिल हैं, ऐसा कुछ बुद्धिजीवियों का मानना है।
पांच पूत भारत माता के, दुश्मन था खूंखार 
गोली खाकर एक मर गया बाकि रह गये चार 
चार पूत भारतमाता के, चारों चतुर-प्रवीन
देश-निकाला मिला एक को, बाक़ी रह गए तीन
तीन पूत भारतमाता के, लड़ने लग गए वो
अलग हो गया उधर एक, अब बाक़ी बच गए दो 
1975 में जब आपातकाल लगा नागरिकों के मूल अधिकार जब्त होने लगे, लोगों को जेलों में ठूसा जाने लगा। अभिव्यक्तियां बुरी तरह कुचली जा रहीं थीं, लोगों को बोलने की भी आजादी नहीं थी ऐसे में बाबा जो अपने स्पष्टवादी छवि के लिए जाने जाते थे, निर्भीकतापूर्वक अपनी कविताओं के जरिए सवाल पूछे-
क्या हुआ आपको, क्या हुआ आपको 
सत्ता के नशे में भूल गई बाप को 
इन्दु जी इन्दु जी क्या हुआ आपको
-Legend News

Friday 29 June 2018

साल 2018 का साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार ”चौकीदार” के नाम

“हम नवटोली गांव के चौकीदार हैं. गांव के माहौल में जो देखते हैं, वो लिख देते हैं. कविता मेरे लिए टॉनिक की तरह है. ”
बातचीत के दौरान 34 साल के उमेश पासवान ये बात कई बार दोहराते हैं.
उमेश को उनके कविता संग्रह ‘वर्णित रस’ के लिए मैथिली भाषा में साल 2018 का साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार मिला है.
पेशे से चौकीदार, लेकिन दिल से कवि उमेश पासवान कहते हैं, “पुरस्कार मिला इसकी ख़ुशी है लेकिन लिखता आत्म-संतुष्टि के लिए ही हूं.”
बिहार के मधुबनी ज़िले के लौकही थाने में बीते नौ साल से चौकीदार उमेश पासवान की कविता का मुख्य स्वर ग्रामीण जीवन है.
कहां से हुई शुरुआत?
उमेश बताते हैं, “जब नौवीं क्लास में था तब मधुबनी के कुलदीप यादव की लॉज में रहते वक़्त एक सीनियर सुभाष चंद्रा से मुलाक़ात हो गई. वो कविता लिखते थे तो हमने भी टूटी-फूटी कविता लिखनी शुरू कर दी.”
लेकिन इस ज्वार ने ज़ोर कब पकड़ा?
इस सवाल पर उमेश का जवाब था, “बाद में मधुबनी के जेटी बाबू के यहां चलने वाली स्वचालित गोष्ठी में जाकर कविता पाठ किया. कविता तो बहुत अच्छी नहीं थी लेकिन प्रोत्साहन मिला और कविता लेखन ने ज़ोर पकड़ा.”
22 भाषाओं में मिलने वाला साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार 35 साल से कम उम्र के साहित्यकार को मिलता है.
विद्यानाथ झा मैथिली भाषा की कैटेगरी में अवॉर्ड तय करने वाली तीन सदस्यीय ज्यूरी मेंबर में से एक हैं.
वह कहते हैं, “उमेश की भाषा में एक नैसर्गिक प्रवाह है जो आपको अपने साथ लिए चलता है. उनकी कविताओं में बहुत विस्तार है. उमेश की कविताएं सामाजिक न्याय की बात करती हैं तो गांव के सुख-दुख से लेकर मैथिल समाज के तमाम सरोकारों को हमारे सामने रखती हैं. उमेश को अवॉर्ड मिलना दो वजहों से ख़ास है, पहला तो उनके पेशे के चलते और दूसरा उमेश को मिला पुरस्कार ये धारणा भी तोड़ता है कि मैथिली पर सिर्फ़ ब्राह्मणों या कायस्थों का अधिकार है.”
दरअसल, उमेश के जीवन के उतार-चढ़ाव ने उनकी कविता के लिए ज़मीन तैयार की.
मां को कविता पसंद नहीं
उमेश ने जब होश संभाला तो पिता खखन पासवान और मां अमेरीका देवी को खेतों में मज़दूरी करते देखा.
बाद में पिता खखन पासवान को लौकही थाने में चौकीदार की नौकरी मिली जो उनकी मृत्यु के बाद अनुकंपा के आधार पर उमेश को मिल गई.
दिलचस्प है कि 65 वर्षीय अमेरीका देवी को बेटे उमेश का यूं कविताई में उलझे रहना पसंद नहीं था.
वो बताती हैं, “बहुत बचपने से ही लिखता था. हमने बहुत समझाया पढ़ाई पर ध्यान दो, फबरा (कविता) लिखने से क्या होगा, लेकिन ये ध्यान नहीं देता था जब टाइम मिले फबरा लिखता था और हमें सुनाता था.”
काले अक्षरों से अनजान अमेरीका को जब उमेश ने साहित्य अकादमी अवॉर्ड मिलने की ख़बर सुनाई तो उनका पहला सवाल था, “इसके लिए पैसे देने होंगे या फिर मिलेगा?”
उमेश से बात करने पर दूर-दराज़ के इलाकों की एक और समस्या का पता चलता है.
रोज़ी-रोटी के जुगाड़ में उलझे इन इलाकों के लोगों का कविता, कथा, उससे जुड़े पुरस्कारों से रिश्ता लगभग न के बराबर है.
कई कविता संग्रह प्रकाशित
जैसा कि उमेश बताते भी हैं, “साहित्य अकादमी यहां कोई नहीं समझता. हम मधुबनी, दिल्ली, पटना सब जगह अपनी कविता सुनाते हैं, लेकिन हमारे गांव में कोई नहीं सुनता. जब किसी ने नहीं सुना तो हमने कांतिपुर एफएम और दूसरे रेडियो स्टेशनों पर कविता भेजनी शुरू की ताकि कम से कम रेडियो के श्रोता तो मेरी कविता सुनें.”
कांतिपुर एफ़एम नेपाल से प्रसारित होने वाला रेडियो स्टेशन है.
दो बच्चों के पिता उमेश के अब तक तीन कविता संग्रह ‘वर्णित रस’, ‘चंद्र मणि’, ‘उपराग’ आ चुके हैं.
फ़िलहाल वो गांव के जीवन और उनके थाने में आने वाली शिकायतों के इर्द-गिर्द बुनी कहानियों का एक संग्रह प्रकाशित कराने की तैयारी में हैं.
विज्ञान से स्नातक उमेश अपने गांव में एक निःशुल्क शिक्षा केंद्र भी चलाते हैं. साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार के रूप में उन्हें 50 हजार की राशि पुरस्कार स्वरूप दी जाएगी.
उमेश ने इस पुरस्कार राशि को शहीद सैनिकों के बच्चों की मदद के लिए सरकारी कोष में जमा करने का फ़ैसला लिया है.
तकनीक से दूर रहने वाले उमेश का फ़ेसबुक पेज हैंडल करने वाली उनकी पत्नी प्रियंका कहती हैं, “हमें हमेशा लगता था कि ये एक दिन कोई बड़ा काम करेंगे.”


साभार-BBC
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