Friday 24 April 2020

नील कुसुम से चांद का कुर्ता तक... द‍िनकर ही द‍िनकर

रामधारी सिंह 'दिनकर' : कवि जो सत्ता के करीब रहकर भी कभी जनता से दूर नहीं हुआ, आज उनकी पुण्यत‍िथ‍ि है ।

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हिंदी के उन गिने-चुने कवियों में से हैं जिनकी पंक्तियों को किसानों और मजदूरों ने भी कहावतों की तरह इस्तेमाल किया। अहिंदी भाषा-भाषियों के बीच भी वे उतने ही लोकप्रिय थे। पुरस्कारों की झड़ी भी उनपर खूब होती रही, उनकी झोली में गिरनेवाले पुरस्कारों में बड़े पुरस्कार भी बहुत रहे - साहित्य अकादमी पुरस्कार, पद्मविभूषण, भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार इस बात की तस्दीक खुद करते हैं। बावजूद इसके वे धरती से जुड़े लोगों के मन को भी उसी तरह छूते रहे।

हिंदी साहित्य के इतिहास में कि ऐसे लेखक बहुत कम हुए हैं जो सत्ता के भी करीब हों और जनता में भी उसी तरह लोकप्रिय हों। जो जनकवि भी हों और साथ ही राष्ट्रकवि भी। दिनकर का व्यक्तित्व इन विरोधों को अपने भीतर बहुत सहजता से साधता हुआ चला था। वहां अगर भूषण जैसा कोई वीर रस का कवि बैठा था, तो मैथिलीशरण गुप्त की तरह लोगों की दुर्दशा पर लिखने और रोनेवाला एक राष्ट्रकवि भी। हालंकि दिनकर छायावाद के तुरंत बाद के कवि थे पर आत्मा से वे हमेशा द्विवेदीयुगीन कवि रहे।

दिनकर और हरिवंशराय बच्चन दोनों समकालीन थे. समकालीनों के बीच की जलन और प्रतिस्पर्धा किसी के लिए भी छिपी हुई बात नहीं। पर दिनकर ऐसे कवि थे जो अपने समकालीनों के बीच भी उतने ही लोकप्रिय थे। दिनकर को जब उर्वशी के लिए ज्ञानपीठ मिला तो इसपर बच्चन जी का जवाब था, ‘दिनकर जी को एक नहीं बल्कि गद्य, पद्य, भाषा और हिंदी के सेवा के लिए अलग-अलग चार ज्ञानपीठ मिलने चाहिए थे।’

ओजस्वी दिनकर जिन्दगी में रूमानी और साफ दिल थे, जिसका उदहारण सिर्फ ‘रसवंती’, ‘उर्वशी’ ही नहीं, वे सारी स्त्रियां भी हैं, जो क, ख, ग के नाम से उनकी डायरी में वर्णित हैं। यह उनकी साफदिली ही थी कि डायरी के प्रकाशन के समय उन्होंने इसे हटाया नहीं, बल्कि वे तो चाहते थे स्त्रियों का असल नाम यहां दिया जाए पर उनके कुछ लेखक मित्रों के सुझाव से इन नामों को क, ख, ग की शक्ल अख्तियार करनी पड़ी। वे मानते थे, ‘जब हम और आप एक ही नाव के सवार हैं तो शर्म कैसी और झिझक कैसी?’

आज पढ़‍िए उनकी यही देानों कव‍िताऐं -

1. नील कुसुम

‘‘है यहाँ तिमिर, आगे भी ऐसा ही तम है,
तुम नील कुसुम के लिए कहाँ तक जाओगे ?
जो गया, आज तक नहीं कभी वह लौट सका,
नादान मर्द ! क्यों अपनी जान गँवाओगे ?

प्रेमिका ! अरे, उन शोख़ बुतों का क्या कहना !
वे तो यों ही उन्माद जगाया करती हैं;
पुतली से लेतीं बाँध प्राण की डोर प्रथम,
पीछे चुम्बन पर क़ैद लगया करती हैं।

इनमें से किसने कहा, चाँद से कम लूँगी ?
पर, चाँद तोड़ कर कौन मही पर लाया है ?
किसके मन की कल्पना गोद में बैठ सकी ?
किसकी जहाज़ फिर देश लौट कर आया है ?’’

ओ नीतिकार ! तुम झूठ नहीं कहते होगे,
बेकार मगर, पागलों को ज्ञान सिखाना है;
मरने का होगा ख़ौफ़, मौत की छाती में
जिसको अपनी ज़िन्दगी ढूँढ़ने जाना है ?

औ’ सुना कहाँ तुमने कि ज़िन्दगी कहते हैं,
सपनों ने देखा जिसे, उसे पा जाने को ?
इच्छाओं की मूर्तियाँ घूमतीं जो मन में,
उनको उतार मिट्टी पर गले लगाने को ?

ज़िन्दगी, आह ! वह एक झलक रंगीनी की,
नंगी उँगली जिसको न कभी छू पाती है,
हम जभी हाँफते हुए चोटियों पर चढ़ते,
वह खोल पंख चोटियाँ छोड़ उड़ जाती है।

रंगीनी की वह एक झलक, जिसके पीछे
है मच हुई आपा-आपी मस्तानों में,
वह एक दीप जिसके पीछे है डूब रहीं
दीवानों की किश्तियाँ कठिन तूफ़ानों में।

डूबती हुई किश्तियाँ ! और यह किलकारी !
ओ नीतिकार ! क्या मौत इसी को कहते हैं ?
है यही ख़ौफ़, जिससे डरकर जीनेवाले
पानी से अपना पाँव समेटे रहते हैं ?

ज़िन्दगी गोद में उठा-उठा हलराती है
आशाओं की भीषिका झेलनेवालों को;
औ; बड़े शौक़ से मौत पिलाती है जीवन
अपनी छाती से लिपट खेलनेवालों को।

तुम लाशें गिनते रहे खोजनेवालों की,
लेकिन, उनकी असलियत नहीं पहचान सके;
मुरदों में केवल यही ज़िन्दगीवाले थे
जो फूल उतारे बिना लौट कर आ न सके।

हो जहाँ कहीं भी नील कुसुम की फुलवारी,
मैं एक फूल तो किसी तरह ले जाऊँगा,
जूडे में जब तक भेंट नहीं यह बाँध सकूँ,
किस तरह प्राण की मणि को गले लगाऊँगा ?

2. हर क‍िसी को बचपन की याद द‍िलातीं , दादी नानी के मुंह से चांद की इबारतें , आप भी बचपन को महसूस कीज‍िए - चांद का कुर्ता

हठ कर बैठा चाँद एक दिन, माता से यह बोला,
‘‘सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला।

सनसन चलती हवा रात भर, जाड़े से मरता हूँ,
ठिठुर-ठिठुरकर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ।

आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का,
न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही कोई भाड़े का।’’

बच्चे की सुन बात कहा माता ने, ‘‘अरे सलोने!
कुशल करें भगवान, लगें मत तुझको जादू-टोने।

जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ,
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ।

कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा,
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा।

घटता-बढ़ता रोज किसी दिन ऐसा भी करता है,
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है।

अब तू ही ये बता, नाप तेरा किस रोज़ लिवाएँ,
सी दें एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आए?’’

-अलकनंदा स‍िंंह

Thursday 23 April 2020

Shakespeare Day को फेस्टिवल की तरह मनाते हैं साहित्‍य के शौकीन

किताबों, साहित्‍य के शौकीनों के लिए आज का दिन किसी फेस्टिवल से कम नहीं। दुनिया के सबसे बेहतरीन नाटककार विलियम शेक्सपियर की याद में हर साल इस दिन को Shakespeare Day के रूप में मनाते हैं।
उनकी डेट ऑफ बर्थ को लेकर कन्‍फ्यूजन है मगर परंपरागत रूप से उसे 23 अप्रैल को मनाया जाता है। इस महान लेखक ने दुनिया को अलविदा भी ने 23 अप्रैल 1616 को कहा था। UNESCO ने 1995 में इस दिन को World Book and Copyright Day के रूप में मनाने का फैसला किया। 38 नाटक और 154 सॉनेट लिखने वाले शेक्‍सपियर खुद भी परफॉर्म किया करते थे। Hamlet, King Lear, Othello, Macbeth और Romeo and Juliet कुछ वो कालजयी नाटक हैं, जिनकी वजह से शेक्‍सपियर को इतना ऊंचा दर्जा मिला है।
आइए जानते हैं साहित्‍य के इस सितारे के बारे में कुछ खास बातें-
बेहद कम शब्‍दों में रची अपनी दुनिया
विलियम शेक्‍सपियर जिस दौर में लिख रहे थे, उस दौर में अंग्रेजी का कोई मानक नहीं था। एक शब्‍द की अलग-अलग स्‍पेलिंग प्रचलित थीं। उन पर रिसर्च करने वाले डेविड क्रिस्‍टल के मुताबिक उस वक्‍त अंग्रेजी में कोई डेढ़ लाख शब्‍द हुआ करते थे। शेक्‍सपियर ने अपनी किताबों में करीब 30 हजार अलग-अलग शब्‍दों का इस्‍तेमाल किया है। हालांकि इनमें एक ही शब्‍द के कई रूप शामिल हैं। क्रिस्‍टल मानते हैं कि शेक्‍सपियर की वकॅबुलरी करीब 20 हजार शब्‍दों की रही होगी। हाई स्‍कूल में बढ़ने वाले एक आम इंसान की वकॅबुलरी में भी 30 से 40 हजार शब्‍द होते हैं। ऐसे में इतने कम शब्‍दों में ऐसे नाटक लिख पाना, शेक्‍सपियर इसीलिए साहित्‍य जगत में सबसे महान नाटककार माने जाते हैं।
शादी से पहले ही गर्भवती थी पत्‍नी
शेक्‍सपियर जब सिर्फ 18 साल के थे, तब उन्‍होंने एन्‍ने से शादी की। एन्‍ने उस वक्‍त 26 साल की थीं और तीन महीने की गर्भवती थीं। शादी के छह हफ्तों बाद, उनके पहले बच्‍चे सुजैना का जन्‍म हुआ। इसके बाद जुड़वां बच्‍चे भी हुए। खुद शेक्‍सपियर सात भाई-बहन थे।
एक्‍टर भी थे शेक्‍सपियर
शेक्‍सपियर ने बतौर परफॉर्मर भी काम किया। वह ‘लॉर्ड चेम्‍बरलेंस मेन’ नाम की एक कंपनी के को-ओनर भी थे। अपने कई नाटकों में शेक्‍सपियर ने खुद एक्टिंग की।
असल इवेंट्स पर बेस्‍ड हैं कई नाटक
शेक्‍सपियर के कई नाटक ऐतिहासिक घटनाओं, तथ्‍यों पर आधारित हैं। वह कई साथी सच्‍ची घटनाओं को ड्रामेटाइज करके पेश करते थे। मिसाल के तौर पर हैमलेट, स्‍कैंडिनीविया की किवदंती- एमलेथ पर आधारित है।
तीन तरह के नाटक लिखे
शेक्‍सपियर के नाटकों को तीन हिस्‍सों में बांटा जा सकता है। उन्‍होंने कॉमेडी, ट्रेजडी के अलावा हिस्‍ट्री जॉनर में भी हाथ आजमाया।
इंगलिश को दिए नए शब्‍द
शेक्‍सपियर ने नए शब्‍दों को लेकर खूब प्रयोग किया था। एक अनुमान के मुताबिक उन्‍होंने अंग्रेजी भाषा को 1,700 से 3,000 शब्‍द दिए। उन्‍होंने कई सारे वाक्‍यांश और मुहावरे भी चलन में ला दिए।
अपना नाम ठीक से नहीं लिखते थे शेक्‍सपियर
शेक्‍सपियर ने कभी अपने नाम की स्‍पेलिंग ठीक से नहीं लिखे। अक्‍सर वह “Willm Shakp” के नाम से दस्‍तखत किया करते थे। अपनी वसीयत में उन्‍होंने अपनी पत्‍नी को केवल एक बिस्‍तर दिया।

Wednesday 22 April 2020

पृथ्‍वी दिवस पर सुमित्रानंदन पंत की मशहूर कविता

छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक सुमित्रानंदन पंत का जन्‍म बागेश्‍वर (उत्तराखंड) के कौसानी में हुआ था। वहां का उनका घर आज ‘सुमित्रा नंदन पंत साहित्यिक वीथिका’ नामक संग्रहालय बन चुका है। झरना, बर्फ, पुष्प, लता, भ्रमर-गुंजन, उषा-किरण, शीतल पवन, तारों की चुनरी ओढ़े गगन से उतरती संध्या तक सब उनके सहज काव्य का उपादान बने।
आज पृथ्‍वी दिवस पर सुमित्रानंदन पंत की वो मशहूर कविता पढ़िए जो बहुत प्रासांगिक है-
मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे,
सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी
और फूल-फलकर मैं मोटा सेठ बनूँगा
पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा
बन्ध्या मिट्टी ने न एक भी पैसा उगला
सपने जाने कहाँ मिटे, कब धूल हो गये
मैं हताश हो बाट जोहता रहा दिनों तक
बाल-कल्पना के अपलर पाँवडे बिछाकर
मैं अबोध था, मैंने गलत बीज बोये थे,
ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था।
अर्द्धशती हहराती निकल गयी है तबसे
कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने
ग्रीष्म तपे, वर्षा झूली, शरदें मुसकाई
सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे, खिले वन
और जब फिर से गाढ़ी, ऊदी लालसा लिये
गहरे, कजरारे बादल बरसे धरती पर
मैंने कौतूहल-वश आँगन के कोने की
गीली तह यों ही उँगली से सहलाकर
बीज सेम के दबा दिये मिट्टी के नीचे
भू के अंचल में मणि-माणिक बाँध दिये हो
मैं फिर भूल गया इस छोटी-सी घटना को
और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन
किन्तु, एक दिन जब मैं सन्ध्या को आँगन में
टहल रहा था, तब सहसा, मैंने देखा
उसे हर्ष-विमूढ़ हो उठा मैं विस्मय से
देखा-आँगन के कोने में कई नवागत
छोटे-छोटे छाता ताने खड़े हुए हैं
छाता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की
या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं प्यारी
जो भी हो, वे हरे-हरे उल्लास से भरे
पंख मारकर उड़ने को उत्सुक लगते थे
डिम्ब तोड़कर निकले चिड़ियों के बच्चों से
निर्निमेष, क्षण भर, मैं उनको रहा देखता
सहसा मुझे स्मरण हो आया,कुछ दिन पहले
बीज सेम के मैंने रोपे थे आँगन में,
और उन्हीं से बौने पौधो की यह पलटन
मेरी आँखों के सम्मुख अब खड़ी गर्व से,
नन्हें नाटे पैर पटक, बढ़ती जाती है।
तब से उनको रहा देखता धीरे-धीरे
अनगिनती पत्तों से लद, भर गयी झाड़ियाँ,
हरे-भरे टंग गये कई मखमली चँदोवे
बेलें फैल गयी बल खा, आँगन में लहरा,
और सहारा लेकर बाड़े की पट्टी का
हरे-हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को
मैं अवाक रह गया-वंश कैसे बढ़ता है
छोटे तारों-से छितरे, फूलों के छीटे
झागों-से लिपटे लहरों श्यामल लतरों पर
सुन्दर लगते थे, मावस के हँसमुख नभ-से,
चोटी के मोती-से, आँचल के बूटों-से।
ओह, समय पर उनमें कितनी फ़लियाँ फूटी
कितनी सारी फ़लियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ
पतली चौड़ी फलियाँ! उफ उनकी क्या गिनती
लम्बी-लम्बी अँगुलियों – सी नन्हीं-नन्हीं
तलवारों-सी पन्ने के प्यारे हारों-सी,
झूठ न समझे चन्द्र कलाओं-सी नित बढ़तीं,
सच्चे मोती की लड़ियों-सी, ढेर-ढेर खिल
झुण्ड-झुण्ड झिलमिलकर कचपचिया तारों-सी
आह इतनी फलियाँ टूटीं, जाड़ों भर खाई,
सुबह शाम वे घर-घर पकीं, पड़ोस पास के
जाने-अनजाने सब लोगों में बँटबाई
बंधु-बांधवों, मित्रों, अभ्यागत, मँगतों ने
जी भर-भर दिन-रात महुल्ले भर ने खाई
कितनी सारी फ़लियाँ, कितनी प्यारी फ़लियाँ
यह धरती कितना देती है! धरती माता
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को
नहीं समझ पाया था मैं उसके महत्व को
बचपन में स्वार्थ, लोभ-वश पैसे बोकर
रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ
इसमें सच्ची समता के दाने बोने हैं
इसमें जन की क्षमता के दाने बोने हैं
इसमें मानव-ममता के दाने बोने हैं
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें
मानवता की- जीवन श्रम से हँसे दिशाएँ-
हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे।

Thursday 16 April 2020

‘डांडी मार्च’, ‘संथाली कन्या’, ‘सती का देह त्याग’ भी बनाने वाले चित्रकार थे नंदलाल बोस


3 दिसम्बर 1882 को बिहार के जिला मुंगेर में पैदा हुए भारत के प्रसिद्ध चित्रकार और संविधान की मूल प्रति का डिजाइन करने वाले नंदलाल बोस की आज पुण्‍यतिथि है। उनके पिता पूर्णचंद्र बोस ऑर्किटेक्ट तथा महाराजा दरभंगा की रियासत के मैनेजर थे। नंदलाल बोस की मृत्‍यु 16 अप्रैल 1966 के दिन तत्‍कालीन कलकत्ता (कोलकाता) में हुई थी।
इनके प्रसिद्ध चित्रों में हैं-‘डांडी मार्च’, ‘संथाली कन्या’, ‘सती का देह त्याग’ इत्यादि है। नंदलाल बोस ने चित्रकारों और कला अध्यापन के अतिरिक्त तीन पुस्तिकाएँ रूपावली, शिल्पकला और शिल्प चर्चा भी लिखीं। ये अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के प्रख्यात शिष्य थे।
उन्होंने 1905 से 1910 के बीच कलकत्ता गवर्नमेंट कॉलेज ऑफ़ आर्ट में अवनीन्द्रनाथ ठाकुर से कला की शिक्षा ली। फिर इंडियन स्कूल ऑफ़ ओरियंटल आर्ट में अध्यापन किया और 1922 से 1951 तक शान्तिनिकेतन के कलाभवन के प्रधानाध्यापक रहे।
नंदलाल बोस की मुलाकात पं. नेहरू से शांति निकेतन में हुई और वहीं नेहरू जी ने नंदलाल को इस बात का आमंत्रण दिया कि वे भारतीय संविधान की मूल प्रति को अपनी चित्रकारी से सजाएं। 221 पेज के इस दस्तावेज के हर पन्नों पर तो चित्र बनाना संभव नहीं था लिहाजा नंदलाल जी ने संविधान के हर भाग की शुरुआत में 8-13 इंच के चित्र बनाए। संविधान में कुल 22 भाग हैं। इस तरह उन्हें भारतीय संविधान की इस मूल प्रति को अपने 22 चित्रों से सजाने का मौका मिला। इन 22 चित्रों को बनाने में चार साल लगे। इस काम के लिए उन्हें 21,000 मेहनताना दिया गया। नंदलाल बोस के बनाए इन चित्रों का भारतीय संविधान या उसके निर्माण प्रक्रिया से कोई ताल्लुक नहीं है। वास्तव में ये चित्र भारतीय इतिहास की विकास यात्रा हैं। सुनहरे बॉर्डर और लाल-पीले रंग की अधिकता लिए हुए इन चित्रों की शुरुआत होती है भारत के राष्ट्रीय प्रतीक अशोक की लाट से। अगले भाग में भारतीय संविधान की प्रस्तावना है, जिसे सुनहरे बार्डर से घेरा गया है, जिसमें घोड़ा, शेर, हाथी और बैल के चित्र बने हैं। ये वही चित्र हैं, जो हमें सामान्यत: मोहन जोदड़ो की सभ्यता के अध्ययन में दिखाई देते हैं। भारतीय संस्कृति में शतदल कमल का महत्व रहा है इसलिए इस बॉर्डर में शतदल कमल को भी नंदलाल ने जगह दी है। इन फूलों को समकालीन लिपि में लिखे हुए अक्षरों के घेरे में रखा गया है। अगले भाग में मोहन जोदड़ो की सील दिखाई गई है। वास्तव में भारतीय सभ्यता की पहचान में इस सील का बड़ा ही महत्व है। शायद यही कारण है कि हमारी सभ्यता की इस निशानी को शुरुआत में जगह दी गई है। अगले भाग से वैदिक काल की शुरुआत होती है। किसी ऋषि के आश्रम का चिह्न है। मध्य में गुरु बैठे हुए हैं और उनके शिष्यों को दर्शाया गया है। बगल में एक यज्ञशाला बनी हुई है।
चित्रकारी पर महात्मा गांधी का प्रभाव
नंदलाल बोस की दृष्टि उनको महात्मा गांधी के बहुत निकट लाई। कहा जाता है कि महात्मा गांधी के संपर्क में आने के बाद नंदलाल बोस की कला में एक नया मोड़ आया। राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत बोस ‘असहयोग आंदोलन’, ‘नमक-कर विरोध आंदोलन’ आदि में सक्रिय भूमिका में थे। आज़ादी की लड़ाई के दौरान पारंपारिक और राष्ट्रीय अवधारणाओं के मेल से जो आधुनिक अवधारणाएँ संकल्पित हुई थीं, उनका प्रभाव तत्कालीन कलाकारों की कला में आ रहा था। हाशिए पर रख छोड़ी गई स्त्रियों की क्षमता और शक्ति को गांधी जी ने पहचाना और आज़ादी की लड़ाई में उसका सदुपयोग किया। नंदलाल बोस के हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में बनाए एक विशेष पोस्टर श्रंखला में औरत की आध्यात्मिक शक्तियाँ चित्रित हुईं थीं। नंद लाल बोस की कला की सारी प्रेरणा भारतीय संवेदना की प्रतीक थी। 1936 में महात्मा गांधी अपने विचारों को फलितार्थ देखना चाहते थे इसलिए अखिल भारतीय कांग्रेस के अधिवेशन में ग्रामीण कला और क्राफ्ट की एक कला प्रदर्शनी लगवाई गई थी। परिकल्पना गांधी की थी और नंदलाल बोस ने उसे साकार किया था। महात्मा गांधी ने उस अधिवेशन के पहले नंदलाल बोस को सेवाग्राम में बुलवाया और अपना दृष्टिकोण समझाया। हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में भी इसी प्रकार की प्रदर्शनी की रचना हुई थीं। दोनों ही जगहों पर गांधीवादी कला दृष्टि अभिव्यक्त हुई। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि उन प्रदर्शनियों की कोई निशानी बची नहीं है।

Sunday 12 April 2020

देश के प्रख्यात हास्य कवि प्रदीप चौबे की प्रथम पुण्‍यतिथि

ग्वालियर। देश के प्रख्यात हास्य कवि प्रदीप चौबे का पिछले साल आज के ही दिन ग्वालियर में दिल का दौरा पड़ने से निधन हुआ था।
प्रदीप चौबे मंच के प्रथम श्रेणी के हास्य कवि थे। उनकी कई रचनाएं प्रसिद्ध हैं जिनमें ‘आलपिन’, ‘खुदा गायब है’, ‘चुटकुले उदास हैं’ और ‘हल्के-फुल्के’ शामिल हैं।
प्रदीप चौबे ने सैकड़ों कवि सम्मेलनों में हिस्सा लेकर अपनी हास्य-व्यंग्य की रचनाओं से लोगों को जमकर हंसाया। उनका जन्म 26 अगस्त 1949 को महाराष्ट्र के चंद्रपुर में हुआ था। चौबे ग्वालियर आकर बस गए और फिर यहीं के होकर रह गए।
हास्य कवि होने के साथ प्रदीप चौबे पहले देना बैंक में नौकरी करते थे, लेकिन कवि सम्मेलनों की व्यस्तता के कारण उन्होंने बैंक की नौकरी छोड़ दी और पूरा समय कविताओं को देने लगे। उनके बड़े भाई शैल चतुर्वेदी भी हास्य कवि रहे हैं।
भ्रष्टाचार पर तंज करती प्रदीप चौबे की कविता : हर तरफ गोलमाल है साहब
हर तरफ गोलमाल है साहब
आपका क्या ख़याल है साहब
कल का ‘भगुआ’ चुनाव जीता तो,
आज ‘भगवत दयाल’ है साहब
लोग मरते रहें तो अच्छा है,
अपनी लकड़ी की टाल है साहब
आपसे भी अधिक फले-फूले
देश की क्या मजाल है साहब
मुल्क मरता नहीं तो क्या करता
आपकी देख भाल है साहब
रिश्वतें खाके जी रहे हैं लोग
रोटियों का अकाल है साहब
जिस्म बिकते हैं, रूह बिकती हैं,
ज़िंदगी का सवाल है साहब
आदमी अपनी रोटियों के लिए
आदमी का दलाल है साहब
इसको डेंगू, उसे चिकनगुनिया
घर मेरा अस्पताल है साहब
तो समझिए पात-पात हूं मैं,
वे अगर डाल-डाल हैं साहब
गाल चांटे से लाल था अपना
लोग समझे गुलाल है साहब
मौत आई तो ज़िंदगी ने कहा-
‘आपका ट्रंक काल है साहब’
मरता जाता है, जीता जाता है
आदमी का कमाल है साहब
इक अधूरी ग़ज़ल हुई पूरी
अब तबीयत बहाल है साहब ।।
प्रदीप चौबे की कविता: हम अपनी शवयात्रा का आनंद ले रहे थे
हम अपनी शवयात्रा का आनंद ले रहे थे
लोग हमें ऊपर से कंधा और अंदर से गालियां दे रहे थे
एक धीरे से बोला- साला क्या भारी है
दूसरा बोला- भाईसाहब ट्रक की सवारी है
और ट्रक ने भी मना कर दिया तो हमारे कंधों पर जा ही है
एक हमारे ऑफ़िस का मित्र बोला
एक हमारे बैंक का मित्र बोला –
कि इसे मरना ही था तो संडे को मरता
कहां मंडे को मर गया बेदर्दी
एक ही तो छुट्टी बची थी
कमबख़्त ने उस की भी हत्या कर दी
एक और बोला- कि हां यार
काम तो हमारा भी अटक गया
आज बिजली का बिल जमा करने की लास्ट डेट थी
तो यहां पर अटक गया
अब कल जो पैनल्टी भरना पड़ेगा
उसका पैसा क्या इसका बाप देगा
एक मित्र जो वाकई दुखी हो रहा था
बेचारा फूट-फूट के रो रहा था
उससे पूछा किसी ने कि-
क्या तेरा मरने वाले से इतना प्रेम था
जो उसके लिए थोक में आंसू बहा रहा है
वो बोला- मरने वाले को मारो गोली भाईसाहब
हमको तो अपना सौ रुपए का नोट याद आ रहा है
हमने अपने बाप से लेके दिया था
और अभी तो ब्याज भी नहीं लिया था
कि ये इंटरवल में ही मर गया
साला हमारे लिए कितना टैंशन कर गया
अब तुम हमारे बाप को नहीं जानते
इतना कंजूस है कि लोग हमको उसका बेटा ही नहीं मानते
आपस में फुसफुसाते हैं कि
कंजूस ने बेटा कैेसे पैदा कर लिया
अब बताओ ऐसी कड़की में ये मर गया
अब हम अपने बाप को क्या मुंह दिखाएंगे
उनको पता चलेगा तो सौ रुपए के लिए
हमके बेच आएंगे
तभी हमारे मोहल्ले का कुल्फ़ी वाला आगे आया
और उसने अपना कंधा जैसे ही हमारी अर्थी को लगाया
कमबख़्त के मुंह से आवाज़ आयी
ठंडी-मीठ बरफ़ मलाई
कोई पीछे से बोला- कमाल है भाई
यहां पर भी धंधा
दुकान लगा रहे हो कि कंधा
वो बोला- क्षमा करें, क्षमा करें
मुंह से निकल गया को क्या करें
ऐसा नहीं कि मैं शवयात्रा के कायदे कानून नहीं जानता
पर कमबख़्त इस मुंह को क्या करूं जो नहीं मानता
जैसे ही कोई वज़नदार सामान कंधे पर आता है
मुंह से बर्फ़-मलाई पहले निकल जाता है
दोस्तों जून का महीना था
हर आदमी पसीना-पसीना था
एक अर्थी ढोऊ बोला –
यार क्या भयंकर धूप है
दूसरा बोला- मरने वाला भी ख़ूब है
मरा भी तो जून में
अरे इस समय तो आदमी को होना चाहिए देहरादून में
ये थोड़े दिन और इंतज़ार करता
तो जनवरी में आराम से नहीं मरता
अपन भी जल्दी से घर भाग लेते
जितनी देर बैठते सर्दी में
आग तो ताप लेते
भला मरने के लिए जून का महीना कितना बोर है
तभी कोई और बोला-
हां यार सर्दियों में मरने का मज़ा ही कुछ और है
तभी पीछे से आवाज़ आयी-
अच्छा बड़े भाई
आप तो जनवरी में ही मरेंगे
वे बोले- नहीं, हम फ़रवरी में ही प्रस्थान करेंगे
जनवरी में हमारा इन्क्रीमेंट आता है
भला हिंदुस्तानी कर्मचारी भी
कहीं अपनी वेतन वृद्धि छोड़कर जाता है
तभी शायद किसी को शमशान दीखा
वो मारे प्रसन्नता के चीखा
कि राम नाम सत्य है
एक अधमरा बोला कि
भैया दरअसल मर तो हम रहे हैं
मुर्दो तो साला अपनी जगह मस्त है
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