Friday 25 March 2022

जन्मद‍िन: पढ़िए कवि तेज राम शर्मा की कविताऐं

आज ही के द‍िन यान‍ि 25 मार्च 1943 को हिन्दी भाषा के कवि तेज राम शर्मा का जन्म शिमला (हिमाचल प्रदेश) के गाँव बम्न्होल (सुन्नी) में हुआ था । वे भारत सरकार में विशेष सचिव के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद स्वतंत्र लेखन में लगातार सक्र‍िय रहे।

उनके दो कव‍िता संग्रह 1984 में प्रकाश‍ित ”धूप की छाया” और 2000 में प्रकाश‍ित ”बंदनवार ”, ज‍िसमें बंदनवार का अनुवाद बांग्ला में हुआ। इसके अलावा एक कविता संग्रह “नहाए रोशनी में” भी प्रकाश‍ित हुआ।

कविताओं में- अकेलापन, उसने चुना, ऐनक, फ़ोटो, बहुत दूर, वरना वह भी, सागर का रंग बहुत प्रस‍िद्ध रहीं। उनकी कविताएं पहाड़ की प्रकृति से आत्मीय संवाद की कविताएं हैं। प्रकृति के उपादानों का ही प्रतीकों और बिंबों के रूप में होन इन कविताओं की विशिष्टता है।  

कवि तेजराम शर्मा के सातवें कविता संग्रह ‘कंप्यूटर पर बैठी लड़की’ में कुल 79 कविताएं संगृहीत हैं जो ज्यादातर भीतर से बाहर की तरफ खुलती है। मिट्टी की गंध से सुवासित इन कविताओं की मुख्य टेक प्रकृति है। यहां तक कि कवि पुरखों की स्मृति में डूबता है तो प्रकृति के उपनाम और बिंब स्वत: आते चले गए हैं।

उनकी शिक्षा- हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला से एम.ए. हिंदी, पोस्ट ग्रैजुएट डिप्लोमा इन ट्रेनिंग एंड डेवलपमेंट, मॅन्चेस्टर विश्वविद्यालय, यू.के.से क‍िया था । इसके अलावा डिप्लोमा इन ट्रेनिंग मॅनेजमेंट, इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रेनिंग एंड डेवलपमेंट, यू.के व डिप्लोमा इन फ्रेंच, हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला भी उन्होंने क‍िया ।

कव‍ि तेजराम शर्मा को अखिल भारतीय कलाकार संघ साहित्य पुरस्कार, ठाकुर वेद राम राष्ट्रीय पुरस्कार, पंजाब कला साहित्य अकादमी पुरस्कार, हिमाचल साहित्य अकादमी सम्मान से नवाजा जा चुका है।

आज पढ़‍िए उनकी कुछ प्रस‍ि‍द्ध कव‍ितायें- 

गाँव के मन्दिर के प्राँगण में-
गाँव के मंदिर प्राँगण में
यहां जीर्ण-शीर्ण होते देवालय के सामने
धूप और छाँव का
नृत्य होता रहता है

यहाँ स्लेट छत की झालर से लटके
लकड़ी के झुमके
इतिहास पृष्ठों की तरह
गुम हो गए है

दुपहर बाद की मीठी धूप को छेड़ता
ठण्डी हवा का कोई झोंका
कुछ बचे झुमकों को हिला कर
विस्मृत युग को जगा जाता है

धूप में चमकती है ऊँची कोठी
पहाड़ का विस्मृत युग
देवदार की कड़ियों की तरह
कटे पत्थर की तहों के नीचे
काला पड़ रहा है
बूढे बरगद की पंक्तियों सा
सड़ रहा है
बावड़ी के तल में

इस गुनगुनी धूप में
पुरानी कोठी की छाया कुछ हिलती है
और लम्बी तन कर सो जाती है।

सपने अपने-अपने-

बालक ने सपना देखा
उड़ गया वह आकाश में
पीठ से फिसला उसका बस्ता
एक-एक कर आसमान से गिरी
पुस्तकें और काँपियाँ
देख कर मुस्कराया और उड़ता रहा
फिर गिरा आँखों से उसका चश्मा
धरती इतनी सुंदर है
उसने कभी सपने में भी न सोचा था

युवा ने सपना देखा
हवाई जहाज़ से
उसने लगाई छलांग
करतब दिखाता हुआ
निर्भय गिरता रहा धरती की ओर
जंगल जब तेजी से उसके पास आया
तो उसने पैराशूट खोल दिया
हवा का एक तेज़ झोंका
उसे राह से विचलित कर गया
पैराशूट को नियंत्रित करता हुआ
साहस के साथ वह
पेड़ों से घिरी चारागाह में उतरा
वहाँ एक युवती दौड़कर उसके पास आई
और प्यार भरी आँखों से उसे देखने लगी
सपने में ही अपना सिर उसकी गोद में रखकर
वह जीने के सपने देखने लगा

बूढ़े ने सपना देखा
सुबह-सुबह नदी स्नान करते हुए
फिसला जाता है उसका पाँव
वह नदी में डूबने लगता है
शिथिल इन्द्रियोँ से
छटपताता है बाहर निकलने के लिए
अपने-पराये कोई नहीं सुनते उसकी चीख
सब कुछ छूटता नज़र आता है
जैसे ही अंतिम साँस निकलने को होती है
बिस्तर पर जाग पड़ता है वह भयानक सपने से
काँपते हाथों से पानी पीता है और
सपने देखने से डरने लगता है।

कोई दिन-

हमारे सारे के सारे दिन
नष्ट नहीं हो जाते
कहीं एक दिन बच निकलता है
और जीवित रहता है
हवा,पानी, धूप, तूफान,काल
सब से लड़ता रहता है
लड़ते-लड़ते दूर तक निकल जाता है

सभी दिन तितली नहीं होते
कोई दिन तितली की तरह
पन्नों के बीच बच निकलता है
और क्षण-भंगुरता को चकमा दे जाता है
दिन
जिसमें मैं जीता हूँ
मेरा अपना नहीं हो पाता
मुट्ठी की रेत हो जाता है

पर वह दिन
जो बादलों की पीठ पर चढ़ कर
घूम आता है पर्वत–पर्वत
जीवित रहेगा बहुत दिनों
चीड़ और देवदार की गंध
आती रहेगी बरसों तक
उसके कोट से

मुझे अच्छा लगता है
जब बर्फ़ में ठिठुर रहे दिनों से
मैं उठा लाता हूँ एक दिन
गर्म पानी में हाथ-पाँव धुला कर
आग के पास बैठता हूँ
और शब्दों का एक गर्म-सा कंबल ओढ़ाता हूँ।

राग देस-

फासला
कि पार ही नहीं होता
हाथ से भाग्य-रेखा
रहती है सदा गायब
किसके पक्ष में
घटित हो रहा है सब कुछ
खतरनाक भीड़
कहाँ से उमड़ रही है?

इधर दीवारों से पलस्तर
उखड़ रहा है
उभर रहा है उसमें एक ही चेहरा
इस मौसम में
मिट्टी-गारे को ही
ताकती रह जाती है
दीवार पर उभरी इबारत

चोटियों पर गिरती है संकल्पों–सी लुभावनी बर्फ़
पर घाटी में ग्लेशियर
पिछली रात
नींव तक हिला गया है
गाँव-गाँव
घरों की दीवारें

उधर वैज्ञानिक
शुक्राणुओं में कम होती हलचल से
चिंतित हैं

इधर ऊसर में छिड़के बीज
चिड़ियाँ चुग जाती हैं
हाथ मलते रह जाते हैं शब्द

चरागाह में
भेड़ें पंक्तिबद्ध हैं
उतर रही है ऊन
सूरज छिपा है काले बादलों के बीच
पगडंडियाँ
कि दबती ही जा रही हैं
और उड़ती जाती है धूल
रंगमंच
कि नायक सभी हुए जाते हैं पतझड़ के चिनार
अगस्त्य हुए अरमानों के आगे
उमड़ रही है
आचमन के लिए भीड़
अबाअ सातों सुतों सहित हाथ जोड़े खड़ी है

विरासत
कि रेगिस्तान
फैला है ओर–छोर
शून्य में ताकते लोग़
पूछ रहे हैं
कौन-सी ऋचाओं के
अधिष्ठाता हैं
इन्द्र?
संस्कार
कि फिसल न जाए जनेऊ कान से
शंका करते हुए
नदियों से उठती
आग की लपटें
अग्निपुत्र पी रहें हैं लावा
सपनों की सूरत
निखरी हुई रेतीली आँखों में
साफ झलकते
परियों की चेहरे

मौसम कि बदलते ही
बीहड़ वन में फूलते हैं बरूस
पहाड़ में औरते छानती हैं सफेद मिट्टी
चमकती हैं घरो की दीवारें
स्लेट छत के चारों और
खिंचती हैं बरूस की बंदनवार रस्सियाँ
नज़र
कि अटकी रह जाती है
समुद्र किनारे के
नारियल के झुरमुटों बीच।

.....

सपने में नदी 

वर्षों तक

बार-बार

आता रहा एक ही सपना

नदी के तटबंधों पर

हाथों से सहलाता हूँ

उभरी तंरगें

नदी देती है खुला निमन्त्रण

पर बल खाती तरंगों पर

तैरने से घबराता हूं

डरते-डरते

गहरे में उतरता हूं

और जल के आवेग की तालों बीच

नदी पर तैरते हुए दूर निकल जाता हूं

तटों के बंधन से मुक्त नदी

मंझधार में

समूचा समेट लेती है मुझे

डूबते-डूबते

शिथिल होता है भुजाओं का पौरुष

नदी पता नहीं

कहां लेती होगी करवट

टूटे सपने की डोर पकड़े

बदलता हूं करवट बिस्तर पर।

-अलकनंदा सिंंह


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