Wednesday 21 December 2022

सआदत हसन मंटो की ये पांच लघुकथाएं...इंसानियत के परखच्‍चे उड़ा देती हैं


 मैंने आज मंटो की लघुकथाऐं पढ़कर ये जाना कि कहानी के नाम पर खर्रे के खर्रे भरना जरूरी नहीं, एक पूरी कथा एक छोटी सी लाइन में कही जा सकती है। हम हिंदू मुसलमान करते रहते हैं और इंसानियत इस बीच इन्‍हीं शब्‍दों के बीच उधेड़ दी जाती है और कोई  उफ तक नहीं करता मगर मंटो ने ये कर दिखाया।  

सआदत हसन मंटो भारतीय उपमहाद्वीप के महान उर्दू कहानीकार थे। उनकी कहानियां भारत-पाक विभाजन के दंश का प्रामाणिक दस्तावेज हैं। बंटवारे के दर्द को बेहद गहराई से समझने, उसके संवेदनात्मक व मानवीय पहलू को बेहतरीन रूप से प्रस्तुत करने का नाम है मंटो! मानवीय त्रासदी उनकी रचनाओं में बेहद शिद्दत से उपस्थित हुआ है, इसीलिए वे दोनों देशों में आज भी लोकप्रिय हैं।

मंटो की रचना यात्रा उनकी कहानियों की तरह ही बड़ी ही विचित्रता से भरी हुई है। एक ऐसा शख्स जो जालियांवाला बाग कांड से उद्वेलित होकर पहली बार अपनी कहानी लिखने बैठता है वो औरत-मर्द के रिश्तों की उन परतों को उघाड़ने लगता है जहाँ से पूरा समाज ही नंगा दिखने लगता है।

मंटो ने ताउम्र मजहबी कट्टरता के खिलाफ लिखा, मजहबी दंगे की वीभत्सता को अपनी कहानियों में एक जिंदा तस्वीर के रूप में प्रस्तुत किया। उनके लिए मजहब से ज्यादा कीमत इंसानियत की थी।

1 ) करामात

लूटा हुआ माल बरामद करने के लिए पुलिस ने छापे मारने शुरू किए।

लोग डर के मारे लूटा हुआ माल रात के अँधेरे में बाहर फेंकने लगे; कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने अपना माल भी मौका पाकर अपने से अलहदा कर दिया, कानूनी गिरफ्त से बचे रहें।

एक आदमी को बहुत दिक्कत पेश आई। उनके पास शक्कर की दो बोरियाँ थीं जो उसने पंसारी की दुकान से लूटी थीं। एक तो वह जूँ-तूँ रात के अँधेरे में पास वाले कुएँ में फेंक आया, लेकिन जब दूसरी उसमें डालने लगा तो खुद भी साथ चला गया।

शोर सुनकर लोग इकट्ठे हो गए। कुएँ में रस्सियाँ डाली गईं। जवान नीचे उतरे और उस आदमी को बाहर निकाल लिया गया; लेकिन वह चंद घंटों के बाद मर गया।

दूसरे दिन जब लोगों ने इस्तेमाल के लिए कुएँ में से पानी निकाला तो वह मीठा था।

उसी रात उस आदमी की कब्र पर दीए जल रहे थे ।



2 ) गलती का सुधार

"कौन हो तुम?"

"तुम कौन हो?"

"हर-हर महादेव…हर-हर महादेव!"

"हर-हर महादेव!"

"सुबूत क्या है?"

"सुबूत…? मेरा नाम धरमचंद है।"

"यह कोई सुबूत नहीं।"

"चार वेदों में से कोई भी बात मुझसे पूछ लो।"

"हम वेदों को नहीं जानते…सुबूत दो।"

"क्या?"

"पायजामा ढीला करो।"

पायजामा ढीला हुआ तो एक शोर मच गया-"मार डालो…मार डालो…"

"ठहरो…ठहरो…मैं तुम्हारा भाई हूँ…भगवान की कसम, तुम्हारा भाई हूँ।"

"तो यह क्या सिलसिला है?"

"जिस इलाके से मैं आ रहा हूँ, वह हमारे दुश्मनों का है…इसलिए मजबूरन मुझे ऐसा करना पड़ा, सिर्फ अपनी जान बचाने के लिए…एक यही चीज गलत हो गई है, बाकी मैं बिल्कुल ठीक हूँ…"

"उड़ा दो गलती को…"

गलती उड़ा दी गई…धरमचंद भी साथ ही उड़ गया।



3 ) घाटे का सौदा

दो दोस्तों ने मिलकर दस-बीस लड़कियों में से एक लड़की चुनी और बयालीस रुपए देकर उसे खरीद लिया।

रात गुजारकर एक दोस्त ने उस लड़की से पूछा-"तुम्हारा क्या नाम है?"

लड़की ने अपना नाम बताया तो वह भिन्ना गया-"हमसे तो कहा गया था कि तुम दूसरे मजहब की हो…"

लड़की ने जवाब दिया-"उसने झूठ बोला था।"

यह सुनकर वह दौड़ा-दौड़ा अपने दोस्त के पास गया और कहने लगा-"उस हरामजादे ने हमारे साथ धोखा किया है…हमारे ही मजहब की लड़की थमा दी…चलो, वापस कर आएँ…।"


4 ) मिशटेक

छुरी पेट चाक करती (चीरती) हुई नाफ (नाभि) के नीचे तक चली गई।

इजारबंद (नाड़ा) कट गया।

छुरी मारने वाले के मुँह से पश्चात्ताप के साथ निकला-"च् च् च्…मिशटेक हो गया!"



5 ) रियायत

"मेरी आँखों के सामने मेरी बेटी को न मारो…"

"चलो, इसी की मान लो…कपड़े उतारकर हाँक दो एक तरफ…"।

- अलकनंदा सिंह 



Sunday 18 December 2022

'अदम गोंडवी' ने लिखा था- मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको'' व उनकी 5 अन्‍य रचनायें


 दुष्यंत ने अपनी गजलों से शायरी की जिस नयी राजनीति की शुरुआत की थी, अदम ने उसे उस मुकाम तक पहुंचाने की कोशिश की है, जहां से एक-एक चीज बगैर किसी धुंधलके के पहचानी जा सके। यह अजीब इत्तफ़ाक भी है कि दोनों ने अपने-अपने जज़्बातों के इजहार के लिए ग़ज़ल का रास्ता चुना।

जन-जन के कवि और शायर अदम गोंडवी की आज पुण्यतिथि है। 22 अक्टूबर 1947 को गोंडा (उत्तर प्रदेश) के अट्टा परसपुर गांव में पैदा हुए अदम गोंडवी की मृत्यु 18 दिसंबर 2011 को लखनऊ में हुई थी। घुटनों तक मटमैली धोती, सिकुड़ा मैला कुरता और गले में सफेद गमछा उनकी पहचान थी। अदम गोंडवी का वास्‍तविक नाम रामनाथ सिंह था। मंच पर मुशायरों के दौरान जब अदम गोंडवी ठेठ गंवई अंदाज़ में हुंकारते थे तो सुनने वालों का कलेजा चीर कर रख देते थे। जाहिर है कि जब शायरी में आम आवाम का दर्द बसता हो, शोषित-कमजोर लोगों को अपनी आवाज उसमें सुनाई देती हो तो ऐसी हुंकार कलेजा क्यों नहीं चीरेगी? अदम गोंडवी की पहचान जीवन भर आम आदमी के शायर के रूप में ही रही। उन्होंने हिंदी ग़ज़ल के क्षेत्र में हिंदुस्तान के कोने-कोने में अपनी पहचान बनाई थी। 

अपनी जीवंत गजल व शायरी से आम जनमानस व समाज के दबे, कुचले लोगों के दर्द को समाज के पटल पर अपनी लेखनी से बयां करने वाले अजीम शायर अदम गोंडवी ने गोंडा जनपद को अपने साहित्य के माध्यम से जो पहचान दिलाई है, लोग आज भी उनके कायल हैं। 

पहली बड़ी कविता ''मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको'' मुझे उनकी बेबाकी बताती है जो कवियों में भी यदाकदा ही देखने को मिली है। 


मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको


आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को

मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको


जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर

मर गई फुलिया बिचारी एक कुएँ में डूब कर


है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी

आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी


चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा

मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा


कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई

लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई


कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है

जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है


थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को

सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को


डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से

घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से


आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में

क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में


होनी से बेखबर कृष्णा बेख़बर राहों में थी

मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी


चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई

छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई


दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया

वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया


और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में

होश में आई तो कृष्णा थी पिता की गोद में


जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था

जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था


बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है

पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है


कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं

कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं


कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें

और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें


बोला कृष्णा से बहन सो जा मेरे अनुरोध से

बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से


पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में

वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में


दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर

देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर


क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया

कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया


कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो

सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो


देखिए ना यह जो कृष्णा है चमारो के यहाँ

पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ


जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है

हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है


भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ

फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ


आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई

जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई


वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई

वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही


जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है

हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है


कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की

गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी


बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया

हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था


क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था

हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था


रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था

भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था


सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में

एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में


घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -

"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"


निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर

एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर


गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया

सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"


"कैसी चोरी, माल कैसा" उसने जैसे ही कहा

एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा


होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर

ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -


"मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुँह में थूक दो

आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"


और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी

बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी


दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था

वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था


घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे

कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे


"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं

हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"

 

यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से

आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से


फिर दहाड़े, "इनको डंडों से सुधारा जाएगा

ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा


इक सिपाही ने कहा, "साइकिल किधर को मोड़ दें

होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"


बोला थानेदार, "मुर्गे की तरह मत बांग दो

होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो


ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है

ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है"


पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल

"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्णा का हाल"

 

उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को

सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को


धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को

प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को


मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में

तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में


गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही

या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही


हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए

बेचती है जिस्म कितनी कृष्‍ना रोटी के लिए!


अदम साहब की चार अन्‍य रचनाऐं जो हमें भीतर तक झाकझोरती है- 


वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है

वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है

इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है

कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है

रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है। 


तीसरी कविता 

जिसके सम्मोहन में पागल धरती है आकाश भी है

जिसके सम्मोहन में पागल धरती है आकाश भी है

एक पहेली-सी दुनिया ये गल्प भी है इतिहास भी है

चिंतन के सोपान पे चढ़ कर चाँद-सितारे छू आये

लेकिन मन की गहराई में माटी की बू-बास भी है

मानवमन के द्वन्द्व को आख़िर किस साँचे में ढालोगे

‘महारास’ की पृष्ट-भूमि में ओशो का सन्यास भी है

इन्द्र-धनुष के पुल से गुज़र कर इस बस्ती तक आए हैं

जहाँ भूख की धूप सलोनी चंचल है बिन्दास भी है

कंकरीट के इस जंगल में फूल खिले पर गंध नहीं

स्मृतियों की घाटी में यूँ कहने को मधुमास भी है.


चौथी कविता - 


घर में ठण्डे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है


घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है।

बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।।


भटकती है हमारे गाँव में गूँगी भिखारन-सी।

सुबह से फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है।।


बग़ावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में।

मैं जब भी देखता हूँ आँख बच्चों की पनीली है।।


सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास वो कैसे।

मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है।।


पांचवीं रचना- 


वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं 


वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं

वे अभागे आस्‍था विश्‍वास लेकर क्‍या करें


लोकरंजन हो जहां शम्‍बूक-वध की आड़ में

उस व्‍यवस्‍था का घृणित इतिहास लेकर क्‍या करें


कितना प्रतिगामी रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास

त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्‍या करें


बुद्धिजीवी के यहाँ सूखे का मतलब और है

ठूंठ में भी सेक्‍स का एहसास लेकर क्‍या करें


गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे

पारलौकिक प्‍यार का मधुमास लेकर क्‍या करें।


- अलकनंदा सिंह

Monday 5 December 2022

‘जश्न-ए-रेख्ता’ में जावेद अख्तर की जिंदगी पर लिखी किताब ‘जादूनामा’


 दिल्ली में चल रहे उर्दू के सबसे बड़े मेले ‘जश्न-ए-रेख्ता’ में उर्दू अदब की शख्सियत जावेद अख्तर जब एक किताब पलटा रहे थे तब उनकी जुबान से लेखक के लिए निकला, ‘आपने तो कमाल कर दिया, ये फोटो तो मेरे खुद के पास नहीं हैं, आपने कहां से जुटा लिए। मुझ जैसे व्यक्ति पर आपने इतनी मेहनत कर दी, किसी दूसरे पर करते तो पीएचडी मिल जाती।’

ये किताब थी जावेद अख्तर की जिंदगी पर लिखी ‘जादूनामा’। इसके लेखक अरविंद मण्डलोई हैं और इसका प्रकाशन मंजुल पब्लिकेशंस ने किया है। ये किताब जादू से जावेद बनने के किस्सों और दास्तानों को समेटे हुए है। जादू जावेद अख्तर का निकनेम है। करीब 450 पन्ने की इस किताब के कई ऐसे पहलू हैं, जो अमूमन लोगों को पता नहीं हैं। जब जावेद साहब ने पहली बार किताब देखी तो उनका चेहरा खिल उठा।
इस किताब की लॉन्चिंग के मौके पर जैसे ही जावेद अख्तर का नाम लिया गया हजारों की जनता का शोर गूंजने लगा। जावेद साहब हमेशा की तरह कुर्ता पायजामा पहने, आदाब-आदाब करते हुए चले आए। विमोचन कार्यक्रम की शुरुआत में जावेद अख्तर की शख्सियत और किताब की विशेषताओं के बारे में बताया गया। 
56 साल पहले किया इन्वेस्टमेंट अब काम आया 
भोपाल में 56 साल पहले जिस जगह से अंग्रेजी की ख्वाजा अहमद अब्बास की किताब ‘इंकलाब’ खरीदी थी, उसी लॉयल बुक डिपो के मंजुल प्रकाशन ने आज मुझ पर किताब छापी है। हंसते हुए बोले ‘पुराना इन्वेस्टमेंट आज काम आया।’
इस दौरान किताब पर चर्चा और अपने अतीत को याद करते हुए उन्होंने कहा कि ‘वो एक बार जब मुंबई में कोहिनूर मिल्स के सामने से बेटी जोया के साथ गुजरे तो उससे उन्होंने कहा कि संघर्ष के दिनों में एक बार उन्होंने यहां से 20 पैसे के चने खरीदे थे और 8 मील पैदल चलकर यहां से गुजरे थे। उन्हें उम्मीद थी कि बेटी शायद इमोशनल हो जाएगी, लेकिन जोया ने कहा, ‘तब तो 20 पैसे में बहुत चने आ जाते होंगे।’ ये किस्सा पूरा होते ही मजमा ठहाके लगाने लगा। फिर वो बोले कि मेरी बेटी जोया का सेंस ऑफ ह्यूमर कमाल का है। 
जावेद साहब ने सेंस ऑफ ह्यूमर से मजमा लूट लिया 
माहौल संजीदा होने पर जावेद साहब ने कहा कि दुनिया में भूख से बड़ी कोई तकलीफ नहीं होती, इसके आगे सब बेमानी है। जब वो ये कह रहे थे तो मजमे में से एक लड़की ने खड़े होकर ‘वक्त’ गजल की फरमाइश कर दी। तो वो बोले ‘कोई इन्हें बता दो कि क्या टाइम हुआ है।’ जावेद साहब के सटीक सेंस ऑफ ह्यूमर ने भीड़ को कायल कर दिया। इस मौके पर जावेद अख्तर मंजुल पब्लिकेशन के विकास रखेजा को मुबारकबाद देना नहीं भूले। 
शायरी संजीदगी और तसल्ली से होती है 
‘तरकश’ और ‘लावा’ नाम की दो किताबों के बाद कोई नई किताब नहीं आने के सवाल पर जावेद अख्तर बोले कि कमर्शियल फिल्में तो ऑडियंस की पसंद को ध्यान में रखकर बनती है, जबकि शायरी संजीदगी और तसल्ली से होती है। कोई ख्याल ऐसा हो जो पूरा और अनोखा हो, तभी मैं लिख पाता हूं, वर्ना नहीं लिखता।
लेखक मण्डलोई ने बताया सलीम-जावेद की जोड़ी का राज
‘जादूनामा’ के लेखक मण्डलोई ने बताया कि किताब के दौरान जब उन्होंने जीपी सिप्पी से बात की तो उन्होंने सलीम-जावेद की जोड़ी का एक राज खोला। उन्होंने कहा, ‘शोले के डायलॉग जावेद अख्तर साहब ने लिखे थे, बाकी फिल्मों में भी उन्होंने ही डॉयलॉग लिखे।’ जादूनामा शीर्षक को लेकर उन्होंने बताया कि जावेद साहब का निकनेम जादू है, इसलिए जिंदगी के हिस्से समेटने वाली किताब का नाम ‘जादूनामा’ रखना तय किया।
जादूनामा के जादुई किस्से, जादू नाम पड़ने का राज सुनिए...
जावेद अख्तर पर लिखी गई किताब में जावेद साहब का जादू नाम पड़ने का राज खोला गया है। उनके पिता जां निसार अख्तर की जब शादी हुई थी, तब उन्होंने जादू नाम से एक नज्म कही थी। जिसकी लाइन थी, ‘लम्हा-लम्हा किसी जादू का फसाना होगा’। जावेद के जन्म के समय जां निसार को यह नज्म याद दिलाते हुए कहा कि क्यों न बच्चे का नाम जादू रखा जाए। इस तरह उनका निकनेम जादू पड़ गया। जावेद का मतलब है ‘अमर’ और अख्तर का मतलब है ‘सितारा’ दोनों शब्दों को मिलाकर हुआ ‘अमर सितारा’।
सैफिया कॉलेज का वो खाली कमरा
भोपाल के सैफिया कॉलेज का जिक्र किताब में है। वे कहते हैं कि मैं इस कॉलेज का ऐसा स्टूडेंट था, जिससे कभी फीस नहीं ली गई। यह शायद भोपाल में ही संभव था। क्लास खत्म होने के बाद मैं खाली कमरे में अपना बिस्तर जमा लेता, होटलों में उधार खाता, कॉलेज के कुछ दोस्त मेरे लिए टिफिन लाते। उन्हें एहसास ही नहीं होता था कि उनके जाने के बाद मैं बहुत रोता हूं कि ये मेरा कितना ख्याल रखने वाले दोस्त हैं। उन्होंने भोपाल की यादों में वहाजुद्दीन अंसारी, एजाज अंसारी, फतेउल्लाह, एहसान मुल्ला, मन्नान भाई का जिक्र किया है। किताब में भोपाल के सफर पर बकायदा एक पूरा चैप्टर है।
मुंबई आने पर जेब में 27 पैसे थे तो मैं खुश था
4 अक्टूबर 1964 को भोपाल छोड़कर मुंबई पहुंच गया। यहां 6 दिन बाद ही वालिद का घर छोड़ना पड़ा, तब जेब में 27 पैसे थे। मैं खुश था कि जिंदगी में कभी 28 पैसे भी जेब में आएंगे तो मैं फायदे में रहूंगा। यहां फिल्मी दुनिया में कदम जमाने के लिए एक लंबा किस्सा शुरू हुआ। ​​​​​​
फिल्म के सेट पर हुई थी हनी ईरानी से मुलाकात
सीता-गीता के फिल्म के सेट पर मुलाकात हनी ईरानी से हुई। बाद में शादी कर ली। कुछ अरसे बाद तलाक हो गया, लेकिन हमारी दोस्ती कोई नहीं बिगाड़ सका, ना ही हमारा रिश्ता टूटना बच्चों में कड़वाहट ला सका। इस कमाल का श्रेय हनी ईरानी को जाता है।
एंग्री यंग मैन का कैरेक्टर बिरजू से निकला था
मदर इंडिया के बिरजू से प्रेरित होकर एंग्री यंग मैन कैरेक्टर के बारे में सोचा। इसे बाद में फिल्मों में खूब इस्तेमाल किया गया और सक्सेसफुल फिल्म का फॉर्मूला बन गया।
निहार सिंह से आया था सूरमा भोपाली कैरेक्टेर का आइडिया
किताब में बताया गया है कि शोले फिल्म के लिए सूरमा भोपाली का किरदार निहार सिंह से प्रेरित था। निहार सिंह खुद को बहुत बड़ा दादा समझते थे। उनके दोस्त भी उन्हें हमेशा यही एहसास कराते रहते थे। किसी ने कहा कि तुम्हारे नाम से जावेद मुंबई में बहुत पैसे कमा रहा है। इसे लेकर उन्होंने कानूनी कार्रवाई तक शुरू कर दी। अखबार में विज्ञापन दिया। इसी बीच फिल्म दीवार रिलीज हो गई। निहार यह फिल्म सिर्फ इसलिए देखने गए कि कहीं इसमें उनका नाम तो नहीं है।

- Alaknanda Singh

Saturday 15 October 2022

कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' की पुण्‍यतिथि आज, पढ़िए उनकी रचना - कुकुरमुत्‍ता


 'निराला' भारतीय संस्कृति के द्रष्टा कवि हैं-वे गलित रूढ़ियों के विरोधी तथा संस्कृति के युगानुरूप पक्षों के उद्घाटक और पोषक रहे हैं पर काव्य तथा जीवन में निरन्तर रूढ़ियों का मूलोच्छेद करते हुए इन्हें अनेक संघर्षों का सामना करना पड़ा। मध्यम श्रेणी में उत्पन्न होकर परिस्थितियों के घात-प्रतिघात से मोर्चा लेता हुआ आदर्श के लिए सब कुछ उत्सर्ग करने वाला महापुरुष जिस मानसिक स्थिति को पहुँचा, उसे बहुत से लोग व्यक्तित्व की अपूर्णता कहते हैं। पर जहाँ व्यक्ति के आदर्शों और सामाजिक हीनताओं में निरन्तर संघर्ष हो, वहाँ व्यक्ति का ऐसी स्थिति में पड़ना स्वाभाविक ही है। हिन्दी की ओर से 'निराला' को यह बलि देनी पड़ी। जागृत और उन्नतिशील साहित्य में ही ऐसी बलियाँ सम्भव हुआ करती हैं- प्रतिगामी और उद्देश्यहीन साहित्य में नहीं। 

पढ़िए उनकी रचना - कुकुरमुत्‍ता    


एक थे नव्वाब,
फ़ारस से मंगाए थे गुलाब।
बड़ी बाड़ी में लगाए
देशी पौधे भी उगाए
रखे माली, कई नौकर
गजनवी का बाग मनहर
लग रहा था।
एक सपना जग रहा था
सांस पर तहजबी की,
गोद पर तरतीब की।
क्यारियां सुन्दर बनी
चमन में फैली घनी।
फूलों के पौधे वहाँ
लग रहे थे खुशनुमा।
बेला, गुलशब्बो, चमेली, कामिनी,
जूही, नरगिस, रातरानी, कमलिनी,
चम्पा, गुलमेंहदी, गुलखैरू, गुलअब्बास,
गेंदा, गुलदाऊदी, निवाड़, गन्धराज,
और किरने फ़ूल, फ़व्वारे कई,
रंग अनेकों-सुर्ख, धनी, चम्पई,
आसमानी, सब्ज, फ़िरोज सफ़ेद,
जर्द, बादामी, बसन्त, सभी भेद।
फ़लों के भी पेड़ थे,
आम, लीची, सन्तरे और फ़ालसे।
चटकती कलियां, निकलती मृदुल गन्ध,
लगे लगकर हवा चलती मन्द-मन्द,
चहकती बुलबुल, मचलती टहनियां,
बाग चिड़ियों का बना था आशियाँ।
साफ़ राह, सरा दानों ओर,
दूर तक फैले हुए कुल छोर,
बीच में आरामगाह
दे रही थी बड़प्पन की थाह।
कहीं झरने, कहीं छोटी-सी पहाड़ी,
कही सुथरा चमन, नकली कहीं झाड़ी।
आया मौसिम, खिला फ़ारस का गुलाब,
बाग पर उसका पड़ा था रोब-ओ-दाब;
वहीं गन्दे में उगा देता हुआ बुत्ता
पहाड़ी से उठे-सर ऐंठकर बोला कुकुरमुत्ता-
“अब, सुन बे, गुलाब,
भूल मत जो पायी खुशबु, रंग-ओ-आब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा है केपीटलिस्ट!
कितनों को तूने बनाया है गुलाम,
माली कर रक्खा, सहाया जाड़ा-घाम,
हाथ जिसके तू लगा,
पैर सर रखकर वो पीछे को भागा
औरत की जानिब मैदान यह छोड़कर,
तबेले को टट्टू जैसे तोड़कर,
शाहों, राजों, अमीरों का रहा प्यारा
तभी साधारणों से तू रहा न्यारा।
वरना क्या तेरी हस्ती है, पोच तू
कांटो ही से भरा है यह सोच तू
कली जो चटकी अभी
सूखकर कांटा हुई होती कभी।
रोज पड़ता रहा पानी,
तू हरामी खानदानी।
चाहिए तुझको सदा मेहरून्निसा
जो निकाले इत्र, रू, ऐसी दिशा
बहाकर ले चले लोगो को, नही कोई किनारा
जहाँ अपना नहीं कोई भी सहारा
ख्वाब में डूबा चमकता हो सितारा
पेट में डंड पेले हों चूहे, जबां पर लफ़्ज प्यारा।
देख मुझको, मैं बढ़ा
डेढ़ बालिश्त और ऊंचे पर चढ़ा
और अपने से उगा मैं
बिना दाने का चुगा मैं
कलम मेरा नही लगता
मेरा जीवन आप जगता
तू है नकली, मै हूँ मौलिक
तू है बकरा, मै हूँ कौलिक
तू रंगा और मैं धुला
पानी मैं, तू बुलबुला
तूने दुनिया को बिगाड़ा
मैंने गिरते से उभाड़ा
तूने रोटी छीन ली जनखा बनाकर
एक की दी तीन मैने गुन सुनाकर।

काम मुझ ही से सधा है
शेर भी मुझसे गधा है
चीन में मेरी नकल, छाता बना
छत्र भारत का वही, कैसा तना
सब जगह तू देख ले
आज का फिर रूप पैराशूट ले।
विष्णु का मैं ही सुदर्शनचक्र हूँ।
काम दुनिया मे पड़ा ज्यों, वक्र हूँ।
उलट दे, मैं ही जसोदा की मथानी
और लम्बी कहानी-
सामने लाकर मुझे बेंड़ा
देख कैंडा
तीर से खींचा धनुष मैं राम का।
काम का-
पड़ा कन्धे पर हूँ हल बलराम का।
सुबह का सूरज हूँ मैं ही
चांद मैं ही शाम का।
कलजुगी मैं ढाल
नाव का मैं तला नीचे और ऊपर पाल।
मैं ही डांड़ी से लगा पल्ला
सारी दुनिया तोलती गल्ला
मुझसे मूछें, मुझसे कल्ला
मेरे उल्लू, मेरे लल्ला
कहे रूपया या अधन्ना
हो बनारस या न्यवन्ना
रूप मेरा, मै चमकता
गोला मेरा ही बमकता।
लगाता हूँ पार मैं ही
डुबाता मझधार मैं ही।
डब्बे का मैं ही नमूना
पान मैं ही, मैं ही चूना

मैं कुकुरमुत्ता हूँ,
पर बेन्जाइन (Bengoin) वैसे
बने दर्शनशास्त्र जैसे।
ओमफ़लस (Omphalos) और ब्रहमावर्त
वैसे ही दुनिया के गोले और पर्त
जैसे सिकुड़न और साड़ी,
ज्यों सफ़ाई और माड़ी।
कास्मोपालिटन और मेट्रोपालिटन
जैसे फ़्रायड और लीटन।
फ़ेलसी और फ़लसफ़ा
जरूरत और हो रफ़ा।
सरसता में फ़्राड
केपिटल में जैसे लेनिनग्राड।
सच समझ जैसे रकीब
लेखकों में लण्ठ जैसे खुशनसीब

मैं डबल जब, बना डमरू
इकबगल, तब बना वीणा।
मन्द्र होकर कभी निकला
कभी बनकर ध्वनि छीणा।
मैं पुरूष और मैं ही अबला।
मै मृदंग और मैं ही तबला।
चुन्ने खां के हाथ का मैं ही सितार
दिगम्बर का तानपूरा, हसीना का सुरबहार।
मैं ही लायर, लिरिक मुझसे ही बने
संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, ग्रीक, लैटिन के जने
मन्त्र, गज़लें, गीत, मुझसे ही हुए शैदा
जीते है, फिर मरते है, फिर होते है पैदा।
वायलिन मुझसे बजा
बेन्जो मुझसे सजा।
घण्टा, घण्टी, ढोल, डफ़, घड़ियाल,
शंख, तुरही, मजीरे, करताल,
करनेट, क्लेरीअनेट, ड्रम, फ़्लूट, गीटर,
बजानेवाले हसन खां, बुद्धू, पीटर,
मानते हैं सब मुझे ये बायें से,
जानते हैं दाये से।

ताताधिन्ना चलती है जितनी तरह
देख, सब में लगी है मेरी गिरह
नाच में यह मेरा ही जीवन खुला
पैरों से मैं ही तुला।
कत्थक हो या कथकली या बालडान्स,
क्लियोपेट्रा, कमल-भौंरा, कोई रोमान्स
बहेलिया हो, मोर हो, मणिपुरी, गरबा,
पैर, माझा, हाथ, गरदन, भौंहें मटका
नाच अफ़्रीकन हो या यूरोपीयन,
सब में मेरी ही गढ़न।
किसी भी तरह का हावभाव,
मेरा ही रहता है सबमें ताव।
मैने बदलें पैंतरे,
जहां भी शासक लड़े।
पर हैं प्रोलेटेरियन झगड़े जहां,
मियां-बीबी के, क्या कहना है वहां।
नाचता है सूदखोर जहां कहीं ब्याज डुचता,
नाच मेरा क्लाईमेक्स को पहुचंता।

नहीं मेरे हाड़, कांटे, काठ का
नहीं मेरा बदन आठोगांठ का।
रस-ही-रस मैं हो रहा
सफ़ेदी का जहन्नम रोकर रहा।
दुनिया में सबने मुझी से रस चुराया,
रस में मैं डूबा-उतराया।
मुझी में गोते लगाये वाल्मीकि-व्यास ने
मुझी से पोथे निकाले भास-कालिदास ने।
टुकुर-टुकुर देखा किये मेरे ही किनारे खड़े
हाफ़िज-रवीन्द्र जैसे विश्वकवि बड़े-बड़े।
कहीं का रोड़ा, कही का पत्थर
टी.एस. एलीयट ने जैसे दे मारा
पढ़नेवाले ने भी जिगर पर रखकर
हाथ, कहां,’लिख दिया जहां सारा’।
ज्यादा देखने को आंख दबाकर
शाम को किसी ने जैसे देखा तारा।
जैसे प्रोग्रेसीव का कलम लेते ही
रोका नहीं रूकता जोश का पारा
यहीं से यह कुल हुआ
जैसे अम्मा से बुआ।
मेरी सूरत के नमूने पीरामेड
मेरा चेला था यूक्लीड।
रामेश्वर, मीनाछी, भुवनेश्वर,
जगन्नाथ, जितने मन्दिर सुन्दर
मैं ही सबका जनक
जेवर जैसे कनक।
हो कुतुबमीनार,
ताज, आगरा या फ़ोर्ट चुनार,
विक्टोरिया मेमोरियल, कलकत्ता,
मस्जिद, बगदाद, जुम्मा, अलबत्ता
सेन्ट पीटर्स गिरजा हो या घण्टाघर,
गुम्बदों में, गढ़न में मेरी मुहर।
एरियन हो, पर्शियन या गाथिक आर्च
पड़ती है मेरी ही टार्च।
पहले के हो, बीच के हो या आज के
चेहरे से पिद्दी के हों या बाज के।
चीन के फ़ारस के या जापान के
अमरिका के, रूस के, इटली के, इंगलिस्तान के।
ईंट के, पत्थर के हों या लकड़ी के
कहीं की भी मकड़ी के।
बुने जाले जैसे मकां कुल मेरे
छत्ते के हैं घेरे।

सर सभी का फ़ांसनेवाला हूं ट्रेप
टर्की टोपी, दुपलिया या किश्ती-केप।
और जितने, लगा जिनमें स्ट्रा या मेट,
देख, मेरी नक्ल है अंगरेजी हेट।
घूमता हूं सर चढ़ा,
तू नहीं, मैं ही बड़ा।”

(२)
बाग के बाहर पड़े थे झोपड़े
दूर से जो देख रहे थे अधगड़े।
जगह गन्दी, रूका, सड़ता हुआ पानी
मोरियों मे; जिन्दगी की लन्तरानी-
बिलबिलाते किड़े, बिखरी हड्डियां
सेलरों की, परों की थी गड्डियां
कहीं मुर्गी, कही अण्डे,
धूप खाते हुए कण्डे।
हवा बदबू से मिली
हर तरह की बासीली पड़ी गयी।
रहते थे नव्वाब के खादिम
अफ़्रिका के आदमी आदिम-
खानसामां, बावर्ची और चोबदार;
सिपाही, साईस, भिश्ती, घुड़सवार,
तामजानवाले कुछ देशी कहार,
नाई, धोबी, तेली, तम्बोली, कुम्हार,
फ़ीलवान, ऊंटवान, गाड़ीवान
एक खासा हिन्दु-मुस्लिम खानदान।
एक ही रस्सी से किस्मत की बंधा
काटता था जिन्दगी गिरता-सधा।
बच्चे, बुड्ढे, औरते और नौजवान
रह्ते थे उस बस्ती में, कुछ बागबान
पेट के मारे वहां पर आ बसे
साथ उनके रहे, रोये और हंसे।

एक मालिन
बीबी मोना माली की थी बंगालिन;
लड़की उसकी, नाम गोली
वह नव्वाबजादी की थी हमजोली।
नाम था नव्वाबजादी का बहार
नजरों में सारा जहां फ़र्माबरदार।
सारंगी जैसी चढ़ी
पोएट्री में बोलती थी
प्रोज में बिल्कुल अड़ी।
गोली की मां बंगालिन, बहुत शिष्ट
पोयट्री की स्पेशलिस्ट।
बातों जैसे मजती थी
सारंगी वह बजती थी।
सुनकर राग, सरगम तान
खिलती थी बहार की जान।
गोली की मां सोचती थी-
गुर मिला,
बिना पकड़े खिचे कान
देखादेखी बोली में
मां की अदा सीखी नन्हीं गोली ने।
इसलिए बहार वहां बारहोमास
डटी रही गोली की मां के
कभी गोली के पास।
सुबहो-शाम दोनों वक्त जाती थी
खुशामद से तनतनाई आती थी।
गोली डांडी पर पासंगवाली कौड़ी
स्टीमबोट की डोंगी, फ़िरती दौड़ी।
पर कहेंगे-
‘साथ-ही-साथ वहां दोनो रहती थीं
अपनी-अपनी कहती थी।
दोनों के दिल मिले थे
तारे खुले-खिले थे।
हाथ पकड़े घूमती थीं
खिलखिलाती झूमती थीं।
इक पर इक करती थीं चोट
हंसकर होतीं लोटपोट।
सात का दोनों का सिन
खुशी से कटते थे दिन।
महल में भी गोली जाया करती थी
जैसे यहां बहार आया करती थी।

एक दिन हंसकर बहार यह बोली-
“चलो, बाग घूम आयें हम, गोली।”
दोनों चली, जैसे धूप, और छांह
गोली के गले पड़ी बहार की बांह।
साथ टेरियर और एक नौकरानी।
सामने कुछ औरतें भरती थीं पानी
सिटपिटायी जैसे अड़गड़े मे देखा मर्द को
बाबू ने देखा हो उठती गर्दन को।
निकल जाने पर बहार के, बोली
पहली दूसरी से, “देखो, वह गोली
मोना बंगाली की लड़की ।
भैंस भड़्की,
ऎसी उसकी मां की सूरत
मगर है नव्वाब की आंखों मे मूरत।
रोज जाती है महल को, जगे भाग
आखं का जब उतरा पानी, लगे आग,
रोज ढोया आ रहा है माल-असबाब
बन रहे हैं गहने-जेवर
पकता है कलिया-कबाब।”
झटके से सिर-आंख पर फ़िर लिये घड़े
चली ठनकाती कड़े।
बाग में आयी बहार
चम्पे की लम्बी कतार
देखती बढ़्ती गयी
फ़ूल पर अड़ती गयी।
मौलसिरी की छांह में
कुछ देर बैठ बेन्च पर
फ़िर निगाह डाली एक रेन्ज पर
देखा फ़िर कुछ उड़ रही थी तितलियां
डालों पर, कितनी चहकती थीं चिड़ियां।
भौरें गूंजते, हुए मतवाले-से
उड़ गया इक मकड़ी के फ़ंसकर बड़े-से जाले से।
फ़िर निगाह उठायी आसमान की ओर
देखती रही कि कितनी दूर तक छोर
देखा, उठ रही थी धूप-
पड़ती फ़ुनगियों पर, चमचमाया रूप।
पेड़ जैसे शाह इक-से-इक बड़े
ताज पहने, है खड़े।
आया माली, हाथ गुलदस्ते लिये
गुलबहार को दिये।
गोली को इक गुलदस्ता
सूंघकर हंसकर बहार ने दिया।
जरा बैठकर उठी, तिरछी गली
होती कुन्ज को चली!
देखी फ़ारांसीसी लिली
और गुलबकावली।
फ़िर गुलाबजामुन का बाग छोड़ा
तूतो के पेड़ो से बायें मुंह मोड़ा।
एक बगल की झाड़ी
बढ़ी जिधर थी बड़ी गुलाबबाड़ी।
देखा, खिल रहे थे बड़े-बड़े फ़ूल
लहराया जी का सागर अकूल।
दुम हिलाता भागा टेरियर कुत्ता
जैसे दौड़ी गोली चिल्लाती हुई ‘कुकुरमुत्ता’।
सकपकायी, बहार देखने लगी
जैसे कुकुरमुत्ते के प्रेम से भरी गोली दगी।
भूल गयी, उसका था गुलाब पर जो कुछ भी प्यार
सिर्फ़ वह गोली को देखती रही निगाह की धार।
टूटी गोली जैसे बिल्ली देखकर अपना शिकार
तोड़कर कुकुरमुत्तों को होती थी उनके निसार।
बहुत उगे थे तब तक
उसने कुल अपने आंचल में
तोड़कर रखे अब तक।
घूमी प्यार से
मुसकराती देखकर बोली बहार से-
“देखो जी भरकर गुलाब
हम खायंगे कुकुरमुत्ते का कबाब।”
कुकुरमुत्ते की कहानी
सुनी उससे जीभ में बहार की आया पानी।
पूछा “क्या इसका कबाब
होगा ऎसा भी लजीज?
जितनी भाजियां दुनिया में
इसके सामने नाचीज?”
गोली बोली-”जैसी खुशबू
इसका वैसा ही स्वाद,
खाते खाते हर एक को
आ जाती है बिहिश्त की याद
सच समझ लो, इसका कलिया
तेल का भूना कबाब,
भाजियों में वैसा
जैसा आदमियों मे नव्वाब”

“नहीं ऎसा कहते री मालिन की
छोकड़ी बंगालिन की!”
डांटा नौकरानी ने-
चढ़ी-आंख कानी ने।
लेकिन यह, कुछ एक घूंट लार के
जा चुके थे पेट में तब तक बहार के।
“नहीं नही, अगर इसको कुछ कहा”
पलटकर बहार ने उसे डांटा-
“कुकुरमुत्ते का कबाब खाना है,
इसके साथ यहां जाना है।”
“बता, गोली” पूछा उसने,
“कुकुरमुत्ते का कबाब
वैसी खुशबु देता है
जैसी कि देता है गुलाब!”
गोली ने बनाया मुंह
बाये घूमकर फ़िर एक छोटी-सी निकाली “उंह!”
कहा,”बकरा हो या दुम्बा
मुर्ग या कोई परिन्दा
इसके सामने सब छू:
सबसे बढ़कर इसकी खुशबु।
भरता है गुलाब पानी
इसके आगे मरती है इन सबकी नानी।”
चाव से गोली चली
बहार उसके पीछे हो ली,
उसके पीछे टेरियर, फ़िर नौकरानी
पोंछती जो आंख कानी।
चली गोली आगे जैसे डिक्टेटर
बहार उसके पीछे जैसे भुक्खड़ फ़ालोवर।
उसके पीछे दुम हिलाता टेरियर-
आधुनिक पोयेट (Poet)
पीछे बांदी बचत की सोचती
केपीटलिस्ट क्वेट।
झोपड़ी में जल्दी चलकर गोली आयी
जोर से ‘मां’ चिल्लायी।
मां ने दरवाजा खोला,
आंखो से सबको तोला।
भीतर आ डलिये मे रक्खे
मोली ने वे कुकुरमुत्ते।
देखकर मां खिल गयी।
निधि जैसे मिल गयी।
कहा गोली ने, “अम्मा,
कलिया-कबाब जल्द बना।
पकाना मसालेदार
अच्छा, खायेंगी बहार।
पतली-पतली चपातियां
उनके लिए सेख लेना।”
जला ज्यों ही उधर चूल्हा,
खेलने लगीं दोनों दुल्हन-दूल्हा।
कोठरी में अलग चलकर
बांदी की कानी को छलकर।
टेरियर था बराती
आज का गोली का साथ।
हो गयी शादी कि फ़िर दूल्हन-बहार से।
दूल्हा-गोली बातें करने लगी प्यार से।
इस तरह कुछ वक्त बीता, खाना तैयार
हो गया, खाने चलीं गोली और बहार।
कैसे कहें भाव जो मां की आंखो से बरसे
थाली लगायी बड़े समादर से।
खाते ही बहार ने यह फ़रमाया,
“ऎसा खाना आज तक नही खाया”
शौक से लेकर सवाद
खाती रहीं दोनो
कुकुरमुत्ते का कलिया-कबाब।
बांदी को भी थोड़ा-सा
गोली की मां ने कबाब परोसा।
अच्छा लगा, थोड़ा-सा कलिया भी
बाद को ला दिया,
हाथ धुलाकर देकर पान उसको बिदा किया।

कुकुरमुत्ते की कहानी
सुनी जब बहार से
नव्वाब के मुंह आया पानी।
बांदी से की पूछताछ,
उनको हो गया विश्वास।
माली को बुला भेजा,
कहा,”कुकुरमुत्ता चलकर ले आ तू ताजा-ताजा।”
माली ने कहा,”हुजूर,
कुकुरमुत्ता अब नहीं रहा है, अर्ज हो मन्जूर,
रहे है अब सिर्फ़ गुलाब।”
गुस्सा आया, कांपने लगे नव्वाब।
बोले;”चल, गुलाब जहां थे, उगा,
सबके साथ हम भी चाहते है अब कुकुरमुत्ता।”
बोला माली,”फ़रमाएं मआफ़ खता,
कुकुरमुत्ता अब उगाया नहीं उगता।”

- अलकनंदा सिंह 

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