Monday, 14 October 2013

दंगों पर..

पत्‍थर सी बेजान पड़ी लाशें
कहीं धड़ है तो कहीं सिर
खून से लबालब हैं सारे शहर की नालियां
बहते हूये खून में भी, अब तो कीड़े पड़ गये

बचाओ बचाओ की आवाजें और उनका खौफ
न रोटी बेटी का मसला है ना मान सम्‍मान का
फिर क्‍यों श्‍मसान में तब्‍दील कीं बस्‍तियां
ए सियासत के मरीजो ! ज़रा बताओ तो
क्‍या बेचारगी से मर रही ज़िंदगी के,
नाटक तुम्‍हारे लिए कम पड़ गये

कौन रोया है हक़ीकत दंगों की देखने के बाद,
तुम तो अब मुर्दों के बनाये मंच पर
ज़़िंदा लाशों की तरह नाचते हो
शमसीर को रख लो मयान में अभी,
बचे हुये बच्‍चों के सीने छोटे हैं अभी

अरे..सियासत के मरीजो !
जाओ, कुछ साल रुक कर आना
तब तक बस्‍तियां जवान हो लेंगीं
तुम्‍हारी शमसीर भी कुछ सांस ले लेगी
तुम फिर रचोगे एक नदी
बहते हुये खून की..क्‍योंकि-
हमनिवालों का शिकार तुम्‍हें भाता है
नया जवान खून जो मुंह को है लगा
तो छूटने को हर बार शमसीर ही मांगता है
खून से सने हाथों को खून से ही धोने की
ये अजब शर्त है इस ज़मीं पर जिंदगी की
खून में नहाया भी सफेदपोश ही कहलाता है

सालों से इस माज़रे के गवाह रहे
एक गिद्ध ने दूसरे से कहा-
छोड़ो, अब ये खून.. शमसीर और
आम आदमी के रोने की बातें
अमां हमें तो कबके खाने के लाले पड़ गये
जब से मंचों पर सजे हैं ये सफेदपोश
तभी से हमें अपने बच्‍चे भी गंवाने पड़ गये...
- अलकनंदा सिंह

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