Sunday, 30 March 2014

हिस्‍सा... ?

बारिश की हर बूंद पर लिखा है
ज़मीं पर उसका कितना हिस्‍सा
कायनात का ये बंटवारा क्‍या
क्‍या सबके हिस्‍से लिख पाया है

कहीं जज्‍़बात परवान चढ़ाते
कहीं हकीक़तें फ़र्श दिखातीं
तब्‍दीली की रफ्तारों से झूलती
अपने हिस्‍से के हर लम्‍हे पर सांसें
घूंट उम्‍मीदों का सेती जातीं हैं

ये कैसा समय दरक रहा है
सब अपने अपने हिस्‍से में भी
रूहों का हिस्‍सा भूल रहे हैं,
घुलकर चलना, चलकर घुलना
बहकर रमते जाना यूं ही बस
बेहिस्‍से होकर हिस्‍सों में बंटना
रूह जाने कैसे कर पाती है
बेहिस्‍सा के हिस्‍सों में रहकर

बंटवारे का कोई सिफ़र नहीं होता
और सिफ़र की कोई जिंदगी नहीं
इन्‍हीं रूहों के आसपास हम-तुम
सिफ़र बनाते घूम रहे हैं

धरती पर अपने अपने हिस्‍से के
रूहों - अहसासों की भाप उड़ाकर
दौड़ रहे हैं, मचल रहे हैं...
हम किस हिस्‍से को तरस रहे हैं
अपने गुमानों से निकलें
आओ रूह बनकर घुल जायें फिर
धरती पर हिस्‍सों को ढूढ़ते 'मैं' और 'तुम'
हर हिस्‍से के 'हम' बन जायेंगे।

- अलकनंदा सिंह

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