Saturday 26 July 2014

किसके हस्‍ताक्षर हैं ये

वो आवाजें जो गूंजती हैं रातों को
बिछा देती हैं कुछ करवटें अपने अहं की
वो आंखें जो देती हैं सूरतों पर निशान
वो  प्रेम के ही अस्‍तित्‍व की चिता बुनती हैं

हिम्‍मतें भी जोर से उछलती हैं अंतर्मन में
ढूढ़ती अपने ही अस्‍तित्‍व को
देखती रहती हैं राह बुढ़ापे की
कि शायद तब तक तो ठंडा हो जायेगा
तुम्‍हारे उस अप्रेम प्रेम का दावा
जो अकाल में ही चबा गया है प्रेम को,
अस्‍तित्‍व को, धर्म को , विश्‍वास को
तुम्‍हारे विश्‍वास को अपनी श्रद्धा का
 आचमन कहां दे पाई मैं देखो तो...

गर्व से जब तुम्‍हारा सीना फूलता है
तब मेरी सांसें अंतिम यात्रा का,
करती हैं इंतजार ...क्‍योंकि,
प्रेम से अहं पर
विजय पाने की कला
अब तक नहीं सीखी जा सकी

 भ्रम था तुम्‍हारी हथेलियों में आने का
तुम्‍हारे ह्रदय में समाते चले जाने का
या थी वो प्रेम की मृगतृष्‍णा मेरी
कि मैं नहीं दे पाई तुम्‍हें
अपने प्रेम का प्रमाणपत्र
जिसपर तुम करते अपने हस्‍ताक्षर

मगर देखो कोरे कागज में ही दर्ज़ होती हैं
प्रेम की  अनेक गाथायें-निर्बलतायें
हस्‍ताक्षरविहीन कागज तुम्‍हारे घर की ओर
उड़ा दिया है मैंने कबका....
-अलकनंदा सिंह

Wednesday 23 July 2014

उन्‍मुक्‍त वसन




उन्‍मुक्‍त वसन में प्रेम गहन,
कुछ कम मिलता है
देह धवल में काला मन
अक्‍सर दिखता है

जो दिखे नहीं वही बीज
अंकुर दे पाता है
तन जल जाता पर मन को
कौन जला पाता है

अभी और कितनी यात्रायें हमको
करनी हैं यूं ही शब्‍दों पर चलकर
अंकुर से पहले जो जड़ था
चैतन्‍य उसे अब करना है
उर में बैठे श्‍वासों को
निज मान के रस से रचकर
बस कैसे भी अविरल
सिंचित करते रहना है

 -    अलकनंदा सिंह

Sunday 13 July 2014

तुम यहीं हो...

ये आहटें,ये खुश्‍बुएं,ये हवाओं का थम जाना,
बता रहा  है कि तुम यहीं हो सखा,
मेरे आसपास...नहीं नहीं...
मेरे नहीं मेरी आत्‍मा के पास
मन के बंधन से मुक्‍त
तन के बंधन भी कब के हुए विलुप्‍त
....छंद दर छंद पर तुम्‍हारी सीख कि
धैर्य से जीता जा सकता है सबकुछ
रखती हूं धैर्य भी पर....
जीवन की निष्‍प्राणता से तनिक
चिंतायें उभर आती हैं कि
हे सखा तुमसे  मिलने के लिए
क्‍या....शरीर त्‍यागना जरूरी है

- अलकनंदा सिंह

Tuesday 8 July 2014

अभिमन्‍यु का शर-संधान

देखो, हर पड़ाव पर अभिमन्‍यु
किये खड़ा है शर-संधान
व्‍यूह में धंसे अहंकार को
करने को ध्‍वस्‍त,हो विकल-निरंतर
इच्‍छाओं के हर द्वार पर खड़े
अहंकार के जयद्रथी-महारथी
अपने अपने आक्रमण से
छलनी कर चुके हैं मानुष तन
वो नहीं देख पाते हैं घायल मन
फिर भी अभिमन्‍यु अब तक लड़ रहा है
सदियों से लगातार अविराम
मगर व्‍यूह वज्र हो गया हो जैसे
टूटता नहीं, वो फिर फिर बनता है
और घना, और बड़ा, और कठिन
अभिमान का द्वार तोड़ने को
क्‍या फिर कल्‍कि को आना होगा
नहीं... नहीं... नहीं...नहीं...
हमें ही अभिमन्‍यु के शर पर
बैठ अपना अहं स्‍वयं वेध कर जाना होगा।

- अलकनंदा सिंह

Thursday 3 July 2014

मुक्‍ति का पथ

मुझे जीतना है अपना मन
जीतनी है तुम्‍हारी ईर्ष्‍या और जलन
मैं हूं अहसास की वो नदी जिस पर
मुझे बहकर उकेरने हैं वो शब्‍द
जिनमें खुद बहती जाऊं मैं

वो शब्‍द, जो पिंजरों से मुक्‍त हों
वो शब्‍द, जो बोल सकें अपनी बात
वो शब्‍द, जो खोल सकें अपनी सांसें
वो शब्‍द, जो बता सकें कि...
क्‍यों होती है तुम्‍हें ईर्ष्‍या मुझसे
क्‍यों बांधते हो तुम मुझ पै बंधन
क्‍यों करते रहते हो चारदीवारियों का निर्माण
मन की, तन की, धन की और...और...,

चलो छोड़ो जाने भी दो...
सदियां बीत गईं बहस वहीं है खड़ी ये
मेरी मुक्‍ति का पथ
मेरे शब्‍दों की मुक्‍ति का पथ
मेरे अस्‍तित्‍व की मुक्‍ति का पथ ढूढ़ते हुये,
कुछ पाया कुछ खोया भी मैंने
पाया अपनी दृढ़ता को
अपने शब्‍दों की भाषा को

खोया है तुम्‍हारा प्रेम-निश्‍छल
जो आलिंगन को होता था लालायित
अब इसी आलिंगन के बीच आ जाते हैं शब्‍द
चुपके से और तुम हो जाते हो
निष्‍क्रिय आक्रामक भावुक अस्‍पष्‍ट

अब समझे कि स्‍वयं को स्‍वयं से ही
दूर जाते हुए देखना कैसा लगता है
जैसे आत्‍मा से कोई तुम्‍हें कर रहा हो अलग
मैंने तो सदियों से झेली है ये कटन
ये ताड़ना ये चुभन ये गलन

मुझमें बहते हैं शब्‍द मगर जकड़े हुए
वे सहलाकर कहते हैं मुझे कि -
सखी, समय की बदली चाल को तुम 
अच्‍छी तरह समझ लेना
कहीं तुम अस्‍थिर ना होना
कहीं तुम विचलित ना होना
कहीं तुम हारो नहीं कहीं तुम टूटो नहीं
कि कहीं तुम ना बन जाओ अप्रेम
कि कहीं ना बिखर जाए अस्‍तित्‍व तुम्‍हारा

तुम बहती रहो यूं ही प्रेम का भंवर बनाकर
डूब जाये जिसमें वो जलन, ईर्ष्‍या और घृणा
भंवर तोड़ दे वो चारदीवारी भी,और
तैर कर किनारे बैठा प्रेम
फिर करे कोई नई रचना
फिर प्रेम से प्रेम को पैदा करे ,
फिर शब्‍दों में बहे प्रेम, मन में उगे प्रेम

- अलकनंदा सिंह



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