Wednesday 1 May 2013

शज़र के नीचे

बीन रही हूं चिंदी चिंदी उसी शाख के नीचे
जिस पर सोये थे सपने अपनी आंखें मींचे

वही शाख जो मन पर मां के
आंचल सी बिछ जाती
आज उसी ने झाड़ दिये हैं
यादों के सब पत्‍ते नीचे

मिट्टी मिट्टी में घुल जाये
वही मुहब्‍बत बसती है मुझमें
जो सर से पांव तक दौड़ रही है
कोई शिकवों के फिर द्वार ना खींचे

बूंद बूंद झर जड़ बनती जाऊं
ठहरूं उसी शज़र के नीचे
ठांव छांह से चुन लूं उनको
जिन सपनों ने पांव थे खींचे
          - अलकनंदा सिंह

बात इतनी सी है .....

courtesy-google
क़तरा क़तरा सांसों में बहती
घुली महक वो भीनी सी है

फूटे जिस ज़र्रे से आलम
क्‍यों वही इबारत झीनी सी है
उसकी आंखें बता रही हैं
रात की बाकी नरमी सी है

जुगनुओं की रोशनी से भी
अब यूं चुंधिया रहे हैं रिश्‍ते
मत बांधो चमकीले पर उनके 
उनसे ही तो रफ्ता रफ्ता
चटक रही रोशनी सी है

जी करता है चुपके से जाकर
उसके अहसासों में घुल जाऊं
सोचों की घाटी में उतरूं
पलकों की कोरों में मेरी
बहती खुश्‍बू उसकी सी है

कांपती उंगलियों के पोरों में
कोई तो शरारत बच्‍चों सी है।
                                    
                                        
-अलकनंदा सिंह
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