Wednesday 25 December 2019

हिंदी के शीर्षस्थ रचनाकार डॉ. गंगा प्रसाद विमल...अलव‍िदा

हिंदी साहित्य जगत के लिए बहुत दुखद क्षण है। अत्यंत दुखद सूचना है कि हिंदी के शीर्षस्थ रचनाकार डॉ. गंगा प्रसाद विमल हमारे बीच नहीं रहे। घटना 3 दिन पहले की है। श्री लंका भ्रमण के लिए गये विमल जी की मौत कार दुर्घटना में हुई। उनके साथ उनकी पुत्री और पोते का भी निधन हो गया। उनका पार्थिव शरीर आज या कल में दिल्ली पहुंचने की संभावना है।


3 जुलाई 1939 को उत्तराखंड के उत्तरकाशी में जन्मे डॉ. गंगा प्रसाद विमल हिन्दी साहित्य में अकहानी आंदोलन के जनक के रूप में जाने जाते हैं लेकिन उनकी रचना धर्मिता का सिर्फ एक आयाम नहीं है। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी लेखक रहे हैं। उन्‍होंने आलोचना के अतिरिक्त कविता, कहानी, उपन्यास और नाटक लेखन व एक कुशल अनुवादक के रूप में भी हिंदी समाज को समृद्ध किया है।


विमल जी वह साहित्य की बहुमुखी विधा के विरले सृजनधर्मी थे। अब तक उनके सात कविता संग्रह- ‘बोधि-वृक्ष’, ‘नो सूनर’, ‘इतना कुछ’, ‘सन्नाटे से मुठभेड़’, ‘मैं वहाँ हूँ’, ‘अलिखित-अदिखत’, ‘कुछ तो है’, प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रहों में- कोई शुरुआत, अतीत में कुछ, इधर-उधर, बाहर न भीतर, खोई हुई थाती, भी लोकप्रिय संग्रहों में से हैं। चार उपन्यास-अपने से अलग, कहीं कुछ और, मरीचिका, मृगांतक, और ‘आज नहीं कल’ शीर्षक से एक नाटक और आलोचना पर तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।


डॉ. गंगा प्रसाद विमल को साहित्य सृजन और सांस्कृतिक अवदानों के लिये अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से नवाज़ा गया-


पोएट्री पीपुल्स प्राइज़ (1978),
रोम में आर्ट यूनीवर्सिटी द्वारा 1971 में पुरस्कृत
नेशनल म्यूज़ियम ऑफ़ लिटरेचर, सोफ़िया में गोल्ड मेडल (1979)
बिहार सरकार द्वारा ‘दिनकर पुरस्कार’ (1987)
इंटरनेशनल ओपेन स्कॉटिश पोएट्री प्राईज़ (1988)
भारतीय भाषा पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद (1992)
महात्मा गांधी सम्मान, उत्तर प्रदेश, (2016)



कई सरकारी सेवाओं से जुड़े रहकर, विशाल व्यक्तित्व धारण किए विमल जी न केवल देशभर में बल्कि विदेशों में भी शोधपत्र, कहानी और कविता पाठ के लिए जाते रहे हैं। इतना सबकुछ होने के बावजूद इनमें किसी भी तरह का दंभ, अहं या सर्वश्रेष्ठ होने का अभिमान तथा भाव कहीं नहीं झलकता।

Saturday 14 December 2019

जॉन एलिया एक ख़ूबसूरत जंगल हैं, जिसमें झरबेरियां हैं, कांटे हैं...

उर्दू के महान शायर जॉन एलिया का जन्‍म 14 दिसंबर 1931 को उत्तर प्रदेश के अमरोहा जिले के एक मशहूर ख़ानदान में हुआ था। बाद में जॉन पाकिस्‍तान जाकर बस गए और वहीं 8 नवंबर 2004 को कराची में उनका इंतकाल हुआ।
उनके वालिद अल्लामा शफ़ीक़ हसन एलिया अदब में ख़ासी दिलचस्पी रखते थे और शायर होने के साथ साथ नजूमी भी थे। जॉन घर में सब से छोटे थे और महज़ 8 बरस की उम्र में पहला शेर कह चुके थे। उर्दू और फ़ारसी में मास्टर्स की डिग्री, बहुत सी किताबों का तर्जुमा और शायरी के मजमुए इनकी अदबी हैसियत की अलामत हैं। वह 1957 में पाकिस्तान हिजरत कर गए और उसके बाद कराची में आबाद हो गए। वह अब के शायरों में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले शायर माने जाते हैं। शायद, यानी, गोया, गुमाँ, लेकिन इनके प्रमुख संग्रह हैं। जॉन सिर्फ पाकिस्तान में ही नहीं, हिंदुस्तान व पूरे विश्व में अदब के साथ पढ़े और जाने जाते हैं। पाकिस्तान में रहते हुए भी अपने जन्मस्थान अमरोहा (भारत) अमरोहा को कभी भूल नहीं पाए।
एक उर्दू पत्रिका थी ‘इंशा’। इसी को निकालने के दौरान जाहिदा हिना से जॉन की मुलाकात हुई। इश्क हुआ। शादी हुई और तीन बच्चे भी हुए लेकिन रिश्ता ज्यादा दिन चल नहीं पाया। फिर हुआ 1984 में तलाक। खफा मिजाज के जॉन गम में डूब गए। शायरी से लेकर जिंदगी तक में खुद को बर्बाद करने की बात करने लगे।
जॉन के बारे में लिखते हुए कुमार विश्वास कहते हैं कि जॉन एक ख़ूबसूरत जंगल हैं, जिसमें झरबेरियां हैं, कांटे हैं, उगती हुई बेतरतीब झाड़ियां हैं, खिलते हुए बनफूल हैं, बड़े-बड़े देवदार हैं, शीशम हैं, चारों तरफ़ कूदते हुए हिरन हैं, कहीं शेर भी हैं, मगरमच्छ भी हैं।
जॉन आपको दो तरह से मिलते हैं, एक दर्शन में एक प्रदर्शन में। प्रदर्शन का जॉन वह है जो आप आमतौर पर किसी भी मंच से पढ़ें तो श्रोताओं में ख़ूब कोलाहल मिलता है। दर्शन का जॉन वह है जो आप चुनिंदा मंचों पर पढ़ सकते हैं और श्रोता उन्हें अपने घर ले जा सकते हैं।
अंग्रेजी साहित्यकार विलियम वर्ड्सवर्थ ने कहा था कि ”पोएट्री इज़ द स्पोंटेनियस ओवरफ्लो ऑफ़ द पावरफुल फीलिंग” यानि अनुभूतियों या संवेदनाओं का छलक जाना ही कविता है। जॉन एलिया ने अपनी शायरी में कभी कोई सीमारेखा नहीं खींची। उन्होंने ज़िंदगी के हर उतार-चढ़ाव को न सिर्फ़ शायरी में ढाला बल्कि उसको मस्ती से जिया भी।
प्रस्तुत है उनकी 3 चुनिंदा ग़ज़लें-
बे-क़रारी सी बे-क़रारी है
वस्ल है और फ़िराक़ तारी है
जो गुज़ारी न जा सकी हम से
हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है
निघरे क्या हुए कि लोगों पर
अपना साया भी अब तो भारी है
बिन तुम्हारे कभी नहीं आई
क्या मिरी नींद भी तुम्हारी है
आप में कैसे आऊँ मैं तुझ बिन
साँस जो चल रही है आरी है
उस से कहियो कि दिल की गलियों में
रात दिन तेरी इंतिज़ारी है
हिज्र हो या विसाल हो कुछ हो
हम हैं और उस की यादगारी है
इक महक सम्त-ए-दिल से आई थी
मैं ये समझा तिरी सवारी है
हादसों का हिसाब है अपना
वर्ना हर आन सब की बारी है
ख़ुश रहे तू कि ज़िंदगी अपनी
उम्र भर की उमीद-वारी है
सारी दुनिया के ग़म हमारे हैं
और सितम ये कि हम तुम्हारे हैं
दिले-बर्बाद ये ख़याल रहे
उसने गेसू नहीं सँवारे हैं
उन रफ़ीक़ों से शर्म आती है
जो मिरा साथ दे के हारे हैं
और तो हम ने क्या किया अब तक
ये किया है कि दिन गुज़ारे हैं
उस गली से जो हो के आये हों
अब तो वो राहरौ भी प्यारे हैं
‘जॉन’ हम ज़िन्दगी की राहों में
अपनी तन्हारवी के मारे हैं
दिल जो दीवाना नहीं आख़िर को दीवाना भी था
भूलने पर उस को जब आया तो पहचाना भी था
जानिया किस शौक़ में रिश्ते बिछड़ कर रह गये
काम तो कोई नहीं था पर हमें जाना ही था
अजनबी सा एक मौसम एक बेमौसम सी शाम
जब उसे आना नहीं था जब उसे आना भी था
जानिए क्यूं दिल की वहशत दर्मियां में आ गयी
बस यूं ही हम को बहकना भी था बहकाना भी था
इक महकता सा वो लम्हा था कि जैसे इक ख़याल
इक ज़माने तक उसी लम्हें को तड़पाना भी था
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