Saturday 16 November 2013

वह हंसी...

वह हंसी...
जिसके लिए पहचानते थे लोग
आज कहीं दरीचों में
समा गई है,या...
अंधे कुयें में, पत्‍थरों तले
दब गई है...
हंसते हंसते पेट में बल पड़ें ,
ऐसा अब होता नहीं...
कितने दिन हुये ?
खिलखिलाने में भी लगता है जैसे-
सांसों को बींध रहा हो कोई
गुब्‍बारे का छेद जैसे
गले में बैठकर, हंसी के आवेग को,
रिसते रिसते देख रहा है,
ये कोलाहल के पीछे करके
करना होगा एक संपूर्ण प्रयास कि-
ये हंसी सिर्फ हंसी ही बनी रहे 
न बन जाये अट्टहास।
- अलकनंदा सिंह
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