Sunday 29 August 2021

कृष्ण की कविताएं लिखने वाले बांग्ला के प्रसिद्ध कवि काजी नजरूल इस्लाम


 बांग्ला के प्रसिद्ध कवि काजी नजरूल इस्लाम का जन्म 24 मई 1899 को हुआ था। निधन 29 अगस्त 1976 को हुआ। भगवान कृष्ण पर उनकी 5 प्रसिद्ध रचनाएं उनकी पुण्यतिथि पर आपके लिए…

अगर तुम राधा होते श्याम।
मेरी तरह बस आठों पहर तुम,
रटते श्याम का नाम।।
वन-फूल की माला निराली
वन जाति नागन काली
कृष्ण प्रेम की भीख मांगने
आते लाख जनम।
तुम, आते इस बृजधाम।।
चुपके चुपके तुमरे हिरदय में
बसता बंसीवाला;
और, धीरे धारे उसकी धुन से
बढ़ती मन की ज्वाला।
पनघट में नैन बिछाए तुम,
रहते आस लगाए
और, काले के संग प्रीत लगाकर
हो जाते बदनाम।।

सुनो मोहन नुपूर गूँजत है…
आज बन-उपवन में चंचल मेरे मन में
मोहन मुरलीधारी कुंज कुंज फिरे श्याम
सुनो मोहन नुपूर गूँजत है
बाजे मुरली बोले राधा नाम
कुंज कुंज फिरे श्याम
बोले बाँसुरी आओ श्याम-पियारी,
ढुँढ़त है श्याम-बिहारी,
बनमाला सब चंचल उड़ावे अंचल,
कोयल सखी गावे साथ गुणधाम कुंज कुंज श्याम
फूल कली भोले घुँघट खोले
पिया के मिलन कि प्रेम की बोली बोले,
पवन पिया लेके सुन्दर सौरभ,
हँसत यमुना सखी दिवस-याम कुंज कुंज फिरे श्याम

सुनाओ सुमधूर नुपूर गुंजन….
कृष्ण कन्हईया आयो मन में मोहन मुरली बजाओ।
कान्ति अनुपम नील पद्मसम सुन्दर रूप दिखाओ।
सुनाओ सुमधूर नुपूर गुंजन
“राधा, राधा” करि फिर फिर वन वन
प्रेम-कुंज में फूलसेज पर मोहन रास रचाओ;
मोहन मुरली बजाओ।
राधा नाम लिखे अंग अंग में,
वृन्दावन में फिरो गोपी-संग में,
पहरो गले वनफूल की माला प्रेम का गीत सुनाओ,
मोहन मुरली बजाओ।

श्रवण-आनन्द बिछुआ की छंद रुनझुन बोले…
चंचल सुन्दर नन्दकुमार गोपी चितचोर प्रेम मनोहर नवल किशोर।
बाजतही मन में बाणरि की झंकार, नन्दकुमार नन्दकुमार नन्दकुमार।।
श्रवण-आनन्द बिछुआ की छंद रुनझुन बोले
नन्द के अंगना में नन्दन चन्द्रमा गोपाल बन झूमत डोले
डगमग डोले, रंगा पाव बोले लघू होके बिराट धरती का भार।
नन्दकुमार नन्दकुमार नन्दकुमार।।
रूप नेहारने आए लख छिप देवता
कोइ गोप गोपी बना कोइ वृक्ष लता।
नदी हो बहे लागे आनन्द के आँसू यमुना जल सुँ
प्रणता प्रकृति निराला सजाए, पूजा करनेको फूल ले आए बनडार।
नन्दकुमार नन्दकुमार नन्दकुमार।।

तुम्हारी मुरली बाजे धीर…
तुम प्रेम के घनश्याम मै प्रेम की श्याम-प्यारी।
प्रेम का गान तुम्हारे दान मै हूँ प्रेम भीखारी।।
हृदय बीच में यमुना तीर-
तुम्हारी मुरली बाजे धीर
नयन नीर की बहत यमुना प्रेम से मतवारी।।
युग युग होये तुम्हारी लीला मेरे हृदय बन में,
तुम्हारे मोहन-मन्दिर पिया मेहत मेरे मन में।
प्रेम-नदी नीर नित बहती जाय,
तुम्हारे चरण को काँहू ना पाय,
रोये श्याम-प्यारी साथ बृजनारी आओ मुरलीधारी।।

प्रस्‍तुत‍ि- अलकनंदा स‍िंह

Saturday 28 August 2021

तेरा 'फिराक' तो उस दम तेरा फिराक हुआ, जब उनको प्यार किया मैंने, जिनसे प्यार नहीं


28 अगस्त 1896 को गोरखपुर जिले को गोला तहसील के बनवारपार में एक कायस्थ परिवार में जन्मे फिराक गोरखपुरी का पूरा नाम रघुपति सहाय उर्फ फिराक गोरखपुरी था। उनकी मृत्‍यु 3 मार्च 1982 को हुई। फिराक गोरखपुरी की शिक्षा अरबी, फारसी व अंग्रेजी में हुई। 29 जून 14 को उनका विवाह जमींदार विन्देश्वरी प्रसाद की बेटी किशोरी देवी से हुआ। कला स्नातक में पूरे प्रदेश में चौथा स्थान पाने के बाद प्रतिष्ठित परीक्षा आईसीएस में चुने गए। उन्होंने गुल- ए -नगमा,अंदाजे इश्किया शायरी,रूह -ए- कायनात, गजलिस्तान, शेरिस्तान,शबनमिस्तान आदि रचनाएं लिखीं। महात्मागांधी के विचारों से प्रभावित होकर 1920 में फिराक ने नौकरी छोड़ दी। आजादी के जंग में शामिल हो गए। डेढ़ साल की सजा कांटी। 3 मार्च 1982 को उनकी मृत्यु हो गई।

गुल ए नगमा के लिए मिला ज्ञानपीठ पुरस्कार
फिराक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 1930 से लेकर1959 तक अंग्रेजी के अध्यापक रहे। 1970 में उन्हें ‘गुल- ए -नगमा’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड से भी नवाजा गया। 1970 में साहित्य अकादमी का सदस्य भी बनाया गया। भारत सरकार ने फिराक को पद्मभूषण से सम्मानित किया।
पैतृक गांव में भी नही मिली है पहचान
शासन की उदासीनता के चलते फिराक का गांव में उनके पैतृक भवन का अधिकांश हिस्सा गिर चुका है। गिरे भाग पर फिराक संस्थान के अध्यक्ष डॉक्टर छोटेलाल द्वारा फिराक साहब के नाम से एक जूनियर हाईस्कूल चलाया जाता है। 18 अक्टूबर 2012 को फिराक सेवा संस्थान के अध्यक्ष श्री यादव की मांग पर तत्कालीन मुख्यमंत्री ने कम्युनिटी सेंटर बनाने का आदेश दिया था। बनवारपार में एक बड़े हाल, भव्य मंच, आर्ट गैलरी, वाचनालय, पुस्तकालय, गेस्टरूम व शौचालय आदि के निर्माण के लिए 61 लाख रुपये का प्रस्ताव बनाकर शासन को भेजा गया लेकिन हुआ कुछ नही। गांव में एक पुस्तकालय है। जिसका संचालन फिराक सेवा स्थान के अध्यक्ष डॉक्टर छोटे लाल यादव करते हैं।
मशहूर शायर ‘फिराक’ रहने वाले गोरखपुर के थे लेकिन उनकी कर्मस्थली इलाहाबाद रही। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान उन्हें जेल जाना पड़ा लेकिन गजलों के कारवां को सलाखें रोक न सकीं।
इविवि के उर्दू विभागाध्यक्ष प्रो. अली अहमद फातमी उनको अपना गुरु मानते थे। प्रो. फातमी कहते हैं कि ‘फिराक’ साहब जब गोरखपुर से इलाहाबाद आए तो पं. जवाहर लाल नेहरू से मिले। पं. नेहरू ने उनकी बहुत मदद की। उनकी परेशानी और बेरोजगारी को देखते हुए उन्हें कांग्रेस के कार्यालय में संयुक्त सचिव बना दिया। इंदिरा गांधी फिराक को चाचा कहती थीं।
उस समय कांग्रेस एक दल नहीं बल्कि राष्ट्रीय आंदोलन का प्रतीक था। फिराक साहब के जिम्मे कार्यालय की पूरी जिम्मेदारी थी। एक दिन कार्यालय में छापा पड़ा और वे गिरफ्तार होकर नैनी जेल भेज दिए गए। फिर नैनी से आगरा और फिर लखनऊ भेज दिए गए। आगरा जेल में 18 महीने तक रहे। उस समय आगरा जेल में बंद मौलाना शाहिद फाकरी और अहमद फफूलकी जैसे नामचीन शायरों से मुलाकात हुई और शायरी, गजलें कहने का सिलसिला शुरू हो गया। उनकी शायरी का अंदाज बिल्क़ुल अलग रहता था। 1935 में प्रलेस कार्यकारिणी की बैठक इलाहाबाद में हुई तब फिराक साहब शामिल हुए। प्रलेस की बुनियाद भी ‘फिराक’ साहब के सानिध्य में रखी गई।
उर्दू गजल को ईरान से लाए हिन्दुस्तान
फिराक गोरखपुरी ने उर्दू गजल को ईरान से निकालकर हिन्दुस्तान तक लाने का काम किया। फिराक अक्सर कहते थे कि ‘प्रेमिका से प्रेम करना छोटी बात है, आम लोगों से प्यार करना ज्यादा कठिन।’ इस बारे में उनकी एक शायरी है ‘तेरा फिराक तो उस दम तेरा फिराक हुआ, जब उनको प्यार किया मैंने, जिनसे प्यार नहीं।
फ़िराक़ मूलत: प्रेम और सौन्दर्य के कवि थे। जिसकी झलक उनक काव्य में साफ में दिखती है यहां पढ़‍िए उनकी कुछ ग़ज़लें-

1. 

फ़ितरत मेरी इश्क़-ओ-मोहब्बत क़िस्मत मेरी तंहाई
कहने की नौबत ही न आई हम भी किसू के हो लें हैं

आई है कुछ न पूछ क़यामत कहाँ कहाँ
उफ़ ले गई है मुझ को मोहब्बत कहाँ कहाँ

कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम
उस निगाह-ए-आश्ना को क्या समझ बैठे थे हम

कुछ भी अयाँ निहाँ न था कोई ज़माँ मकाँ न था
देर थी इक निगाह की फिर ये जहाँ जहाँ न था

किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
ये हुस्न ओ इश्क़ तो धोका है सब मगर फिर भी

फिर वही रंग-ए-तकल्लुम निगह-ए-नाज़ में है
वही अंदाज़ वही हुस्न-ए-बयाँ है कि जो था

बात निकले बात से जैसे वो था तेरा बयाँ
नाम तेरा दास्ताँ-दर-दास्ताँ बनता गया

जिन की ज़िंदगी दामन तक है बेचारे फ़रज़ाने हैं
ख़ाक उड़ाते फिरते हैं जो दीवाने दीवाने हैं

बस इतने पर हमें सब लोग दीवाना समझते हैं
कि इस दुनिया को हम इक दूसरी दुनिया समझते हैं

दीदार में इक-तरफ़ा दीदार नज़र आया
हर बार छुपा कोई हर बार नज़र आया

खो दिया तुम को तो हम पूछते फिरते हैं यही
जिस की तक़दीर बिगड़ जाए वो करता क्या है

बस्तियाँ ढूँढ रही हैं उन्हें वीरानों में
वहशतें बढ़ गईं हद से तिरे दीवानों में

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं

बहसें छिड़ी हुई हैं हयात-ओ-ममात की
सौ बात बन गई है ‘फ़िराक़’ एक बात की

मुझ को मारा है हर इक दर्द ओ दवा से पहले
दी सज़ा इश्क़ ने हर जुर्म-ओ-ख़ता से पहले

ये नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चराग़
तेरे ख़याल की ख़ुशबू से बस रहे हैं दिमाग़

रुकी रुकी सी शब-ए-मर्ग ख़त्म पर आई
वो पौ फटी वो नई ज़िंदगी नज़र आई

रस में डूबा हुआ लहराता बदन क्या कहना
करवटें लेती हुई सुब्ह-ए-चमन क्या कहना

रात भी नींद भी कहानी भी
हाए क्या चीज़ है जवानी भी

वो चुप-चाप आँसू बहाने की रातें
वो इक शख़्स के याद आने की रातें.

2.

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं 

तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं 


मिरी नज़रें भी ऐसे क़ातिलों का जान ओ ईमाँ हैं 

निगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं 


जिसे कहती है दुनिया कामयाबी वाए नादानी 

उसे किन क़ीमतों पर कामयाब इंसान लेते हैं 


निगाह-ए-बादा-गूँ यूँ तो तिरी बातों का क्या कहना 

तिरी हर बात लेकिन एहतियातन छान लेते हैं 


तबीअ'त अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में 

हम ऐसे में तिरी यादों की चादर तान लेते हैं 


ख़ुद अपना फ़ैसला भी इश्क़ में काफ़ी नहीं होता 

उसे भी कैसे कर गुज़रें जो दिल में ठान लेते हैं 


हयात-ए-इश्क़ का इक इक नफ़स जाम-ए-शहादत है 

वो जान-ए-नाज़-बरदाराँ कोई आसान लेते हैं 


हम-आहंगी में भी इक चाशनी है इख़्तिलाफ़ों की 

मिरी बातें ब-उनवान-ए-दिगर वो मान लेते हैं 


तिरी मक़बूलियत की वज्ह वाहिद तेरी रमज़िय्यत 

कि उस को मानते ही कब हैं जिस को जान लेते हैं 


अब इस को कुफ़्र मानें या बुलंदी-ए-नज़र जानें 

ख़ुदा-ए-दो-जहाँ को दे के हम इंसान लेते हैं 


जिसे सूरत बताते हैं पता देती है सीरत का 

इबारत देख कर जिस तरह मा'नी जान लेते हैं 


तुझे घाटा न होने देंगे कारोबार-ए-उल्फ़त में 

हम अपने सर तिरा ऐ दोस्त हर एहसान लेते हैं 


हमारी हर नज़र तुझ से नई सौगंध खाती है 

तो तेरी हर नज़र से हम नया पैमान लेते हैं 


रफ़ीक़-ए-ज़िंदगी थी अब अनीस-ए-वक़्त-ए-आख़िर है 

तिरा ऐ मौत हम ये दूसरा एहसान लेते हैं 


ज़माना वारदात-ए-क़ल्ब सुनने को तरसता है 

इसी से तो सर आँखों पर मिरा दीवान लेते हैं 


'फ़िराक़' अक्सर बदल कर भेस मिलता है कोई काफ़िर 

कभी हम जान लेते हैं कभी पहचान लेते हैं.


3.  


सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं 

लेकिन इस तर्क-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं 


दिल की गिनती न यगानों में न बेगानों में 

लेकिन उस जल्वा-गह-ए-नाज़ से उठता भी नहीं 


मेहरबानी को मोहब्बत नहीं कहते ऐ दोस्त 

आह अब मुझ से तिरी रंजिश-ए-बेजा भी नहीं 


एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें 

और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं 


आज ग़फ़लत भी उन आँखों में है पहले से सिवा 

आज ही ख़ातिर-ए-बीमार शकेबा भी नहीं 


बात ये है कि सुकून-ए-दिल-ए-वहशी का मक़ाम 

कुंज-ए-ज़िंदाँ भी नहीं वुसअ'त-ए-सहरा भी नहीं 


अरे सय्याद हमीं गुल हैं हमीं बुलबुल हैं 

तू ने कुछ आह सुना भी नहीं देखा भी नहीं 


आह ये मजमा-ए-अहबाब ये बज़्म-ए-ख़ामोश 

आज महफ़िल में 'फ़िराक़'-ए-सुख़न-आरा भी नहीं 


ये भी सच है कि मोहब्बत पे नहीं मैं मजबूर 

ये भी सच है कि तिरा हुस्न कुछ ऐसा भी नहीं 


यूँ तो हंगामे उठाते नहीं दीवाना-ए-इश्क़ 

मगर ऐ दोस्त कुछ ऐसों का ठिकाना भी नहीं 


फ़ितरत-ए-हुस्न तो मा'लूम है तुझ को हमदम 

चारा ही क्या है ब-जुज़ सब्र सो होता भी नहीं 


मुँह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते कि 'फ़िराक़' 

है तिरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं .

4. 

किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी 

ये हुस्न ओ इश्क़ तो धोका है सब मगर फिर भी 


हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है 

नई नई सी है कुछ तेरी रहगुज़र फिर भी 


कहूँ ये कैसे इधर देख या न देख उधर 

कि दर्द दर्द है फिर भी नज़र नज़र फिर भी 


ख़ुशा इशारा-ए-पैहम ज़हे सुकूत-ए-नज़र 

दराज़ हो के फ़साना है मुख़्तसर फिर भी 


झपक रही हैं ज़मान ओ मकाँ की भी आँखें 

मगर है क़ाफ़िला आमादा-ए-सफ़र फिर भी 


शब-ए-फ़िराक़ से आगे है आज मेरी नज़र 

कि कट ही जाएगी ये शाम-ए-बे-सहर फिर भी 


कहीं यही तो नहीं काशिफ़-ए-हयात-ओ-ममात 

ये हुस्न ओ इश्क़ ब-ज़ाहिर हैं बे-ख़बर फिर भी 


पलट रहे हैं ग़रीब-उल-वतन पलटना था 

वो कूचा रू-कश-ए-जन्नत हो घर है घर फिर भी 


लुटा हुआ चमन-ए-इश्क़ है निगाहों को 

दिखा गया वही क्या क्या गुल ओ समर फिर भी 


ख़राब हो के भी सोचा किए तिरे महजूर 

यही कि तेरी नज़र है तिरी नज़र फिर भी 


हो बे-नियाज़-ए-असर भी कभी तिरी मिट्टी 

वो कीमिया ही सही रह गई कसर फिर भी 


लिपट गया तिरा दीवाना गरचे मंज़िल से 

उड़ी उड़ी सी है ये ख़ाक-ए-रहगुज़र फिर भी 


तिरी निगाह से बचने में उम्र गुज़री है 

उतर गया रग-ए-जाँ में ये नेश्तर फिर भी 


ग़म-ए-फ़िराक़ के कुश्तों का हश्र क्या होगा 

ये शाम-ए-हिज्र तो हो जाएगी सहर फिर भी 


फ़ना भी हो के गिराँ-बारी-ए-हयात न पूछ 

उठाए उठ नहीं सकता ये दर्द-ए-सर फिर भी 


सितम के रंग हैं हर इल्तिफ़ात-ए-पिन्हाँ में 

करम-नुमा हैं तिरे जौर सर-ब-सर फिर भी 


ख़ता-मुआफ़ तिरा अफ़्व भी है मिस्ल-ए-सज़ा 

तिरी सज़ा में है इक शान-ए-दर-गुज़र फिर भी 


अगरचे बे-ख़ुदी-ए-इश्क़ को ज़माना हुआ 

'फ़िराक़' करती रही काम वो नज़र फिर भी .


स्रोत : पुस्तक : Gul-e-Naghma प्रकाशन : Maktaba Farogh-e-urdu Matia Mahal Jama Masjid Delhi (2006) संस्करण : 2006

प्रस्‍तुत‍ि : अलकनंदा स‍िंंह


Wednesday 25 August 2021

चल निकलती हैं ग़म-ए-यार से बातें क्या क्या...अहमद फ़राज़


 उर्दू अदब की बात चले और फ़राज़  का ज़‍िक्र ना हो , ऐसा कभी हो सकता है क्‍या... नहीं ,  आज उनकी पुण्‍यत‍िथ‍ि है। मक़बूल हस्तियों में शुमार मशहूर शायर अहमद फ़राज़ की आज बारहवीं पुण्‍यतिथि है। 12 जनवरी 1931 को पाकिस्‍तान में जन्‍मे अहमद फ़राज़ का इंतकाल 25 अगस्‍त 2008 को इस्‍लाबाद में हुआ। अहमद फ़राज़ का पूरा नाम सैयद अहमद शाह अली था लेकिन शायरी की दुनिया में वह अहमद फ़राज़ के नाम से मशहूर हुए।

उनकी लिखी ग़ज़लों में से प्रसिद्ध कुछ ग़ज़लें

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें

ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें

ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नशा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें

तू ख़ुदा है न मिरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसाँ हैं तो क्यूँ इतने हिजाबों में मिलें

आज हम दार पे खींचे गए जिन बातों प
क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों में मिलें

अब न वो मैं न वो तू है न वो माज़ी है ‘फ़राज़’
जैसे दो साए तमन्ना के सराबों में मिलें

ऐसा है कि सब ख़्वाब मुसलसल नहीं होते
ऐसा है कि सब ख़्वाब मुसलसल नहीं होते
जो आज तो होते हैं मगर कल नहीं होते

अंदर की फ़ज़ाओं के करिश्मे भी अजब हैं
मेंह टूट के बरसे भी तो बादल नहीं होते

कुछ मुश्किलें ऐसी हैं कि आसाँ नहीं होतीं
कुछ ऐसे मुअम्मे हैं कभी हल नहीं होते

शाइस्तगी-ए-ग़म के सबब आँखों के सहरा
नमनाक तो हो जाते हैं जल-थल नहीं होते

कैसे ही तलातुम हों मगर क़ुल्ज़ुम-ए-जाँ में
कुछ याद-जज़ीरे हैं कि ओझल नहीं होते

उश्शाक़ के मानिंद कई अहल-ए-हवस भी
पागल तो नज़र आते हैं पागल नहीं होते

सब ख़्वाहिशें पूरी हों ‘फ़राज़’ ऐसा नहीं है
जैसे कई अशआर मुकम्मल नहीं होते

चल निकलती हैं ग़म-ए-यार से बातें क्या क्या
चल निकलती हैं ग़म-ए-यार से बातें क्या क्या
हम ने भी कीं दर-ओ-दीवार से बातें क्या क्या

बात बन आई है फिर से कि मेरे बारे में
उस ने पूछीं मेरे ग़म-ख़्वार से बातें क्या क्या

लोग लब-बस्ता अगर हों तो निकल आती हैं
चुप के पैराया-ए-इज़हार से बातें क्या क्या

किसी सौदाई का क़िस्सा किसी हरजाई की बात
लोग ले आते हैं बाज़ार से बातें क्या क्या

हम ने भी दस्त-शनासी के बहाने की हैं
हाथ में हाथ लिए प्यार से बातें क्या क्या

किस को बिकना था मगर ख़ुश हैं कि इस हीले से
हो गईं अपने ख़रीदार से बातें क्या क्या

हम हैं ख़ामोश कि मजबूर-ए-मोहब्बत थे ‘फ़राज़’
वर्ना मंसूब हैं सरकार से बातें क्या क्या

इस से पहले कि बेवफ़ा हो जाएँ
इस से पहले कि बेवफ़ा हो जाएँ
क्यूँ न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएँ

तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ

तू कि यकता था बे-शुमार हुआ
हम भी टूटें तो जा-ब-जा हो जाएँ

हम भी मजबूरियों का उज़्र करें
फिर कहीं और मुब्तला हो जाएँ

हम अगर मंज़िलें न बन पाए
मंज़िलों तक का रास्ता हो जाएँ

देर से सोच में हैं परवाने
राख हो जाएँ या हवा हो जाएँ

इश्क़ भी खेल है नसीबों का
ख़ाक हो जाएँ कीमिया हो जाएँ

अब के गर तू मिले तो हम तुझ से
ऐसे लिपटें तिरी क़बा हो जाएँ

बंदगी हम ने छोड़ दी है ‘फ़राज़’
क्या करें लोग जब ख़ुदा हो जाएँ

करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे
करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे
ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे

वो ख़ार ख़ार है शाख़-ए-गुलाब की मानिंद
मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हूँ फिर भी गले लगाऊँ उसे

ये लोग तज़्किरे करते हैं अपने लोगों के
मैं कैसे बात करूँ अब कहाँ से लाऊँ उसे

मगर वो ज़ूद-फ़रामोश ज़ूद-रंज भी है
कि रूठ जाए अगर याद कुछ दिलाऊँ उसे

वही जो दौलत-ए-दिल है वही जो राहत-ए-जाँ
तुम्हारी बात पे ऐ नासेहो गँवाऊँ उसे

जो हम-सफ़र सर-ए-मंज़िल बिछड़ रहा है ‘फ़राज़’
अजब नहीं है अगर याद भी न आऊँ उसे

न दिल से आह न लब से सदा निकलती है
न दिल से आह न लब से सदा निकलती है
मगर ये बात बड़ी दूर जा निकलती है

सितम तो ये है कि अहद-ए-सितम के जाते ही
तमाम ख़ल्क़ मेरी हम-नवा निकलती है

विसाल-ओ-हिज्र की हसरत में जू-ए-कम-माया
कभी कभी किसी सहरा में जा निकलती है

मैं क्या करूँ मिरे क़ातिल न चाहने पर भी
तेरे लिए मेरे दिल से दुआ निकलती है

वो ज़िंदगी हो कि दुनिया ‘फ़राज़’ क्या कीजे
कि जिस से इश्क़ करो बेवफ़ा निकलती है

न मंज़िलों को न हम रहगुज़र को देखते हैं
न मंज़िलों को न हम रहगुज़र को देखते हैं
अजब सफ़र है कि बस हम-सफ़र को देखते हैं

न पूछ जब वो गुज़रता है बे-नियाज़ी से
तो किस मलाल से हम नामा-बर को देखते हैं

तेरे जमाल से हट कर भी एक दुनिया है
ये सेर-चश्म मगर कब उधर को देखते हैं

अजब फ़ुसून-ए-ख़रीदार का असर है कि हम
उसी की आँख से अपने हुनर को देखते हैं

‘फ़राज़’ दर-ख़ुर-ए-सज्दा हर आस्ताना नहीं
हम अपने दिल के हवाले से दर को देखते हैं

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं

सुना है रब्त है उस को ख़राब-हालों से
सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं

सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उस की
सो हम भी उस की गली से गुज़र के देखते हैं

सुना है उस को भी है शेर ओ शाइरी से शग़फ़
सो हम भी मो’जिज़े अपने हुनर के देखते हैं

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं

सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं

सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं

सुना है हश्र हैं उस की ग़ज़ाल सी आँखें
सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं

सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उस की
सुना है शाम को साए गुज़र के देखते हैं

सुना है उस की सियह-चश्मगी क़यामत है
सो उस को सुरमा-फ़रोश आह भर के देखते हैं

सुना है उस के लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पे इल्ज़ाम धर के देखते हैं

सुना है आइना तिमसाल है जबीं उस की
जो सादा दिल हैं उसे बन-सँवर के देखते हैं

सुना है जब से हमाइल हैं उस की गर्दन में
मिज़ाज और ही लाल ओ गुहर के देखते हैं

सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में
पलंग ज़ाविए उस की कमर के देखते हैं

सुना है उस के बदन की तराश ऐसी है
कि फूल अपनी क़बाएँ कतर के देखते हैं

वो सर्व-क़द है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं
कि उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं

बस इक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का
सो रह-रवान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं

सुना है उस के शबिस्ताँ से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीं उधर के भी जल्वे इधर के देखते हैं

रुके तो गर्दिशें उस का तवाफ़ करती हैं
चले तो उस को ज़माने ठहर के देखते हैं

किसे नसीब कि बे-पैरहन उसे देखे
कभी कभी दर ओ दीवार घर के देखते हैं

कहानियाँ ही सही सब मुबालग़े ही सही
अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं

अब उस के शहर में ठहरें कि कूच कर जाएँ
‘फ़राज़’ आओ सितारे सफ़र के देखते हैं

तरस रहा हूँ मगर तू नज़र न आ मुझ को
तरस रहा हूँ मगर तू नज़र न आ मुझ को
कि ख़ुद जुदा है तू मुझ से न कर जुदा मुझ को

वो कपकपाते हुए होंट मेरे शाने पर
वो ख़्वाब साँप की मानिंद डस गया मुझ को

चटख़ उठा हो सुलगती चटान की सूरत
पुकार अब तू मिरे देर-आश्ना मुझ को

तुझे तराश के मैं सख़्त मुन्फ़इल हूँ कि लोग
तुझे सनम तो समझने लगे ख़ुदा मुझ को

ये और बात कि अक्सर दमक उठा चेहरा
कभी कभी यही शो’ला बुझा गया मुझ को

ये क़ुर्बतें ही तो वजह-ए-फ़िराक़ ठहरी हैं
बहुत अज़ीज़ हैं यारान-ए-बे-वफ़ा मुझ को

सितम तो ये है कि ज़ालिम सुख़न-शनास नहीं
वो एक शख़्स कि शाएर बना गया मुझ को

उसे ‘फ़राज़’ अगर दुख न था बिछड़ने का
तो क्यूँ वो दूर तलक देखता रहा मुझ को

तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चराग़
तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चराग़
लोग क्या सादा हैं सूरज को दिखाते हैं चराग़

अपनी महरूमी के एहसास से शर्मिंदा हैं
ख़ुद नहीं रखते तो औरों के बुझाते हैं चराग़

बस्तियाँ दूर हुई जाती हैं रफ़्ता रफ़्ता
दम-ब-दम आँखों से छुपते चले जाते हैं चराग़

क्या ख़बर उन को कि दामन भी भड़क उठते हैं
जो ज़माने की हवाओं से बचाते हैं चराग़

गो सियह-बख़्त हैं हम लोग पे रौशन है ज़मीर
ख़ुद अँधेरे में हैं दुनिया को दिखाते हैं चराग़

बस्तियाँ चाँद सितारों की बसाने वालो
कुर्रा-ए-अर्ज़ पे बुझते चले जाते हैं चराग़

ऐसे बेदर्द हुए हम भी कि अब गुलशन पर
बर्क़ गिरती है तो ज़िंदाँ में जलाते हैं चराग़

ऐसी तारीकियाँ आँखों में बसी हैं कि ‘फ़राज़’
रात तो रात है हम दिन को जलाते हैं चराग़ ।

प्रस्‍तुत‍ि - अलकनंदा स‍िंंह

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