Monday 23 May 2022

जयंती विशेष: साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार प्राप्‍त अन्नाराम सुदामा, पढ़िए उनकी कहानी- ''सूझती दीठ''


 राजस्थानी भाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार अन्नाराम सुदामा का जन्म 23 मई 1923 में हुआ था। सुदामा ने राजस्थानी भाषा में साहित्य की कई विधाओं में रचनांए की हैं। उन्होंने उपन्यास, कहानी, कविता, निबंध, नाटक, यात्रा स्मरण एवं बाल साहित्य लिखा है। उन्होंने अन्य कई विधाओं में 25 से ज्यादा पुस्तकें लिखी हैं।

सुदामा जी का साहित्य अन्नाराम सुदामा समग्र के नाम से सात खण्डों में प्रकाशित किया गया था। सुदामा जी की साहित्यिक रचनांए विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं। इनकी सबसे प्रमुख रचना का नाम है ‘मेवे का रूंख’ जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था।
रूणिया बड़ा बांस में इस बालक के जन्म के समय अच्छा जमाना हुआ तो अकाल से पीड़ित अन्न की किल्लत भुगत रहे परिजनों ने नाम अन्नाराम रख दिया। स्कूल में गुरूजन की सुदामा के नाम की उपमा से बाद नाम के पीछे सुदामा जुड़ गया। राजस्थानी में लोक विधा के विजयदान देथा के दौर के सुदामा ने मौलिक लेखन के साथ राजस्थानी को ऊंचाई दी। साहित्यकार डॉ. मदन सैनी ने सुदामा के साहित्य पर डाक्टरेट भी करवाई है।

सुदमा जी ने कई रचनाएं की हैं जिसमें मैकती कायाः मुलकती धरती, आंधी अर आस्था, डंकीजता मानवी, घर-संसार, अचूक इलाज, आंधे नै आंख्यां, अचूक इलाज, गॉंव रो गौरव, बंधती अंवलाई, दूर-दिसावर, पिरोल में कुत्ती ब्याई, व्यथा-कथा अर दूजी कवितावां इत्यादि। सुदामा जी को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था जिसमें- केन्द्रीय साहित्य अकादमी दिल्ली में पुरस्कृत, मीरा पुरस्कार, सूर्यमल्ल मीसण, राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार, टैसीटोरी गद्य पुरस्कार इत्यादि। अन्नाराम सुदामा का निधन 2 जनवरी 2004 में हुआ था।

राजस्थानी भाषा और साहित्य को समृद्ध करने में जिन महान रचनाकारों का योगदान है, उनमें अन्नाराम सुदामा का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। राजस्थान के ग्रामीण जनजीवन में नित्य होने वाली घटनाओं को वे अत्यंत पारखी नजर से देखते हुए गहरी सामाजिक चेतना से सराबोर रचनाएं लिखते थे और यही उनके लेखन की विशेषता थी।

राजस्थान के ग्राम्य जीवन की संवेदना, मानवीय सरोकार और विविध छवियां आप अन्नाराम सुदामा के साहित्य से गुजरे बिना देख ही नहीं सकते। वे राजस्थानी के उन विरल साहित्यकारों में हैं, जिनके यहां अभावों में जीते मनुष्य की चेतना और विपरीत हालात से संघर्ष इतनी शिद्दत के साथ मौजूद होते हैं कि स्वयं पाठक भी एकबारगी लेखक और उसके अद्भुत जीवट वाले पात्रों के साथ खड़ा हो जाता है। 
अन्नाराम सुदामा के विपुल साहित्य में ‘सूझती दीठ, एक ऐसी कहानी है, जो अकाल से ग्रस्त एक सामान्य निर्धन ग्रामीण स्त्री के संघर्ष के बीच उसकी वैज्ञानिक दृष्टि को ही नहीं उसके नैतिक बल और साहस को बहुत गहराई के साथ रेखांकित करती है। पढ़े-लिखे पात्रों के माध्यम से चेतना जगाना आसान होता है, लेकिन सुदामा तो अपने निरक्षर पात्रों से ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण और समता-बंधुत्व की बात अत्यंत सहज रूप से पैदा कर देते हैं। इस एक कहानी से आप उनकी रचनात्मकता का सहज ही अनुमान लगा सकते हैं।

सूझती दीठ-अन्नाराम सुदामा की कहानी

इस एक कहानी से आप उनकी रचनात्मकता का सहज ही अनुमान लगा सकते हैं।
तुलसी को गांव छोड़कर कस्बे में आए तीनेक महीने हुए हैं। लगातार पड़ते अकाल के इस तीसरे साल वह यहां आई है। दो साल तो उसने जैसे-तैसे काट दिये, घर तो वो फिर भी चला लेती लेकिन गाय-बछड़ों का क्या करे। तीन जानवरों के लिए रोज पचास-साठ रुपये का बीस-बाइस किलो चारा कहां से आए। चरागाह से लेकर खेत तक सब सफाचट मैदान हुए पड़े हैं। गांव में जब कोई आस नहीं दिखी तो तुलसी अपनी बूढ़ी सास, पांच साल के लड़के और आठ साल की लड़की वाले परिवार को लेकर इस कस्बे में चली आई।
गांव की एक नाइन के परिचय से उसे एक मोहल्ले में एक सेठ का छह सौ गज का बाड़ा बीस रुपये महीने में किराये पर मिल गया। सेठ ने इस शर्त पर बाड़ा दिया था कि कहने पर एक-दो दिनों में ही खाली करना होगा। तुलसी ने शर्त मान ली और नाइन ने जिम्मेदारी ले ली। बाड़ा क्या था, बाहर एक पक्का अहाता, भीतर एक कमरा और बाकी खुली जगह। इस बाड़े में कभी जलावन की लकड़ियां और चारा होता था, लेकिन सालों से देखभाल के अभाव में पूरा बाड़ा उजाड़ पड़ा था, जिसमें मकड़ी और चमगादड़ों का डेरा था। तुलसी ने बेटे-बेटी के साथ मिलकर इस जगह को रहने लायक बनाया। कमरे के आधे हिस्से में चार बोरी चारा और आधे में रहने का ठीया बनाया। बाहर के अहाते में चौका-चूल्हा जमाया और खुले में गाय और बछड़ा-बछड़ी। रोज दोनों वक्त आठ किलो दूध होता, जिसमें थोड़ा बचाकर बाकी तुलसी बेच देती। दिन में मां-बेटी पापड़ बेल कर पांच छह रुपये कमा लेती। इस तरह घर की गाड़ी चलने लगी।
एकाध बार सेठानी ने तुलसी को घर में बुलाया और दाल-दलिया पिसवाने-बीनने का काम कराया। काम के बाद सेठानी ने उसे मजदूरी के बदले बच्चों के लिए दो कटोरी सब्जी देनी चाही तो तुलसी साफ मना कर गई। तुलसी ने कहा कि घर में प्याज-पोदीने की चटनी और पालक की सब्जी रखी है। सेठानी ने पूछा कि तुलसी ब्राह्मण होकर प्याज खाती है तो जवाब में वह कहती है कि इंसान के लिए तो चोरी, छल-कपट और चुगली जैसे अवगुण भी मना है लेकिन कौन मानता है। इस महंगाई के दौर में गरीब आदमी क्यों सब्जी खाये, प्याज की गांठ सामने हो तो रोटी सहज ही गले से नीचे उतर जाती है। तुलसी के जवाब के आगे सेठानी निरुत्तर हो गई। तुलसी वापस आ गई।
तुलसी के बाड़े के पास एक सरकारी जमीन पर पोकरण की तरफ से आए मजदूरों ने अस्थायी बसेरा बना रखा है। ये भी तुलसी की तरह ही अकाल का भारी वक्त काटने आए हैं। यहां कई बीमार बूढ़े रात-दिन खांसते रहते हैं। बच्चे दिन में आसपास से कचरा, लकड़ी, कागज आदि बीनते हैं, जिनसे कुछ आमदनी भी हो जाती है और शाम के वक्त खाना पकाने के लिए जलावन भी। जवान आदमी-औरतें सड़क के किनारे रेत डालने के काम में मजूरी करते हैं।
एक दिन सुबह-सुबह पांच-सात औरतें तुलसी के दरवाजे पर आ पहुंची। इनमें से एक ने दो दिन पहले तुलसी से मिलकर बच्चों के लिए दूध देने की विनती की थी कि वे रोज नकद पैसे देंगी, बस बदले में अच्छा दूध मिल जाए। तुलसी ने हामी भर दी। अब ये मजदूर महिलाएं तुलसी की नई ग्राहक बन गईं थीं।
एक रोज सूरज उगने से पहले ही सेठ का एक नौकर आया और कहा कि आज सेठ ने सारा दूध मंगाया है। सेठ के घर इतने दूध की क्या जरूरत, पता चला कि आज सेठ के पिताजी का श्राद्ध है, जिसके लिए गाय के शुद्ध दूध से हवेली के चारों तरफ लकीर निकाली जाएगी। तुलसी ने सोचा, चार किलो दूध रेत में बहा दिया जाएगा, इसका मतलब रोगियों का आधार, निरोगियों का बल और देश की संपत्ति आखिर वह क्यों बेचे, उसने नौकर से कह दिया कि जाकर सेठ से कह दो कि आज कहीं ओर से दूध का इंतजाम कर लें, मैं नहीं दे सकूंगी।
नौकर के बाद खुद सेठ चला आया। सेठ ने कहा कि दूध तो कहीं भी मिल जाएगा लेकिन ज्यादा तो मिलावट वाला मिलता है और तुमने नौकर से ना कह दी। उसने सेठ से कहाकि सच्ची बात तो यह है कि मैं रेत में बिखराने के लिए दूध नहीं बेचती। सेठ ने कहाकि वो चाहे धूल में मिलाए या कुछ भी करे उसे तो पैसों से मतलब होना चाहिए, वह ज्यादा पैसे दे सकता है। लेकिन तुलसी नहीं मानी तो नहीं ही मानी। इस पर सेठ को गुस्सा आ गया और उसने कह दिया कि आज की आज बाड़ा खाली हो जाना चाहिए। तुलसी ने कह दिया कि वह इस सुविधा की खातिर अपनी समझ पर पर्दा नहीं गिरने देगी। उदासी की हल्की रेखा चेहरे पर तैर गई। सेठ भांप गया और आज ही बाड़ा खाली करने की कहकर चला गया।
सेठ घर गया तो सेठानी को सारी बात बताई तो सेठानी ने कहा कोई बात नहीं, दूध तो कहीं से भी ले आएंगे। सेठ ने बताया कि उसने तुलसी को आज ही बाड़ा खाली करने के लिए कह दिया है। सेठानी ने कहाकि वह तो बाड़े की देखभाल ठीक कर रही है और कभी-कभार बिना किसी लोभ के वह आकर मेरा कुछ काम भी कर देती है। अलग किस्म की औरत है वह। हमें उससे क्यों बराबरी करनी चाहिए। सेठ ने कहा, अगर तुम ऐसा सोचती हो तो ठीक है, अगर शाम तक तुलसी आती है तो तुम ही उसे रहने के लिए कह देना, मैं तो अपने मुंह से नहीं कहूंगा।
दो दिन से तुलसी की सास का दमा का रोग जोर मार रहा था और लड़के को भी मलेरिया बुखार हो रखा था। लेकिन तुलसी को तो इस बात की चिंता खाए जा रही थी कि इतनी जल्दी जगह का इंतजाम कैसे होगा, उसने कोशिश करने की सोची और कुछ खा-पीकर जगह ढूंढने निकल पड़ी। उसने ठान लिया था कि सेठ के आगे जाकर हाथ नहीं फैलाएगी, किसी साधारण गुवाड़ी में उसके स्वभाव को देखते हुए जगह मिल ही जाएगी। और आखिर ढूंढ़ने पर उसे एक अकेली मालिन के पास कामचलाउ जगह मिल ही गई। उसे अपना सामान ढोने और लगाने में बहुत असुविधा तो हुई, लेकिन मां-बेटी लगी रही और दो बजे तक भूखे पेट बिना पानी पिये काम करती रही। ढाई बजे वह सेठ के यहां जा पहुंची।
सेठ अपनी गद्दी पर बैठा पान खा रहा था, देखते ही बोला, तेरे दूध नहीं देने से मेरा काम थोड़े ही रुका, पैसों के बदले दूध की कोई कमी थोड़े ही है।
तुलसी ने कहा, आप पर लक्ष्मी की कृपा है आप चार किलो क्या चार मण दूध से लकीर खींचो। लेकिन मेरी मान्यता है कि यही दूध अगर धूल में ना गिराकर भूखी-प्यासी जनता को पिलाते तो उसमें प्राणों का संचार होता, आपको आशीष मिलती और आपके पिता की आत्मा को कहीं ज्यादा खुशी मिलती।
सेठ ने कहा कि इन बातों को छोड़ और एक बार घर जाकर सेठानी से मिल ले। तुलसी ने कहा कि उनसे तो मिलती रहूंगी, लेकिन पहले आप यह चाबी सम्हालो। सेठ ने कहा, चाबी, बाड़ा खाली कर दिया क्या। हां, कहकर तुलसी चुपचाप चल दी। सेठ जाती हुई तुलसी की पीठ ऐसे देखता रहा, जैसे किसी अफीमची का नशा उतर गया हो।
कहानी अंश
समझदार तो कार्तिक लगते ही अपना-अपना पशुधन लेकर शहर के पास जा पहुंचे और नासमझ में से ज्यादातर के जानवर दो बरस में ही भूख की मार से रेत खा-खाकर सिधार गए। तुलसी ने देख लिया, अब यहां किसी हालत में गुजारा नहीं होगा, जल्दी से जल्दी किसी कस्बे की तरफ कूच करने में ही भलाई है। वहां पशुओं का भी पेट पाल लूंगी और परिवार का भी। परिवार में पांच बरस का एक लड़का, एक आठ साल की लड़की और दमे की रोगी एक बूढ़ी सास। देहरी को सीस नवा कर वह एक कस्बे की तरफ चल दी।
....................
वो आधा मिनट सोचने लगी, लकीर खींची जाएगी, थोड़ी दूर में नहीं, हवेली के चारों तरफ, वो भी पानी से नहीं दूध से। मतलब चार किलो दूध रेत में बिखेरा दिया जाएगा, किसके काम आएगा वो दूध, वो तो रोगियों का आधार है और निरोगियों का बल। देश की संपत्ति को इस तरह धूल में डालने के लिए बेचूं तो मेरी समझ ही खराब है।
सहसा उसकी आंखों के आगे उसके पास रहने वाले बीमार बच्चे, बुझते हुए और चाय के लिए तरसते बुजुर्ग औरत-आदमी, हारे थके मजूर नाच उठे। उसने कहा, ‘भाई, सेठजी को मेरी तरफ से हाथ जोड़कर कह देना कि दूध का इंतजाम कहीं ओर से कर लें, मैं नहीं दे सकूंगी।

प्रस्‍तुति: अलकनंदा सिंंह

Sunday 15 May 2022

‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए’: ‘ठुमरी’ के पर्याय थे वाज‍िद अली

 


 संगीत की विधा ‘ठुमरी’ के जन्मदाता के रूप में जाने जाने वाले अवध के नवाब वाज‍िद अली शाह ने ठुमरी के साथ एक और प्रयोग क‍िया, इस प्रयोग में ठुमरी को कत्थक नृत्य के साथ गाया जाता था। इन्होंने कई बेहतरीन ठुमरियां रचीं। कहा जाता है कि जब अंग्रेजों ने अवध पर कब्जा कर लिया और नवाब वाजिद अली शाह को देश निकाला दे दिया, तब उन्होंने ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय’ यह प्रसिद्ध ठुमरी गाते हुए अपनी रियासत से अलविदा कहा।

अवध में संगीत, विशेषकर ठुमरी की समृद्धि के लिए बड़े पैमाने पर काम हुआ। वाजिद अली शाह ने स्वयं कई ठुमरियां कम्पोज़ कीं, जिनमें से बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए… मील का पत्थर साबित हुई।

ठुमरी की उत्पत्ति लखनऊ के नवाब वाज़िद अली शाह के दरबार से मानी जाती है। जबकि कुछ लोगों का मानना है कि उन्होंने इसे मात्र प्रश्रय दिया और उनके दरबार में ठुमरी गायन नई ऊँचाइयों तक पहुँचा क्योंकि वे खुद 'अख्तर पिया' के नाम से ठुमरियों की रचना करते और गाते थे। हालाँकि इसे मूलतः ब्रज शैली की रचना माना जाता है और इसकी अदाकारी के आधार पर पुनः पूरबी अंग की ठुमरी और पंजाबी अंग की ठुमरी में बाँटा जाता है पूरबी अंग की ठुमरी के भी दो रूप लखनऊ और बनारस की ठुमरी के रूप में प्रचलित हैं। ठुमरी की बंदिश छोटी होती है और श्रृंगार रस प्रधान होती है। भक्ति भाव से अनुस्यूत ठुमरियों में भी बहुधा राधा-कृष्ण के प्रेमाख्यान से विषय उठाये जाते हैं। ठुमरी में प्रयुक्त होने वाले राग भी चपल प्रवृत्ति के होते हैं जैसे: खमाज, भैरवी, तिलक कामोद, तिलंग, पीलू, काफी, झिंझोटी, जोगिया इत्यादि।

शास्त्रीय नृत्‍य कथक का वाजिद अली शाह के दरबार में विशेष विकास हुआ। गुलाबों सिताबों नामक विशिष्ट कठपुतली शैली जो कि वाजिद अली शाह के जीवनी पर आधारित है, का विकास प्रमुख आंगिक दृश्य कला रूप में हुआ।

परफॉर्मिंग आर्ट्स की तरह, वाजिद अली शाह ने भी अपनी अदालत में साहित्य और कई कवियों और लेखकों को संरक्षित किया। उनमें से उल्लेखनीय ‘बराक’, ‘अहमद मिर्जा सबीर’, ‘मुफ्ती मुंशी’ और ‘आमिर अहमद अमीर’ थे, जिन्होंने वाजिद अली शाह, इरशाद-हम-सुल्तान और हिदायत-हम-सुल्तान के आदेशों पर किताबें लिखीं।

ठुमरी के साथ-साथ उन्होंने कथक को लोकप्रियता के शिखर तक ले जाने में अहम भूमिका अदा की। नवाब वाजिद अली शाह की लिखी पुस्तक बानी में 36 प्रकार के रहस वर्णित हैं। ये सभी कथक शैली में व्यवस्थित हैं और इन सभी प्रकारों का अपना एक नाम है, जैसे घूंघट, सलामी, मुजरा, मोरछत्र, मोरपंखी आदि। इनके साथ-साथ इस पुस्तक में रहस विशेष में पहनी जाने वाली पोषाकों, आभूषणों और मंचसज्जा का विस्तृत वर्णन है।

अवध के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह के बारे में कई कहानियां प्रचलित हैं। एक कुशल शासक के बजाय उन्हें कला, संगीत प्रेम, विलासिता और रंगीन मिजाज़ के लिए इतिहास में जाना जाता है लेकिन आज हम उनके योगदान का विस्तृत रूप में जानने की कोशिश करते हैं। दरअसल 9 साल तक अवध के शासक रहे वाजिद अली शाह को विरासत में एक कमज़ोर राज्य मिला। उनके पहले के नवाब अंग्रेज़ों से प्लासी और बक्सर में भिड़ चुके थे और उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा था। अवध को इसके चलते अंग्रेज़ों को भारी जुर्माना देते रहना पड़ता था।

ललित कलाओं के क्षेत्र में वाजिद अली शाह ने अपना विशेष योगदान दिया, जो आज तक उन्हें प्रसिद्ध बनाता है। उन्हें एक दयालु, उदार, करुणामय और एक अच्छे शासक के रूप में जाना जाता है, जो राज्य के कार्यों में ज्यादा रुचि रखते थे।

वाजिद अली शाह के शासन के अन्तर्गत अवध एक समृद्ध और धनी राज्य था। प्रशासन में सुधार लाने और न्याय एवं सैन्य मामलों की देख रेख के अलावा, वाजिद अली शाह एक कवि, नाटककार, संगीतकार और नर्तक भी थे, जिनके भव्य संरक्षण के तहत ललित कलाएं विकसित हुई थीं।

वाजिद अली शाह ने केसरबाग बारादरी महल परिसर का निर्माण करवाया। इसमें नृत्य-नाटक, रास, जोगियाजश्न और कथक नृत्य की सजीवता झलकती थी, जिसने लखनऊ को एक आकर्षक सांस्कृतिक केंद्र बनाया।

प्रस्‍तुति: अलकनंदा सिंंह

Tuesday 3 May 2022

परशुराम जयंती: वे पीयें शीत तुम आतम घाम पियो रे....


 आज भगवान परशुराम की जयंती जोर शोर से मनाई जा रही है। जातिवादी व्‍यवस्‍था में घिरे समाज में आज भगवान परशुराम को ब्राह्मणों ने अपना आराध्‍य माना हुआ है। एक पक्ष के तौर पर देखा जाये तो यह ठीक लग सकता है परंतु समग्रता में भगवान परशुराम न तो ब्राह्मणों के हितैषी थे और ना ही क्षत्रियों के विरोधी। वो तो आतताइयों के विरोधी थे और निर्बलों के रक्षक। 

मेरा आशय सिर्फ इतना है कि मात्र मूर्ति की आराधना करके भगवान परशुराम के वास्‍तविक धर्म को नहीं जाना जा सकता। परशुराम धर्म भारत की जनता का धर्म है परशुराम भारत की जागरूक जनता के प्रतीक थे। 

अब देखिए न कि राष्‍ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने तो  इसी ''परशुराम धर्म'' पर ही ''परशुराम की प्रतीक्षा'' लिख दी, उनकी इस काव्‍यकृति से मैं ही क्‍या कोई भी आतताइयों को ललकार सकता है। आज जबकि सभी अपने-अपने स्वार्थ भाव के पोषण में लगे हैं तब आवश्यकता है एक ऐसे धर्म की जो सर्वजन हितकारी हो और लोगों के लिए हो। परशुराम धर्म वह धर्म है जो पौरुषमयी चेतना का वाहक है, अर्थात्  अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए आज के युग का एकमात्र धर्म यही है।

परशुराम धर्म एक दाहक धर्म अवश्य है पर उसमें प्रासंगिक औचित्य भी है, और समय की मांग भी यही है। यह समय की आवाज को न सुनना वालों के लिए यह उनके बहरेपनन की गवाही भी है और कायरता एवं नपुंसकता का स्वीकार्य भी।

राष्‍ट्रकवि  दिनकर के अनुसार इतने गूढ़ संदेशों को धारण करने वाला भगवान परशुराम का धर्म ही परशुराम धर्म कहलाया तथा इस धर्म के निर्वाहक के लिए 8 आवश्यक तत्व हैं पहला- स्वतंत्रता की कामना, दूसरा -वीर भाव , तीसरा- जागृति,चौथा- निवृत्ति मूल्क मार्ग का परित्याग,पांचवां- वर्ग वैमनस्य का विरोध,छठवां- भविष्य के प्रति सतर्क तथा आस्था मूल्क दृष्टि,सातवां - परशुराम धर्म की महत्ता और औचित्य जीवन और आठवां तत्‍व है- जीवन मानकर सिर ऊंचा कर जीवित करना।

 आज अधिक न लिखते हुए मेरे साथ आप भी पढ़िये परशुराम की प्रतीक्षा के ये अंश जो कालजयी है...आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने कि अपने रचनाकाल में थे।  

तीन खंडों में लिखी गई इस कविता -''परशुराम की प्रतीक्षा'' का (शक्ति और कर्तव्य) कुछ भाग मुझे यहां उद्धृत करना अधिक प्रिय लगा- आप भी पढ़ें। 


वीरता जहां पर नहीं‚ पुण्य का क्षय है‚

वीरता जहां पर नहीं‚ स्वार्थ की जय है।


तलवार पुण्य की सखी‚ धर्मपालक है‚

लालच पर अंकुश कठिन‚ लोभ–सालक है।

असि छोड़‚ भीरु बन जहां धर्म सोता है‚

पातक प्रचंडतम वहीं प्रगट होता है।


तलवारें सोतीं जहां बंद म्यानों में‚

किस्मतें वहां सड़ती हैं तहखानों में।

बलिवेदी पर बालियें–नथें चढ़ती हैं‚

सोने की ईंटें‚ मगर‚ नहीं कढ़ती हैं।


पूछो कुबेर से कब सुवर्ण वे देंगे?

यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे?

तूफान उठेगा‚ प्रलय बाण छूटेगा‚

है जहां स्वर्ण‚ बम वहीं‚ स्यात्‚ फूटेगा।


जो करें‚ किंतु‚ कंचन यह नहीं बचेगा‚

शायद‚ सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।

हम पर अपने पापों का बोझ न डालें‚

कह दो सब से‚ अपना दायित्व संभालें।


कह दो प्रपंचकारी‚ कपटी‚ जाली से‚

आलसी‚ अकर्मठ‚ काहिल‚ हड़ताली से‚

सी लें जबान‚ चुपचाप काम पर जायें‚

हम यहां रक्त‚ वे घर पर स्वेद बहायें।


हम दे दें उस को विजय‚ हमें तुम बल दो‚

दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।

हों खड़े लोग कटिबद्ध वहां यदि घर में‚

है कौन हमें जीते जो यहां समर में?

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गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ?

शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ?


उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था,

तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था;

सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे,

निर्वीर्य कल्पनाओं में भूल गये थे;


गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं,

तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं;

शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,

शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का;


सारी वसुन्धरा में गुरु-पद पाने को,

प्यासी धरती के लिए अमृत लाने को

जो सन्त लोग सीधे पाताल चले थे,

(अच्छे हैं अबः; पहले भी बहुत भले थे।)


हम उसी धर्म की लाश यहाँ ढोते हैं,

शोणित से सन्तों का कलंक धोते हैं।

- रामधारी सिंह ‘दिनकर’

प्रस्‍तुति: अलकनंदा सिंंह


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