Sunday 12 May 2013

दिनों में बंटते रिश्‍ते और मां

वसुधैव कुटुम्‍बकम की मूल अवधारणा के साथ चलने वाले इस देश में जीवन को मात्र 'ये दिन' 'वो दिन' में बांटकर उसकी समग्रता का अहसास कैसे किया जा सकता है । ये हमारा जीवन है कोई गुड़ की डली नहीं जिसे तोड़कर बांटा जा सके मगर ऐसा हो नहीं पा रहा संभवत: इसीलिए कुछ आयातित शब्‍दों के सहारे हम अपने संबंधों को नये रूप में परिभाषित करने में लगे हैं और इसी मुगालते को थामे चल रहे हैं कि लो जी हम भी आधुनिक हो गये।
सभी कुछ इंस्‍टेंट चाहने की आदत ने रिश्‍तों को भी इंस्‍टेंट बना दिया है तभी तो जिस एक शब्‍द की धुरी पर पूरा जीवन-उसका अस्‍तित्‍व, व्‍यवहार व विकास टिका है उसी एक शब्‍द 'मां' के लिए भी इसी कथित आधुनिकता ने एक दिन बांट कर दे दिया कि...लो ये रहा बस एक दिन....तुम्‍हारे नाम मां....अब इसी से पा लो वह खुशी जो तुम मुझे सूंघकर पाया करतीं थीं....अब वो तो डियो ने हड़प ली है मां... डिब्‍बों में बंद हो गई तुम्‍हारे बनाये खाने की खुश्‍बू....ने तुम्‍हें भी तो बख्‍श दिया है ये एक दिन....इसी की पूंछ पकड़कर तुम भी चलो और मैं भी...। गोया कि रिश्‍तों को भी ग्‍लैमराइज़ करने का नया फंडा तो हमारी मुठ्ठी में है लेकिन हम तो सिमटते गये सारी दुनिया की मुठ्ठी में...
हमने इसी कथित आधुनिकता की खातिर अपने जीवन की धुरी उस औरत को, जिसे गनीमत है कि अभी भी हम ''मां'' के नाम से ही जानते हैं, इन्‍हीं डे'ज की भीड़ में खड़ा कर दिया है।
आज मदर्स डे पर सोशल साइट्स से लेकर मीडिया की हर रौ में मां बह रही है। अचानक से इतनी मातृभक्‍ति उड़ेली जा रही है कि बस...जी ऊबने लगा है ये सोचकर कि प्रोपेगंडा से बढ़कर अगर ऐसा सचमुच हो जाये तो देश की संसद को महिला सुरक्षा के लिए यूं माथापच्‍ची ना करनी पड़े।
मैंने ऐसी कई औरतों को ''मां'' पर कसीदे गढ़ते और उस पर वाहवाही भी पाते देखा है जिन्‍होंने खुद अपने बच्‍चे क्रैचे'ज में डाल रखे हैं या फिर मेड की गोद में थमा रखे हैं । ये कोई मजबूरी नहीं बल्‍कि ये चलन है नये तरह के मातृत्‍व का जो अपने बच्‍चे को भी कमोडिटी के तौर भुनाने का हुनर ईज़ाद कर चुका है।
रिश्‍ता कोई भी हो खुद को बांटकर उसे जिया नहीं जा सकता, हर रिश्‍ता अपने हिस्‍से का पूरा वजूद चाहता है फिर मां को हम सिर्फ एक दिन कैसे याद कर सकते हैं वो हमारी रगों में बहती रहती है खून बनकर..दिल बन कर धड़कती है। फिर वसुधा को उसकी महत्‍ता बताने के लिए एक ही दिन क्‍यों मुकर्रर किया जाये , क्‍यों हम रिश्‍तों को बांटकर जीने को अपनी शैली मान बैठे हैं । आज तो बस महसूस करें कि जो हमारे भीतर धड़क रहा है उसका कोई कर्ज़ न आज तक उतार पाया है और न उतार पायेगा।

मशहूर शायर मुनव्‍वर राणा साहब के शब्‍दों में .....नई मांओं को सबक देती ये लाइनें..

सर फिरे लोग हमें दुश्मन-ए-जाँ कहते हैं
हम जो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं

मुझे बस इस लिए अच्छी बहार लगती है
कि ये भी माँ की तरह ख़ुशगवार लगती है

मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना .....
         
                                 - अलकनंदा सिंह

Wednesday 1 May 2013

शज़र के नीचे

बीन रही हूं चिंदी चिंदी उसी शाख के नीचे
जिस पर सोये थे सपने अपनी आंखें मींचे

वही शाख जो मन पर मां के
आंचल सी बिछ जाती
आज उसी ने झाड़ दिये हैं
यादों के सब पत्‍ते नीचे

मिट्टी मिट्टी में घुल जाये
वही मुहब्‍बत बसती है मुझमें
जो सर से पांव तक दौड़ रही है
कोई शिकवों के फिर द्वार ना खींचे

बूंद बूंद झर जड़ बनती जाऊं
ठहरूं उसी शज़र के नीचे
ठांव छांह से चुन लूं उनको
जिन सपनों ने पांव थे खींचे
          - अलकनंदा सिंह

बात इतनी सी है .....

courtesy-google
क़तरा क़तरा सांसों में बहती
घुली महक वो भीनी सी है

फूटे जिस ज़र्रे से आलम
क्‍यों वही इबारत झीनी सी है
उसकी आंखें बता रही हैं
रात की बाकी नरमी सी है

जुगनुओं की रोशनी से भी
अब यूं चुंधिया रहे हैं रिश्‍ते
मत बांधो चमकीले पर उनके 
उनसे ही तो रफ्ता रफ्ता
चटक रही रोशनी सी है

जी करता है चुपके से जाकर
उसके अहसासों में घुल जाऊं
सोचों की घाटी में उतरूं
पलकों की कोरों में मेरी
बहती खुश्‍बू उसकी सी है

कांपती उंगलियों के पोरों में
कोई तो शरारत बच्‍चों सी है।
                                    
                                        
-अलकनंदा सिंह
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...