Thursday, 28 November 2013

आकुल...आकुलता मन की

अरे जरा देखूं तो यह क्‍या है..
जो लागे है अपरिचित सी, पर......
चिरपरिचित सी जान पड़े है
कभी मेरा मन विचलित करती 
और कभी कर्म-दर्पण दिखलाती...

कभी प्रेम बन आंखों से झरती
और कभी क्रोध-कंपन बनकर
झुलसा देती ये रोम-रोम को,
कभी सखारूप में आकर पीड़ा को
सहला जाती- लेप लगाती और..
कभी टूटती स्‍वयं पर मेरे मन को
बींध-बींध कर चूर-चूर कर जाती...

देखे हैं इसके भिन्‍न रंग और रूप
कभी लहराते हुये...इठलाते हुये..
तो कभी सकुचाते हुये भी
पर पहचानूं इसको कैसे मैं ,
ये अंतर में दुबकी है मेरे...

मन हठात् ये कह बैठा आज ...कि
ये तो आकुलता है.. जीवन की,
तेरे उर की, पहचान इसे....
ये आकुलता है राग की..द्वेष की भी
चिपक गई है ये शरीर से..मन से भी
तो निकाल इसे.. या जी ले इसको,

हे! आकुल मन तू ठहर तनिक...तो,
क्षणभर को सांसें रोकूं तो..
दोनों हाथ पसार इसे अपने,
उर के अंतस से गा लूं मैं,
मुट्ठी खोल प्रवाहित कर दूं
और नदी बन जाऊं मैं...
आकुल ध्‍वनि के सिर पर बैठूं
राग द्वेष का नहीं, प्रेम के पग
का घुंघरू बन छनक जाऊं मैं....
समय-बिम्‍ब ने त्राटक करके
ये समझाया है मुझको अब...कि
जीवन की आकुलता को एक
धरातल पर बैठाऊं और ...
अब नमन मेरा इस आकुलता को
जो उर में बैठी मुझसे मेरा ही घर पूछ रही।
- अलकनंदा सिंह
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