Wednesday 25 August 2021

चल निकलती हैं ग़म-ए-यार से बातें क्या क्या...अहमद फ़राज़


 उर्दू अदब की बात चले और फ़राज़  का ज़‍िक्र ना हो , ऐसा कभी हो सकता है क्‍या... नहीं ,  आज उनकी पुण्‍यत‍िथ‍ि है। मक़बूल हस्तियों में शुमार मशहूर शायर अहमद फ़राज़ की आज बारहवीं पुण्‍यतिथि है। 12 जनवरी 1931 को पाकिस्‍तान में जन्‍मे अहमद फ़राज़ का इंतकाल 25 अगस्‍त 2008 को इस्‍लाबाद में हुआ। अहमद फ़राज़ का पूरा नाम सैयद अहमद शाह अली था लेकिन शायरी की दुनिया में वह अहमद फ़राज़ के नाम से मशहूर हुए।

उनकी लिखी ग़ज़लों में से प्रसिद्ध कुछ ग़ज़लें

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें

ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें

ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नशा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें

तू ख़ुदा है न मिरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसाँ हैं तो क्यूँ इतने हिजाबों में मिलें

आज हम दार पे खींचे गए जिन बातों प
क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों में मिलें

अब न वो मैं न वो तू है न वो माज़ी है ‘फ़राज़’
जैसे दो साए तमन्ना के सराबों में मिलें

ऐसा है कि सब ख़्वाब मुसलसल नहीं होते
ऐसा है कि सब ख़्वाब मुसलसल नहीं होते
जो आज तो होते हैं मगर कल नहीं होते

अंदर की फ़ज़ाओं के करिश्मे भी अजब हैं
मेंह टूट के बरसे भी तो बादल नहीं होते

कुछ मुश्किलें ऐसी हैं कि आसाँ नहीं होतीं
कुछ ऐसे मुअम्मे हैं कभी हल नहीं होते

शाइस्तगी-ए-ग़म के सबब आँखों के सहरा
नमनाक तो हो जाते हैं जल-थल नहीं होते

कैसे ही तलातुम हों मगर क़ुल्ज़ुम-ए-जाँ में
कुछ याद-जज़ीरे हैं कि ओझल नहीं होते

उश्शाक़ के मानिंद कई अहल-ए-हवस भी
पागल तो नज़र आते हैं पागल नहीं होते

सब ख़्वाहिशें पूरी हों ‘फ़राज़’ ऐसा नहीं है
जैसे कई अशआर मुकम्मल नहीं होते

चल निकलती हैं ग़म-ए-यार से बातें क्या क्या
चल निकलती हैं ग़म-ए-यार से बातें क्या क्या
हम ने भी कीं दर-ओ-दीवार से बातें क्या क्या

बात बन आई है फिर से कि मेरे बारे में
उस ने पूछीं मेरे ग़म-ख़्वार से बातें क्या क्या

लोग लब-बस्ता अगर हों तो निकल आती हैं
चुप के पैराया-ए-इज़हार से बातें क्या क्या

किसी सौदाई का क़िस्सा किसी हरजाई की बात
लोग ले आते हैं बाज़ार से बातें क्या क्या

हम ने भी दस्त-शनासी के बहाने की हैं
हाथ में हाथ लिए प्यार से बातें क्या क्या

किस को बिकना था मगर ख़ुश हैं कि इस हीले से
हो गईं अपने ख़रीदार से बातें क्या क्या

हम हैं ख़ामोश कि मजबूर-ए-मोहब्बत थे ‘फ़राज़’
वर्ना मंसूब हैं सरकार से बातें क्या क्या

इस से पहले कि बेवफ़ा हो जाएँ
इस से पहले कि बेवफ़ा हो जाएँ
क्यूँ न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएँ

तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ

तू कि यकता था बे-शुमार हुआ
हम भी टूटें तो जा-ब-जा हो जाएँ

हम भी मजबूरियों का उज़्र करें
फिर कहीं और मुब्तला हो जाएँ

हम अगर मंज़िलें न बन पाए
मंज़िलों तक का रास्ता हो जाएँ

देर से सोच में हैं परवाने
राख हो जाएँ या हवा हो जाएँ

इश्क़ भी खेल है नसीबों का
ख़ाक हो जाएँ कीमिया हो जाएँ

अब के गर तू मिले तो हम तुझ से
ऐसे लिपटें तिरी क़बा हो जाएँ

बंदगी हम ने छोड़ दी है ‘फ़राज़’
क्या करें लोग जब ख़ुदा हो जाएँ

करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे
करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे
ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे

वो ख़ार ख़ार है शाख़-ए-गुलाब की मानिंद
मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हूँ फिर भी गले लगाऊँ उसे

ये लोग तज़्किरे करते हैं अपने लोगों के
मैं कैसे बात करूँ अब कहाँ से लाऊँ उसे

मगर वो ज़ूद-फ़रामोश ज़ूद-रंज भी है
कि रूठ जाए अगर याद कुछ दिलाऊँ उसे

वही जो दौलत-ए-दिल है वही जो राहत-ए-जाँ
तुम्हारी बात पे ऐ नासेहो गँवाऊँ उसे

जो हम-सफ़र सर-ए-मंज़िल बिछड़ रहा है ‘फ़राज़’
अजब नहीं है अगर याद भी न आऊँ उसे

न दिल से आह न लब से सदा निकलती है
न दिल से आह न लब से सदा निकलती है
मगर ये बात बड़ी दूर जा निकलती है

सितम तो ये है कि अहद-ए-सितम के जाते ही
तमाम ख़ल्क़ मेरी हम-नवा निकलती है

विसाल-ओ-हिज्र की हसरत में जू-ए-कम-माया
कभी कभी किसी सहरा में जा निकलती है

मैं क्या करूँ मिरे क़ातिल न चाहने पर भी
तेरे लिए मेरे दिल से दुआ निकलती है

वो ज़िंदगी हो कि दुनिया ‘फ़राज़’ क्या कीजे
कि जिस से इश्क़ करो बेवफ़ा निकलती है

न मंज़िलों को न हम रहगुज़र को देखते हैं
न मंज़िलों को न हम रहगुज़र को देखते हैं
अजब सफ़र है कि बस हम-सफ़र को देखते हैं

न पूछ जब वो गुज़रता है बे-नियाज़ी से
तो किस मलाल से हम नामा-बर को देखते हैं

तेरे जमाल से हट कर भी एक दुनिया है
ये सेर-चश्म मगर कब उधर को देखते हैं

अजब फ़ुसून-ए-ख़रीदार का असर है कि हम
उसी की आँख से अपने हुनर को देखते हैं

‘फ़राज़’ दर-ख़ुर-ए-सज्दा हर आस्ताना नहीं
हम अपने दिल के हवाले से दर को देखते हैं

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं

सुना है रब्त है उस को ख़राब-हालों से
सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं

सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उस की
सो हम भी उस की गली से गुज़र के देखते हैं

सुना है उस को भी है शेर ओ शाइरी से शग़फ़
सो हम भी मो’जिज़े अपने हुनर के देखते हैं

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं

सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं

सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं

सुना है हश्र हैं उस की ग़ज़ाल सी आँखें
सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं

सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उस की
सुना है शाम को साए गुज़र के देखते हैं

सुना है उस की सियह-चश्मगी क़यामत है
सो उस को सुरमा-फ़रोश आह भर के देखते हैं

सुना है उस के लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पे इल्ज़ाम धर के देखते हैं

सुना है आइना तिमसाल है जबीं उस की
जो सादा दिल हैं उसे बन-सँवर के देखते हैं

सुना है जब से हमाइल हैं उस की गर्दन में
मिज़ाज और ही लाल ओ गुहर के देखते हैं

सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में
पलंग ज़ाविए उस की कमर के देखते हैं

सुना है उस के बदन की तराश ऐसी है
कि फूल अपनी क़बाएँ कतर के देखते हैं

वो सर्व-क़द है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं
कि उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं

बस इक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का
सो रह-रवान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं

सुना है उस के शबिस्ताँ से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीं उधर के भी जल्वे इधर के देखते हैं

रुके तो गर्दिशें उस का तवाफ़ करती हैं
चले तो उस को ज़माने ठहर के देखते हैं

किसे नसीब कि बे-पैरहन उसे देखे
कभी कभी दर ओ दीवार घर के देखते हैं

कहानियाँ ही सही सब मुबालग़े ही सही
अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं

अब उस के शहर में ठहरें कि कूच कर जाएँ
‘फ़राज़’ आओ सितारे सफ़र के देखते हैं

तरस रहा हूँ मगर तू नज़र न आ मुझ को
तरस रहा हूँ मगर तू नज़र न आ मुझ को
कि ख़ुद जुदा है तू मुझ से न कर जुदा मुझ को

वो कपकपाते हुए होंट मेरे शाने पर
वो ख़्वाब साँप की मानिंद डस गया मुझ को

चटख़ उठा हो सुलगती चटान की सूरत
पुकार अब तू मिरे देर-आश्ना मुझ को

तुझे तराश के मैं सख़्त मुन्फ़इल हूँ कि लोग
तुझे सनम तो समझने लगे ख़ुदा मुझ को

ये और बात कि अक्सर दमक उठा चेहरा
कभी कभी यही शो’ला बुझा गया मुझ को

ये क़ुर्बतें ही तो वजह-ए-फ़िराक़ ठहरी हैं
बहुत अज़ीज़ हैं यारान-ए-बे-वफ़ा मुझ को

सितम तो ये है कि ज़ालिम सुख़न-शनास नहीं
वो एक शख़्स कि शाएर बना गया मुझ को

उसे ‘फ़राज़’ अगर दुख न था बिछड़ने का
तो क्यूँ वो दूर तलक देखता रहा मुझ को

तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चराग़
तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चराग़
लोग क्या सादा हैं सूरज को दिखाते हैं चराग़

अपनी महरूमी के एहसास से शर्मिंदा हैं
ख़ुद नहीं रखते तो औरों के बुझाते हैं चराग़

बस्तियाँ दूर हुई जाती हैं रफ़्ता रफ़्ता
दम-ब-दम आँखों से छुपते चले जाते हैं चराग़

क्या ख़बर उन को कि दामन भी भड़क उठते हैं
जो ज़माने की हवाओं से बचाते हैं चराग़

गो सियह-बख़्त हैं हम लोग पे रौशन है ज़मीर
ख़ुद अँधेरे में हैं दुनिया को दिखाते हैं चराग़

बस्तियाँ चाँद सितारों की बसाने वालो
कुर्रा-ए-अर्ज़ पे बुझते चले जाते हैं चराग़

ऐसे बेदर्द हुए हम भी कि अब गुलशन पर
बर्क़ गिरती है तो ज़िंदाँ में जलाते हैं चराग़

ऐसी तारीकियाँ आँखों में बसी हैं कि ‘फ़राज़’
रात तो रात है हम दिन को जलाते हैं चराग़ ।

प्रस्‍तुत‍ि - अलकनंदा स‍िंंह

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