Sunday 29 January 2023

अन्तोन पाव्लविच चेख़व, पढ़िए उनकी प्रसिद्ध कहानी - शत्रु


 अन्तोन पाव्लविच चेख़व , 29 जनवरी,1860 को जन्‍मे वो रूसी कथाकार और नाटककार थे जिन्‍होंने अपने छोटे से साहित्यिक जीवन में उन्होंने रूसी भाषा को चार कालजयी नाटक दिए जबकि उनकी कहानियाँ विश्व के समीक्षकों और आलोचकों में बहुत सम्मान के साथ सराही जाती हैं। चेखव अपने साहित्यिक जीवन के दिनों में ज़्यादातर चिकित्सक के व्यवसाय में लगे रहे। वे कहा करते थे कि चिकित्सा मेरी धर्मपत्नी है और साहित्य प्रेमिका।


पढ़िए उनकी प्रसिद्ध कहानी - शत्रु (रूसी कहानी)


सितंबर की एक अँधेरी रात थी। डॉक्टर किरीलोव के इकलौते छह वर्षीय पुत्र आंद्रेई की नौ बजे के थोड़ी देर बाद डिप्थीरिया से मृत्यु हो गई। डॉक्टर की पत्नी बच्चे के पलंग के पास गहरे शोक व निराशा में घुटनों के बल बैठी हुई थी। तभी दरवाजे की घंटी कर्कश आवाज में बज उठी।


घर के नौकर सुबह ही घर से बाहर भेज दिए गए थे, क्योंकि डिप्थीरिया छूत से फैलनेवाला रोग है। किरीलोव ने कमीज पहनी हुई थी। उसके कोट के बटन खुले थे। उसका चेहरा गीला और उसके बिन पुछे हाथ कारबोलिक से झुलसे हुए थे। वह वैसे ही दरवाजा खोलने चल दिया। ड्योढ़ी के अँधेरे में डॉक्टर को आगंतुक का जो रूप दिखा, वह था औसत कद, सफेद गुलूबंद, बड़ा और इतना पीला पड़ा हुआ चेहरा कि लगता था जैसे कमरे में उससे रोशनी आ गई हो।


‘‘क्या डॉक्टर साहब घर पर हैं?’’ आगंतुक के स्वर में जल्दी थी।


‘‘हाँ! आप क्या चाहते हैं?’’ किरीलोव ने उत्तर दिया।


‘‘ओह! आपसे मिलकर खुशी हुई।’’ आगंतुक ने प्रसन्न होकर अँधेरे में डॉक्टर का हाथ टटोला और उसे पा लेने पर अपने दोनों हाथों से जोर से दबाकर कहा, ‘‘बेहद खुशी हुई। हम लोग पहले मिल चुके हैं। मेरा नाम अबोगिन है। गरमियों में ग्चुनेव परिवार में आपसे मिलने का सौभाग्य हुआ था। आपको घर पर पाकर मुझे खुशी हुई। भगवान् के लिए मुझ पर कृपा करें और फौरन मेरे साथ चलें। मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ, मेरी पत्नी बेहद बीमार है। मैं गाड़ी लाया हूँ।’’


आगंतुक की आवाज और उसके हाव-भाव से लग रहा था कि वह बेहद घबराया हुआ है। उसकी साँस बहुत तेज चल रही थी और वह काँपती हुई आवाज में तेजी से बोल रहा था, मानो वह किसी अग्निकांड या पागल कुत्ते से बचकर भागता हुआ आ रहा हो। उसकी बात में साफदिली झलक रही थी और वह किसी सहमे हुए बच्चे जैसा लग रहा था। वह छोटे-छोटे अधूरे वाक्य बोल रहा था और बहुत सी ऐसी फालतू बातें कर रहा था, जिनका मामले से कोई लेना-देना नहीं था।


‘‘मुझे डर था कि आप घर पर नहीं मिलेंगे।’’ आगंतुक ने कहना जारी रखा, ‘‘भगवान् के लिए आप अपना कोट पहनें और चलें। दरअसल हुआ यह कि पापचिंस्की, आप उसे जानते हैं, अलेक्जेंडर सेम्योनोविच पापचिंस्की मुझसे मिलने आया। थोड़ी देर हम लोग बैठे बातें करते रहे। फिर हमने चाय पी। एकाएक मेरी पत्नी चीखी और सीने पर हाथ रखकर कुरसी पर निढाल हो गई। उसे उठाकर हम लोग पलंग पर ले गए। मैंने अमोनिया लेकर उसकी कनपटियों पर मला और उसके मुँह पर पानी छिड़का, किंतु वह बिल्कुल मरी सी निढाल पड़ी है। मुझे डर है, उसे कहीं दिल का दौरा न पड़ा हो। आप चलिए, उसके पिता की मौत भी दिल का दौरा पड़ने से हुई थी।’’


किरीलोव चुपचाप ऐसे सुनता रहा जैसे वह रूसी भाषा समझता ही न हो।


जब आगंतुक अबोगिन ने फिर पापचिंस्की और अपनी पत्नी के पिता का जिक्र किया और अँधेरे में दोबारा उसका हाथ ढूँढ़ना शुरू किया, तब उसने सिर उठाया और उदासीन भाव से हर शब्द पर बल देते हुए बोला, ‘‘मुझे खेद है कि मैं आपके घर नहीं जा सकूँगा। पाँच मिनट पहले मेरे बेटे की मौत हो गई है।’’


‘‘अरे नहीं!’’ पीछे हटते हुए अबोगिन फुसफुसाया, ‘‘हे भगवान्! मैं कैसे गलत मौके पर आया हूँ। कैसा अभागा दिन है यह। यह कितनी अजीब बात है। यह कैसा संयोग है। कौन सोच सकता था!’’


उसने दरवाजे का हत्था पकड़ लिया। वह समझ नहीं पा रहा था कि वह डॉक्टर की मिन्नत करे या लौट जाए। फिर वह किरीलोव की बाँह पकड़कर बोला, ‘‘मैं आपकी हालत बखूबी समझता हूँ। भगवान् जानता है, ऐसे बुरे वक्त में आपको परेशान करने के लिए मैं शर्मिंदा हूँ। लेकिन मैं क्या करूँ, आप ही बताइए, मैं कहाँ जाऊँ? इस जगह आपके अलावा कोई डॉक्टर नहीं है। भगवान् के लिए आप मेरे साथ चलिए!’’


वहाँ चुप्पी छा गई। किरीलोव अबोगिन की ओर पीठ फेरकर एक मिनट तक चुपचाप खड़ा रहा। फिर वह धीरे-धीरे ड्योढ़ी से बैठक में चला गया। उसकी चाल यंत्रवत् और अनिश्चित थी। बैठक में अनजले लैंपशेड की झालर सीधी करने और मेज पर पड़ी एक मोटी किताब के पन्ने उलटने के उसके खोए-खोए अंदाज से लग रहा था कि उस समय उसका न कोई इरादा था, न उसकी कोई इच्छा थी और न ही वह कुछ सोच पा रहा था। वह शायद यह भी भूल गया था कि बाहर ड्योढ़ी में कोई अजनबी खड़ा है। कमरे के सन्नाटे और धुँधलके में उसकी विमूढ़ता और मुखर हो उठी थी। बैठक से कमरे की ओर बढ़ते हुए उसने अपना दाहिना पैर जरूरत से ज्यादा ऊँचा उठा लिया और फिर दरवाजे की चौखट ढूँढ़ने लगा। उसकी आकृति से एक तरह का भौंचक्कापन झलक रहा था, जैसे वह किसी अनजाने मकान में भटक आया हो। रोशनी की एक चौड़ी पट्टी कमरे की एक दीवार और किताबों की अलमारियों पर पड़ रही थी। वह रोशनी ईथर और कार्बोलिक की तीखी और भारी गंध के साथ सोनेवाले उस कमरे से आ रही थी, जिसका दरवाजा थोड़ा सा खुला हुआ था। डॉक्टर मेज के पासवाली कुरसी में जा धँसा। थोड़ी देर तक वह रोशनी में पड़ी किताबों को उनींदा सा घूरता रहा, फिर उठकर सोनेवाले कमरे में चला गया।


कमरे में मौत का सा सन्नाटा था। यहाँ की हर छोटी चीज उस तूफान का सबूत दे रही थी, जो हाल में ही यहाँ से गुजरा था। यहाँ पूर्ण निस्तब्धता थी। बक्सों, बोतलों और मर्तबानों से भरी तिपाई पर एक मोमबत्ती जल रही थी और अलमारी पर एक बड़ा लैंप जल रहा था। ये दोनों पूरे कमरे को रोशन कर रहे थे। खिड़की के पास पड़े पलंग पर एक बच्चा लेटा था, जिसकी आँखें खुली थीं और चेहरे पर अचरज का भाव था। वह हिल-डुल नहीं रहा था, किंतु उसकी खुली आँखें हर पल काली पड़कर उसके माथे में ही गहरी धँसती जा रही थीं। उसकी माँ उसकी देह पर हाथ रखे, बिस्तर में मुँह छिपाए, पलंग के पास झुकी बैठी थी। वह पलंग से पूरी तरह चिपटी हुई थी।


डॉक्टर मातम में झुकी बैठी अपनी पत्नी की बगल में आ खड़ा हुआ। पतलून की जेबों में हाथ डालकर और अपना सिर एक ओर झुकाकर वह अपने बेटे की ओर ताकने लगा। उसका चेहरा भावहीन था। केवल उसकी दाढ़ी पर चमक रही बूँदें ही इस बात की गवाही दे रही थीं कि वह अभी रोया है।


कमरे की उदास निस्तब्धता में भी एक अजीब सौंदर्य था, जो केवल संगीत द्वारा ही अभिव्यक्त किया जा सकता है। किरीलोव और उनकी पत्नी चुप थे। वे रोए नहीं। इस बच्चे के गुजर जाने के साथ उनका संतान पाने का स्वप्न भी वैसे ही विदा हो चुका था जैसे अपने समय से उनका यौवन विदा हो गया था। डॉक्टर की उम्र चौवालीस साल थी। उसके बाल अभी से पक गए थे और वह बूढ़ा लगता था। उसकी मुरझाई हुई पत्नी पैंतीस वर्ष की थी। आंद्रेई उनकी एकमात्र संतान थी।


अपनी पत्नी के विपरीत, डॉक्टर एक ऐसा व्यक्ति था, जो मानसिक कष्ट के समय कुछ कर डालने की जरूरत महसूस करता था। कुछ मिनट अपनी पत्नी के पास खड़े रहने के बाद वह सोनेवाले कमरे से बाहर आ गया। अपना दाहिना पैर उसी तरह जरूरत से ज्यादा उठाते हुए वह एक छोटे कमरे में गया, जहाँ एक बड़ा सोफा पड़ा था। वहाँ से होता हुआ वह रसोई में गया। रसोई और अलावघर के पास टहलते हुए वह झुककर एक छोटे से दरवाजे में घुसा और ड्योढ़ी में निकल आया।


यहाँ उसका सामना गुलूबंद पहने और फीके चेहरेवाले उस व्यक्ति से दोबारा हो गया।


‘‘आखिर आप आ गए!’’ दरवाजे के हत्थे पर हाथ रखते हुए अबोगिन ने लंबी साँस लेकर कहा, ‘‘भगवान् के लिए चलिए।’’


डॉक्टर चौंक गया। उसने अबोगिन की ओर देखा और उसे याद आ गया, फिर जैसे इस दुनिया में लौटते हुए उसने कहा, ‘‘अजीब बात है!’’


अपने गुलूबंद पर हाथ रखकर मिन्नत भरी आवाज में अबोगिन बोला, ‘‘डॉक्टर साहब! मैं आपकी हालत अच्छी तरह समझ रहा हूँ। मैं पत्थर-दिल आदमी नहीं हूँ। मुझे आपसे पूरी हमदर्दी है। पर मैं आपसे अपने लिए प्रार्थना नहीं कर रहा हूँ। वहाँ मेरी पत्नी मर रही है। यदि आपने उसकी वह हृदय-विदारक चीख सुनी होती, उसका वह जर्द चेहरा देखा होता तो आप मेरे इस अनुनय-विनय को समझ सकते। हे ईश्वर! मुझे लगा कि आप कपड़े पहनने गए हैं। डॉक्टर साहब, समय बहुत कीमती है। मैं हाथ जोड़ता हूँ, आप मेरे साथ चलिए।’’


किंतु बैठक की ओर बढ़ते हुए डॉक्टर ने एक-एक शब्द पर बल देते हुए दोबारा कहा, ‘‘मैं आपके साथ नहीं जा सकता।’’


अबोगिन उसके पीछे-पीछे गया और उसने डॉक्टर की बाँह पकड़ ली, ‘‘मैं समझ रहा हूँ कि आप सचमुच बहुत दुःखी हैं। लेकिन मैं मामूली दाँत-दर्द के इलाज या किसी रोग के लक्षण पूछने मात्र के लिए तो आपसे चलने की जिद नहीं कर रहा!’’ वह याचना भरी आवाज में बोला, ‘‘मैं आपसे एक इनसान का जीवन बचाने के लिए कह रहा हूँ। यह जीवन व्यक्तिगत शोक के ऊपर है, डॉक्टर साहब। अब आप मेरे साथ चलिए। मानवता के नाम पर मैं आपसे बहादुरी दिखाने और धीरज रखने की प्रार्थना कर रहा हूँ।’’


‘‘मानवता! यह एक दुधारी तलवार है!’’ किरीलोव ने झुँझलाकर कहा। ‘‘इसी मानवता के नाम पर मैं आपसे कहता हूँ कि आप मुझे मत ले जाइए। यह सचमुच अजीब बात है। यहाँ मेरे लिए खड़ा होना भी मुश्किल हो रहा है और आप हैं कि मुझे ‘मानवता’ शब्द से धमका रहे हैं। इस समय मैं कोई भी काम करने के काबिल नहीं हूँ। मैं किसी भी तरह आपके साथ चलने के लिए राजी नहीं। दूसरी बात, यहाँ और कोई नहीं है, जिसे मैं अपनी पत्नी के पास छोड़कर जा सकूँ। नहीं, नहीं।’’


किरीलोव एक कदम पीछे हट गया और और हाथ हिलाते हुए इनकार करने लगा, ‘‘आप मुझे जाने को न कहें!’’ फिर एकाएक वह घबराकर बोला, ‘‘मुझे क्षमा करें, आचरण-संहिता के तेरहवें खंड के मुताबिक मैं आपके साथ जाने को बाध्य हूँ। आपको हक है कि आप मेरे कोट का कॉलर पकड़कर मुझे घसीटकर ले जाएँ। अच्छी बात है। आप बेशक यही करें। लेकिन अभी मैं कोई भी काम करने के काबिल नहीं हूँ। मैं अभी बोल भी नहीं पा रहा, मुझे क्षमा करें।’’


‘‘डॉक्टर साहब, आप ऐसा न कहें।’’ उसकी बाँह न छोड़ते हुए अबोगिन ने कहा, ‘‘मुझे आपके तेरहवें खंड से क्या लेना-देना? आपकी इच्छा के खिलाफ अपने साथ चलने के लिए आपको मजबूर करने का मुझे कोई अधिकार नहीं। अगर आप चलने को राजी हैं तो ठीक, अगर नहीं तो मजबूरी में मैं आपके दिल से विनती करता हूँ। एक युवती मर रही है। आप कहते हैं कि आप के बेटे की अभी-अभी मौत हुई है। ऐसी स्थिति में तो आपको मेरी तकलीफ औरों से ज्यादा समझनी चाहिए।’’


किरीलोव चुपचाप खड़ा रहा। उधर अबोगिन डॉक्टरी के महान् पेशे और उससे जुड़े त्याग और तपस्या आदि के बारे में बोलता रहा। आखिर डॉक्टर ने रुखाई से पूछा, ‘‘क्या ज्यादा दूर जाना होगा?’’


‘‘बस, तेरह-चौदह मील। मेरे घोड़े बहुत बढि़या हैं डॉक्टर साहब, कसम से, वे केवल एक घंटे में आपको वापस पहुँचा देंगे, बस घंटे भर में।’’


डॉक्टर पर डॉक्टरी के पेशे और मानवता के संबंध में कही गई बातों से ज्यादा असर इन आखिरी शब्दों का पड़ा। एक पल सोचने के बाद उसने उसाँस भरकर कहा, ‘‘ठीक है, चलो, चलें।’’


फिर वह तेजी से कमरे में घुसा। अब उसकी चाल स्थिर थी। पलभर बाद वह अपना डॉक्टरी पेशेवाला कोट पहनकर वापस लौट आया। अबोगिन छोटे-छोटे डग भरता हुआ उसके साथ चलने लगा और कोट ठीक से पहनने में उसकी मदद करने लगा। फिर दोनों साथ-साथ घर से बाहर निकल गए।


बाहर अँधेरा था, लेकिन उतना गहरा नहीं, जितना ड्योढ़ी में था।


‘‘आप यकीन मानिए, आपकी उदारता की कद्र करना मैं जानता हूँ।’’ गाड़ी में डॉक्टर को बैठाते हुए वह बोला, ‘‘लुका भाई, तुम जितनी तेजी से हाँक सकते हो, हाँको। भगवान् के लिए जल्दी करो!’’


कोचवान ने घोड़े सरपट दौड़ा दिए। पूरे रास्ते किरीलोव और अबोगिन चुप रहे। अबोगिन केवल एक बार गहरी साँस लेकर बुदबुदाया, ‘‘कैसी विकट और दारुण परिस्थिति है। जो अपने करीबी हैं, उन पर इतना प्रेम कभी नहीं उमड़ता, जितना तब, जब उन्हें खो देने का डर पैदा हो जाता है!’’


जब नदी पार करने के लिए गाड़ी धीमी हुई, किरीलोव एकाएक चौंक पड़ा। लगा जैसे पानी के छप-छप की आवाज सुनकर वह दूर कहीं से वापस आ गया हो। वह अपनी जगह हिलने-डुलने लगा। फिर वह उदास स्वर में बोला, ‘‘देखो, मुझे जाने दो। मैं बाद में आ जाऊँगा। मैं केवल अपने सहायक को अपनी पत्नी के पास भेजना चाहता हूँ। वह इस समय बिल्कुल अकेली रह गई है।’’


दूसरी ओर, गाड़ी जैसे-जैसे अपने मुकाम पर पहुँच रही थी, अबोगिन और अधिक धैर्यहीन होता जा रहा था। कभी वह उठ जाता, कभी बैठता, कभी चौंककर उछल पड़ता तो कभी कोचवान के कंधे के ऊपर से आगे ताकता। अंत में गाड़ी जब धारीदार किरमिच के परदे से सजे ओसारे में जाकर रुकी, उसने जल्दी और जोर से साँस लेते हुए दूसरी मंजिल की खिड़कियों की ओर देखा, जिनसे रोशनी आ रही थी।


‘‘यदि कुछ हो गया तो मैं सह नहीं पाऊँगा।’’ अबोगिन ने डॉक्टर के साथ ड्योढ़ी की ओर बढ़ते हुए घबराहट में हाथ मलते हुए कहा। ‘‘लेकिन परेशानी वाली कोई आवाज नहीं आ रही, इसलिए अब तक सब ठीक ही होगा।’’ सन्नाटे में कुछ सुन पाने के लिए कान लगाए हुए वह बोला।


ड्योढ़ी में भी बोलने की कोई आवाज सुनाई नहीं पड़ रही थी और समूचा घर तेज रोशनी के बावजूद सोया हुआ सा लग रहा था।


सीढि़याँ चढ़ते हुए उसने कहा, ‘‘न तो कोई आवाज आ रही है, न ही कोई दिखाई पड़ रहा है। कहीं कोई हलचल भी नहीं है। भगवान् करे...!’’


वे दोनों ड्योढ़ी से होते हुए हॉल में पहुँचे, जहाँ एक काला पियानो रखा हुआ था और छत से फानूस लटक रहा था। यहाँ से अबोगिन डॉक्टर को एक छोटे दीवानखाने में ले गया, जो आरामदेह और आकर्षक ढंग से सजा हुआ था और जिसमें गुलाबी कांति सी झिलमिला रही थी।


‘‘डॉक्टर साहब, आप यहाँ बैठें और इंतजार करें।’’ अबोगिन ने कहा, ‘‘मैं अभी आता हूँ। जरा जाकर देख लूँ और बता दूँ कि आप आ गए हैं।’’


चारों ओर शांति थी। दूर, किसी कमरे की बैठक में किसी ने आह भरी, किसी अलमारी का शीशे का दरवाजा झनझनाया और फिर सन्नाटा छा गया। लगभग पाँच मिनट के बाद किरीलोव ने हाथों की ओर निहारना छोड़कर उस द्वार की ओर देखा, जिससे अबोगिन भीतर गया था।


अबोगिन दरवाजे के पास खड़ा था, पर वह अब वह अबोगिन नहीं लग रहा था, जो कमरे के भीतर गया था। उसके चेहरे पर स्याह परछाइयाँ तैर रही थीं। अब उसकी छवि पहले जैसी साफ नहीं लग रही थी। उसके चेहरे पर विरक्ति के भाव सा कुछ आ गया था। पता नहीं, वह डर था या शारीरिक कष्ट। उसकी नाक, मूँछें और उसका सारा चेहरा फड़क रहा था, जैसे ये सारी चीजें उसके चेहरे से फूटकर अलग निकल पड़ना चाहती हों। उसकी आँखों में पीड़ा भरी हुई थी और वह मानसिक रूप से उद्वेलित लग रहा था।


लंबे और भारी डग भरता हुआ वह दीवानखाने के बीच आ खड़ा हुआ। फिर वह आगे बढ़कर मुट्ठियाँ बाँधते हुए कराहने लगा।


‘‘वह मुझे दगा दे गई, डॉक्टर।’’ फिर ‘दगा’ पर बल देते हुए वह चीखा, ‘‘मुझे छोड़ गई वह। दगा दे गई। यह सब झूठ क्यों? हे ईश्वर, यह घटिया फरेब भरी चालबाजी क्यों? यह शैतानियत भरा धोखे का जाल क्यों? मैंने उसका क्या बिगाड़ा था? आखिर वह मुझे क्यों छोड़ गई?’’


डॉक्टर के उदासीन चेहरे पर जिज्ञासा की झलक उभर आई। वह उठ खड़ा हुआ और उसने अबोगिन से पूछा, ‘‘पर मरीज कहाँ है?’’


‘‘मरीज! मरीज!’’ हँसता-रोता और मुट्ठियाँ हिलाता हुआ अबोगिन चिल्लाया, ‘‘वह मरीज नहीं, पापिन है! इतना कमीनापन! इतना ओछापन! शैतान भी ऐसी घिनौनी हरकत नहीं करता। उसने मुझे यहाँ से भेज दिया। क्यों? ताकि वह उस दलाल, उस भाँड़ के साथ भाग जाए! हे ईश्वर! इससे तो अच्छा था, वह मर जाती। यह बेवफाई मैं नहीं सह सकूँगा, बिल्कुल नहीं।’’


यह सुनते ही डॉक्टर तनकर खड़ा हो गया। उसने आँसुओं से भरी अपनी आँखें झपकाईं। उसकी नुकीली दाढ़ी भी जबड़ों के साथ-साथ दाएँ-बाएँ हिल रही थी। वह भौंचक्का होकर बोला, ‘‘क्षमा करें, इसका क्या मतलब है? मेरा बच्चा कुछ देर पहले मर गया है। मेरी पत्नी मातम में है और शोक से मरी जा रही है। इस समय वह घर में अकेली है। मैं खुद भी बड़ी मुश्किल से खड़ा हो पा रहा हूँ। तीन रातों से मैं सोया नहीं हूँ और मुझे क्या ऐसी भद्दी नौटंकी में शामिल होने के लिए यहाँ बुलाया गया हूँ? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा।’’


अबोगिन ने एक मुट्ठी खोली और एक मुड़ा-तुड़ा सा पुरजा फर्श पर डालकर उसे कुचल दिया, मानो वह कोई कीड़ा हो, जिसे वह नष्ट कर डालना चाहता था। अपने चेहरे के सामने मुट्ठी हिलाते हुए दाँत भींचकर वह बोला, ‘‘और मैंने कुछ समझा ही नहीं, कुछ ध्यान ही नहीं दिया। वह रोज मेरे यहाँ आता था, इस बात पर गौर नहीं किया। यह भी नहीं सोचा कि आज वह मेरे घर बग्घी में आया था। बग्घी में क्यों? मैं अंधा और मूर्ख था, जिसने इसके बारे में सोचा ही नहीं, अंधा और मूर्ख।’’ उसके चेहरे से लग रहा था जैसे किसी ने उसके पैरों को कुचल दिया हो।


डॉक्टर फिर बड़बड़ाया, ‘‘मैं, मेरी समझ में नहीं आता कि इस सबका मतलब क्या है? यह तो किसी इनसान की बेइज्जती करना हुआ, इनसान के दुख और वेदना का उपहास करना हुआ। यह बिल्कुल नामुमकिन बात है, यह भद्दा मजाक है। मैंने अपनी जिंदगी में ऐसी बात कभी नहीं सुनी।’’


उस व्यक्ति की तरह, जो अब समझ गया है कि उसका घोर अपमान किया गया है, डॉक्टर ने अपने कंधे उचकाए और बेबसी में हाथ फैला दिए। बोलने या कुछ भी कर सकने में असमर्थ, वह फिर आरामकुरसी में धँस गया।


‘‘तो तुम अब मुझ से प्रेम नहीं करतीं, किसी दूसरे से प्यार करती हो। ठीक है, पर यह धोखा क्यों, यह ओछी दगाबाजी क्यों?’’ अबोगिन रोवाँसे स्वर में बोला, ‘‘इससे किसका भला होगा? मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था? तुमने यह घटिया हरकत क्यों की, डॉक्टर!’’ वह आवेग में चिल्लाता हुआ किरीलोव के पास पहुँच गया, ‘‘आप अनजाने में मेरे दुर्भाग्य के गवाह बन गए हैं और मैं आप से सच्ची बात नहीं छिपाऊँगा। मैं कसम खाकर कहता हूँ कि मैं उस औरत से मोहब्बत करता था। मैं उसका गुलाम था। मैं उसकी पूजा करता था। मैंने उसके लिए हर चीज कुरबान कर दी। अपने संबंधियों से झगड़ा किया। नौकरी छोड़ दी। संगीत का अपना शौक छोड़ दिया। उन बातों के लिए उसे माफ कर दिया, जिनके लिए मैं अपनी बहन या माँ को कभी माफ नहीं करता। मैंने उसे कभी कड़ी निगाह से नहीं देखा। मैंने उसे कभी बुरा मानने का जरा सा भी मौका नहीं दिया। यह सब झूठ और फरेब है, क्यों? अगर तुम मुझे प्यार नहीं करती थीं तो वह साफ-साफ कह क्यों नहीं दिया...इन सब मामलों में तुम मेरी राय जानती थीं!’’


काँपते हुए, आँखों में आँसू भरे अबोगिन ने अपना दिल डॉक्टर के सामने खोलकर रख दिया। वह भावोद्रेक में बोल रहा था। सीने से हाथ लगाए हुए, बिना किसी झिझक के वह गोपनीय घरेलू बातें बता रहा था। असल में, एक तरह से आश्वस्त सा होता हुआ कि आखिरकार ये गोपनीय बातें अब खुल गईं। यदि इसी तरह वह घंटे भर और बोल लेता, अपने दिल की बात कह लेता, गुबार निकाल लेता तो यकीनन वह स्वस्थ महसूस करने लगता। कौन जाने, यदि डॉक्टर दोस्ताना हमदर्दी से उसकी बात सुन लेता, शायद जैसा कि अकसर होता है, वह ना-नुकुर किए बिना और अनावश्यक गलतियाँ किए बिना ही अपनी किस्मत से संतुष्ट हो जाता, लेकिन हुआ कुछ और ही।


उधर अबोगिन बोलता जा रहा था, इधर अपमानित डॉक्टर के चेहरे पर एक बदलाव सा होता दिखाई दे रहा था। उसके चेहरे पर जो स्तब्धता और उदासीनता का भाव था, वह मिट गया और उसकी जगह क्रोध और अपमान ने ले ली। उसका चेहरा और भी हठपूर्ण और कठोर हो गया। ऐसी हालत में अबोगिन ने उसे धार्मिक पादरियों जैसे भावशून्य और रूखे चेहरेवाली एक सुंदर नवयुवती की फोटो दिखाते हुए पूछा कि क्या कोई यकीन कर सकता है कि ऐसे चेहरेवाली स्त्री झूठ बोल सकती है, छल कर सकती है?


डॉक्टर अबोगिन के पास से पीछे हट गया और भौंचक्का होकर उसे देखने लगा।


‘‘आप मुझे यहाँ लाए ही क्यों?’’ डॉक्टर बोला। उसकी दाढ़ी हिल रही थी, ‘‘आपने शादी की, क्योंकि आपके पास इससे अच्छा और कोई काम नहीं था और इसलिए आप अपना यह घटिया नाटक मनमाने ढंग से खेलते रहे, पर मुझे इससे क्या लेना-देना? मेरा आपके इस प्यार-मोहब्बत से क्या सरोकार? मुझे तो चैन से जीने दीजिए। आप अपनी मुक्केबाजी कीजिए, अपने मानवतावादी विचार बघारिए, वायलिन बजाइए, मुरगे की तरह मोटे होते जाइए, पर किसी को जलील मत कीजिए। यदि आप उनका सम्मान नहीं कर सकते तो कृपा करके उनसे अलग ही रहिए।’’


अबोगिन का चेहरा लाल हो गया। उसने पूछा, ‘‘इसका मतलब क्या है?’’


‘‘इसका मतलब यह है कि लोगों के साथ यह कमीना और कुत्सित खिलवाड़ है। मैं डॉक्टर हूँ। आप डॉक्टरों को, बल्कि हर ऐसा काम करनेवाले को, जिसमें से इत्र और वेश्यावृत्ति की गंध नहीं आती, नौकर और अर्दली किस्म का आदमी समझते हैं। आप जरूर समझिए। लेकिन दुःखी व्यक्ति की भावनाओं से खिलवाड़ करने का, उसे नाटक की सामग्री समझने का आपको कोई हक नहीं।’’


अबोगिन का चेहरा गुस्से से फड़क रहा था। उसने ललकारकर पूछा, ‘‘मुझसे ऐसी बात करने की आपकी हिम्मत कैसे हुई?’’


मेज पर घूँसा मारते हुए डॉक्टर चिल्लाया, ‘‘मेरा दुःख जानते हुए भी अपनी अनाप-शनाप बातें सुनाने के लिए मुझे यहाँ लाने की हिम्मत आपको कैसे हुई? दूसरे के दुःख का मखौल करने का हक आपको किसने दिया?’’


अबोगिन चिल्लाया, ‘‘आप जरूर पागल हैं। कितने बेरहम हैं आप। मैं खुद कितना दुःखी हूँ और...और...!’’


घृणा से मुसकराकर डॉक्टर ने कहा, ‘‘दुःखी! आप इस शब्द का इस्तेमाल मत कीजिए। इसका आपसे कोई वास्ता नहीं। जो आवारा-निकम्मे कर्ज नहीं ले पाते, वे भी अपने को दुखी कहते हैं। मोटापे से परेशान मुरगा भी दुःखी होता है। घटिया आदमी!’’


गुस्से से पिनपिनाते हुए अबोगिन ने कहा, ‘‘जनाब, आप अपनी औकात भूल रहे हैं! ऐसी बातों का जवाब लातों से दिया जाता है!’’


अबोगिन ने जल्दी से अंदर की जेब टटोलकर उसमें से नोटों की एक गड्डी निकाली और उसमें से दो नोट निकालकर मेज पर पटक दिए। नथुने फड़काते हुए उसने हिकारत से कहा, ‘‘यह रही आपकी फीस। आपके दाम अदा हो गए।’’


नोटों को जमीन पर फेंकते हुए डॉक्टर चिल्लाया, ‘‘रुपए देने की गुस्ताखी मत कीजिए। यह अपमान इससे नहीं धुल सकता।’’


अबोगिन और डॉक्टर एक-दूसरे को अपमानजनक और भद्दी-भद्दी बातें कहने लगे। उन दोनों ने जीवन भर शायद सन्निपात में भी कभी इतनी अनुचित, बेरहम और बेहूदी बातें नहीं कही थीं। दोनों में जैसे वेदनाजन्य अहं जाग गया था। जो दुःखी होते हैं, उनका अहं बहुत बढ़ जाता है। वे क्रोधी, नृशंस और अन्यायी हो जाते हैं। वे एक-दूसरे को समझने में मूर्खों से भी ज्यादा असमर्थ होते हैं। दुर्भाग्य लोगों को मिलाने की जगह अलग करता है। प्रायः यह समझा जाता है कि एक ही तरह का दुःख पड़ने पर लोग एक-दूसरे के नजदीक आ जाते होंगे, लेकिन हकीकत यह है कि ऐसे लोग अपेक्षाकृत संतुष्ट लोगों से बहुत ज्यादा नृशंस और अन्यायी साबित होते हैं।


डॉक्टर चिल्लाया, ‘‘मेहरबानी करके मुझे मेरे घर पहुँचा दीजिए।’’ गुस्से से उसका दम फूल रहा था।


अबोगिन ने जोर से घंटी बजाई। जब उसकी पुकार पर भी कोई नहीं आया तो गुस्से में उसने घंटी फर्श पर फेंक दी। कालीन पर एक हल्की, खोखली आह सी भरती हुई घंटी खामोश हो गई।


तब एक नौकर आया।


घूँसा ताने अबोगिन जोर से चीखा, ‘‘कहाँ मर गया था तू? बेड़ा गर्क हो तेरा ! तू अभी था कहाँ? जा इस आदमी के लिए गाड़ी लाने को कह और मेरे लिए बग्घी निकलवा!’’ जैसे ही नौकर जाने के लिए मुड़ा, अबोगिन फिर चिल्लाया, ‘‘ठहर! कल से इस घर में एक भी गद्दार, दगाबाज नहीं रहेगा। सब निकल जाएँ, दफा हो जाएँ यहाँ से। मैं नए नौकर रख लूँगा। बेईमान कहीं के!’’


गा‌ड़ियों के लिए प्रतीक्षा करते समय डॉक्टर और अबोगिन खामोश रहे। नाजुक सुरुचि का भाव अबोगिन के चेहरे पर फिर लौट आया था। बड़े सभ्य तरीके से वह अपना सिर हिलाता हुआ, कुछ योजना सी बनाता हुआ कमरे में टहलता रहा। उसका गुस्सा अभी शांत नहीं हुआ था, पर वह ऐसा जाहिर करने का प्रयास कर रहा था, जैसे कमरे में शत्रु की मौजूदगी की ओर उसका ध्यान भी न गया हो। उधर डॉक्टर एक हाथ से मेज पकड़े हुए स्थिर खड़ा अबोगिन की ओर हिकारत से देख रहा था, गोया वह उसका शत्रु हो।


कुछ देर बाद जब डॉक्टर गाड़ी में बैठा अपने घर जा रहा था, उसकी आँखों में तब भी वही घृणा भाव कायम था। घंटे भर पहले जितना अँधेरा था, अब वह ज्यादा बढ़ गया था। दूज का लाल चाँद पहाड़ी के पीछे छिप गया था और उसकी रखवाली करनेवाले बादल सितारों के आस-पास काले धब्बों की तरह पडे़ थे। पीछे से सड़क पर पहियों की आवाज सुनाई दी और बग्घी की लाल रंग की लालटेनों की चमक डॉक्टर की गाड़ी के आगे आ गई। वह अबोगिन था। जो प्रतिवाद करने, झगड़ा करने पर उतारू था।


पूरे रास्ते डॉक्टर अपनी शोकाकुल पत्नी या अपने मृत पुत्र आंद्रेई के बारे में नहीं बल्कि अबोगिन और उस घर में रहनेवालों के बारे में सोचता रहा, जिसे वह अभी छोड़कर आया था। उसके विचार नृशंस और अन्यायपूर्ण थे। उसने मन-ही-मन अबोगिन, उसकी बीवी, पापचिंस्की और सुगंधित गुलाबी उषा में रहनेवाले सभी लोगों पर क्षोभ प्रकट किया और रास्ते भर बराबर इन लोगों के लिए नफरत और हिकारत की बातें सोचता रहा। यहाँ तक कि उसके दिल में दर्द होने लगा और ऐसे लोगों के प्रति ऐसा ही दृष्टिकोण उसके जहन में स्थिर हो गया।


वक्त गुजरेगा और किरीलोव का दुःख भी गुजर जाएगा। किंतु यह अन्यायपूर्ण दृष्टिकोण डॉक्टर के साथ हमेशा रहेगा—जीवनभर, उसकी मृत्यु के दिन तक।


(अनुवाद : सुशांत सुप्रिय)

Monday 2 January 2023

पुण्‍यतिथ: पढ़िए जैनेन्द्र कुमार द्वारा अनूदित रूसी कहानीकार #LeoTolstoy की कहानी ''कितनी जमीन ?


 हिंदी उपन्यास के इतिहास में मनोविश्लेषणात्मक परंपरा के प्रवर्तक जैनेन्द्र कुमार आज के ही दिन पैदा हुए थे। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिला अंतर्गत कौड़ियालगंज में 2 जनवरी 1905 को हुआ था जबकि निधन 24 दिसंबर 1988 को हुआ। 

वो हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कथाकार, उपन्यासकार तथा निबंधकार थे। जैनेन्द्र अपने पात्रों की खोज करके उन्हें बड़े कौशल से प्रस्तुत करते हैं। उनके पात्रों की चारित्रिक विशेषताएँ इसी कारण से संयुक्त रूप से उभरती हैं। 
साहित्यिक परिचय
'फाँसी' इनका पहला कहानी संग्रह था, जिसने इनको प्रसिद्ध कहानीकार बना दिया। उपन्यास 'परख' से सन्‌ 1929 में पहचान बनी। 'सुनीता' का प्रकाशन 1935 में हुआ। 'त्यागपत्र' 1937 में और 'कल्याणी' 1939 में प्रकाशित हुए। इसके बाद 1930 में 'वातायन', 1933 में 'नीलम देश की राजकन्या', 1934 में 'एक रात', 1935 में 'दो चिड़ियाँ' और 1942 में 'पाजेब' का प्रकाशन हुआ। 'जैनेन्द्र की कहानियां' सात भागों उपलब्ध हैं। उनके अन्य महत्त्वपूर्ण उपन्यास हैं- 'विवर्त,' 'सुखदा', 'व्यतीत', 'जयवर्धन' और 'दशार्क'। 'प्रस्तुत प्रश्न', 'जड़ की बात', 'पूर्वोदय', 'साहित्य का श्रेय और प्रेय', 'मंथन', 'सोच-विचार', 'काम और परिवार', 'ये और वे' इनके निबंध संग्रह हैं। तालस्तोय की रचनाओं का इनके द्वारा किया गया अनुवाद उल्लेखनीय है। 'समय और हम' प्रश्नोत्तर शैली में जैनेन्द्र को समझने की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। 

पढ़िए जैनेन्द्र कुमार द्वारा अनूदित रूसी कहानीकार #LeoTolstoy की कहानी ''कितनी जमीन ?

दो बहनें थीं बड़ी बहन की शादी कस्बे में एक सौदागर से हुई थी जबकि छोटी बहन की शादी देहात में किसान के घर हुई थी बड़ी बहन छोटी बहन के घर आकर अपने शहर के जीवन की तारीफ़ करने लगी देखो कैसे आराम से हम रहते हैं फैंसी कपड़े पहनते हैं अच्छे-अच्छे पकवान खाते हैं और फिल्म देखने चाहते हैं और बाग-बगीचों में घूमते हैं.


छोटी बहन को बड़ी बहन की कही बातें बुरी लगी वह अपनी बहन से कहने लगी थी मैं तो तुम्हारे बाल बराबरी कभी नहीं करुंगी क्योंकि हम तो सीधे-साधे रहते हैं हम किसान हैं हमारी जिंदगी फूलों के समान है महकती रहती है हमें किसी से भी कोई जलन नहीं होती और हमारा शरीर मजबूत रहता है क्योंकि हम दिन भर काम करते हैं.

छोटी बहन का पति दीना बाहर बैठा दोनों की यह बातें सुन रहा था उसने सोचा कि बड़ी बहन की बातें तो खड़ी हैं बात आई गई हो गई एक दिन  टीना अपने घर के बरामदे में बैठा था कि एक सौदागर उधर से गुजरता हुआ उसके घर आया उसने बताया कि यह दरिया किनारे की बस्ती है बिना नहीं सोचा कि वहां की “जमीन” तो बहुत ही उपजाऊ है उसके मन में इच्छा हुई थी वह यहां क्यों पड़ा है.

जबकि दूसरी जगह मौका है यहां की जमीन बेचकर पैसे लेकर क्यों न नए सिरे से जीवन शुरू करके देखूं उसके अपने तैयारी शुरु कर दी बीवी से कहा कि घर की देखभाल करना और खुद एक को साथ लेकर निकल गया रास्ते में चाय के डिब्बे और उपहार की अन्य चीजें खरीदी, सातवें दिन में कॉल लोगों की बस्ती में पहुंच गए वहां पहुंचकर उसने देखा कि सौदागर ने जो बात बताई थी वह सच थी कॉल लोगों की जमीन बहुत ही अच्छी थी बीमा को देखते ही सब अपने तंबुओं से निकल आए और उसके चारों तरफ आकर खड़े हो गए उनमें से एक आदमी ऐसा था जो देना और उन लोगों की भाषा को समझता था.

देना ने उसी के जरिए उन लोगों को बताया कि वह यहां “जमीन” के लिए आया है वह लोग बड़े खुश हुए बड़ी आओ भगत के साथ उसे अपने अच्छे अच्छे घरों में ले गए पीने को चाय दी देना ने भी अपने पास से कुछ उपहार की चीजें से निकाली और उन सबको दे दी वे लोग भी बड़े खुश हुए फिर उस आदमी ने कहा की मेहमान को सब समझा दो किस दे कहना चाहते हैं कि हम आपके आने से खुश हैं बताओ हमारे पास कौन सी चीज है जो आप को सबसे अधिक पसंद है.

ताकि हम उसे आपके लिए ला सकें बिना ने जवाब दिया की जिस चीज को देखकर मैं खुश हूं वह आप की “जमीन” है हमारे यहां “जमीन” कम है और इतनी अच्छी भी नहीं है उसमें कुछ भी खेती अच्छी तरह नहीं होती लेकिन यहां तो उसका कोई अंत नहीं है यहां की जमीन बहुत उपजाऊ है मैंने तो अपनी आंखों से यहां जैसी धरती कहीं और नहीं देखी.

बिना ने अपनी बात उन लोगों को समझा दी कुछ देर से आपस में सलाह करने लगे उन लोगों की आपस में बातचीत चल रही थी की बड़ी सी टोपी पहने उनका सरदार वहां आया सब चुप होकर उसके सम्मान में खड़े हो गए दीना को बताया कि यह हमारे सरदार हैं बिना ने फौरन अपने सामान में से एक बढ़िया सा तोहफा निकाला और उस को दे दिया सरदार ने भेंट ले ली और अपने आसन पर बैठ गया और बोला तुम्हें कितनी “जमीन” चाहिए ले लो हमारे यहां जमीन की कोई कमी नहीं है.

बिना ने सोचा कि मैं चाहे जितनी “जमीन” कैसे ले सकता हूं पक्का करने के लिए कागज भी तो चाहिए नहीं तो जैसे आज उन्होंने कह दिया है वैसे ही कल यह ले भी लेंगे टीना ने कहा कि मैं जमीन  लूंगा जब आप मुझे कागज पर पक्का करके देंगे सरदार बोला ठीक है यह तो आसानी से हो जाएगा हमारे यहां एक मुंशी है जो लिखा-पढ़ी पक्की कर लेगा दीना बोला तो कीमत क्या होगी सरदार ने कहा एक दिन के 1000 दी ना समझ नहीं पाया.

वह बोला यह हिसाब तो मुझे नहीं आता एकड़ का हिसाब बताएं सरदार ने कहा कि जितना चलोगे उतनी “जमीन” तुम्हारी हो जाएगी और उस दिन का 1000 लेंगे देना सोच में पड़ गया बोला इस से तो हो सारी “जमीन” गिरी जा सकती है सरदार हंसा बोला था क्यों नहीं पर शर्त यह है कि अगर तुम उसी दिन उसी जगह ना आ गए जहां से चले थे तो कीमत दोगुनी हो जाएगी दीना खुश हो गया और अगले दिन सवेरे ही चलना शुरु कर दिया फिर कुछ बातें हो खाना पीना हुआ ऐसे करते करते रात हो गई बिना बिस्तर पर लेटा तो रहा पर उसे नींद नहीं आई रह रह कर उसे वही “जमीन” दिखाई दे रही थी.

सवेरा हुआ और उसने अपने दोस्त को उठाया जो गाड़ी में सोते हुए जा रहा था बोला उठ जाओ गज जमीन नापने चलना है सब तैयार हुए और सब चल पड़े दीना ने फावड़ा खरीद लिया खुले मैदान में जब पहुंचे तब तक सूरज चढ़ चुका था बस एक ऊंची पहाड़ी थी और खुला मैदान सरदार ने इशारा करते हुए कहा जहां तक नजर जाती है हमारी जमीन है अब तुम देख लो तुम्हें “जमीन” जमीन लेनी है वीना ने रुपए निकाले और  गिन कर रख दिए फिर उसमें पहना हुआ अपना कोट उतार डाला और धोती को कस लिया कुर्ते की बाजू ऊपर की और पानी लेकर चल दिया.

फिर देखने लगा कि मैं किस तरफ चलूं क्योंकि उसे “जमीन” का बहुत बड़ा लालच था उसने फावड़ा लिया और चलना शुरु किया 2 3 4 चल के पैर फिर एक गड्ढा खोदा और उसमें ऊंची घास चिंदी फिर वह आगे बढ़ा और फुर्ती से चलने लगा तथा जहां रखता ही गड्ढा खोद दे ता ता के सरदार को पता चल जाए कि वह कितनी दूर चला है उसने अपने जूते उतार दिए और धोती ऊपर कर ली अब चलना आसान हो गया वह दो तीन मिल चला और उसने सोचा और चलता हूं ताकि और जमीन ले सकूं वह इतनी दूर चल चुका था कि जब उसने पीछे मुड़कर देखा तो वह पहाड़ी बहुत दूर दिख रही थी जहां से उसने चलना शुरु किया था.

वहां धूप में जाने क्या कुछ चलता हुआ था दिखाई पड़ रहा था वीना ने सोचा मैं तो बहुत दूर आ गया हूं अब लौटना चाहिए उसे पसीना भी आ रहा था और प्यास लग रही थी पर फिर सोचा थोड़ी “जमीन” को ले लूं फिर वापस लौट लूंगा क्योंकि थोड़ा सा काम कर लूं फिर तो जिंदगी भर आराम ही आराम हो जाएगा, एक तरफ उसने काफी लंबी जमीन नाप ली थी वहीं दूसरी तरफ मुड़ कर देखा तो उसे वह जगह ही नहीं मिल रही थी.

जहां उसने गड्ढा बनाया और जहां से चलना शुरु किया था टीना ने सोचा आज मैंने ज्यादा “जमीन” नाप ली वह तेज कदमों से तीसरी तरफ बढ़ा उसने सूरज को देखा सूरज अब तिहाई पर था अब वह वापस उस पार्टी की तरफ मुड़ने लगा जहां से उसने चलना शुरु किया था उसके पैरों में छाले पड़ चुके थे और सुरक्षित नाही वाला था सूरज जैसे जैसे नीचे भंगा था उसके मन में सोच होने लगी कि मुझे तो बड़ी भूल हो गई थी.

मैंने इतने पैर क्यों पसार लिए जब मैं वापस नहीं पूछूंगा तो सरदार  भी जमीन भी नहीं देगा पैसे दुगने कर देगा आप जीना डेट एंड भागने लगा उसकी सांस फूलने लगी और उसे बहुत दुख हो दर्द होने लगा रहते तेज भागने लगा उसने अपने कंधे से धोती अलग के जूते फेंक दिए और बस वह उस पहाड़ी की तरफ दौड़ने लगा बोला क्या करूं मेरा काम तो बिगड़ने ही वाला है इस सोच में डर के कारण मैं तेज तेज हाफ ने लगा पसीना हो गया उसका सारा मुंह लाल हो गया था आगे जाकर उसे उन लोगों की आवाज सुनाई दी.

जिनके पास वह “जमीन” लेने आया वह उसे जोर जोर से बुला रहे थे सूरज धरती से लगा जा रहा था अंधेरा होने ही वाला था अब उसे वह सरदार और वो लोग दिखाई दे रहे थे उसके पैरों ने उसका साथ छोड़ दिया था उसकी सास लंबी-लंबी चल रही थी लेकिन फिर भी वह दौड़ आ जा रहा था क्योंकि जहां वह लोग खड़े थे वहां से तो सूरज चमक रहा था पर देना को नहीं जीना खूब भाग भाग के सरदार के पास आया, सरदार जोर-जोर से हंसने लगा और आकर गिर गया जैसे ही गिरा देना का नौकर उसे पकड़ने आया तो देखा और दीना के मुंह से खून निकल रहा था वह मर चुका था नौकर ने उसको उठाया और वहीं पर दफना दिया.

कहानी का सार: 
हम पूरी जिंदगी इसी उलझन में रहते हैं कि हमें यह मिल जाए हमें वह मिल जाए और हमारी इच्छाएं कभी भी पूरी नहीं होती जीवन खुशियों से भरा है लेकिन हम उसे इसी दुख में बिता देते हैं कि हमें यह नहीं मिला वह नहीं मिला हमारा मोह इस संसार में भरा है जब तक हमारा लालच रहेगा हम ना तो जी पाएंगे और ना ही दूसरों को जीने देंगे.
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