Sunday, 31 August 2025

ब्रजभूमि के दिव्य संत: श्री विनोद बिहारी दास बाबा जी


 बाबा का पूर्व नाम विनय कुमार था। उनका जन्म 1947 में एक ब्राह्मण परिवार में पिता श्री दाम और माता लावण्या के यहाँ हुआ था। 

वे तीन भाई थे। उनके माता-पिता की मृत्यु के बाद, उन्हें छोड़ दिया गया था, उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था। वे कुछ छोटी-छोटी नौकरियों की तलाश में या सिर्फ भोजन और पानी की तलाश में सड़कों पर घूमते रहते थे। वह बाबा के जीवन का सबसे कठिन समय था। वह 8-10 साल का था और उसे इतनी कम उम्र में अस्वीकृति, निंदा और मानव के अमानवीय पक्ष का सामना करना पड़ा था। उन्हें कई दिनों तक भूखा रहना पड़ा और वे उन महिलाओं के प्रति आभारी थे जिन्होंने उन्हें एक रोटी या मुट्ठी भर चावल भी दिए।

विनोद बिहारी दास बाबा याद करते हैं कि एक बूढ़ी औरत अपने घर नहीं जाने पर गुस्सा हो जाती थी और पहले उसे कहती थी कि चले जाओ और कभी वापस मत आना। लेकिन जैसे ही बाबा अपनी पीठ फेरते, वह और भी क्रोधित हो जाती और कहती "देखो! वह कितना अभिमानी है! वह जाने की हिम्मत करता है!"

विनोद बिहारी दास बाबा को यकीन नहीं था कि किसे अपना गुरु बनाया जाए, लेकिन उन्होंने कीर्तन मंडलों द्वारा गाए गए हरे कृष्ण महामंत्र को सुना था। इसलिए वह दिन-रात, हर समय महामंत्र का जप करने लगे। अब बाबा छुट्टियों में तीर्थ स्थानों पर जाने लगे। उन्होंने शास्त्रों में वृंदावन के बारे में पढ़ा था और उस समय ब्रज में रहने वाले कुछ उच्च साधुओं के बारे में सुना था। इसलिए वे कुछ दिनों के लिए वृंदावन आए 

वह उन साधुओं को खोजने लगे जो घने जंगल में रहते थे (ब्रज धाम उस समय भी जंगलों से भरा हुआ था) और दृढ़ निश्चयी थे। इस तरह, उन्होंने श्री किशोरीकिशोरानंद दास बाबा, जिन्हें श्री तीनकौड़ी  गोस्वामी के नाम से भी जाना जाता है, से मुलाकात की। वह अपने पूर्ण त्याग के  प्रति आकर्षित थे। श्री तीनकौड़ी  गोस्वामी जी कभी किसी आश्रम में नहीं रहे, हालांकि उनके शिष्यों ने उनके नाम पर कई आश्रम और मंदिर बनवाए। 

श्री तीनकौड़ी  गोस्वामी जी घने जंगलों में रहना पसंद करते थे, वह बहुत कम बोलते थे कुछ भी नहीं खाते थे (वह भी केवल फलाहार) और दिन-रात हरिनाम जप में तल्लीन रहते थे , इतना कि उसे लोगों से पूछना पड़ता था कि दिन है या रात लेकिन विनोद बिहारी दास बाबा खुद इस तरह के पूर्ण त्याग के मूड में नहीं थे, इसलिए वे कोलकाता वापस चले गए और छुट्टियों में ब्रज धाम और श्री तीनकोड़ी गोस्वामी के दर्शन किए। बाबा ने अपने घर में ही त्यागी जीवन शैली का अभ्यास किया। वह बहुत कम खाते थे कुछ दिनों के लिए अनाज खाना छोड़ देते थे। और वह हर समय हरिनाम का जप करने लगे।

श्री तीनकौड़ी  गोस्वामीजी द्वारा विनोद बिहारी दास बाबा को दीक्षा दी गई और उन्हें बाबाजी वेश भी दिया गया। गोस्वामीजी के साथ त्यागी जीवन बहुत कठिन और सख्त था। गोस्वामीजी कभी एक स्थान पर कुछ दिनों के लिए तो कभी कुछ महीनों के लिए रहते थे। उनका स्वभाव ऐसा ही था, वे अचानक अपने आसन से उठ जाते थे, यह तय कर लेते थे कि वे एक अलग जगह पर जाना चाहते हैं, और चलना शुरू कर देते और  ऐसे स्थान का चयन करेंगे जहाँ साँप, बिच्छू और भूत रहते हों, ताकि स्थानीय लोग उन्हें बार-बार परेशान करने न आएँ।

गोस्वामीजी अपने शिष्यों के लिए मध्यरात्रि में 2 बजे जागने और जल्दी स्नान करने और खुद को ताज़ा करने के बाद कीर्तन में शामिल करते और उस समय वे अपने व्यक्तिगत भजन के लिए जाते थे। लेकिन शायद वह चाहते थे कि विनोद बिहारी दास बाबा अध्यात्म की चरम ऊंचाईयों पर चढ़ें। ऐसा करने के लिए वे चाहते थे कि बाबा की नींद भी कम कर दें। 

एक बार गोस्वामीजी ने बाबा को 1 बजे तक जगाए रखा। तब बाबा ने पूछा कि क्या वह सो सकते हैं। गोस्वामीजी ने उत्तर दिया, "अब?! यह तो जागने का समय है, सोने का नहीं।" तो, बाबा इस तरह नींद से भी वंचित हुए, हालांकि उन्होंने स्वीकार भी किया कि वे इस वजह से जप के दौरान सो गए थे। लेकिन उन्होंने कभी शिकायत नहीं की। वह जानते थे कि उन्हें प्रशिक्षित किया जा रहा है। आखिरकार, उसे इसकी आदत हो गई और ज्यादा नींद नहीं आई।

इस तरह विनोद बिहारी दास बाबा ने गुरु गोस्वामीजी के पास रहकर सेवा और साधना की। बाबा ने आखिरकार 2006 से बरसाना के पीलीपोखर में अपने आश्रम (प्रिया कुंज आश्रम नाम) में राधा रानी की दिव्य सेवा के तहत शरण ली। 

विनोद बिहारी दास बाबा न केवल श्री धाम बरसाना के निवासियों के लिए, बल्कि दुनिया भर में पतित आत्माओं के लिए भी दया के स्रोत हैं। उनकी अकारण कृपा से कोई भी दूर नहीं है यहाँ तक कि जानवर भी ... श्री जी महल के रास्ते में बंदरों पर बाबा का प्यार बरसता है। श्रीमहल के ऊँची अटारी में प्रत्येक शाम को विभिन्न विषयों पर उनके सत्संग से बहुत लाभ प्राप्त हो सकता है। 

विनोद बिहारी दास बाबा भक्ति की बहुत कठिन अवधारणाओं को इतने सरल तरीके से प्रस्तुत करते हैं कि कोई भी उनके दिव्य सत्संग से सीख सकता है। वह शास्त्रों के अपने गहरे ज्ञान से चीजों का हवाला देते थे और फिर उसे उस तरह से समझाते थे जिसे आप आसानी से समझ सकते हैं। बाबा श्री श्री राधामाधव सरकार की ओर दिव्यता और भावनाओं की नदी का उद्गम करते हैं जिसमें हर कोई स्नान कर सकता है।

- ब्रजभाषा के कव‍ि श्री अशोक अज्ञ की फेसबुक वॉल से साभार 

Tuesday, 26 August 2025

एक कहानी जो बचपन में सुनी थी


 एक समय की बात है, एक राजा ने निश्चय किया कि वह प्रतिदिन 100 अंधे लोगों को खीर खिलाएगा। एक दिन एक साँप ने खीर वाले दूध में मुँह डालकर उसमें ज़हर मिला दिया। ज़हरीली खीर खाने से सभी 100 अंधे मर गए। राजा को बहुत चिंता हुई कि कहीं उसे 100 लोगों की हत्या का पाप न लग जाए। चिंता में डूबा राजा अपना राज्य छोड़कर जंगलों में भक्ति करने चला गया ताकि उसे इस पाप की क्षमा मिल सके। रास्ते में एक गाँव पड़ा।

राजा ने सभा भवन में बैठे लोगों से पूछा कि क्या गाँव में कोई ऐसा परिवार है जो भक्ति भाव रखता हो, ताकि वह उनके घर रात बिता सके।

चौपाल में बैठे लोगों ने बताया कि इस गाँव में दो भाई-बहन रहते हैं जो बहुत पूजा-पाठ करते हैं। राजा उनके घर रात रुके।

जब राजा सुबह उठे तो लड़की पूजा के लिए बैठी थी। पहले लड़की की दिनचर्या यह थी कि वह पौ फटने से पहले ही पूजा से उठकर नाश्ता तैयार कर लेती थी।

लेकिन उस दिन लड़की पूजा में बहुत देर तक बैठी रही। जब लड़की उठी, तो उसके भाई ने कहा, बहन, तुम इतनी देर से उठी हो। हमारे घर एक मुसाफिर आया है और उसे नाश्ता करके बहुत दूर जाना है।

लड़की ने उत्तर दिया, भाई, ऊपर एक पेचीदा मामला था। धर्मराज को एक पेचीदा स्थिति पर निर्णय लेना था और मैं उस निर्णय को सुनने के लिए रुकी थी। इसलिए मैं बहुत देर तक ध्यान करती रही।

तो उसके भाई ने पूछा कि क्या बात है? तो लड़की ने बताया कि एक राज्य का राजा अंधे लोगों को खीर खिलाता था। लेकिन दूध में साँप के ज़हर डालने से 100 अंधे लोग मर गए। अब धर्मराज समझ नहीं पा रहे हैं कि अंधे लोगों की मृत्यु का पाप राजा पर हो, साँप पर या उस रसोइए पर जिसने दूध खुला छोड़ दिया।

राजा भी सुन रहा था। राजा को उससे जुड़ी कुछ बातें सुनकर दिलचस्पी हुई और उन्होंने लड़की से पूछा कि फिर क्या फैसला हुआ?

लड़की ने कहा कि अभी कोई फैसला नहीं हुआ है। तो राजा ने पूछा, क्या मैं तुम्हारे घर एक रात और रुक सकता हूँ? दोनों भाई-बहन ने खुशी-खुशी हाँ कह दी।

राजा अगले दिन रुक गए, लेकिन चौपाल में बैठे लोग दिन भर यही चर्चा करते रहे कि जो व्यक्ति कल हमारे गाँव में एक रात रुकने आया था और भक्ति भाव से घर माँग रहा था, उसकी भक्ति का नाटक उजागर हो गया है।

वह रात बिताने के बाद इसलिए नहीं गया क्योंकि उस व्यक्ति की नीयत युवती को देखकर खराब हो गई थी। इसलिए अब वह उस सुंदर और युवती के घर ज़रूर रुकेगा, वरना वह युवती को लेकर भाग जाएगा।

सभा भवन में दिन भर राजा की आलोचना होती रही।

अगली सुबह युवती फिर ध्यान के लिए बैठी और नियमित समय पर उठी। तब राजा ने पूछा- "बेटी, अंधे लोगों की हत्या का पाप किसने लगाया था?"

तब लड़की बोली- "वह पाप हमारे गाँव की चौपाल में बैठे लोगों ने बाँटकर ले लिया।"

सारांश:~ दूसरों की आलोचना करने से कितना नुकसान होता है? आलोचक हमेशा दूसरों के पापों को अपने सिर पर ढोता है और दूसरों द्वारा किए गए उन पापों का फल भी भोगता है। इसलिए हमें हमेशा आलोचना करने से बचना चाहिए..!!

Monday, 18 August 2025

दीवारों पर लिखती हुई इन स्त्रियों ने बचा रखा है संसार

आज एक च‍ित्र देखा तो सोचा आपसे शेयर करूं। देख‍िए इस च‍ित्र को और इसमें रंग भरने वाली हमारी उस पीढ़ी को जो आज के बदलावों से बेखबर अपना कर्तव्य पूरा क‍िये जा रही है।  

इस पर एक कव‍िता भी है हालांक‍ि ये मेरी रचना नहीं है परंतु कहीं पढ़ी है, अच्छी लगी..  

सो-- आप भी पढ़‍िएगा--- 


गेरू से

भीत पर लिख देती है

बाँसबीट

हारिल सुग्गा

डोली कहार

कनिया वर

पान सुपारी

मछली पानी

साज सिंघोरा

पउती पेटारी


अँचरा में काढ़ लेती है

फुलवारी

राम सिया

सखी सलेहर

तोता मैना


तकिया पर

नमस्ते

चादर पर

पिया मिलन


परदे पर

खेत पथार

बाग बगइचा

चिरई चुनमुन

कुटिया पिसीआ

झुम्मर सोहर

बोनी कटनी

दऊनि ओसऊनि

हाथी घोड़ा

ऊँट बहेड़ा


गोबर से बनाती है

गौर गणेश

चान सुरुज

नाग नागिन

ओखरी मूसर

जांता चूल्हा

हर हरवाहा

बेढ़ी बखाड़ी


जब लिखती है स्त्री

गेरू या गोबर से

या

काढ़ रही होती है

बेलबूटे

वह

बचाती है प्रेम

बचाती है सपना

बचाती है गृहस्थी

बचाती है वन

बचाती है प्रकृति

बचाती है पृथ्वी


संस्कृतियों की

संवाहक हैं

रंग भरती स्त्रियाँ


लिखती स्त्री

बचाती है सपने

संस्कृति और प्रेम।


स्त्री के मनोभावों को बख़ूबी बयान करती ये सुंदर रचना ज‍िसने भी ल‍िखी है उसने पूरा यथार्थ उतार कर रख द‍िया। हमारी माताएं ऐसी ही थीं। जो शायद अब गुम हैं किसी फ्रेम में, किसी घर के कोने में शायद इन चीजों से मुक्त होती आज की स्त्री।दिखती हैं मॉल में, पार्क में, ऑफिस में और संघर्ष का रूप बदल गया।अब खुद के लिए आत्मनिर्भर होती स्त्री। ये परिवर्तन शायद ले गया सब। 

मगर ऐसी परंपराएं सदैव ही जीवित रहनी चाहिए, भूत वर्तमान और भविष्य सब-कुछ भीत पर उकेरकर स्त्रियां इन्हें बचाए रखती हैं।

आजकल सब शहर की तरफ भाग रहे वहीं रहना भी पसंद है उनको, ये सब चित्र टाइल्स और पत्थर लगी दीवारों में कैसे बनेंगे वो भी गोबर से अगर बन भी जाएं तो कोई बनाना बनवाना भी पसंद नहीं करता दीवार खराब लगेगी उसको, अपने गांव में सही था हरछठ व्रत में हमेशा बनती थी, धीमे ही सही लेकिन लोग अपनी संस्कृतियों को ही भूल रहे हैं।

मेरी सासु मां भी ऐसी ही माएं-देवता की आकृत‍ियां शाद‍ियों बनाती हैं , अब उन्होंने मेरी बेटी के पास एक कागज पर सारी आकृत‍ियां सुरक्ष‍ित उतरवा दी हैं ताक‍ि यह प्रथा उनके बाद भी जीव‍ित रहे। 

- Legend News 

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