कितनी गहरी बात है इन चंद लाइनों में ..
''नींद क्या है ज़रा सी देर की मौत, मौत क्या है तमाम उम्र की नींद''
आज जानते हैं इन्हीं शायर जगन्नाथ आज़ाद के बारे में
आज़ाद की पैदाइश 15 दिसम्बर 1918 को पंजाब स्थित ज़िला मियांवाली के ईसा ख़लील नामक गाँव में हुई. उन्होंने 1944 में पंजाब यूनिवर्सिटी लाहौर से एम.ए. और 1945 में एम.ओ. एल. की सनद हासिल की. उसके बाद वह उर्दू और अंग्रेज़ी के बाद वह उर्दू और अंग्रेज़ी के कई अख़बारों व रिसालों से सम्बद्ध रहे. 1948 से 1955 तक सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के मासिक आजकल के सहायक सम्पादक भी रहे जहाँ उन दिनों जोश मलीहाबादी सम्पादक थे. 1955 में प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो में इनफार्मेशन ऑफिसर नियुक्त हुए .इसके अतिरिक्त विभिन्न मंत्रालयों में इनफार्मेशन सर्विस में सेवारत रहे. 1977 में डायरेक्टर पब्लिक रिलेशन ,प्रेस इनफार्मेशन (श्रीनगर) के पद से सेवानिवृत के बाद जम्मू यूनिवर्सिटी के उर्दू विभाग में प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष नियुक्त हुए. आनन्द नारायन मुल्ला के देहांत के बाद अंजुमन तरक्क़ी उर्दू के सद्र भी रहे . 2 जुलाई 2005 को नई दिल्ली में देहांत हुआ.
काव्य संग्रह: तिब्ल व इल्म (1948),बेकराँ (1949),सितारों से ज़र्रों तक (1951), वतन में अजनबी (1954) ,इन्तेखाबे कलाम (1957) , नवाए परेशां (1961), कहकशां (1961), बच्चों की नज़्में (1976), बच्चों के इक़बाल (1977), बुए रमीदा (1987), गहवाराए इल्म व हुनर (1988). आलोचना/ यात्रावृतांत व डायरी, तिलोकचन्द महरूम,इक़बाल और उसका अह्द, मेरे गुज़िश्ता शबो रोज़, इक़बाल और मग़रबी मुफ़क्किरिन, इक़बाल और कश्मीर, आँखें तरस्तियाँ हैं, फ़िक्रे इक़बाल के बाज़ अहम पहलू,निशाने मंज़िल, पुश्किन के देश में, कोलम्बस के देश में, हयाते महरूम, हिन्दुस्तान में इक़बालियात, जुनुबी हिन्द में नौ हफ़्ते, इक़बाल ज़िंदगी: शख्सियत और शायरी , मुरक्क़ा इक़बाल.
जगन्नाथ जी की कुछ और गजलें...
मुमकिन नहीं कि बज़्म-ए-तरब फिर सजा सकूँ
मुमकिन नहीं कि बज़्म-ए-तरब फिर सजा सकूँ
अब ये भी है बहुत कि तुम्हें याद आ सकूँ
ये क्या तिलिस्म है कि तिरी जल्वा-गाह से
नज़दीक आ सकूँ न कहीं दूर जा सकूँ
ज़ौक़-ए-निगाह और बहारों के दरमियाँ
पर्दे गिरे हैं वो कि न जिन को उठा सकूँ
किस तरह कर सकोगे बहारों को मुतमइन
अहल-ए-चमन जो मैं भी चमन में न आ सकूँ
तेरी हसीं फ़ज़ा में मिरे ऐ नए वतन
ऐसा भी है कोई जिसे अपना बना सकूँ
'आज़ाद' साज़-ए-दिल पे हैं रक़्साँ वो ज़मज़मे
ख़ुद सुन सकूँ मगर न किसी को सुना सकूँ
मुद्दत हो गई साज़-ए-मोहब्बत खोल दे अब ये राज़
मुद्दत हो गई साज़-ए-मोहब्बत खोल दे अब ये राज़
वो मेरी आवाज़ हैं बाँहों में उन की आवाज़
कितनी मनाज़िल तय कर आया मेरा शौक़-ए-नियाज़
ऐ नज़रों से छुपने वाले अब तो दे आवाज़
क्यूँ हर गाम पे मेरा दिल है सज्दों पे मजबूर
क्या नज़दीक कहीं है तेरी जल्वा-गाह-ए-नाज़
अस्ल में एक ही कैफ़िय्यत की दो तस्वीरें हैं
तेरा किब्र-ओ-नाज़ हो या हो मेरा जज़्ब-ए-नियाज़
नशे में हूँ मगर आलूदा-ए-शराब नहीं
नशे में हूँ मगर आलूदा-ए-शराब नहीं
ख़राब हूँ मगर इतना भी मैं ख़राब नहीं
कहीं भी हुस्न का चेहरा तह-ए-नक़ाब नहीं
ये अपना दीदा-ए-दिल है कि बे-हिजाब नहीं
वो इक बशर है कोई नूर-ए-आफ़ताब नहीं
मैं क्या करूँ कि मुझे देखने की ताब नहीं
ये जिस ने मेरी निगाहों में उँगलियाँ भर दीं
तो फिर ये क्या है अगर ये तिरा शबाब नहीं
मिरे सुरूर से अंदाजा-ए-शराब न कर
मिरा सुरूर ब-अंदाजा-ए-शराब नहीं
प्रस्तुति: अलकनंदा सिंंह
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