Thursday 2 July 2020

प्रसिद्ध हिन्दी जनकवि आलोक धन्‍वा का जन्‍मदिन आज

प्रसिद्ध हिन्दी जनकवि आलोक धन्‍वा का जन्‍म 02 जुलाई 1948 को बिहार के मुंगेर में हुआ था।
आलोक धन्वा हिन्दी के उन बड़े कवियों में हैं, जिन्होंने 70 के दशक में कविता को एक नई पहचान दी। उनकी गोली दागो पोस्टर, जनता का आदमी, कपड़े के जूते और ब्रूनों की बेटियाँ जैसी कविताएँ बहुचर्चित रही है। ‘दुनिया रोज़ बनती है’ उनका बहुचर्चित कविता संग्रह है। इनकी कविताओं के अंग्रेज़ी और रूसी भाषा में अनुवाद भी हुये हैं।

व्यक्तित्व
जनकवि “आलोक धन्वा” नई पीढ़ी के लिए एक हस्ताक्षर हैं। इस जनकवि ने जनता की आवाज़ में जनता के लिए सृजन कार्य किया है। “भागी हुई लड़कियां”, जिलाधीश, गोली दागो पोस्टर सरीखी कई प्रासंगिक रचनाएं इनकी पूंजी हैं। सहज और सुलभ दो शब्द इनके व्यक्तित्व की पहचान हैं। हर नुक्कड़ नाटक में धन्वा उपस्थित होते हैं। केवल उपस्थिति नहीं उसे बल भी देते हैं। इस जनकवि के लिए कई बड़े मंच दोनों हाथ खोल कर स्वागत करते हैं। हालांकि बकौल धन्वा उन्हें जनता के मंच पर रहना ही बेहतर लगता है। सलीके से फक्कड़ता को अपने साथ रखने वाले आलोक धन्वा बेहद संवेदनशील हैं। इनका व्यक्तित्व इनकी संवेदना कतई व्यक्तिगत नहीं रहा है। कवि धन्वा की रचनाओं में सार्वजनिक संवेदना, सार्वजनिक मानव पीड़ा, पीड़ा का विरोध, मर्म सब कुछ गहराई तक उतरता है जो हमें संवेदित ही नहीं आंदोलित भी करता है।
आलोक धन्वा ने एक ऐसी भाषा और ऐसी तराशी हुई अभिव्यक्ति हासिल की है, जिसमें सभी अतिरिक्त और अनावश्यक छीलकर अलग कर दिया गया है।
उन्हें पहल सम्मान, नागार्जुन सम्मान, फ़िराक गोरखपुरी सम्मान, गिरिजा कुमार माथुर सम्मान, भवानी प्रसाद मिश्र स्मृति सम्मान मिले हैं।
पढ़‍िए उनकी लंबी कव‍िता
भागी हुई लड़कियाँ
 एक
घर की ज़ंजीरें
कितना ज़्यादा दिखाई पड़ती हैं
जब घर से कोई लड़की भागती है

क्या उस रात की याद आ रही है
जो पुरानी फिल्मों में बार-बार आती थी
जब भी कोई लड़की घर से भागती थी?
बारिश से घिरे वे पत्थर के लैम्पपोस्ट
सिर्फ़ आँखों की बेचैनी दिखाने-भर उनकी रोशनी?

और वे तमाम गाने रजतपर्दों पर दीवानगी के
आज अपने ही घर में सच निकले !

क्या तुम यह सोचते थे कि
वे गाने सिर्फ़ अभिनेता-अभिनेत्रियों के लिए
रचे गये थे ?
और वह खतरनाक अभिनय
लैला के ध्वंस का
जो मंच से अटूट उठता हुआ
दर्शकों की निजी ज़िदगियों में फैल जाता था?
दो
तुम तो पढ़कर सुनाओगे नहीं
कभी वह ख़त
जिसे भागने से पहले वह
अपनी मेज़ पर रख गयी
तुम तो छिपाओगे पूरे ज़माने से
उसका संवाद
चुराओगे उसका शीशा, उसका पारा
उसका आबनूस
उसकी सात पालों वाली नाव
लेकिन कैसे चुराओगे
एक भागी हुई लड़की की उम्र
जो अभी काफ़ी बची हो सकती है
उसके दुपट्टे के झुटपुटे में?

उसकी बची-खुची चीज़ों को
जला डालोगे?
उसकी अनुपस्थिति को भी जला डालोगे?
जो गूँज रही है उसकी उपस्थिति से
बहुत अधिक
संतूर की तरह
केश में

तीन
उसे मिटाओगे
एक भागी हुई लड़की को मिटाओगे
उसके ही घर की हवा से
उसे वहाँ से भी मिटाओगे
 
उसका जो बचपन है तुम्हारे भीतर
वहाँ से भी
मैं जानता हूँ
कुलीनता की हिंसा !
 
लेकिन उसके भागने की बात
याद से नहीं जायेगी
पुरानी पवन चक्कियों की तरह
 
वह कोई पहली लड़की नहीं है
जो भागी है
और न वह अंतिम लड़की होगी
अभी और भी लड़के होंगे
और भी लड़कियाँ होंगी
जो भागेंगे मार्च के महीने में
 
लड़की भागती है
जैसे फूलों में गुम होती हुई
तारों में गुम होती हुई
तैराकी की पोशाक में दौड़ती हुई
खचाखच भरे जगरमगर स्टेडियम में
 
चार
अगर एक लड़की भागती है
तो यह हमेशा जरूरी नहीं है
कि कोई लड़का भी भागा होगा
 
कई दूसरे जीवन प्रसंग हैं
जिनके साथ वह जा सकती है
कुछ भी कर सकती है
सिर्फ़ जन्म देना ही स्त्री होना नहीं है

तुम्हारे टैंक जैसे बंद और मज़बूत
घर से बाहर
लड़कियाँ काफी बदल चुकी हैं
मैं तुम्हें यह इजाज़त नहीं दूँगा
कि तुम अब
उनकी संभावना की भी तस्करी करो
 
वह कहीं भी हो सकती है
गिर सकती है
बिखर सकती है
लेकिन वह ख़ुद शामिल होगी सब में
ग़लतियाँ भी ख़ुद ही करेगी
सब कुछ देखेगी
शुरू से अंत तक
अपना अंत भी देखती हुई जायेगी
किसी दूसरे की मृत्यु नहीं मरेगी
 
पाँच
लड़की भागती है
जैसे सफ़ेद घोड़े पर सवार
लालच और जुए के आर-पार
जर्जर दूल्हों से
कितनी धूल उठती है !
 
तुम जो
पत्नियों को अलग रखते हो
वेश्याओं से
और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो
पत्नियों से
कितना आतंकित होते हो
जब स्त्री बेख़ौफ़ भटकती है
ढूँढ़ती हुई अपना व्यक्तित्व
एक ही साथ वेश्याओं और पत्नियों
और प्रेमिकाओं में !
 
अब तो वह कहीं भी हो सकती है
उन आगामी देशों में भी
जहाँ प्रणय एक काम होगा पूरा का पूरा !
 
छह

कितनी-कितनी लड़कियाँ
भागती हैं मन ही मन
अपने रतजगे, अपनी डायरी में
सचमुच की भागी लड़कियों से
उनकी आबादी बहुत बड़ी है
 
क्या तुम्हारे लिए कोई लड़की भागी?
 
क्या तुम्हारी रातों में
एक भी लाल मोरम वाली सड़क नहीं ?
क्या तुम्हें दांपत्य दे दिया गया ?
क्या तुम उसे उठा लाये
अपनी हैसियत, अपनी ताक़त से ?
तुम उठा लाये एक ही बार में
एक स्त्री की तमाम रातें
जिसके निधन के बाद की भी रातें !
 
तुम नहीं रोये पृथ्वी पर एक बार भी
किसी स्त्री के सीने से लगकर
 
सिर्फ़ आज की रात रूक जाओ
तुम से नहीं कहा किसी स्त्री ने
 
सिर्फ़ आज की रात रुक जाओ
कितनी-कितनी बार कहा कितनी
स्त्रियों ने दुनिया भर में
समुद्र के तमाम दरवाज़ों तक दौड़ती हुई आयीं वे
सिर्फ़ आज की रात रूक जाओ
और दुनिया जब तक रहेगी
सिर्फ़ आज की रात भी रहेगी।
(1988)



7 comments:

  1. बहुत सुंदर आलेख। सौभाग्य से धन्वाजी हमसे परिचित भी हैं और इस लेख को पढ़ने के बाद मैंने उनको शुभकामनाएँ भी भेज दी। इसके लिए आपका धन्यवाद!

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    1. बहुत अच्छा व‍िश्वमोहन जी, धन्यवाद

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  2. वाह ! अद्भुत रचनाएँ !

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    Replies
    1. धन्यवाद अनीता जी

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  3. उपयोगी जानकारी।
    जन्मदिन पर नमन।

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  4. धन्यवाद अनीता जी

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