Sunday, 5 January 2014

शून्‍य एक बुनें चलो

वो पल कितने भावुक और
कितने निष्‍ठुर भी थे देखो-
कि मैंने तुमको ईश्‍वर माना
इसको सच मत होने देना
सखा कहा है सखा रहो तुम
ईश्‍वर होकर बैठ ना जाना

शायद तुमको पता नहीं है
ईश्‍वर के खाते में तो
निष्‍ठुरता का ही धन जमा है
पर तुम तो मेरे सखा हुये हो
तुम्‍हारे कांधों पर ही तो है सवार
मेरा मान भी  और अपमान भी 

ये जो सब तुम देख रहे हो
लालच, इच्‍छायें, मन का भारी होना
क्‍या इन्हें तुम सुन भी रहे हो
सुनकर भी तुम मौन ना रहना
कुछ मेरे अवगुन तुम भी गुन लेना
तब शब्‍दों के ये सप्‍त समुंदर
तुमको अवगुन से पार करायेंगे

सखावृष्‍टि से हम दोनों ही तब
जीवन का,  शून्‍य एक बुन पायेंगे
चलो सखा, अब बुनें ऐसा शून्‍य एक
कि साकार हो जायें जहां.. मेरे और
तुम्‍हारे बीच घट रहे सारे ही भाव
न सखा रहे ना ईश जहां, बस जाये एक शून्‍य..
संज्ञा शून्‍य..भाव शून्‍य..तुम शून्‍य..मैं शून्‍य


- अलकनंदा सिंह



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