Tuesday, 16 September 2025

किवाड़ की खुली सांकल


 बचपन में हम देखते थे कि घर के पुरुषों के बाहर जाने पर घर की महिलाएं कभी किवाड़ तुरंत बन्द नहीं करती थी, सांकल खुली छोड़ देती थीं। कभी कभी पुरुष कुछ दूर जाकर लौट आते थे, ये कहते हुए कि कुछ भूल गया हूं और मुस्कुरा देते थे दोनों एक दूसरे को देखकर।


एक बार बच्चे ने अपनी मां से पूछ लिया कि मां पापा के जाने के बाद कुछ देर तक दरवाजा क्यों खुला रखती हो??


तब मां ने बच्चे को वो गूढ़ बात बताई जो हमारी सांस्कृतिक विरासत है। उन्होंने बच्चे को कहा कि किवाड़ की खुली सांकल किसी के लौटने की एक उम्मीद होती है। अगर कोई अपना हमसे दूर जा रहा है तो हमे उसके लौटने की उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए। उसका इंतजार जीवन के आखिरी पल तक करना चाहिए! 


आस और विश्वास से रिश्तों की दूरी मिट जाती है, इसीलिए मैं दिल की उम्मीद के साथ दरवाजे की सांकल भी खुली रखती हूं, जब भी वापस आए तो उसे खटकाने की जरूरत नहीं पड़े, वो खुद मन के घर में आ जाए।


जीवन में कुछ बातें हमेशा हमे सीख देती है, कि कोई रिश्तों से नाराज कितना भी हो, उसके लिए दिल के दरवाजे बन्द मत करो। जब कभी उसे आपकी याद आयेगी, उसे आपके पास आना हो तो वो हिचके नही, मस्ती में पूरे विश्वास से बिना कुंडी खटकाए दिल के अन्दर आ जाए।


Sunday, 14 September 2025

जनरल सैम मानेकशॉ से जुड़ा एक क‍िस्सा...फील्ड मार्शल का ड्राइवर


 


जैसा कि हम जानते हैं, ये ड्राइवर आर्मी हेडक्वार्टर्स की ट्रांसपोर्ट कंपनी, धौला कुआँ, दिल्ली से चयनित आर्मी सर्विस कोर के सिपाही होते हैं।

स्वाभाविक है कि सेना प्रमुख (Army Chief) के पास अपनी सरकारी ड्यूटी के लिए एक से अधिक ड्राइवर रहे होंगे। सभी सेवा में लगे सैनिकों की तरह, ड्राइवर को भी हर साल छुट्टी लेने का अधिकार होता है। ऐसे ही एक ड्राइवर थे हरियाणा के निवासी हवलदार श्याम सिंह।

एक दिन जनरल सैम मानेकशॉ, नॉर्थ ब्लॉक में एक बैठक से हँसते हुए बाहर निकले। ड्राइवर, सख्त सावधान की मुद्रा में खड़ा था और उसने तुरंत गाड़ी का दरवाजा खोल दिया। अप्रैल का महीना था – एक सुखद, नरम धूप और हल्की हवा वाला दिन।

“तुम्हें पता है श्याम सिंह,” जनरल ने हँसते हुए कहा, “आज रक्षामंत्री ने मेरा नाम ही बदल दिया। मुझे श्याम कहकर बोले – श्याम, मान भी जाओ।”

जनरल मानेकशॉ का इशारा रक्षामंत्री बाबू जगजीवन राम की उस विनती की ओर था, जो प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के कहने पर पूर्वी पाकिस्तान पर अप्रैल में हमले के लिए की गई थी। सैम ने यह कहकर मना कर दिया था कि अगर अप्रैल में हमला हुआ तो भारत को 100% हार मिलेगी।

“वैसे श्याम और सैम में ज्यादा फर्क नहीं है – बस एक H और Y का ही तो खेल है,” जनरल ने मुस्कुरा कर कहा।

जब युद्ध समाप्त हो गया और जनरल मानेकशॉ के रिटायरमेंट की तारीख नजदीक आने लगी, उन्होंने देखा कि श्याम सिंह कुछ असामान्य रूप से तनावग्रस्त रहने लगे हैं। उनके चेहरे पर बेचैनी साफ झलक रही थी, जो जनरल ने तुरंत भांप ली।

“क्या बात है श्याम सिंह, इन दिनों तुम्हारा चेहरा ऐसा लग रहा है जैसे तुम्हारे घर की भैंस ने दूध देना बंद कर दिया हो?”

“नहीं साहब, वो बात नहीं है,” और फिर वह कुछ और बोले बिना चुप हो गए।

दिन बीतते गए और रिटायरमेंट का समय करीब आता गया। एक दिन श्याम सिंह ने जनरल से कहा:

“साहब, एक निवेदन है जो सिर्फ आप ही पूरा कर सकते हैं।”

“हाँ, बोलो श्याम सिंह।”

“साहब, मैं समय से पहले सेवा से निवृत्त होना चाहता हूँ। कृपया मेरी छुट्टी की सिफारिश करें।”

“लेकिन बात क्या है? कोई ज़मीन-जायदाद का मुकदमा है या पारिवारिक परेशानी? तुम अपनी पूरी सेवा पूरी करो। मैं तुम्हें नायब सूबेदार बनवा दूँगा, लेकिन सेवा मत छोड़ो,” जनरल ने समझाया।

“नहीं साहब, बात कुछ और है, लेकिन मैं वह तब तक नहीं बता सकता जब तक सेवा से मुक्त नहीं हो जाता।”

जनरल ने उसकी साफगोई और इज़्ज़त की भावना को समझा और आवश्यक कार्रवाई कर दी। जब ड्राइवर की रिहाई के आदेश आ गए, जनरल ने फिर पूछा:

“अब तो खुश हो? अब बताओ क्यों जल्दी रिटायर हो रहे हो?”

ड्राइवर सावधान मुद्रा में खड़ा हो गया और बोला:

“साहब, आपकी गाड़ी चलाने के बाद मैं किसी और की गाड़ी नहीं चला सकता। यही मेरे जीवन का सबसे बड़ा सम्मान था। मैं इसी इज़्ज़त के साथ घर जाना चाहता हूँ।”

फील्ड मार्शल हँसे और बोले:

“तू बहुत बड़ा बेवकूफ है! तुम हरियाणवी लोग भी ना – एकदम ज़िद्दी और पक्के”

लेकिन अब जब छुट्टी के काग़ज़ बन चुके थे, कुछ नहीं किया जा सकता था। वह तो ठेठ हरियाणवी था – जो मन में ठान ले, फिर पीछे नहीं हटता।

फिर भी जनरल ने एक दिन उससे पूछा:

“रिटायरमेंट के बाद क्या करेगा?”

“कुछ न कुछ कर लूंगा साहब, कोई नौकरी ढूंढ़ लूंगा।”

“तुम्हारे पास खेती की ज़मीन कितनी है?”

“कुछ भी नहीं साहब, मैं तो गरीब परिवार से हूँ।”

जनरल सन्न रह गए। एक निर्धन व्यक्ति, जिसने सिर्फ इसलिए नौकरी छोड़ दी क्योंकि वह किसी और की गाड़ी नहीं चला सकता था।

जिस दिन ड्राइवर विदा हुआ, सैम मानेकशॉ ने उसे एक लिफाफा दिया।

“श्याम सिंह, इसे घर जाकर ही खोलना।”

“जी साहब।” ड्राइवर ने सलाम किया और चला गया।

घर पहुँचकर वह नौकरी ढूँढ़ने में व्यस्त हो गया और लिफाफा भूल ही गया। एक दिन उसे माल ढोने वाले ट्रक की ड्राइवरी का काम मिल गया। फिर एक दिन उसकी पत्नी बोली:

“मैं तुम्हारी आर्मी की वर्दी संदूक में रख रही थी, ये लिफाफा तुम्हारी जेब में मिला।”

“अरे, इसे तो मैं भूल ही गया था। मैंने इसे नहीं खोला क्योंकि मुझे ज्यादा पढ़ना- लिखना नहीं आता।... साहब ने शायद मुझे एक प्रशंसा पत्र दिया होगा, जैसे बड़े अफसर देते हैं।”

“फिर भी, इसे खोलो और स्कूल मास्टरजी से पढ़वा लो, मैं जानना चाहती हूँ इसमें क्या है।”

तो दोनों पति-पत्नी गाँव के स्कूल गए और हेडमास्टर से निवेदन किया कि वह पत्र पढ़कर सुनाएँ।

मास्टरजी ने चश्मा पहना, लिफाफा खोला और काग़ज़ को देखकर चुपचाप रह गए।

“क्या हुआ मास्टरजी, ऐसे क्या देख रहे हैं?” श्याम सिंह ने पूछा।

“क्या तुम्हें पता है ये क्या है?”

“नहीं साहब।”

“यह एक हस्तांतरण पत्र (transfer deed) है।

1971 की जीत के बाद हरियाणा सरकार ने फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ को 25 एकड़ ज़मीन युद्ध जागीर के रूप में दी थी।

उन्होंने वह सारी ज़मीन तुम्हारे नाम कर दी है। अब तुम 25 एकड़ के मालिक हो।”

यह सुनकर पत्नी ने गुस्से में पति को डाँटा:

“तू तो पूरा बेवकूफ निकला! मैं तो इस लिफाफे को चूल्हा जलाने के लिए जलाने ही वाली थी!

भगवान का शुक्र है मैंने पहले पूछ लिया!”

इस तरह यह कहानी है महान जनरल सैम मानेकशॉ की – जिन्होंने अपनी युद्ध जागीर सोनीपत के पास अपने ड्राइवर को दे दी और अपनी फील्ड मार्शल की पेंशन आर्मी विडोज़ वेलफेयर फंड को दान कर दी।

- अलकनंदा स‍िंंह (आजकल रोज एक कहानी पढ़ रही हूं) 

Friday, 5 September 2025

कड़ाह में तलीं, झारियों पर सजीं भंडारे की पूड़ियां


 भंडारे की पूड़ियों पर किसी को प्रबंध-काव्य लिखना चाहिए! लोक में उनकी आसक्ति और प्रभाव इतने व्यापक जो हैं। वे घर में बनाई जाने वाली पूड़ियों से थोड़ी पृथक होती हैं। किंचित लम्बोतर, ललछौंही-भूरी, मुलायम, अधिक अन्नमय, और व्यापक जनवृन्द के क्षुधा-निवारण के प्रयोजन में सिद्ध। 

बहुधा भंडारे की पूड़ियों में घर की गोलमटोल पूड़ियों सरीखे पुड़ नहीं होते, वे अद्वैत-भाव से ही आपकी पत्तल में सिधारती हैं। यों पूड़ी शब्द की उत्पत्ति ही पुड़ से हुई है- जैसे सतपुड़ा यानी सात तहों वाला पर्वत। पूड़ियाँ बेलते समय तो आटे की लोई एक ही पुड़ की, समतल भासती हैं, पर तले जाने पर उसमें दो पुड़े फूल आते हैं। पहला, बाहरी पुड़ा महीन और कोमल, जो जिह्वा को लालायित करता है, और दूसरा, आभ्यन्तर का, अन्न के सत्त्व को अपने में सँजोए, जिससे क्षुधा का उन्मूलन होगा!

किसी धर्मशाला के कक्ष में रसोई करने वाली स्त्रियों द्वारा तारतम्य के संगीत से बेली और तली जाने वाली पूड़ियों का मन को स्निग्ध कर देने वाला दृश्य कभी निहारिए! और फिर पूड़ियों की मियाद चुक जाने पर जूठे हाथ लिए बैठे उसकी बाट जोहते भंडारा-साधकों को देखिए। महाअष्टमी-महानवमी में तो यह पूड़ी-प्रसंग भारत-भूमि में यत्र-तत्र-सर्वत्र सजीव हो उठता है। भंडारों की रामभाजी और पूड़ी पर समस्त संसार का अन्नकूट निछावर है!

मैदा की पूड़ी लचुई या लूची कहलाई है। यह विशेषकर बंगभूमि में प्रचलित है। अवध में यही सोहारी कहलाई है। पूड़ियों का एक रूप बेड़ई या कचौड़ी है, वह उत्तर-मध्य भारत में बनने वाली मूँगदाल की कचौड़ी से भिन्न है। कुछ पूड़ियाँ तो पुरइन के पत्ते जैसी लम्बी-चौड़ी भी होती हैं। भोजपुर-अंचल में वह हाथीकान पूड़ी कहलाई है। यह बड़ी मुलायम होती है और एक पखवाड़े तक ख़राब नहीं होती।

मैं कहूँगा, भारत के निर्धनजन की राम-रसोई में पहली इकाई है- रोटियाँ। सेंक के भूरे-कत्थई ताप-बिंदुओं से सज्जित, किंतु बहुधा बिना घृत-लेपित। उन पर प्रगतिशील कवि-लोग बहुत काव्य रचते हैं। जिस दिन निर्धन का मन इठलाता है, उस दिन वो रोटियों के वर्तुल को त्रिभुज से बदलकर सेंक लेता है पराँठे। किंतु पूड़ियाँ? वे तो पर्वों-उत्सवों का मंगलगान हैं। भारतभूमि में पूड़ियाँ पर्व का पर्याय हैं। पूड़ियाँ नहीं तो पर्व नहीं। पूड़ियाँ तली जा रही हैं तो पर्व ही होगा, कुछ वैसा ही वह संयोग है। वे हिंदू-पर्वों की स्नान-ध्यान वाली सत्त्व-भावना को व्यंजित करती हैं- हल्दी और अजवाइन की पीताम्बरा पूड़ियाँ तो सबसे अधिक!

पूड़ियों की जो सबसे मधुर स्मृति मेरे मन में है, वह इस प्रकार है- अगस्त का महीना! नागदा-दाहोद लाइन पर बारिश की सुरंग के भीतर दौड़ती रेलगाड़ी! फिर मेघनगर में किकोरों के सावन के मध्य उतरना। वहाँ से बस पकड़कर झाबुआ जाना, जहाँ दाहोद से मेरी बुआ राखी मनाने आई होती थी। बुआ हाथ में मेहंदी लगाती थी। मेहंदी रचे हाथ से पूड़ियाँ मुझे खिलाती थी।

संसार में कोमलता का इससे सुंदर चित्र कोई दूसरा नहीं हो सकता कि कोई स्त्री मेहंदी लगे हाथों से आपको पूड़ियाँ खिलाए!

तब इसका क्या करें कि राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त को गर्म नहीं ठंडी पूड़ियाँ ही भाती थीं। कवि अज्ञेय ने स्मृतिलेखा में बताया है कि चिरगाँव में जब भी पूड़ियाँ बनतीं, वे बैठक से ही आवाज़ देते कि चार-छह पूड़ियाँ अलग रखवा देना। इन्हें वे अगली सुबह खाते। कहते कि बासी पूड़ी के बराबर कोई स्वाद नहीं जान पड़ता है।

ऐन यहीं पर मुझको एक पुरानी हिंदी फ़िल्म का संवाद याद आ रहा है, जिसे गुज़रे ज़माने के अभिनेता गोप ने अपनी अदायगी से तब ख़ूब मशहूर बना दिया था। संवाद कुछ यों था- 

"बड़े घरों की औरतें सुबह-सवेरे क्या करती हैं? अजी कुछ नहीं, बस आम के अचार से बासी पूड़ियाँ खाती हैं!"

यह तो हुई बड़े घरों की बात। और छोटे घरों-संकुचित हृदयों की अंतर्कथा? वह प्रेमचंद ने बतलाई है। बूढ़ी काकी- जो पूड़ियों के प्रति अपनी तृष्णा से भरकर जूठी पत्तलों से उनकी खुरचन बटोरकर खाने लगी थीं, जिसे देखकर सन्न रह गई थी गृहस्वामिनी।

ये सब लोक में, आख्यान में, सामूहिक-स्मृति में प्रतिष्ठित पूड़ी-प्रसंग हैं। जनमानस से एकाकार। गृहणियों के मन का प्रफुल्ल-उत्सव। पूड़ियाँ न होतीं तो पर्व नहीं हो सकते थे, पर्व मनाने वाले मन पुलक से नहीं भर सकते थे- तिस पर कड़ाह में तलीं, झारियों पर सजीं भंडारे की पूड़ियों की तो बात ही क्या। 


- अलकनंदा 'पूड़ी बाज' 

Sunday, 31 August 2025

ब्रजभूमि के दिव्य संत: श्री विनोद बिहारी दास बाबा जी


 बाबा का पूर्व नाम विनय कुमार था। उनका जन्म 1947 में एक ब्राह्मण परिवार में पिता श्री दाम और माता लावण्या के यहाँ हुआ था। 

वे तीन भाई थे। उनके माता-पिता की मृत्यु के बाद, उन्हें छोड़ दिया गया था, उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था। वे कुछ छोटी-छोटी नौकरियों की तलाश में या सिर्फ भोजन और पानी की तलाश में सड़कों पर घूमते रहते थे। वह बाबा के जीवन का सबसे कठिन समय था। वह 8-10 साल का था और उसे इतनी कम उम्र में अस्वीकृति, निंदा और मानव के अमानवीय पक्ष का सामना करना पड़ा था। उन्हें कई दिनों तक भूखा रहना पड़ा और वे उन महिलाओं के प्रति आभारी थे जिन्होंने उन्हें एक रोटी या मुट्ठी भर चावल भी दिए।

विनोद बिहारी दास बाबा याद करते हैं कि एक बूढ़ी औरत अपने घर नहीं जाने पर गुस्सा हो जाती थी और पहले उसे कहती थी कि चले जाओ और कभी वापस मत आना। लेकिन जैसे ही बाबा अपनी पीठ फेरते, वह और भी क्रोधित हो जाती और कहती "देखो! वह कितना अभिमानी है! वह जाने की हिम्मत करता है!"

विनोद बिहारी दास बाबा को यकीन नहीं था कि किसे अपना गुरु बनाया जाए, लेकिन उन्होंने कीर्तन मंडलों द्वारा गाए गए हरे कृष्ण महामंत्र को सुना था। इसलिए वह दिन-रात, हर समय महामंत्र का जप करने लगे। अब बाबा छुट्टियों में तीर्थ स्थानों पर जाने लगे। उन्होंने शास्त्रों में वृंदावन के बारे में पढ़ा था और उस समय ब्रज में रहने वाले कुछ उच्च साधुओं के बारे में सुना था। इसलिए वे कुछ दिनों के लिए वृंदावन आए 

वह उन साधुओं को खोजने लगे जो घने जंगल में रहते थे (ब्रज धाम उस समय भी जंगलों से भरा हुआ था) और दृढ़ निश्चयी थे। इस तरह, उन्होंने श्री किशोरीकिशोरानंद दास बाबा, जिन्हें श्री तीनकौड़ी  गोस्वामी के नाम से भी जाना जाता है, से मुलाकात की। वह अपने पूर्ण त्याग के  प्रति आकर्षित थे। श्री तीनकौड़ी  गोस्वामी जी कभी किसी आश्रम में नहीं रहे, हालांकि उनके शिष्यों ने उनके नाम पर कई आश्रम और मंदिर बनवाए। 

श्री तीनकौड़ी  गोस्वामी जी घने जंगलों में रहना पसंद करते थे, वह बहुत कम बोलते थे कुछ भी नहीं खाते थे (वह भी केवल फलाहार) और दिन-रात हरिनाम जप में तल्लीन रहते थे , इतना कि उसे लोगों से पूछना पड़ता था कि दिन है या रात लेकिन विनोद बिहारी दास बाबा खुद इस तरह के पूर्ण त्याग के मूड में नहीं थे, इसलिए वे कोलकाता वापस चले गए और छुट्टियों में ब्रज धाम और श्री तीनकोड़ी गोस्वामी के दर्शन किए। बाबा ने अपने घर में ही त्यागी जीवन शैली का अभ्यास किया। वह बहुत कम खाते थे कुछ दिनों के लिए अनाज खाना छोड़ देते थे। और वह हर समय हरिनाम का जप करने लगे।

श्री तीनकौड़ी  गोस्वामीजी द्वारा विनोद बिहारी दास बाबा को दीक्षा दी गई और उन्हें बाबाजी वेश भी दिया गया। गोस्वामीजी के साथ त्यागी जीवन बहुत कठिन और सख्त था। गोस्वामीजी कभी एक स्थान पर कुछ दिनों के लिए तो कभी कुछ महीनों के लिए रहते थे। उनका स्वभाव ऐसा ही था, वे अचानक अपने आसन से उठ जाते थे, यह तय कर लेते थे कि वे एक अलग जगह पर जाना चाहते हैं, और चलना शुरू कर देते और  ऐसे स्थान का चयन करेंगे जहाँ साँप, बिच्छू और भूत रहते हों, ताकि स्थानीय लोग उन्हें बार-बार परेशान करने न आएँ।

गोस्वामीजी अपने शिष्यों के लिए मध्यरात्रि में 2 बजे जागने और जल्दी स्नान करने और खुद को ताज़ा करने के बाद कीर्तन में शामिल करते और उस समय वे अपने व्यक्तिगत भजन के लिए जाते थे। लेकिन शायद वह चाहते थे कि विनोद बिहारी दास बाबा अध्यात्म की चरम ऊंचाईयों पर चढ़ें। ऐसा करने के लिए वे चाहते थे कि बाबा की नींद भी कम कर दें। 

एक बार गोस्वामीजी ने बाबा को 1 बजे तक जगाए रखा। तब बाबा ने पूछा कि क्या वह सो सकते हैं। गोस्वामीजी ने उत्तर दिया, "अब?! यह तो जागने का समय है, सोने का नहीं।" तो, बाबा इस तरह नींद से भी वंचित हुए, हालांकि उन्होंने स्वीकार भी किया कि वे इस वजह से जप के दौरान सो गए थे। लेकिन उन्होंने कभी शिकायत नहीं की। वह जानते थे कि उन्हें प्रशिक्षित किया जा रहा है। आखिरकार, उसे इसकी आदत हो गई और ज्यादा नींद नहीं आई।

इस तरह विनोद बिहारी दास बाबा ने गुरु गोस्वामीजी के पास रहकर सेवा और साधना की। बाबा ने आखिरकार 2006 से बरसाना के पीलीपोखर में अपने आश्रम (प्रिया कुंज आश्रम नाम) में राधा रानी की दिव्य सेवा के तहत शरण ली। 

विनोद बिहारी दास बाबा न केवल श्री धाम बरसाना के निवासियों के लिए, बल्कि दुनिया भर में पतित आत्माओं के लिए भी दया के स्रोत हैं। उनकी अकारण कृपा से कोई भी दूर नहीं है यहाँ तक कि जानवर भी ... श्री जी महल के रास्ते में बंदरों पर बाबा का प्यार बरसता है। श्रीमहल के ऊँची अटारी में प्रत्येक शाम को विभिन्न विषयों पर उनके सत्संग से बहुत लाभ प्राप्त हो सकता है। 

विनोद बिहारी दास बाबा भक्ति की बहुत कठिन अवधारणाओं को इतने सरल तरीके से प्रस्तुत करते हैं कि कोई भी उनके दिव्य सत्संग से सीख सकता है। वह शास्त्रों के अपने गहरे ज्ञान से चीजों का हवाला देते थे और फिर उसे उस तरह से समझाते थे जिसे आप आसानी से समझ सकते हैं। बाबा श्री श्री राधामाधव सरकार की ओर दिव्यता और भावनाओं की नदी का उद्गम करते हैं जिसमें हर कोई स्नान कर सकता है।

- ब्रजभाषा के कव‍ि श्री अशोक अज्ञ की फेसबुक वॉल से साभार 

Tuesday, 26 August 2025

एक कहानी जो बचपन में सुनी थी


 एक समय की बात है, एक राजा ने निश्चय किया कि वह प्रतिदिन 100 अंधे लोगों को खीर खिलाएगा। एक दिन एक साँप ने खीर वाले दूध में मुँह डालकर उसमें ज़हर मिला दिया। ज़हरीली खीर खाने से सभी 100 अंधे मर गए। राजा को बहुत चिंता हुई कि कहीं उसे 100 लोगों की हत्या का पाप न लग जाए। चिंता में डूबा राजा अपना राज्य छोड़कर जंगलों में भक्ति करने चला गया ताकि उसे इस पाप की क्षमा मिल सके। रास्ते में एक गाँव पड़ा।

राजा ने सभा भवन में बैठे लोगों से पूछा कि क्या गाँव में कोई ऐसा परिवार है जो भक्ति भाव रखता हो, ताकि वह उनके घर रात बिता सके।

चौपाल में बैठे लोगों ने बताया कि इस गाँव में दो भाई-बहन रहते हैं जो बहुत पूजा-पाठ करते हैं। राजा उनके घर रात रुके।

जब राजा सुबह उठे तो लड़की पूजा के लिए बैठी थी। पहले लड़की की दिनचर्या यह थी कि वह पौ फटने से पहले ही पूजा से उठकर नाश्ता तैयार कर लेती थी।

लेकिन उस दिन लड़की पूजा में बहुत देर तक बैठी रही। जब लड़की उठी, तो उसके भाई ने कहा, बहन, तुम इतनी देर से उठी हो। हमारे घर एक मुसाफिर आया है और उसे नाश्ता करके बहुत दूर जाना है।

लड़की ने उत्तर दिया, भाई, ऊपर एक पेचीदा मामला था। धर्मराज को एक पेचीदा स्थिति पर निर्णय लेना था और मैं उस निर्णय को सुनने के लिए रुकी थी। इसलिए मैं बहुत देर तक ध्यान करती रही।

तो उसके भाई ने पूछा कि क्या बात है? तो लड़की ने बताया कि एक राज्य का राजा अंधे लोगों को खीर खिलाता था। लेकिन दूध में साँप के ज़हर डालने से 100 अंधे लोग मर गए। अब धर्मराज समझ नहीं पा रहे हैं कि अंधे लोगों की मृत्यु का पाप राजा पर हो, साँप पर या उस रसोइए पर जिसने दूध खुला छोड़ दिया।

राजा भी सुन रहा था। राजा को उससे जुड़ी कुछ बातें सुनकर दिलचस्पी हुई और उन्होंने लड़की से पूछा कि फिर क्या फैसला हुआ?

लड़की ने कहा कि अभी कोई फैसला नहीं हुआ है। तो राजा ने पूछा, क्या मैं तुम्हारे घर एक रात और रुक सकता हूँ? दोनों भाई-बहन ने खुशी-खुशी हाँ कह दी।

राजा अगले दिन रुक गए, लेकिन चौपाल में बैठे लोग दिन भर यही चर्चा करते रहे कि जो व्यक्ति कल हमारे गाँव में एक रात रुकने आया था और भक्ति भाव से घर माँग रहा था, उसकी भक्ति का नाटक उजागर हो गया है।

वह रात बिताने के बाद इसलिए नहीं गया क्योंकि उस व्यक्ति की नीयत युवती को देखकर खराब हो गई थी। इसलिए अब वह उस सुंदर और युवती के घर ज़रूर रुकेगा, वरना वह युवती को लेकर भाग जाएगा।

सभा भवन में दिन भर राजा की आलोचना होती रही।

अगली सुबह युवती फिर ध्यान के लिए बैठी और नियमित समय पर उठी। तब राजा ने पूछा- "बेटी, अंधे लोगों की हत्या का पाप किसने लगाया था?"

तब लड़की बोली- "वह पाप हमारे गाँव की चौपाल में बैठे लोगों ने बाँटकर ले लिया।"

सारांश:~ दूसरों की आलोचना करने से कितना नुकसान होता है? आलोचक हमेशा दूसरों के पापों को अपने सिर पर ढोता है और दूसरों द्वारा किए गए उन पापों का फल भी भोगता है। इसलिए हमें हमेशा आलोचना करने से बचना चाहिए..!!

Monday, 18 August 2025

दीवारों पर लिखती हुई इन स्त्रियों ने बचा रखा है संसार

आज एक च‍ित्र देखा तो सोचा आपसे शेयर करूं। देख‍िए इस च‍ित्र को और इसमें रंग भरने वाली हमारी उस पीढ़ी को जो आज के बदलावों से बेखबर अपना कर्तव्य पूरा क‍िये जा रही है।  

इस पर एक कव‍िता भी है हालांक‍ि ये मेरी रचना नहीं है परंतु कहीं पढ़ी है, अच्छी लगी..  

सो-- आप भी पढ़‍िएगा--- 


गेरू से

भीत पर लिख देती है

बाँसबीट

हारिल सुग्गा

डोली कहार

कनिया वर

पान सुपारी

मछली पानी

साज सिंघोरा

पउती पेटारी


अँचरा में काढ़ लेती है

फुलवारी

राम सिया

सखी सलेहर

तोता मैना


तकिया पर

नमस्ते

चादर पर

पिया मिलन


परदे पर

खेत पथार

बाग बगइचा

चिरई चुनमुन

कुटिया पिसीआ

झुम्मर सोहर

बोनी कटनी

दऊनि ओसऊनि

हाथी घोड़ा

ऊँट बहेड़ा


गोबर से बनाती है

गौर गणेश

चान सुरुज

नाग नागिन

ओखरी मूसर

जांता चूल्हा

हर हरवाहा

बेढ़ी बखाड़ी


जब लिखती है स्त्री

गेरू या गोबर से

या

काढ़ रही होती है

बेलबूटे

वह

बचाती है प्रेम

बचाती है सपना

बचाती है गृहस्थी

बचाती है वन

बचाती है प्रकृति

बचाती है पृथ्वी


संस्कृतियों की

संवाहक हैं

रंग भरती स्त्रियाँ


लिखती स्त्री

बचाती है सपने

संस्कृति और प्रेम।


स्त्री के मनोभावों को बख़ूबी बयान करती ये सुंदर रचना ज‍िसने भी ल‍िखी है उसने पूरा यथार्थ उतार कर रख द‍िया। हमारी माताएं ऐसी ही थीं। जो शायद अब गुम हैं किसी फ्रेम में, किसी घर के कोने में शायद इन चीजों से मुक्त होती आज की स्त्री।दिखती हैं मॉल में, पार्क में, ऑफिस में और संघर्ष का रूप बदल गया।अब खुद के लिए आत्मनिर्भर होती स्त्री। ये परिवर्तन शायद ले गया सब। 

मगर ऐसी परंपराएं सदैव ही जीवित रहनी चाहिए, भूत वर्तमान और भविष्य सब-कुछ भीत पर उकेरकर स्त्रियां इन्हें बचाए रखती हैं।

आजकल सब शहर की तरफ भाग रहे वहीं रहना भी पसंद है उनको, ये सब चित्र टाइल्स और पत्थर लगी दीवारों में कैसे बनेंगे वो भी गोबर से अगर बन भी जाएं तो कोई बनाना बनवाना भी पसंद नहीं करता दीवार खराब लगेगी उसको, अपने गांव में सही था हरछठ व्रत में हमेशा बनती थी, धीमे ही सही लेकिन लोग अपनी संस्कृतियों को ही भूल रहे हैं।

मेरी सासु मां भी ऐसी ही माएं-देवता की आकृत‍ियां शाद‍ियों बनाती हैं , अब उन्होंने मेरी बेटी के पास एक कागज पर सारी आकृत‍ियां सुरक्ष‍ित उतरवा दी हैं ताक‍ि यह प्रथा उनके बाद भी जीव‍ित रहे। 

- Legend News 

Tuesday, 17 June 2025

मुस्‍लिम उपन्यासकार ख़ालिद जावेद ने क्यों कहा, हिंदू धर्म में लचीलापन है


 हिंदू धर्म के चरित्रों को आधार बनाकर साहित्य लेखन में समय समय पर विभिन्न प्रयोग किए जाते रहे हैं और अब भी हो रहे हैं लेकिन इस्लाम धर्म में ऐसी कोई परंपरा नहीं पाए जाने की वजह पूछे जाने पर उर्दू के जाने माने उपन्यासकार ख़ालिद जावेद कहते हैं कि इस्लाम धर्म में कहानी कहने के लिए ज़मीन ही नहीं है।

2014 में लिखे गए अपने उपन्यास ‘नेमतखाना’ (द पैराडाइज आफ फूड) के लिए हाल ही में वर्ष 2022 के प्रतिष्ठित जेसीबी पुरस्कार से सम्मानित ख़ालिद जावेद ने ‘भाषा’ को दिए विशेष साक्षात्कार में यह बात कही।
अमीश त्रिपाठी, देवदत्त पटनायक जैसे लेखकों द्वारा हिंदू महाकाव्य रामायण और महाभारत के चरित्रों को आधार बनाकर उपन्यासों की रचना की पृष्ठभूमि में ख़ालिद जावेद से जब यह सवाल किया गया कि इस प्रकार के प्रयोग इस्लाम धर्म के साथ क्यों नहीं किए गए तो उनका कहना था, ‘‘हिंदू धर्म, पूरा का पूरा धर्म होने के साथ ही जीवन शैली भी है। हिंदू धर्म आचार संहिता नहीं है बल्कि वह एक संस्कृति है। भारतीय दर्शन और उसके सभी छह स्कूल पूरी तत्व मीमांसा और ज्ञान मीमांसा की सांस्कृतिक मूल के साथ व्याख्या करते हैं। इसके चलते हिंदू धर्म में लचीलापन है। उसमें चीजों को ग्रहण करने की बहुत बड़ी शक्ति हमेशा से मौजूद रही है।’’ 
उन्होंने आगे कहा, ‘‘हिंदू धर्म उस तरह का धर्म नहीं है जो कानूनी एतबार से चले। इसके भीतर मानवीय मूल्य, सांस्कृतिक तत्वों के साथ मिलकर सामने आते हैं। ऐसी जगह पर कहानी कहने के लिए ज़मीन पहले से मौजूद होती है। ’’ 
जामिया मिल्लिया इस्लामिया में प्रोफेसर ख़ालिद जावेद कहते हैं, ‘‘इस्लाम में आचार संहिता बहुत ज्यादा है । कुछ नियम बनाए गए हैं । सांस्कृतिक तत्व बहुत कम नजर आते हैं। इस्लाम में मेले ठेले, अगर ईद को छोड़ दें तो सांस्कृतिक परिदृश्य बहुत कम नजर आएगा। एक खास तरह से कुछ नियमों के ऊपर आपको चलना है।’’
वह कहते हैं, ‘‘इस्लाम के अपने खास नियम हैं। उन्हें तोड़ना बहुत मुश्किल है। वहां कहानी कहने के लिए जमीन ही नहीं है। उसके चरित्र ही इस तरह के नहीं हैं जिसके भीतर एक किरदार बनने की संभावनाएं पाई जाती हों। इस्लाम के चरित्र इतने ठोस हैं कि उनमें इस तरह का कहानी का चरित्र बनने के लिए, कल्पनाशीलता के लिए गुंजाइश बहुत कम है।’’
‘एक खंजर पानी में’,‘आखिरी दावत’, ‘मौत की किताब’, और ‘नेमतखाना’ के लेखक ख़ालिद जावेद विभिन्न पुरस्कारों से नवाजे जा चुके हैं और न केवल भारत बल्कि पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में बड़े चाव से पढ़े जाते हैं ।
सोशल मीडिया के जमाने में साहित्य पर मंडराते खतरों के संबंध में ख़ालिद जावेद ने कहा, ‘‘लॉकडाउन में साहित्यिक वेबसाइटों में इजाफा हुआ, सब कुछ ऑनलाइन था तो साहित्य भी। लेकिन प्रिंट मीडिया की दीर्घकालिक संदीजगी ज्यादा होती है। ऑनलाइन में तथाकथित स्वतंत्रता के चलते गुणवत्ता प्रभावित होती है। ’’
एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, ‘‘अदब (साहित्य) का गंभीर सौंदर्य शास्त्र होता है। आज के पाठक को अगर कोई लेखक या रचना समझ नहीं आती है तो इसकी वजह ये है कि पाठक की ग्रूमिंग ठीक से नहीं हो रही है। आवामी अदब (लोकप्रिय साहित्य), संजीदा अदब (गंभीर साहित्य) से अलग है। हमारे ज़माने में अदब का काम किसी पाठक की तरबीयत (प्रशिक्षण) करना था। ठीक है, आज पाठक अगर गुलशन नंदा पढ़ रहा है तो धीरे धीरे उसकी ऐसी ट्रेनिंग होती थी कि इन्हीं पाठकों ने आगे चलकर कुर्रतुल एन हैदर को पढ़ा, मंटो को पढ़ा, बेदी को पढ़ा, यशपाल को पढ़ा, मुक्तिबोध और निर्मल वर्मा को पढ़ा। अब ये प्रशिक्षण खत्म हो गया है। लोकप्रिय चीजें अंतरदृष्टि पैदा नहीं करती हैं, तात्कालिक खुशी देती हैं। गंभीर साहित्य आपको अंतरदृष्टि प्रदान करता है।’’
ख़ालिद जावेद ने आगे कहा, ‘‘इसीलिए गंभीर साहित्य को सबसे बड़ा खतरा पत्रकारिय लेखन से है। अदब के नाम पर, साहित्य के नाम पर रिपोर्टिंग कर दी जाती है, और फिर उस रिपोर्टिंग को उपन्यास बना दिया जाता है। सामाजिक यथार्थ को ठीक वैसे का वैसा ही पेश कर दिया जाता है। साहित्य की राजनीतिक, सामाजिक और नैतिक चिंताएं होती हैं लेकिन इन्हें प्लेट में रखकर अखबार वालों की तरह पेश नहीं किया जाता। इसी से असल साहित्य को लगातार खतरा बना हुआ है। ये पिछले बीस पच्चीस साल से हो रहा है। उर्दू साहित्य का सूरते हाल भी यही है।”
उर्दू साहित्य में गंभीर लेखन संबंधी एक सवाल पर वह कहते हैं, ‘‘प्रेमचंद हिंदी और उर्दू अदब के बाबा आदम हैं। इसी ज़बान में मंटो हैं, किसी और ज़बान ने कोई दूसरा मंटो पैदा नहीं किया। राजेन्द्र बेदी हैं, कृष्ण चंदर हैं, इंतजार हुसैन हैं। ये उर्दू साहित्य की एक पूरी समृद्ध विरासत है। लेकिन आज पूरे साहित्यिक परिदृश्य पर बुरा वक्त है। उर्दू साहित्य भी उससे अछूता नहीं है। ऐसा लिखा जा रहा है जो बहुत जल्दी से समझ में आ जाए। जो बहुत जल्द समझ में आ जाए, उसे इंसान को शक की नजर से देखना चाहिए।’’
अपने लेखन में इंसान की अस्तित्ववादी उलझनों से अधिक सरोकार रखने वाले जावेद अपने नए उपन्यास के बारे में पूछे जाने पर कहते हैं,‘‘अभी तो किसी विषय ने मुझे नहीं चुना है। एक उपन्यास अभी खत्म किया है, बड़ा उपन्यास है। साढ़े चार सौ पन्नों का- उसका शीर्षक है ‘अर्थलान और बैजाद’। यह स्वप्न, भ्रम, वास्तविकता के बीच की सरहदों को तोड़ता है। इतिहास, तारीख से बहस करता है। तारीख जो ख्वाब देखकर भूल गई है, ये उन सपनों तक पहुंचने की कोशिश है।’’
Compiled: Legend News

Monday, 2 June 2025

है जन्मभूमि पर खड़ा हुआ ध्वजदण्ड अभय, स्वर्णाभ शिखर पर सूर्य उतर कर आया है...


 

आचार्य मिथिलेशनन्दिनीशरण एक प्रसिद्ध आध्यात्मिक विचारक और दार्शनिक हैंवे अपने विचारों और लेखन के माध्यम से लोगों को प्रेरित करते हैं , आज उनकी एक कव‍िता तब प्रस्फुट‍ित हुई जब अयोध्या नगरी भगवान श्री राम के भव्य मंद‍िर को स्वर्ण श‍िखरों से सजा हुआ देख रही थी, इस पल साक्षी बन रही थी। 

आप भी पढ़‍िए इस कव‍िता को----- 

 

मण्डित शिखरों की सुस्मित स्वर्ण-रश्मियों में 

खण्डित  विश्वासों के पल-छिन मुस्काते हैं।

इतिहास उमड़ता आता है स्मृति के पथ पर

संघर्षों के नायक मन पर छा जाते हैं।

सरयू की लहरें साक्षी हैं उस गाथा की

जो लिखी गयी पर अब तक गायी नहीं गयी।

पायी है ऐसी विजय अयोध्या ने अपूर्व 

जो कहीं विश्व में अब तक पायी नहीं गयी।

धरती के अन्तस्तल में कहीं दबे हैं जो

वे खण्ड-खण्ड पाषाण आज फिर बोले हैं

जो म्लेच्छ-धूलि से मुँदे हुए थे इतने दिन

वे नयन दिशाओं ने प्रमुदित हो खोले हैं। 

है जन्मभूमि पर खड़ा हुआ ध्वजदण्ड अभय

स्वर्णाभ शिखर पर सूर्य उतर कर आया है।

अभिषेक धर्मविग्रह का करने को अकुण्ठ

तपसी पीढ़ी ने सञ्चित पुण्य लुटाया है।

सरयू के तट पर शोभित पुरी अष्टचक्रा

युग-युग से अपराजिता कहाती आयी है। 

उस सत्या को उसकी मर्यादा आज पुनः

प्रभु मर्यादापरुषोत्तम ने लौटाई है। 

वसुधा को माना है कुटुम्ब जिस संस्कृति ने

जो सत्यमेव जयते का गान सुनाती है।

देखे दुनिया उस भारत भू की सिद्धि, स्वतः

किस भाँति लौट उसके चरणों में आती है।

ये अम्बर तक अम्लान सौध शिखरों पर जो

कञ्चन की कान्ति चमत्कृत करती छाई है।

यह नहीं मात्र सोना, रविकुल के आँगन में

उतरी मानवता की स्वर्णिम परछाई है।

जो लिखते आये हैं इतिहास, कहो उनसे

जो पढ़ते हैं भूगोल उन्हें भी बतलाओ।

भारत का गौरव, इसकी महिमा का प्रमाण

प्रत्यक्ष अयोध्या की मिट्टी से ले जाओ।

यह पुनर्नवा संस्कृति का केन्द्र, सदानीरा

आस्थाओं के अविरल प्रवाह का तट पावन।

श्रीराम यहाँ मानवता के प्रतिमान अमर

नारीत्व विमल, जानकी-चरित है मनभावन।

जिनका वेदात्मक चरित आदिकवि वाल्मीकि

रामायण रचकर धरती पर ले आते हैं। 

मण्डित शिखरों की सुस्मित स्वर्ण-रश्मियों में 

उन रामभद्र के गुण-गण शोभा पाते हैं।

देखें वे जिनको दृष्टि मिली है ईश्वर से

वे सुनें कि जिनको सुनने की अभिलाषा है।

यह है हिन्दूजन का अभेद्य संकल्प फलित

यह भारत भू की चिरसंचित अभिलाषा है। 

आँधियाँ समय की आती हैं, देखीं हमने

विप्लव भी हमने सहे, कपट-छल देखा है।

हम जूझे हैं अपनी भी दुर्बलताओं से

हमने प्रतिपक्षी दल का भी बल देखा है।

पर रहा सदा विश्वास हमारा अचल कि हम

बस सत्यमेव जयते को जीते आये हैं।

जब मथा समुद्र अमृत की इच्छा से हमने 

शिव होकर तब हम विष भी पीते आये हैं।

है अमृत छलकता ही धरती के आँचल में

हम धरती की सन्तान हमें घबराना क्या।

है लुटा दिया सर्वस्व विश्व के हित हमने

तो फिर अपने हित हमको खोना-पाना क्या।

फिर बसती हुई अयोध्या का सच, रामायण 

में वाल्मीकि की लिखी हुई वह वाणी है।

जो शताब्दियों के पार महाकवि तुलसी की

चौपाई बनकर उमड़ी ध्वनि कल्याणी है।


- आचार्य मिथिलेशनन्दिनीशरण

Monday, 26 May 2025

एंटोन चेखव द्वारा ल‍िखी गई एक कहानी आज भी याद है...आप भी पढ़ें


 एंटोन चेखव द्वारा ल‍िखी गई एक कहानी आज भी याद है। वे अपनी एक कहानी में लिखते हैं:


बस स्टॉप पर, एक बूढ़ा आदमी और एक युवा गर्भवती महिला साथ-साथ इंतज़ार कर रहे थे।

वह आदमी उत्सुकता से महिला के गोल पेट को घूरता रहा। फिर उसने धीरे से पूछने की हिम्मत की:

— तुम्हारे कितने महीने हो गए? 

युवती कहीं और, विचारों में खोई हुई लग रही थी। उसके थके हुए चेहरे पर चिंता साफ झलक रही थी। पहले तो उसने जवाब नहीं दिया। फिर, कुछ सेकंड की चुप्पी के बाद, वह बुदबुदाई:

— तेईस सप्ताह…

— क्या यह तुम्हारा पहला बच्चा है? उसने पूछा।

— हाँ, उसने जवाब दिया, उसकी आवाज़ मुश्किल से सुनाई दे रही थी।

— डरो मत, उसने कहा। सब ठीक हो जाएगा, तुम देख लेना।

उसने अपने पेट पर हाथ रखा, सीधे सामने देखा, उसकी आँखें चमक रही थीं, आँसू रोक रही थीं।

— मुझे उम्मीद है... उसने जवाब दिया।

बूढ़े आदमी ने आगे कहा:

— कभी-कभी हम खुद को उन चिंताओं से अभिभूत होने देते हैं, जो वास्तव में, इसके लायक नहीं हैं...

— शायद..., उसने दुखी होकर फुसफुसाया।

उसने उसे और करीब से देखा, और अधिक करुणा के साथ।

— तुम मुश्किल समय से गुज़र रही हो। तुम्हारा पति... क्या वह तुम्हारे साथ नहीं है?

— उसने मुझे चार महीने पहले छोड़ दिया।

— क्यों?!

— यह प्रश्न जटिल है...

— और तुम्हारे प्रियजन? तुम्हारा परिवार, दोस्त? तुम्हारा साथ देने वाला कोई नहीं?

उसने गहरी साँस ली।

— मैं अपने पिता के साथ अकेली रहती हूँ... वह बीमार हैं।

एक लंबी खामोशी। फिर बूढ़े आदमी ने पूछा:

— क्या वह अब भी तुम्हारे लिए वही मजबूत स्तंभ है जैसा तुम बचपन में जानती थी?

युवती के गालों पर आँसू बह निकले।

— हाँ... अब भी।

— बीमार हालत में भी? उन्हें हुआ क्या है?

— उन्हें अब याद नहीं कि मैं कौन हूँ...

उसने ये शब्द बस के आते ही कहे।

वह खड़ी हुई, कुछ कदम चली... फिर कुछ सोचती हुई, बूढ़े आदमी के पास वापस आई, धीरे से उसका हाथ थामा, और प्यार से कहा: चलो, पापा।

Wednesday, 21 May 2025

भारतीय लेखिका बानू मुश्ताक़ ने हार्ट लैंप के लिए बुकर पुरस्कार जीतकर इतिहास रचा


 भारतीय लेखिका, वकील और कार्यकर्ता बानू मुश्ताक़ ने लघु कथा संकलन, 'हार्ट लैंप' के लिए अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीतकर इतिहास रच दिया है.

कन्नड़ भाषा में लिखी गई यह पहली किताब है जिसे यह प्रतिष्ठित पुरस्कार हासिल हुआ है. 'हार्ट लैंप' की कहानियों का अंग्रेज़ी में अनुवाद दीपा भास्ती ने किया है.
1990 से 2023 के बीच मुश्ताक़ की लिखी 12 लघु कथाओं वाली किताब 'हार्ट' लैंप में, दक्षिण भारत में मुस्लिम महिलाओं की मुश्किलों का बहुत मार्मिक चित्रण किया गया है. 
मुश्ताक़ को मिला पुरस्कार बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सिर्फ़ उनके काम को ही रेखांकित नहीं करता बल्कि भारत की संपन्न क्षेत्रीय साहित्यिक परंपरा को भी दर्शाता है.
इससे पहले साल 2022 में गीतांजलि श्री की पुस्तक 'टॉम्ब ऑफ़ सैंड' को ये पुरस्कार मिला था. 'टॉम्ब ऑफ़ सैंड' का हिंदी से अंग्रेज़ी में अनुवाद डेज़ी रॉकवेल ने किया था. 
पुस्तक प्रेमियों के बीच बानू मुश्ताक़ की लेखनी चिर-परिचित है, लेकिन इंटरनेशनल बुकर अवार्ड ने उनकी ज़िंदगी और साहित्य को दुनिया के सामने पेश किया है.
उनका साहित्य महिलाओं के सामने आने वाली उन चुनौतियों की झलक देता है जो धार्मिक संकीर्णता और पितृसत्तात्मक समाज से पैदा हुई हैं.
यह उनकी अपनी जागरूकता ही है जिसने शायद मुश्ताक़ को बारीक चरित्र और कथानक गढ़ने में मदद की.
इस किताब के बारे में 'इंडियन एक्सप्रेस' में छपे रिव्यू में लिखा गया है, "जहां साहित्य में अक्सर बड़े कथानक को पुरस्कृत किया जाता है, वहीं हार्ट लैंप हाशिए पर ज़िंदगियों के बारे में है. ये किताब टिकी है अनदेखे विकल्पों के बारे में बारीक़ नज़र पर. और यही उसकी ताक़त है. यही बानू मुश्ताक़ की ख़ामोश ताक़त है."
मुश्ताक़ कर्नाटक के एक छोटे से कस्बे में मुस्लिम इलाके में पली-बढ़ीं और अपने आसपास की अधिकांश लड़कियों की तरह उन्होंने भी स्कूल में उर्दू भाषा में क़ुरान का अध्ययन किया लेकिन सरकारी कर्मचारी रहे उनके पिता चाहते थे कि बानू मुश्ताक़ आम स्कूल में पढ़ें.
जब वह आठ साल की थीं, तब उनके पिता ने उनका दाख़िला एक कॉन्वेंट स्कूल में करवाया जहां कन्नड़ भाषा में पढ़ाई होती थी. 
मुश्ताक़ ने कन्नड़ भाषा में माहिर होने के लिए कड़ी मेहनत की. बाद में यही भाषा उनकी साहित्यिक अभिव्यक्ति की भाषा बन गई.
स्कूल के समय से ही उन्होंने लिखना शुरू कर दिया. जब उनकी सहेलियां शादी करने लगीं तो बानू मुश्ताक़ ने कॉलेज जाने का विकल्प चुना.
मुश्ताक़ का लेखन छपने में सालों लगे और यह तब हुआ जब वह ख़ास तौर पर अपनी ज़िंदगी के सबसे चुनौतीपूर्ण पलों से गुजर रही थीं.
26 साल की उम्र में अपनी पसंद के व्यक्ति से शादी के एक साल बाद उनकी लघु कथा एक स्थानीय मैग्ज़ीन में छपी, लेकिन उनका शुरुआती विवाहित जीवन संघर्षों और कलह वाला रहा. इस बारे में उन्होंने कई बार खुलकर बात की है.
वोग मैग्ज़ीन को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, "मैं हमेशा से लिखना चाहती थी लेकिन कुछ लिखने को नहीं था. फिर लव मैरिज के बाद अचानक मुझे बुरक़ा पहनने को कहा गया और पूरी ज़िंदगी घरेलू काम में लगाने को कहा गया. 29 साल की उम्र में मैं पोस्टपार्टम डिप्रेशन से पीड़ित मां बन गई."
'द वीक' मैग्ज़ीन को दिए एक अन्य इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि किस तरह उनकी ज़िंदगी घर के अंदर बंध कर रह गई थी. 
हालात से विद्रोह 
इसके बाद एक चौंकाने वाले विद्रोह ने बानू मुश्ताक़ को मुक्त कर दिया.
उन्होंने पत्रिका को बताया, "एक बार बहुत निराशा के पलों में मैंने खुद को आग लगाने के लिए अपने ऊपर पेट्रोल छिड़क लिया था. शुक्र है कि मेरे पति समय रहते भांप गए. उन्होंने मुझे गले लगाया और माचिस दूर फेंक दी. फिर मेरे पांव में बच्चे को रख कर मिन्नत की कि हमें मत छोड़ो."
हार्ट लैंप में उनकी महिला किरदार प्रतिरोध और विद्रोह के इसी जज़्बे को प्रतिबिंबित करती हैं.
'इंडियन एक्सप्रेस' अख़बार में छपे एक रिव्यू के अनुसार "मुख्य धारा के भारतीय साहित्य में मुस्लिम महिलाओं को अक्सर एक जैसे सपाट रूपकों में ढाल दिया जाता है. मुश्ताक़ ने इसे ख़ारिज किया. उनके किरदार मेहनती हैं, मोलभाव करते हैं और कभी कभी विरोध भी दर्ज करते हैं. ये विरोध वैसा नहीं है जिससे सुर्ख़ियां बनें बल्कि ऐसा है जिससे उनकी ज़िंदगी में फ़र्क पड़े."
महिला अधिकारों के लिए उठाई आवाज़ 
मुश्ताक़ ने एक प्रमुख स्थानीय टैबलॉयड में रिपोर्टर के रूप में काम किया और बाद में 'बांदाया आंदोलन' से भी जुड़ीं.
ये आंदोलन साहित्य और सक्रियता के माध्यम से सामाजिक और आर्थिक नाइंसाफ़ी को दूर करने को लेकर चलाया जा रहा था.
एक दशक तक पत्रकारिता करने के बाद उन्होंने अपने परिवार की मदद करने के लिए वकालत शुरू की.
कई दशकों के अपने शानदार करियर में उनकी अच्छी ख़ासी संख्या में रचनाएं प्रकाशित हुईं हैं. इनमें छह लघु कहानी संग्रह, एक निबंध संग्रह और एक उपन्यास शामिल है लेकिन उनकी तीखी लेखनी ने उन्हें नफ़रत के निशाने पर भी ला दिया.
'द हिंदू' अख़बार में दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया कि कैसे साल 2000 में उन्हें धमकी भरे फ़ोन आए थे क्योंकि उन्होंने मस्जिदों में नमाज पढ़ने के महिला अधिकारों के समर्थन में अपने विचार प्रकट किए थे. 
उनके ख़िलाफ़ फ़तवा जारी किया गया और एक व्यक्ति ने उनपर चाकू से हमला करने की कोशिश की, हालांकि उनके पति ने उसे दबोच लिया लेकिन इन घटनाओं से मुश्ताक़ डरी नहीं और उन्होंने ईमानदारी से लिखना जारी रखा.
'द वीक' मैग्ज़ीन को उन्होंने बताया था, "मैंने हमेशा अंधश्रद्धा वाली धार्मिक व्याख्याओं को चुनौती दी है. ये मुद्दे मेरे लेखन के केंद्र में रहे हैं. समाज बहुत बदल गया है, लेकिन बुनियादी मुद्दे अभी भी वही हैं. भले ही संदर्भ बदल रहा हो. लेकिन महिलाओं और हाशिए पर पड़े समुदायों का बुनियादी संघर्ष जारी हैं."
पिछले कुछ सालों में मुश्ताक़ के लेखन को कर्नाटक साहित्य अकादमी पुरस्कार और दाना चिंतामणि अत्तिमाबे पुरस्कार समेत कई प्रतिष्ठित स्थानीय और राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं.
2024 में 1990 और 2012 के बीच प्रकाशित मुश्ताक़ की पांच लघु कहानी संग्रहों के अनूदित अंग्रेजी संकलन, 'हसीना एंड अदर स्टोरीज' ने प्रतिष्ठित 'पेन ट्रांसलेशन प्राइज़' भी जीता था.
-Legend News

Thursday, 27 March 2025

#ShortStory: ट्रेन टॉयलेट में ल‍िखा नंबर


जैसे ही मैंने नंबर देखा, मैंने उस फोन नंबर पर बात करने के लिए फोन उठाया...


फोन करते समय मुझे नहीं पता था कि वह लड़की है या महिला... लेकिन मुझे इतना जरूर पता था कि ट्रेनों में इस तरह लिखे गए फोन नंबर आमतौर पर महिलाओं के ही होते हैं, किसी लड़के या पुरुष के नहीं...


दूसरी तरफ से आवाज आई और पूछा- कौन है... आवाज बहुत घबराई हुई थी, दरअसल मैंने ट्रेन-टॉयलेट के दरवाजे के पीछे लिखे नंबर पर कॉल किया और पूछा- क्या आप रेणु जी बोल रही हैं.. 


उधर से डरी हुई आवाज में जवाब आया, "हाँ, लेकिन आप कौन हैं और आपको मेरा नंबर कहाँ से मिला?"


"दरअसल वो ट्रेन,,,,मेरा मतलब है क‍ि उस ट्रेन के डिब्बे में किसी ने तुम्हारा नंबर तुम्हारे नाम के साथ लिख दिया है, हो सकता है वो तुम्हारा अच्छा दुश्मन हो या बुरा दोस्त, जो भी हो, मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि हो सके तो ये नंबर बदलवा लो या फिर अच्छे जवाब के साथ तैयार रहो, वैसे अब तक जो भी कॉल आए हैं, आ गए हैं,,,, आज के बाद कोई नहीं आएगा क्योंकि मैंने ये नंबर ट्रेन के टॉयलेट से डिलीट कर दिया है।


रेणु जी, अब मैं फोन रखता हूँ, कृपया अपना ख्याल रखना।"


फिर उसने मुझसे कहा कि मैं नए अनजान नंबरों और उन पर गंदी और अश्लील बातों की वजह से बहुत परेशान थी, तुम जो भी हो, तुमने मेरी बहुत मदद की है क्योंकि मैं समझ नहीं पा रही थी कि ऐसे कॉल क्यों आ रहे हैं।


रेनू जी को फोन करने के उस कदम ने मुझे कुछ 'अच्छा' करने के ल‍िए 

नई दिशा दे दी और एक मुह‍िम मानकर मैंने सार्वजनिक जगहों पर लिखे ऐसे नंबर मिटाने शुरू कर दिए, ताकि कम से कम किसी की जान तो बच सके।


मैं मानता हूँ कि हम किसी बुराई की वजह नहीं हैं लेकिन हम किसी अच्छाई की वजह ज़रूर बन सकते हैं। मैं आप सभी से अनुरोध करता हूँ कि अगर आपको कहीं भी ऐसे नंबर और नाम दिखें तो उन्हें तुरंत डिलीट कर दें ताकि आप किसी की बहन-बेटियों को अनजान खतरों से बचा सकें।


अगर लाखों लोग एक साथ मिलकर किसी एक व्यक्ति का साथ दें तो हालात जल्दी बदलने लगेंगे।


बाय- स्टूडेंट ऑफ सोशल कॉज


Saturday, 22 March 2025

हिंदी के प्रसिद्ध कवि विनोद कुमार शुक्ल को मिलेगा इस साल का ज्ञानपीठ पुरस्कार


 हिंदी के प्रसिद्ध कवि और लेखक विनोद कुमार शुक्ल को इस साल का सबसे बड़ा साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलेगा. इस बारे में आज नई दिल्ली में घोषणा की गई. बता दें कि विनोद कुमार शुक्ल रायपुर में रहते हैं और उनका जन्म 1 जनवरी 1937 को राजनांदगांव में हुआ था. वे पिछले 50 सालों से लिख रहे हैं. उनका पहला कविता संग्रह "लगभग जयहिंद" 1971 में प्रकाशित हुआ था, और तभी से उनकी लेखनी ने साहित्य जगत में अपना स्थान बना लिया था.

उनके उपन्यास जैसे नौकर की कमीज,  खिलेगा तो देखेंगे और दीवार में एक खिड़की रहती थी हिंदी के सबसे बेहतरीन उपन्यासों में माने जाते हैं. साथ ही... उनकी कहानियों का संग्रह पेड़ पर कमरा  और महाविद्यालय  भी बहुत चर्चा में रहा है.

विनोद कुमार शुक्ल ने बच्चों के लिए भी किताबें लिखी हैं... जिनमें हरे पत्ते के रंग की पतरंगी और कहीं खो गया नाम का लड़का जैसी किताबें शामिल हैं, जिन्हें बच्चों ने बहुत पसंद किया है. उनकी किताबों का अनुवाद कई भाषाओं में हो चुका है और उनका साहित्य दुनिया भर में पढ़ा जाता है.

विनोद कुमार शुक्ल को उनके लेखन के लिए कई पुरस्कार मिल चुके हैं.... जैसे गजानन माधव मुक्तिबोध फेलोशिप, रजा पुरस्कार, और साहित्य अकादमी पुरस्कार (उनके उपन्यास दीवार में एक खिड़की रहती थी के लिए). इसके अलावा, उन्हें मातृभूमि बुक ऑफ द ईयर अवार्ड और पेन अमरीका नाबोकॉव अवार्ड भी मिल चुका है. मालूम हो की वे एशिया के पहले साहित्यकार हैं जिन्हें ये पुरस्कार मिला. उनके उपन्यास नौकर की कमीज  पर मशहूर फिल्मकार मणिकौल ने एक फिल्म भी बनाई थी.

- अलकनंदा स‍िंंह 

Wednesday, 5 March 2025

होरी रे रस‍िया.... वृन्दावन सा कहीं आनन्द नहीं पाओगे।


 एक बार अयोध्या जाओ, दो बार द्वारिका, तीन बार जाके त्रिवेणी में नहाओगे। 

चार बार चित्रकूट, नौ बार नासिक, बार-बार जाके बद्रीनाथ घूम आओगे॥


कोटि बार काशी, केदारनाथ, रामेश्वर, गया-जगन्नाथ, चाहे जहाँ जाओगे। 

होंगे प्रत्यक्ष जहाँ दर्शन श्याम-श्यामा के, वृन्दावन सा कहीं आनन्द नहीं पाओगे॥ 


प्रिया लाल राजे जहाँ, तहाँ वृन्दावन जान,

वृन्दावन तज एक पग, जाए ना रसिक सुजान ॥

जो सुख वृंदाविपिन में, अंत कहु सो नाय,

बैकुंठहु फीको पड्यो, ब्रज जुवती ललचाए ॥


वृंदावन रस भूमि में, रस सागर लहराए,

श्री हरिदासी लाड़ सो, बरसत रंग अघाय ॥


मोर जो बनाओ तो, बनाओ श्री वृंदावन को,

नाच नाच घूम घूम, तुम्ही को रिझाऊं मैं ।

बंदर बनाओ तो, बनाओ श्री निधिवन को,

कूद कूद फांद वृक्ष, जोरन दिखाऊं मैं  ॥


भिक्षुक बनाओ तो, बनाओ ब्रज मंडल को,

टूक हरि भक्तन सों, मांग मांग खाउँ मैं । 


भृंगी जो करो तो करो, कालिन्दी के तीर मोहे,

आठों याम श्यामा श्याम, श्यामा श्याम गाउं मैं ॥

।।जय जय श्रीवृंदावन धाम॥

Sunday, 2 February 2025

आज पढ़‍िये हंसराज रहबर की रचनायें... उसका भरोसा क्या यारों, वो शब्दों का व्यापारी है



 उसका भरोसा क्या यारों, वो शब्दों का व्यापारी है,

क्यों मुँह का मीठा वो न हो, जब पेशा ही बटमारी है।

रूप कोई भी धर लेता है पाँचों घी में रखने को,

तू इसको होशियारी कहता, लोग कहें अय्यारी है।

जनता को जो भीड़ बताते मँझधार में डूबेंगे,

काग़ज़ की है नैया, उनकी शोहरत भी अख़बारी है।

सुनकर चुप हो जाने वाले बात की तह तक पहुँचे हैं,

कौवे को कौवा नहीं कहते, यह उनकी लाचारी है।

पेड़ के पत्ते गिनने वालो तुम 'रहबर' को क्या जानो,

कपड़ा-लत्ता जैसा भी हो, बात तो उसकी भारी है।

(रचनाकाल : 11 अप्रैल 1976, तिहाड़ जेल)


किस कदर गर्म है हवा देखो

किस कदर गर्म है हवा देखो,

जिस्म मौसम का तप रहा देखो ।

बदगुमानी-सी बदगुमानी है,

पास होकर भी फ़ासला देखो ।

वे जो उजले लिबास वाले हैं,

उनकी आँखों में अज़दहा (अजगर) देखो ।

हो अंधेरा सफ़र, सफ़र ठहरा,

ले के चलते हैं हम दिया देखो ।

खेलता है जो मौत से होली,

क्या करेगा वो मनचला देखो ।

अम्न ही अम्न सुन लिया, लेकिन,

मक़तलों का भी सिलसिला देखो ।

इस ज़माने में जी लिया 'रहबर'

मर्दे-मोमिन (साहसी पुरुष) का हौसला देखो ।

(रचनाकाल : 01 मई 1980, दिल्ली)


चाँदनी रात है जवानी भी 

चाँदनी रात है जवानी भी,

कैफ़ परवर भी और सुहानी भी ।

हल्का-हल्का सरूर रहता है,

ऐश है ऐश ज़िन्दगानी भी ।

दिल किसी का हुआ, कोई दिल का,

मुख्तसर-सी है यह कहानी भी ।

दिल में उलफ़त, निगाह में शिकवे

लुत्फ़ देती है बदगुमानी भी ।

बारहा बैठकर सुना चुपचाप,

एक नग़मा है बेज़बानी भी ।

बुत-परस्ती की जो नहीं कायल

क्या जवानी है वो जवानी भी ।

इश्क़ बदनाम क्यों हुआ 'रहबर

कोई सुनता नहीं कहानी भी ।

(रचनाकाल : 15 नवम्बर 1941, सेंट्रल जेल, संगरूर)


तबीयत में न जाने ख़ाम

बढ़ाता है तमन्ना आदमी आहिस्ता आहिस्ता,

गुज़र जाती है सारी ज़िंदगी आहिस्ता आहिस्ता ।

अज़ल से सिलसिला ऐसा है ग़ुंचे फूल बनते हैं,

चटकती है चमन की हर कली आहिस्ता आहिस्ता ।

बहार-ए-ज़िंदगानी परख़ज़ाँ चुपचाप आती है,

हमें महसूस होती है कमी आहिस्ता आहिस्ता ।

सफ़र में बिजलियाँ हैं, आंधियाँ हैं और तूफ़ाँ हैं,

गुज़र जाता है उनसे आदमी आहिस्ता आहिस्ता ।

हो कितनी शिद्दते-ए-ग़म वक़्त आख़िर पोंछ देता है,

हमारे दीदा-ए-तर (भीगी हुई आँख) की नमी आहिस्ता आहिस्ता ।

परेशाँ किसलिए होता है ऐ दिल बात रख अपनी

गुज़र जाती है अच्छी या बुरी आहिस्ता आहिस्ता ।

तबियत में न जाने खाम ऐसी कौन सी शै है,

कि होती है मयस्सर पुख़्तगी आहिस्ता आहिस्ता ।

इरादों में बुलंदी हो तो नाकामी का ग़म अच्छा,

कि पड़ जाती है फीकी हर ख़ुशी आहिस्ता आहिस्ता ।

छुपाएगी हक़ीक़त को नमूद-ए-जाहिरी(ऊपरी दिखावा, बनावट) कब तक,

उभरती है शफ़क (उषा, लालिमा) से रोशनी आहिस्ता आहिस्ता ।

ये दुनिया ढूँढ़ लेती है निगाहें तेज़ हैं इसकी

तू कर पैदा हुनर में आज़री(आजर इंसान का प्रसिद्ध मूर्तिकार था,यानी कला में पराकाष्ठा) आहिस्ता आहिस्ता ।

तख़य्युल (कल्पना) में बुलन्दी और ज़बाँ में सादगी 'रहबर'

निखर आई है तेरी शायरी आहिस्ता आहिस्ता ।

(रचनाकाल : 16 नवम्बर 1941, सेंट्रल जेल, संगरूर)


हंसराज रहबर: एक पर‍िचय 

9 मार्च 1913 को जन्मे हंसराज रहबर हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। बंद गली, भ्रांति पथ और दिशाहीन इनकी चर्चित रचना है। 

उनका जन्म हरिआऊ संगवां (पूर्व रियासत पटियाला) ज़िला सुनाम में हुआ। आर्य हाई स्कूल, लुधियाना से मैट्रिक करने के बाद डी.ए.वी. कालेज, लाहौर से बी.ए. का इम्तिहान पास किया। देश के विभाजन के बाद प्राईवेट तौर पर इतिहास में एम.ए. की डिग्री प्राप्त की। स्कूल में पढ़ते हुए उनको उर्दू में शेयर कहने का शौक जागा। तब वह अर्श मलसियानी के शागिर्द बन गए । वह 1942 में हिंदी रोज़ाना 'मिलाप ' के संपादकीय मंडल में शामिल हो गए, परन्तु कुछ महीनों बाद गिरफ़्तारी के कारन यह सिलसिला टूट गया। 

वह साहित्य के साथ-साथ राजनीति में भी गहरी रुचि लेने लगे और कई बार जेल गए। उनके बीस उपन्यास, दस कहानी-संग्रह और समीक्षा व आलोचना की सत्रह पुस्तकें प्रकाशित हुईं।

उनका निधन: 23 जुलाई 1994 को हो गया। 

उनकी मुख्य कृतियाँ हैं; कहानी संग्रह: नव क्षितिज, हम लोग, झूठ की मुस्कान, वर्षगाँठ; उपन्यास : हाथ में हाथ, दिशाहीन, उन्माद, बिना रीढ़ का आदमी, पंखहीन तितली, बोले सो निहाल; आलोचना : प्रेमचंद : जीवन, कला और कृतित्व, प्रगतिवाद : पुनर्मूल्यांकन, गालिब बेनकाब, गालिब हकीकत के आईने में, इकबाल और उनकी शायरी अन्य : गांधी बेनकाब, नेहरू बेनकाब, भगत सिंह एक ज्वलंत इतिहास, योद्धा संन्यासी विवेकानंद, राष्ट्र नायक गुरु गोविंद अनुवाद : तुर्गनेव, बालजाक, लू शुन, हाली, जोश मलीहाबादी, इकबाल तथा कई अन्य प्रमुख लेखकों की रचनाओं का अनुवाद । उनकी रचना एहसास (ग़ज़लों और नज़्मों का संग्रह) २००4 में प्रकाशित हुई ।

- अलकनंदा स‍िंंह 

Saturday, 4 January 2025

श्री हरिदास, जै जै श्री कुँज बिहारिन लाल

 



एक दिन ठाकुर जी अत्यंत प्रसन्न होकर मुस्कुरा रहे थे । श्री प्रिया जी ने पूछा की प्रियतम क्या बात है जो आप अकेले अकेले मुस्कुरा रहे है ? ठाकुर जी बोले नारद जी ने कलयुग मे कप प्रतिज्ञा की थी वह पूरी होते हुए दिखाई दे रही है । नारद जी ने प्रतिज्ञा की थी की मै विविध उत्सवों के माध्यम से (रामनवमी, झूलन उत्सव, चंदन लेपन, अन्नकूट महोत्सव आदी) कलयुग में घर घर मे भक्ति की स्थापना करुंगा । यदि मैने ऐसा नही किया तो मै श्रीहरि का दास नही । इस कराल कलिकाल मे भी कितने जीव तीव्र गति से मेरे चरणों तक पहुंच रहे है । प्रिया जी ने कहा - आप तक पहुंचने का रास्ता तो आपने खोल दिया है । 

यदि कोई जीव सखी सहचरी बनकर निज महल की सेवा प्राप्त करना चाहे, उस मार्ग को तो आपने खोला ही नही । उसको आपने गुप्त ही रखा है । ठाकुर जी ने कहा की यह रस तो आपकी सहचरियों की कृपा करुणा के आधीन है । सहचरी अनुग्रह न करे तो मुझे भी श्रीमहल की टहल दुर्लभ है । 

जब श्री श्यामा श्याम मे यह रसमयी वार्ता चल रही थी उसी समय वहां श्री ललिता जी पधारी । एकसाथ युगल की प्रेमपूर्ण दृष्टि ललिता जी पर पड़ी । ललिता जी ने कहा की आज आप दोनों बड़ी स्नेहभरी दृष्टि से मुझे निहार रहे है, इस दासी के लिए क्या आज्ञा है? 

युगल ने कहा - तुम एक अंश से पृथ्वी पर अवतार ग्रहण करो और महल टहल की प्राप्ति का अत्यंत दुर्लभ मार्ग खोलो । 

जन्म और दीक्षा -

वृंदावन से आधे कोस दूर राजपुर गांव मे सं १५३७ वि को इनका जन्म हुआ था । इनके पिता का नाम श्री गंगाधर और माता का नाम श्री चित्रा देवी था । इनका मन संसार मे बिल्कुल भी नही लगता था । श्री गुरुदेव आशुधीर जी सिद्ध महात्मा थे । उन्होंने बाल्यकाल मे ही स्वामी हरिदास जी के पिता को बता दिया था की यह बालक ललिता जी के अवतार है और समय आने पर यह भजन करने निकल पड़ेगा, तब इसको कोई रोकना टोकना नही। पिता ने एक दिन बालक हरिदास जी से अपने असली स्वरूप के दर्शन कराने का आग्रह किया । स्वामी हरिदास जी ने उनको साक्षात ललिता जी के रूप मे दर्शन देकर कृतार्थ किया था । २५ वर्ष की अवस्था मे एक विरक्त की भांति घर से निकल कर वृंदावन चले आये । वृंदावन के एक निम्बार्क सम्प्रदाय के संत श्री आशुधीर देवाचार्य जी से दीक्षा और विरक्त देश लेकर भजन करने लगे । 

श्री बांके बिहारी जी का प्राकट्य - 

श्री निधिवनराज को अपनी साधना स्थली बनायी और निरंतर श्री युगल की रस केली का आपने दर्शन किया । स्वामी जी जहां विराजते वही एक परम सुरम्य लता कुंज की ओर एकाग्र दृष्टि रखते थे । कभी उसकी ओर देखकर हसते थे, कभी भाव मे भरकर रोते थे, कभी लोट जाते । उसी लता कुंज की ओर देखकर राग भी गाते । उनके शिष्य श्री विट्ठल विपुल देव जी ने एक दिन पूछा की हे गुरुदेव ! इस विशेष कुंज की ओर आपकी दृष्टि सदा रखते है और भाव विह्फल होते है । 

क्या इस कुंज मे कोई विशेष बात है ? स्वामी जी ने उन्हे दिव्य दृष्टि प्रदान की । उन्होंने देखा की दिव्य रंग महल मे एक रूप होकर श्यामा श्याम कुसुम सेज पर रस विलास कर रहे है । उस रूप को देखकर विट्ठल विपुल देव जी भाव विह्फल हो गए । उन्होंने स्वामी जी से प्रार्थना की के इस स्वरूप का दर्शन हमे सर्वदा होता रहे । स्वामी जी ने गाकर श्यामा श्याम को पुकारा है और देखते देखते एक प्रकाश पुंज प्रकट हुआ जिसमें से श्री बांकेबिहारी का श्रीविग्रह बाहर आया । आज बांके बिहारी जी के मंदीर मे ईसी श्रीविग्रह का दर्शन होता है ।


श्री हरिदास, जै जै श्री कुँज बिहारिन लाल, 

शीतकालीन शयन स्तुत‍ि 


पौढ़ीं संग पिया के प्यारी ।

शीत सुहावनो तरुनि भावनो ,आयौ सुरति केलि सुखकारी ।।

सुखद अँगरखा तन कछु भरके , पाई भरक जुरैं तन न्यारी ।

भली अँगीठी उष्म अटा भई ,ओढ़ी सौर मदन मतवारी ।।

सेज सौर तप नवल नवेली , पौढ़े अंस अंस भुज डारी ।

कृष्ण चन्द्र राधा चरणदासि वर ,भाई शीत शयन बलिहारी ।।

प्रस्तुत‍ि: अलकनंदा स‍िंंह 

Wednesday, 1 January 2025

चंदू, मैंने सपना देखा, लाए हो तुम नया कलैंडर- नव वर्ष 2025 पर कव‍िवर नागार्जुन की कव‍िता


 आप सभी को नव वर्ष 2025 की हार्द‍िक शुभकामनायें इसीके साथ आज मैं कव‍िवर नागार्जुन की कव‍िता शेयर कर रही हूं- ''चंदू, मैंने सपना देखा, लाए हो तुम नया कलैंडर'' 


चंदू, मैंने सपना देखा, उछल रहे तुम ज्यों हिरनौटा

चंदू, मैंने सपना देखा, अमुआ से हूँ पटना लौटा


चंदू, मैंने सपना देखा, तुम्हें खोजते बद्री बाबू

चंदू, मैंने सपना देखा, खेल-कूद में हो बेक़ाबू


चंदू, मैंने सपना देखा, कल परसों ही छूट रहे हो

चंदू, मैंने सपना देखा, ख़ूब पतंगें लूट रहे हो


चंदू, मैंने सपना देखा, लाए हो तुम नया कलैंडर

चंदू, मैंने सपना देखा, तुम हो बाहर, मैं हूँ बाहर


चंदू, मैंने सपना देखा, अमुआ से पटना आए हो

चंदू, मैंने सपना देखा, मेरे लिए शहद लाए हो


चंदू, मैंने सपना देखा, फैल गया है सुयश तुम्हारा

चंदू, मैंने सपना देखा, तुम्हें जानता भारत सारा


चंदू, मैंने सपना देखा, तुम तो बहुत बड़े डॉक्टर हो

चंदू, मैंने सपना देखा, अपनी ड्यूटी में तत्पर हो


चंदू, मैंने सपना देखा, इम्तिहान में बैठे हो तुम

चंदू, मैंने सपना देखा, पुलिस-यान में बैठे हो तुम


चंदू, मैंने सपना देखा, तुम हो बाहर, मैं हूँ बाहर

चंदू, मैंने सपना देखा, लाए हो तुम नया कलैंडर।

प्रस्तुत‍ि : अलकनंदा स‍िंंह 


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