Tuesday, 31 December 2024

पढ़‍िए शायर जगन्नाथ आज़ाद की तीन गजलें.. ज‍िन्होंने ल‍िखा- नींद क्या है ज़रा सी देर की मौत

 


कि‍तनी गहरी बात है इन चंद लाइनों में .. 

''नींद क्या है ज़रा सी देर की मौत, मौत क्या है तमाम उम्र की नींद''


आज जानते हैं इन्हीं शायर जगन्नाथ आज़ाद के बारे में 

आज़ाद की पैदाइश 15 दिसम्बर 1918 को पंजाब स्थित ज़िला मियांवाली के ईसा ख़लील नामक गाँव में हुई. उन्होंने 1944 में पंजाब यूनिवर्सिटी लाहौर से एम.ए. और 1945 में एम.ओ. एल. की सनद हासिल की. उसके बाद वह उर्दू और अंग्रेज़ी के बाद वह उर्दू और अंग्रेज़ी के  कई अख़बारों व रिसालों से सम्बद्ध रहे. 1948 से 1955 तक सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के मासिक आजकल के सहायक सम्पादक भी रहे जहाँ उन दिनों जोश मलीहाबादी सम्पादक थे. 1955 में प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो में इनफार्मेशन ऑफिसर नियुक्त हुए .इसके अतिरिक्त विभिन्न मंत्रालयों में इनफार्मेशन सर्विस में सेवारत रहे. 1977 में डायरेक्टर पब्लिक रिलेशन ,प्रेस इनफार्मेशन (श्रीनगर) के पद से सेवानिवृत के बाद जम्मू यूनिवर्सिटी के उर्दू विभाग में प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष नियुक्त हुए. आनन्द नारायन मुल्ला के देहांत के बाद अंजुमन तरक्क़ी उर्दू के सद्र भी रहे . 2 जुलाई 2005 को नई दिल्ली में देहांत हुआ.

काव्य संग्रह: तिब्ल व इल्म (1948),बेकराँ (1949),सितारों से ज़र्रों तक (1951), वतन में अजनबी (1954) ,इन्तेखाबे कलाम (1957) , नवाए परेशां (1961), कहकशां (1961), बच्चों की नज़्में (1976), बच्चों के इक़बाल (1977), बुए रमीदा (1987), गहवाराए इल्म व हुनर (1988). आलोचना/ यात्रावृतांत व डायरी, तिलोकचन्द महरूम,इक़बाल और उसका अह्द, मेरे गुज़िश्ता शबो रोज़, इक़बाल और मग़रबी मुफ़क्किरिन, इक़बाल और कश्मीर, आँखें तरस्तियाँ हैं, फ़िक्रे इक़बाल के बाज़ अहम पहलू,निशाने मंज़िल, पुश्किन के देश में, कोलम्बस के देश में, हयाते महरूम, हिन्दुस्तान में इक़बालियात, जुनुबी हिन्द में नौ हफ़्ते, इक़बाल ज़िंदगी: शख्सियत और शायरी , मुरक्क़ा इक़बाल. 

जगन्नाथ जी की कुछ और गजलें... 

 

मुमकिन नहीं कि बज़्म-ए-तरब फिर सजा सकूँ


मुमकिन नहीं कि बज़्म-ए-तरब फिर सजा सकूँ

अब ये भी है बहुत कि तुम्हें याद आ सकूँ


ये क्या तिलिस्म है कि तिरी जल्वा-गाह से

नज़दीक आ सकूँ न कहीं दूर जा सकूँ


ज़ौक़-ए-निगाह और बहारों के दरमियाँ

पर्दे गिरे हैं वो कि न जिन को उठा सकूँ


किस तरह कर सकोगे बहारों को मुतमइन

अहल-ए-चमन जो मैं भी चमन में न आ सकूँ


तेरी हसीं फ़ज़ा में मिरे ऐ नए वतन

ऐसा भी है कोई जिसे अपना बना सकूँ


'आज़ाद' साज़-ए-दिल पे हैं रक़्साँ वो ज़मज़मे

ख़ुद सुन सकूँ मगर न किसी को सुना सकूँ


मुद्दत हो गई साज़-ए-मोहब्बत खोल दे अब ये राज़


मुद्दत हो गई साज़-ए-मोहब्बत खोल दे अब ये राज़

वो मेरी आवाज़ हैं बाँहों में उन की आवाज़


कितनी मनाज़िल तय कर आया मेरा शौक़-ए-नियाज़

ऐ नज़रों से छुपने वाले अब तो दे आवाज़


क्यूँ हर गाम पे मेरा दिल है सज्दों पे मजबूर

क्या नज़दीक कहीं है तेरी जल्वा-गाह-ए-नाज़


अस्ल में एक ही कैफ़िय्यत की दो तस्वीरें हैं

तेरा किब्र-ओ-नाज़ हो या हो मेरा जज़्ब-ए-नियाज़

नशे में हूँ मगर आलूदा-ए-शराब नहीं


नशे में हूँ मगर आलूदा-ए-शराब नहीं

ख़राब हूँ मगर इतना भी मैं ख़राब नहीं


कहीं भी हुस्न का चेहरा तह-ए-नक़ाब नहीं

ये अपना दीदा-ए-दिल है कि बे-हिजाब नहीं


वो इक बशर है कोई नूर-ए-आफ़ताब नहीं

मैं क्या करूँ कि मुझे देखने की ताब नहीं


ये जिस ने मेरी निगाहों में उँगलियाँ भर दीं

तो फिर ये क्या है अगर ये तिरा शबाब नहीं


मिरे सुरूर से अंदाजा-ए-शराब न कर

मिरा सुरूर ब-अंदाजा-ए-शराब नहीं

प्रस्तुत‍ि: अलकनंदा स‍िंंह 

Friday, 27 December 2024

युद्ध नहीं जिनके जीवन में वे भी बहुत अभागे होंगे- द‍िनकर


 हम दि‍न प्रत‍िद‍िन अपने अपने युद्धों को लड़ रह हैं..ऐसे में महाकव‍ि द‍िनकर की ये कव‍िता याद आती है..आप भी पढ़ें... 
  
दिनकर की कविताओं में ओज और पौरुष का स्वर है. उनके काव्य में देश की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक परिस्थितियों का समावेश है.

यह पंक्ति कवि रामधारी सिंह दिनकर की है. 


युद्ध नहीं जिनके जीवन में

वे भी बहुत अभागे होंगे
या तो प्रण को तोड़ा होगा
या फिर रण से भागे होंगे
दीपक का कुछ अर्थ नहीं है
जब तक तम से नहीं लड़ेगा
दिनकर नहीं प्रभा बाँटेगा
जब तक स्वयं नहीं धधकेगा

कभी दहकती ज्वाला के बिन
कुंदन भला बना है सोना
बिना घिसे मेहंदी ने बोलो
कब पाया है रंग सलौना
जीवन के पथ के राही को
क्षण भर भी विश्राम नहीं है
कौन भला स्वीकार करेगा
जीवन एक संग्राम नहीं है।।

अपना अपना युद्ध सभी को
हर युग में लड़ना पड़ता है
और समय के शिलालेख पर
खुद को खुद गढ़ना पड़ता है
सच की खातिर हरिश्चंद्र को
सकुटुम्ब बिक जाना पड़ता
और स्वयं काशी में जाकर
अपना मोल लगाना पड़ता

दासी बनकरके भरती है
पानी पटरानी पनघट में
और खड़ा सम्राट वचन के
कारण काशी के मरघट में
ये अनवरत लड़ा जाता है
होता युद्ध विराम नहीं है
कौन भला स्वीकार करेगा
जीवन एक संग्राम नहीं है।।

हर रिश्ते की कुछ कीमत है
जिसका मोल चुकाना पड़ता
और प्राण पण से जीवन का
हर अनुबंध निभाना पड़ता
सच ने मार्ग त्याग का देखा
झूठ रहा सुख का अभिलाषी
दशरथ मिटे वचन की खातिर
राम जिये होकर वनवासी

पावक पथ से गुजरीं सीता
रही समय की ऐसी इच्छा
देनी पड़ी नियति के कारण
सीता को भी अग्नि परीक्षा
वन को गईं पुनः वैदेही
निरपराध ही सुनो अकारण
जीतीं रहीं उम्रभर बनकर
त्याग और संघर्ष उदाहरण

लिए गर्भ में निज पुत्रों को
वन का कष्ट स्वयं ही झेला
खुद के बल पर लड़ा सिया ने
जीवन का संग्राम अकेला
धनुष तोड़ कर जो लाए थे
अब वो संग में राम नहीं है
कौन भला स्वीकार करेगा
जीवन एक संग्राम नहीं है।।

Friday, 20 December 2024

गगन गिल ने हिन्दी कविता को नया स्वर, नया आयाम दिया, साहित्य अकादेमी पुरस्कार 2024 से होंगी सम्मानित


 गगन गिल ने हिन्दी कविता को नया स्वर, नया आयाम दिया है। उन्हें साहित्य अकादेमी पुरस्कार दिया जाना उनके इस योगदान का रेखांकन है। इस पुरस्कार के लिए उनके चयन से हमें अत्यन्त प्रसन्नता है और हम उन्हें बधाई देते हैं। राजकमल प्रकाशन समूह के अध्यक्ष अशोक महेश्वरी ने हिन्दी की प्रतिष्ठित कवि गगन गिल को उनके कविता संग्रह ‘मैं जब तक आई बाहर’ के लिए वर्ष 2024 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किए जाने की घोषणा पर बयान जारी करते हुए यह बातें कही।

उन्होंने कहा, प्रकाशक और लेखक दोनों की यात्रा साझी होती है। गगन गिल की सभी कृतियाँ राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हैं। हमें खुशी है कि हम गगन गिल के साथ उनकी लेखन-यात्रा में साझीदार रहे हैं। उनकी पहली कृति ‘एक दिन लौटेगी लड़की’ 1989 में राजकमल प्रकाशन से ही प्रकाशित हुई थी, जिसने हिन्दी साहित्य जगत में व्यापक चर्चा पायी। उनको एक साहित्यकार के रूप में स्थापित करने में इस कविता संग्रह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

गगन गिल की रचनाएँ पाठक को अपने भीतर झाँकने के लिए प्रेरित करती हैं और उन्हें आत्म से साक्षात्कार कराती है। उन्होंने अपनी रचनात्मकता से एक नया साहित्यिक दृष्टिकोण देकर हिन्दी भाषा के साहित्य को समृद्ध किया है।

यह हमारे लिए गर्व और खुशी की बात है कि साहित्य अकादेमी के गगन गिल को पुरस्कृत करने के निर्णय से साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित हमारे लेखकों की सूची में एक और महत्वपूर्ण नाम जुड़ गया है। हम इसके लिए साहित्य अकादेमी को धन्यवाद देते हैं।

गगन गिल को इस महत्वपूर्ण उपलब्धि के लिए हम उन्हें एक बार फिर बधाई देते हैं और भविष्य में उनके साहित्यिक कार्यों का स्वागत करते हैं। हम आशा करते हैं कि उनका लेखन नई पीढ़ी के रचनाकारों के लिए के प्रेरणास्त्रोत बनेगा।

गगन गिल का परिचय

गगन गिल हिन्दी कविता-साहित्य का एक अनिवार्य नाम हैं। उनका जन्म 1959 में नई दिल्ली में हुआ था। 1983 में ‘एक दिन लौटेगी लड़की’ कविता-शृंखला के प्रकाशित होते ही उनकी कविताओं ने सबका ध्यान आकर्षित किया। तब से उनकी रचनाशीलता साहित्य के अध्येताओं, पाठकों और आलोचकों के विमर्श का हिस्सा रही है। अब तक पाँच कविता-संग्रह और चार गद्य कृतियाँ प्रकाशित। पत्रकारिता से भी नाता रहा। एशिया, यूरोप और अमेरिका के अनेक देशों की साहित्यिक यात्राएँ कर चुकी हैं। ‘भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार’ (1984), ‘संस्कृति सम्मान’ (1989), ‘केदार सम्मान’ (2000), ‘हिन्दी अकादमी साहित्यकार सम्मान’ (2008) और ‘द्विजदेव सम्मान’ (2010), साहित्य अकादेमी पुरस्कार (2024) से सम्मानित।

प्रकाशित कृतियाँ  

कविता संग्रह— एक दिन लौटेगी लड़की (1989), अँधेरे में बुद्ध (1996), यह आकांक्षा समय नहीं (1998), थपक थपक दिल थपक थपक (2003), मैं जब तक आई बाहर (2018), प्रतिनिधि कविताएँ (2023)

यात्रा वृत्तान्त— अवाक् (2008)

स्मृति आख्यान— दिल्ली में उनींदे (2000), इत्यादि (2019)

साहित्यिक निबन्ध— देह की मुँडेर पर तथा अन्य निबन्ध (2019),

अनुवाद-सम्पादन— जंगल में झील जागती : हरिभजन सिंह की प्रतिनिधि कविताएँ (1989), देवदूत की बजाय कुछ भी : ज़्बीग्निएव हेबैर्त की कविताएँ (2022), तेजस्विनी : अक्क महादेवी के वचन (2023)
- Legend News

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