Sunday 30 June 2024

मथुरा के चतुर्वेद समाज का अखाड़ा संगीत: अपनी ख़ुशी को सार्वजानिक बनाने का एक विलक्षण संगीत समारोह


 मथुरा जनपद की जनसंख्या में चतुर्वेदी समाज की उपस्थिति कम भले ही हो लेकिन ब्रज की सभ्यता, संस्कृति, इतिहास, संगीत, साहित्य में इस समाज के योगदान और इनकी विलक्षण जीवन शैली देश-दुनिया के समाज वैज्ञानिकों का ध्यान अपनी ओर खींचती रही है।  


चार दशक पूर्व अमेरिका के एक विश्व विद्यालय से प्रो ० लिंच मथुरा के चतुर्वेदी समाज का अध्ययन करने मथुरा आये थे, ढाई वर्ष चौब‍िया पाड़े में रहे और फिर एक पुस्तक लिखी थी। 


मुझे यहां ब्याहे हुए 33 साल हो चुके हैं, मथुरा के चतुर्वेदी विद्वानों की शागिर्दी और इनके जीवन जीने के अंदाज़ आमजन से बहुत हटकर है, ज‍ितना भी जानो तब भी इस समाज का कोई न कोई रीति रिवाज अपने नए रूप में हमारे सामने आ जाता है।  


पिछले दिनों डॉ. हरिवंश चतुर्वेदी ने अपने नाती के मुंडन के शुभ अवसर पर आयोजित एक संगीत कार्यक्रम में काफी चर्चा में रहा।  


बेहद निजी -पारिवारिक कार्यक्रम में एक दर्जन संगीतकार तीन चार वाद्य  यंत्रों की संगत पर  मुक्तकण्ठ से गा रहे थे और बीच- बीच में ठुमके भी लगा रहे थे। परिवार की महिलायें, पुरुष, बच्चे सभी गले की पूरी वर्जिश के साथ निकले स्वरों पर झूम झूम रहे थे। इस संगीत टोली का नेतृत्व  प्रसिद्ध संगीतकार लव, कुश चतुर्वेदी कर रहे थे। सभी जानते हैं जुड़वां भाई लव, कुश शस्त्रीय संगीत में बड़े हस्ताक्षर हैं। 


एक परिवार में जन्में शिशु के आगमन पर फ़िल्मी नहीं बल्कि शास्त्रीय संगीत की धूम देख विस्मित करता हुआ यह संगीत समारोह चतुर्वेदी समाज में करीब दो सौ साल से बच्चे के जन्म पर खुशियां मनाने का एक रिवाज है।    


इस संस्कृति का सबसे शानदार पहलू है होली के बाद एक सप्ताह तक चलने वाला अखाड़ा संगीत। अखाड़ा संगीत को ‘चौपाई’कहते हैं। मथुरा में जैसे पहलवानों के अखाड़े होते थे उसी प्रकार संगीत के अनेक अखाड़े थे, अब सिर्फ गोविंद गढ़ अखड़ा और उसकी  गायकों की टीम ही शेष है।   


चौबिया पाड़े में एक बालक के जन्म की ख़ुशी में जो भी परिवार इस टोली को आमंत्रित करता है, गोविंद गढ़ अखाड़ा के संगीतकारों की यह मदमस्त टोली  उसके दरवाज़े पर जाकर एक स्थान पर खड़े होकर गाते, बजाते हैं। संकरी गलियों में बसे चौबिया पाड़े में एक दर्जन कंठों ने निकले मधुर स्वर जब आसपास के दर्जनों मकानों से टकराते हैं तो  महिला-पुरुष अपने घर -गृहस्थी की काम काज छोड़कर मकानों की खिड़ियों से झांककर इस 'स्ट्रीट संगीत ' का भरपूर आनंद लेते हैं।  


इस संगीत में कोई स्टेज नहीं बनती। गीत की एक बानगी देखिये ----


वदरा मतवारे ,

मत जा रूक जा सुन जा घन कारे ,

नैना बरसे त्यौं वरसियो 

ब्रज वासिन की गरज अरज कहियौ 

https://www.facebook.com/Abhinewsindia/videos/971764077817090

https://www.facebook.com/watch/?v=291824372462366


छोटे छोटे स्वरचित गीतों का यह आयोजन एक घंटा चलता है। गली में जाने वाले राहगीर के कदम ठहर जाते हैं। साहित्यकार डॉ. राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी ने बताया " यह तान साहित्य है, इसे सुनने के लिए भारतेंदु हरिश्चंद्र जी आए थे। उन्होंने उस समय बुदौआ अखाड़े को सुना था। फिर भारतेंदु जी ने स्वयं भी कुछ तान बनाई थी।"


इस टीम का सबसे शानदार पक्ष है ब्रजभाषा और ब्रज के गीत का शास्त्रीय और अर्द्ध-शास्त्रीय रुप। नगाड़ा, ढोलक और मंजीरा इन तीन वाद्य यंत्रों का कलात्मक-प्रयोग देख मुझ जैसा अज्ञानी दर्शक भी हैरत में पड़ जाता है।  


डॉ. जगदीश्वर चतुर्वेदी का कहना है-''अखाड़ा संगीत की गायन मंडली पैसे के लिए दूसरों की ख़ुशी में शामिल नहीं होती,बल्कि इसकी रुचि है ब्रज संगीत-गीत की मौलिक सृजन परंपरा को बनाए और बचाए रखने की। यह काम ये लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी करते आ रहे हैं जिसके दरवाज़े पर जाकर संगीत संध्या पेश करते हैं वह अपनी ख़ुशी से जो भी राशि भेंट कर देता है ले लेते हैं । यह राशि अखाड़े की व्यवस्था में खर्च की जाती है न कि संगीतकारों को पारिश्रमिक बतौर दी जाती है। ''


मेरे लिए अखाड़ा संगीत पुराने ज़माने का ‘स्ट्रीट म्यूज़िक’है। इसके कलाकारों को आमतौर पर मीडिया में कोई ख़ास कवरेज नहीं मिलता।    चौपाई परंपरा अपनी अंतिम साँसें ले रही है।अधिकतर अखाड़े ख़त्म हो गए हैं।  मेरे मन में एक सवाल गूँज रहा है-'क्या चतुर्वेदी समाज का अखाड़ा संगीत ब्रज संस्कृति का हिस्सा नहीं माना जाना चाहिए, क्या इस छोटी सी कौम की प्यारी ,मनमोहक संस्कृति की विरासत की हिफाजद नहीं किया जाना जरूरी है ?' 


प्रदेश सरकार ने 'उत्तर प्रदेश ब्रज तीर्थ विकास परिषद् ' का गठन किया है।  परिषद् को चाहिए कि चतुर्वेदी समाज के इस अखाड़ा संगीत (‘स्ट्रीट म्यूज़िक’)को व्यापक अर्थों में पारिभाषित कर संरक्षित करे। बचे खुचे एक अखाड़े को आर्थिक मदद देकर प्राचीन संगीत परम्परा को समृध्द करे।  

 संगीत का यह आयोजन हमारा मनोरंजन ही नहीं करता बल्कि एक निजी ख़ुशी को सार्वजनिक ख़ुशी में तब्दील करने का इससे बड़ा उदात्त उदाहरण और क्या हो सकता है ?     


2 comments:

  1. मथुरा के चतुर्वेदी समाज की शास्त्रीय संगीत के प्रति रुचि के बारे में सुंदर जानकारी, इस प्राचीन परंपरा को हर हाल में संरक्षित किया जाना चाहिए

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