Tuesday, 2 May 2023

फ़ना बुलंदशहरी की 'मेरे रश्क-ए-क़मर' का हिंदी में अर्थ


 हिंदी में रश्क़े-क़मर का क्या अर्थ है? ये सवाल "फ़ना बुलंदशहरी" द्वारा लिखित इस ग़ज़ल से प्रेरित है। 

मेरे रश्के कमर तू ने पहली नज़र जब नज़र से मिलायी मज़ा आ गया।
बर्क़ सी गिर गयी काम ही कर गयी आग ऐसी लगायी मज़ा आ गया।।

आमतौर पे लोग इसे नाभि के पास का कमर समझते हैं । पर ऐसा नहीं है। दोनों के ‘क’ में फ़र्क़ है ।

कमर کمر : शरीर का अंग । इसमें ये क है ک

क़मर قمر : चाँद । इसमें ये क अलग है ق बिंदी/ नुक़्ता वाला

तो रश्के क़मर का अर्थ हुआ जिससे चाँद को भी जलन होने लगे।


दरअसल ये अरबी शब्द है। अरबी में सूरज को शम्स कहते हैं और चाँद को क़मर । हमलोग जो मेहताब जानते हैं वो फारसी से है । इनका फ़र्क़ यहाँ देखें- 

हिंदी सूरज चाँद
फ़ारसी आफताब माहताब
अरबी शम्स क़मर
अंग्रेज़ी सन मून

शम्स और क़मर दोनों को ‘मीर’ के इस शेर में देखें

फूल गुल शम्स ओ क़मर सारे ही थे
पर हमें उन में तुम्हीं भाए बहुत

अर्थात, फूल , गुल , सूरज , चाँद सारे थे - जिन्हें सौंदर्य का प्रतीक माना जाता है, सुन्दरता का पैमाना माना जाता है, पर दुनिया के सर्वोत्कृष्ट सौंदर्य के रहते हुए भी - मुझे तुम्ही बहुत भाए।

अरबी, फ़ारसी, उर्दू, हिंदी कितनी अच्छी भाषाएं हैं, पर हम सब अंग्रेजी के गुलाम हो कर रह गए है, जिसमे न किसी की कोई पहचान है और न ही तहजीब। जितनी खूबसूरती से ईन भाषाओं में बात कर सकते हैं वो अंग्रेजी में मुमकिन नहीं बल्कि कई तो ऐसे भी शब्द या आवाजें हैं जो अंग्रेजी में हैं ही नहीं।


बहरहाल  यहां पढ़िए पूरी ग़ज़ल - 

मेरे रश्क-ए-क़मर तू ने पहली नज़र जब नज़र से मिलाई मज़ा आ गया 

बर्क़ सी गिर गई काम ही कर गई आग ऐसी लगाई मज़ा आ गया 

जाम में घोल कर हुस्न की मस्तियाँ चाँदनी मुस्कुराई मज़ा आ गया 

चाँद के साए में ऐ मिरे साक़िया तू ने ऐसी पिलाई मज़ा आ गया 

नश्शा शीशे में अंगड़ाई लेने लगा बज़्म-ए-रिंदाँ में साग़र खनकने लगा 

मय-कदे पे बरसने लगीं मस्तियाँ जब घटा घिर के आई मज़ा आ गया 

बे-हिजाबाना वो सामने आ गए और जवानी जवानी से टकरा गई 

आँख उन की लड़ी यूँ मिरी आँख से देख कर ये लड़ाई मज़ा आ गया 

आँख में थी हया हर मुलाक़ात पर सुर्ख़ आरिज़ हुए वस्ल की बात पर 

उस ने शर्मा के मेरे सवालात पे ऐसे गर्दन झुकाई मज़ा आ गया 

शेख़-साहब का ईमान बिक ही गया देख कर हुस्न-ए-साक़ी पिघल ही गया 

आज से पहले ये कितने मग़रूर थे लुट गई पारसाई मज़ा आ गया 

ऐ 'फ़ना' शुक्र है आज बाद-ए-फ़ना उस ने रख ली मिरे प्यार कि आबरू 

अपने हाथों से उस ने मिरी क़ब्र पे चादर-ए-गुल चढ़ाई मज़ा आ गया ।

9 comments:

  1. थोड़ा खुली दिमाग की खिड़की की झिर्रि| आभार |

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    1. धन्‍यवाद जोशी जी

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  2. वाकई में दिमाग की खिड़की खोल दी। इतनी गहराई तक जाने का कभी प्रयास ही नहीं किया।
    बहुत खूब।

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  3. शुक्रिया रूपा जी

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  4. बहुत सुंदर व्याख्या।

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  5. अरे वाह!!!
    बहुत ज्ञानवर्धक..
    लाजवाब।

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  6. बहुत ज्ञानवर्धक पोस्ट।हार्दिक आभार।

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  7. बहुत खूब!
    अच्छी जानकारी दी है।

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