Wednesday 11 March 2020

जन्मद‍िन व‍िशेष: कानों में इश्क घोल देती हैं हस्‍तीमल हस्‍ती की गज़लें

जिनकी गज़ल ‘प्यार का पहला खत लिखने में वक्त तो लगता है’ को जगजीत सिंह जैसे दिग्‍गज गायक ने अपनी आवाज दी, उन हस्तीमल ‘हस्ती’ का जन्‍म 11 मार्च 1946 को हुआ था।
हस्तीमल ‘हस्ती’ प्रेम गीतों के वो उम्दा गीतकार हैं, जिनकी गजलें धीरे से कानों में इश्क को इस कदर घोल देती हैं कि उनका असर लंबे समय तक रहता है।
हस्तीमल ‘हस्ती’ की कुछ अन्‍य चुनिंदा गजलें हैं-
ये मुमकिन है कि मिल जाएँ तेरी खोई हुई चीज़ें
क़रीने से सजा कर रखा ज़रा बिखरी हुई चीज़ें
कभी यूँ भी हुआ है हँसते हँसते तोड़ दी हमने
हमें मालूम था जुड़ती नहीं टूटी हुई चीज़ें
ज़माने के लिए जो हैं बड़ी नायाब और महँगी
हमारे दिल से सब की सब हैं वो उतरी हुई चीज़ें
दिखाती हैं हमें मजबूरियाँ ऐसे भी दिल अक्सर
उठानी पड़ती हैं फिर से हमें फेंकी हुई चीज़ें
किसी महफ़िल में जब इंसानियत का नाम आया है
हमें याद आ गई बाज़ार में बिकती हुई चीज़ें
बैठते जब हैं खिलौने वो बनाने के लिए
उनसे बन जाते हैं हथियार ये क़िस्सा क्या है
वो जो क़िस्से में था शामिल वही कहता है मुझे
मुझको मालूम नहीं यार ये क़िस्सा क्या है
तेरी बीनाई किसी दिन छीन लेगा देखना
देर तक रहना तिरा ये आइनों के दरमियाँ
शीशे के मुक़द्दर में बदल क्यूँ नहीं होता
इन पत्थरों की आँख में जल क्यूँ नहीं होता
क़ुदरत के उसूलों में बदल क्यूँ नहीं होता
जो आज हुआ है वही कल क्यूँ नहीं होता
हर झील में पानी है हर इक झील में लहरें
फिर सब के मुक़द्दर में कँवल क्यूँ नहीं होता
जब उस ने ही दुनिया का ये दीवान रचा है
हर आदमी प्यारी सी ग़ज़ल क्यूँ नहीं होता
हर बार न मिलने की क़सम खा के मिले हम
अपने ही इरादों पे अमल क्यूँ नहीं होता
हर गाँव में मुम्ताज़ जनम क्यूँ नहीं लेती
हर मोड़ पे इक ताज-महल क्यूँ नहीं होता.

सच कहना और पत्थर खाना पहले भी था आज भी है

सच कहना और पत्थर खाना पहले भी था आज भी है
बन के मसीहा जान गँवाना पहले भी था और आज भी है

दफ़्न हज़ारों ज़ख़्म जहाँ पर दबे हुए हैं राज़ कई
दिल के भीतर वो तहखाना पहले भी था आज भी है

जिस पंछी की परवाज़ों में दिल की लगन भी शामिल हो
उसकी ख़ातिर आबोदाना पहले भी था आज भी है

कतना, बुनना, रँगना, सिलना, फटना, फिर कतना-बुनना
जीवन का ये पा पुराना पहले भी था आज भी है

बदल गया है हर इक किस्साफ़ानी दुनिया का लेकिन
मेरी कहानी तेरा फ़साना पहले भी था आज भी है.

उस जगह सरहदें नहीं होतीं

उस जगह सरहदें नहीं होतीं
जिस जगह ऩफरतें नहीं होतीं

उसका साया घना नहीं होता
जिसकी गहरी जड़ें नहीं होतीं

बस्तियों में रहें कि जंगल में
किस जगह उलझनें नहीं होतीं

मुँह पे कुछ और पीठ पे कुछ और
हमसे ये हरकतें नहीं होतीं

रास्ते उस तऱफ भी जाते हैं
जिस तऱफ मंज़िलें नहीं होतीं

4 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 12.03.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3638 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की गरिमा बढ़ाएगी

    धन्यवाद

    दिलबागसिंह विर्क

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    Replies
    1. धन्यवाद द‍िलबाग जी

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  2. पढ़कर आनन्द आ गया ,बहुत ही खूबसूरत गजलें ,क्या इन रचनाओं का संग्रह मुझे मिल सकता है,हृदय से आभारी हूँ आपकी

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी ज्योत‍ि जी धन्यवाद, मैं आपको ल‍िंंक दे रही हूं, आप इन्हीं की अन्य रचनायें इसे क्ल‍िक करके वहां पढ़ सकती हैं। पुन: धन्यवाद
      http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%B9%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%AE%E0%A4%B2_%27%E0%A4%B9%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%80%27

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