Wednesday, 26 February 2014

अवाक्.. पृथ्‍वी !

अवाक्.. पृथ्‍वी !
तुमने अवाक् कर दिया
पता नहीं पांव के नीचे से
ज़मीन कहां गई
जिस ज़मीन पर पड़ते हैं पांव
वही खिसक जाती है आगे
और आगे की ओर
खोने का यह कौन सा क्रम है
जिसे 'मुझसे' इतना प्रेम है
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दरवाजे...खिड़कियों पर...मकड़ा
विषैला मकड़ा
जाल फैलाकर
मेरे उस चित्र को
ढके दे रहा है,जो
बना रहा था ज़िंदगी किसी की
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- अलकनंदा सिंह

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