Thursday, 27 March 2025

#ShortStory: ट्रेन टॉयलेट में ल‍िखा नंबर


जैसे ही मैंने नंबर देखा, मैंने उस फोन नंबर पर बात करने के लिए फोन उठाया...


फोन करते समय मुझे नहीं पता था कि वह लड़की है या महिला... लेकिन मुझे इतना जरूर पता था कि ट्रेनों में इस तरह लिखे गए फोन नंबर आमतौर पर महिलाओं के ही होते हैं, किसी लड़के या पुरुष के नहीं...


दूसरी तरफ से आवाज आई और पूछा- कौन है... आवाज बहुत घबराई हुई थी, दरअसल मैंने ट्रेन-टॉयलेट के दरवाजे के पीछे लिखे नंबर पर कॉल किया और पूछा- क्या आप रेणु जी बोल रही हैं.. 


उधर से डरी हुई आवाज में जवाब आया, "हाँ, लेकिन आप कौन हैं और आपको मेरा नंबर कहाँ से मिला?"


"दरअसल वो ट्रेन,,,,मेरा मतलब है क‍ि उस ट्रेन के डिब्बे में किसी ने तुम्हारा नंबर तुम्हारे नाम के साथ लिख दिया है, हो सकता है वो तुम्हारा अच्छा दुश्मन हो या बुरा दोस्त, जो भी हो, मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि हो सके तो ये नंबर बदलवा लो या फिर अच्छे जवाब के साथ तैयार रहो, वैसे अब तक जो भी कॉल आए हैं, आ गए हैं,,,, आज के बाद कोई नहीं आएगा क्योंकि मैंने ये नंबर ट्रेन के टॉयलेट से डिलीट कर दिया है।


रेणु जी, अब मैं फोन रखता हूँ, कृपया अपना ख्याल रखना।"


फिर उसने मुझसे कहा कि मैं नए अनजान नंबरों और उन पर गंदी और अश्लील बातों की वजह से बहुत परेशान थी, तुम जो भी हो, तुमने मेरी बहुत मदद की है क्योंकि मैं समझ नहीं पा रही थी कि ऐसे कॉल क्यों आ रहे हैं।


रेनू जी को फोन करने के उस कदम ने मुझे कुछ 'अच्छा' करने के ल‍िए 

नई दिशा दे दी और एक मुह‍िम मानकर मैंने सार्वजनिक जगहों पर लिखे ऐसे नंबर मिटाने शुरू कर दिए, ताकि कम से कम किसी की जान तो बच सके।


मैं मानता हूँ कि हम किसी बुराई की वजह नहीं हैं लेकिन हम किसी अच्छाई की वजह ज़रूर बन सकते हैं। मैं आप सभी से अनुरोध करता हूँ कि अगर आपको कहीं भी ऐसे नंबर और नाम दिखें तो उन्हें तुरंत डिलीट कर दें ताकि आप किसी की बहन-बेटियों को अनजान खतरों से बचा सकें।


अगर लाखों लोग एक साथ मिलकर किसी एक व्यक्ति का साथ दें तो हालात जल्दी बदलने लगेंगे।


बाय- स्टूडेंट ऑफ सोशल कॉज


Saturday, 22 March 2025

हिंदी के प्रसिद्ध कवि विनोद कुमार शुक्ल को मिलेगा इस साल का ज्ञानपीठ पुरस्कार


 हिंदी के प्रसिद्ध कवि और लेखक विनोद कुमार शुक्ल को इस साल का सबसे बड़ा साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलेगा. इस बारे में आज नई दिल्ली में घोषणा की गई. बता दें कि विनोद कुमार शुक्ल रायपुर में रहते हैं और उनका जन्म 1 जनवरी 1937 को राजनांदगांव में हुआ था. वे पिछले 50 सालों से लिख रहे हैं. उनका पहला कविता संग्रह "लगभग जयहिंद" 1971 में प्रकाशित हुआ था, और तभी से उनकी लेखनी ने साहित्य जगत में अपना स्थान बना लिया था.

उनके उपन्यास जैसे नौकर की कमीज,  खिलेगा तो देखेंगे और दीवार में एक खिड़की रहती थी हिंदी के सबसे बेहतरीन उपन्यासों में माने जाते हैं. साथ ही... उनकी कहानियों का संग्रह पेड़ पर कमरा  और महाविद्यालय  भी बहुत चर्चा में रहा है.

विनोद कुमार शुक्ल ने बच्चों के लिए भी किताबें लिखी हैं... जिनमें हरे पत्ते के रंग की पतरंगी और कहीं खो गया नाम का लड़का जैसी किताबें शामिल हैं, जिन्हें बच्चों ने बहुत पसंद किया है. उनकी किताबों का अनुवाद कई भाषाओं में हो चुका है और उनका साहित्य दुनिया भर में पढ़ा जाता है.

विनोद कुमार शुक्ल को उनके लेखन के लिए कई पुरस्कार मिल चुके हैं.... जैसे गजानन माधव मुक्तिबोध फेलोशिप, रजा पुरस्कार, और साहित्य अकादमी पुरस्कार (उनके उपन्यास दीवार में एक खिड़की रहती थी के लिए). इसके अलावा, उन्हें मातृभूमि बुक ऑफ द ईयर अवार्ड और पेन अमरीका नाबोकॉव अवार्ड भी मिल चुका है. मालूम हो की वे एशिया के पहले साहित्यकार हैं जिन्हें ये पुरस्कार मिला. उनके उपन्यास नौकर की कमीज  पर मशहूर फिल्मकार मणिकौल ने एक फिल्म भी बनाई थी.

- अलकनंदा स‍िंंह 

Wednesday, 5 March 2025

होरी रे रस‍िया.... वृन्दावन सा कहीं आनन्द नहीं पाओगे।


 एक बार अयोध्या जाओ, दो बार द्वारिका, तीन बार जाके त्रिवेणी में नहाओगे। 

चार बार चित्रकूट, नौ बार नासिक, बार-बार जाके बद्रीनाथ घूम आओगे॥


कोटि बार काशी, केदारनाथ, रामेश्वर, गया-जगन्नाथ, चाहे जहाँ जाओगे। 

होंगे प्रत्यक्ष जहाँ दर्शन श्याम-श्यामा के, वृन्दावन सा कहीं आनन्द नहीं पाओगे॥ 


प्रिया लाल राजे जहाँ, तहाँ वृन्दावन जान,

वृन्दावन तज एक पग, जाए ना रसिक सुजान ॥

जो सुख वृंदाविपिन में, अंत कहु सो नाय,

बैकुंठहु फीको पड्यो, ब्रज जुवती ललचाए ॥


वृंदावन रस भूमि में, रस सागर लहराए,

श्री हरिदासी लाड़ सो, बरसत रंग अघाय ॥


मोर जो बनाओ तो, बनाओ श्री वृंदावन को,

नाच नाच घूम घूम, तुम्ही को रिझाऊं मैं ।

बंदर बनाओ तो, बनाओ श्री निधिवन को,

कूद कूद फांद वृक्ष, जोरन दिखाऊं मैं  ॥


भिक्षुक बनाओ तो, बनाओ ब्रज मंडल को,

टूक हरि भक्तन सों, मांग मांग खाउँ मैं । 


भृंगी जो करो तो करो, कालिन्दी के तीर मोहे,

आठों याम श्यामा श्याम, श्यामा श्याम गाउं मैं ॥

।।जय जय श्रीवृंदावन धाम॥

Sunday, 2 February 2025

आज पढ़‍िये हंसराज रहबर की रचनायें... उसका भरोसा क्या यारों, वो शब्दों का व्यापारी है



 उसका भरोसा क्या यारों, वो शब्दों का व्यापारी है,

क्यों मुँह का मीठा वो न हो, जब पेशा ही बटमारी है।

रूप कोई भी धर लेता है पाँचों घी में रखने को,

तू इसको होशियारी कहता, लोग कहें अय्यारी है।

जनता को जो भीड़ बताते मँझधार में डूबेंगे,

काग़ज़ की है नैया, उनकी शोहरत भी अख़बारी है।

सुनकर चुप हो जाने वाले बात की तह तक पहुँचे हैं,

कौवे को कौवा नहीं कहते, यह उनकी लाचारी है।

पेड़ के पत्ते गिनने वालो तुम 'रहबर' को क्या जानो,

कपड़ा-लत्ता जैसा भी हो, बात तो उसकी भारी है।

(रचनाकाल : 11 अप्रैल 1976, तिहाड़ जेल)


किस कदर गर्म है हवा देखो

किस कदर गर्म है हवा देखो,

जिस्म मौसम का तप रहा देखो ।

बदगुमानी-सी बदगुमानी है,

पास होकर भी फ़ासला देखो ।

वे जो उजले लिबास वाले हैं,

उनकी आँखों में अज़दहा (अजगर) देखो ।

हो अंधेरा सफ़र, सफ़र ठहरा,

ले के चलते हैं हम दिया देखो ।

खेलता है जो मौत से होली,

क्या करेगा वो मनचला देखो ।

अम्न ही अम्न सुन लिया, लेकिन,

मक़तलों का भी सिलसिला देखो ।

इस ज़माने में जी लिया 'रहबर'

मर्दे-मोमिन (साहसी पुरुष) का हौसला देखो ।

(रचनाकाल : 01 मई 1980, दिल्ली)


चाँदनी रात है जवानी भी 

चाँदनी रात है जवानी भी,

कैफ़ परवर भी और सुहानी भी ।

हल्का-हल्का सरूर रहता है,

ऐश है ऐश ज़िन्दगानी भी ।

दिल किसी का हुआ, कोई दिल का,

मुख्तसर-सी है यह कहानी भी ।

दिल में उलफ़त, निगाह में शिकवे

लुत्फ़ देती है बदगुमानी भी ।

बारहा बैठकर सुना चुपचाप,

एक नग़मा है बेज़बानी भी ।

बुत-परस्ती की जो नहीं कायल

क्या जवानी है वो जवानी भी ।

इश्क़ बदनाम क्यों हुआ 'रहबर

कोई सुनता नहीं कहानी भी ।

(रचनाकाल : 15 नवम्बर 1941, सेंट्रल जेल, संगरूर)


तबीयत में न जाने ख़ाम

बढ़ाता है तमन्ना आदमी आहिस्ता आहिस्ता,

गुज़र जाती है सारी ज़िंदगी आहिस्ता आहिस्ता ।

अज़ल से सिलसिला ऐसा है ग़ुंचे फूल बनते हैं,

चटकती है चमन की हर कली आहिस्ता आहिस्ता ।

बहार-ए-ज़िंदगानी परख़ज़ाँ चुपचाप आती है,

हमें महसूस होती है कमी आहिस्ता आहिस्ता ।

सफ़र में बिजलियाँ हैं, आंधियाँ हैं और तूफ़ाँ हैं,

गुज़र जाता है उनसे आदमी आहिस्ता आहिस्ता ।

हो कितनी शिद्दते-ए-ग़म वक़्त आख़िर पोंछ देता है,

हमारे दीदा-ए-तर (भीगी हुई आँख) की नमी आहिस्ता आहिस्ता ।

परेशाँ किसलिए होता है ऐ दिल बात रख अपनी

गुज़र जाती है अच्छी या बुरी आहिस्ता आहिस्ता ।

तबियत में न जाने खाम ऐसी कौन सी शै है,

कि होती है मयस्सर पुख़्तगी आहिस्ता आहिस्ता ।

इरादों में बुलंदी हो तो नाकामी का ग़म अच्छा,

कि पड़ जाती है फीकी हर ख़ुशी आहिस्ता आहिस्ता ।

छुपाएगी हक़ीक़त को नमूद-ए-जाहिरी(ऊपरी दिखावा, बनावट) कब तक,

उभरती है शफ़क (उषा, लालिमा) से रोशनी आहिस्ता आहिस्ता ।

ये दुनिया ढूँढ़ लेती है निगाहें तेज़ हैं इसकी

तू कर पैदा हुनर में आज़री(आजर इंसान का प्रसिद्ध मूर्तिकार था,यानी कला में पराकाष्ठा) आहिस्ता आहिस्ता ।

तख़य्युल (कल्पना) में बुलन्दी और ज़बाँ में सादगी 'रहबर'

निखर आई है तेरी शायरी आहिस्ता आहिस्ता ।

(रचनाकाल : 16 नवम्बर 1941, सेंट्रल जेल, संगरूर)


हंसराज रहबर: एक पर‍िचय 

9 मार्च 1913 को जन्मे हंसराज रहबर हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। बंद गली, भ्रांति पथ और दिशाहीन इनकी चर्चित रचना है। 

उनका जन्म हरिआऊ संगवां (पूर्व रियासत पटियाला) ज़िला सुनाम में हुआ। आर्य हाई स्कूल, लुधियाना से मैट्रिक करने के बाद डी.ए.वी. कालेज, लाहौर से बी.ए. का इम्तिहान पास किया। देश के विभाजन के बाद प्राईवेट तौर पर इतिहास में एम.ए. की डिग्री प्राप्त की। स्कूल में पढ़ते हुए उनको उर्दू में शेयर कहने का शौक जागा। तब वह अर्श मलसियानी के शागिर्द बन गए । वह 1942 में हिंदी रोज़ाना 'मिलाप ' के संपादकीय मंडल में शामिल हो गए, परन्तु कुछ महीनों बाद गिरफ़्तारी के कारन यह सिलसिला टूट गया। 

वह साहित्य के साथ-साथ राजनीति में भी गहरी रुचि लेने लगे और कई बार जेल गए। उनके बीस उपन्यास, दस कहानी-संग्रह और समीक्षा व आलोचना की सत्रह पुस्तकें प्रकाशित हुईं।

उनका निधन: 23 जुलाई 1994 को हो गया। 

उनकी मुख्य कृतियाँ हैं; कहानी संग्रह: नव क्षितिज, हम लोग, झूठ की मुस्कान, वर्षगाँठ; उपन्यास : हाथ में हाथ, दिशाहीन, उन्माद, बिना रीढ़ का आदमी, पंखहीन तितली, बोले सो निहाल; आलोचना : प्रेमचंद : जीवन, कला और कृतित्व, प्रगतिवाद : पुनर्मूल्यांकन, गालिब बेनकाब, गालिब हकीकत के आईने में, इकबाल और उनकी शायरी अन्य : गांधी बेनकाब, नेहरू बेनकाब, भगत सिंह एक ज्वलंत इतिहास, योद्धा संन्यासी विवेकानंद, राष्ट्र नायक गुरु गोविंद अनुवाद : तुर्गनेव, बालजाक, लू शुन, हाली, जोश मलीहाबादी, इकबाल तथा कई अन्य प्रमुख लेखकों की रचनाओं का अनुवाद । उनकी रचना एहसास (ग़ज़लों और नज़्मों का संग्रह) २००4 में प्रकाशित हुई ।

- अलकनंदा स‍िंंह 

Saturday, 4 January 2025

श्री हरिदास, जै जै श्री कुँज बिहारिन लाल

 



एक दिन ठाकुर जी अत्यंत प्रसन्न होकर मुस्कुरा रहे थे । श्री प्रिया जी ने पूछा की प्रियतम क्या बात है जो आप अकेले अकेले मुस्कुरा रहे है ? ठाकुर जी बोले नारद जी ने कलयुग मे कप प्रतिज्ञा की थी वह पूरी होते हुए दिखाई दे रही है । नारद जी ने प्रतिज्ञा की थी की मै विविध उत्सवों के माध्यम से (रामनवमी, झूलन उत्सव, चंदन लेपन, अन्नकूट महोत्सव आदी) कलयुग में घर घर मे भक्ति की स्थापना करुंगा । यदि मैने ऐसा नही किया तो मै श्रीहरि का दास नही । इस कराल कलिकाल मे भी कितने जीव तीव्र गति से मेरे चरणों तक पहुंच रहे है । प्रिया जी ने कहा - आप तक पहुंचने का रास्ता तो आपने खोल दिया है । 

यदि कोई जीव सखी सहचरी बनकर निज महल की सेवा प्राप्त करना चाहे, उस मार्ग को तो आपने खोला ही नही । उसको आपने गुप्त ही रखा है । ठाकुर जी ने कहा की यह रस तो आपकी सहचरियों की कृपा करुणा के आधीन है । सहचरी अनुग्रह न करे तो मुझे भी श्रीमहल की टहल दुर्लभ है । 

जब श्री श्यामा श्याम मे यह रसमयी वार्ता चल रही थी उसी समय वहां श्री ललिता जी पधारी । एकसाथ युगल की प्रेमपूर्ण दृष्टि ललिता जी पर पड़ी । ललिता जी ने कहा की आज आप दोनों बड़ी स्नेहभरी दृष्टि से मुझे निहार रहे है, इस दासी के लिए क्या आज्ञा है? 

युगल ने कहा - तुम एक अंश से पृथ्वी पर अवतार ग्रहण करो और महल टहल की प्राप्ति का अत्यंत दुर्लभ मार्ग खोलो । 

जन्म और दीक्षा -

वृंदावन से आधे कोस दूर राजपुर गांव मे सं १५३७ वि को इनका जन्म हुआ था । इनके पिता का नाम श्री गंगाधर और माता का नाम श्री चित्रा देवी था । इनका मन संसार मे बिल्कुल भी नही लगता था । श्री गुरुदेव आशुधीर जी सिद्ध महात्मा थे । उन्होंने बाल्यकाल मे ही स्वामी हरिदास जी के पिता को बता दिया था की यह बालक ललिता जी के अवतार है और समय आने पर यह भजन करने निकल पड़ेगा, तब इसको कोई रोकना टोकना नही। पिता ने एक दिन बालक हरिदास जी से अपने असली स्वरूप के दर्शन कराने का आग्रह किया । स्वामी हरिदास जी ने उनको साक्षात ललिता जी के रूप मे दर्शन देकर कृतार्थ किया था । २५ वर्ष की अवस्था मे एक विरक्त की भांति घर से निकल कर वृंदावन चले आये । वृंदावन के एक निम्बार्क सम्प्रदाय के संत श्री आशुधीर देवाचार्य जी से दीक्षा और विरक्त देश लेकर भजन करने लगे । 

श्री बांके बिहारी जी का प्राकट्य - 

श्री निधिवनराज को अपनी साधना स्थली बनायी और निरंतर श्री युगल की रस केली का आपने दर्शन किया । स्वामी जी जहां विराजते वही एक परम सुरम्य लता कुंज की ओर एकाग्र दृष्टि रखते थे । कभी उसकी ओर देखकर हसते थे, कभी भाव मे भरकर रोते थे, कभी लोट जाते । उसी लता कुंज की ओर देखकर राग भी गाते । उनके शिष्य श्री विट्ठल विपुल देव जी ने एक दिन पूछा की हे गुरुदेव ! इस विशेष कुंज की ओर आपकी दृष्टि सदा रखते है और भाव विह्फल होते है । 

क्या इस कुंज मे कोई विशेष बात है ? स्वामी जी ने उन्हे दिव्य दृष्टि प्रदान की । उन्होंने देखा की दिव्य रंग महल मे एक रूप होकर श्यामा श्याम कुसुम सेज पर रस विलास कर रहे है । उस रूप को देखकर विट्ठल विपुल देव जी भाव विह्फल हो गए । उन्होंने स्वामी जी से प्रार्थना की के इस स्वरूप का दर्शन हमे सर्वदा होता रहे । स्वामी जी ने गाकर श्यामा श्याम को पुकारा है और देखते देखते एक प्रकाश पुंज प्रकट हुआ जिसमें से श्री बांकेबिहारी का श्रीविग्रह बाहर आया । आज बांके बिहारी जी के मंदीर मे ईसी श्रीविग्रह का दर्शन होता है ।


श्री हरिदास, जै जै श्री कुँज बिहारिन लाल, 

शीतकालीन शयन स्तुत‍ि 


पौढ़ीं संग पिया के प्यारी ।

शीत सुहावनो तरुनि भावनो ,आयौ सुरति केलि सुखकारी ।।

सुखद अँगरखा तन कछु भरके , पाई भरक जुरैं तन न्यारी ।

भली अँगीठी उष्म अटा भई ,ओढ़ी सौर मदन मतवारी ।।

सेज सौर तप नवल नवेली , पौढ़े अंस अंस भुज डारी ।

कृष्ण चन्द्र राधा चरणदासि वर ,भाई शीत शयन बलिहारी ।।

प्रस्तुत‍ि: अलकनंदा स‍िंंह 

Wednesday, 1 January 2025

चंदू, मैंने सपना देखा, लाए हो तुम नया कलैंडर- नव वर्ष 2025 पर कव‍िवर नागार्जुन की कव‍िता


 आप सभी को नव वर्ष 2025 की हार्द‍िक शुभकामनायें इसीके साथ आज मैं कव‍िवर नागार्जुन की कव‍िता शेयर कर रही हूं- ''चंदू, मैंने सपना देखा, लाए हो तुम नया कलैंडर'' 


चंदू, मैंने सपना देखा, उछल रहे तुम ज्यों हिरनौटा

चंदू, मैंने सपना देखा, अमुआ से हूँ पटना लौटा


चंदू, मैंने सपना देखा, तुम्हें खोजते बद्री बाबू

चंदू, मैंने सपना देखा, खेल-कूद में हो बेक़ाबू


चंदू, मैंने सपना देखा, कल परसों ही छूट रहे हो

चंदू, मैंने सपना देखा, ख़ूब पतंगें लूट रहे हो


चंदू, मैंने सपना देखा, लाए हो तुम नया कलैंडर

चंदू, मैंने सपना देखा, तुम हो बाहर, मैं हूँ बाहर


चंदू, मैंने सपना देखा, अमुआ से पटना आए हो

चंदू, मैंने सपना देखा, मेरे लिए शहद लाए हो


चंदू, मैंने सपना देखा, फैल गया है सुयश तुम्हारा

चंदू, मैंने सपना देखा, तुम्हें जानता भारत सारा


चंदू, मैंने सपना देखा, तुम तो बहुत बड़े डॉक्टर हो

चंदू, मैंने सपना देखा, अपनी ड्यूटी में तत्पर हो


चंदू, मैंने सपना देखा, इम्तिहान में बैठे हो तुम

चंदू, मैंने सपना देखा, पुलिस-यान में बैठे हो तुम


चंदू, मैंने सपना देखा, तुम हो बाहर, मैं हूँ बाहर

चंदू, मैंने सपना देखा, लाए हो तुम नया कलैंडर।

प्रस्तुत‍ि : अलकनंदा स‍िंंह 


Tuesday, 31 December 2024

पढ़‍िए शायर जगन्नाथ आज़ाद की तीन गजलें.. ज‍िन्होंने ल‍िखा- नींद क्या है ज़रा सी देर की मौत

 


कि‍तनी गहरी बात है इन चंद लाइनों में .. 

''नींद क्या है ज़रा सी देर की मौत, मौत क्या है तमाम उम्र की नींद''


आज जानते हैं इन्हीं शायर जगन्नाथ आज़ाद के बारे में 

आज़ाद की पैदाइश 15 दिसम्बर 1918 को पंजाब स्थित ज़िला मियांवाली के ईसा ख़लील नामक गाँव में हुई. उन्होंने 1944 में पंजाब यूनिवर्सिटी लाहौर से एम.ए. और 1945 में एम.ओ. एल. की सनद हासिल की. उसके बाद वह उर्दू और अंग्रेज़ी के बाद वह उर्दू और अंग्रेज़ी के  कई अख़बारों व रिसालों से सम्बद्ध रहे. 1948 से 1955 तक सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के मासिक आजकल के सहायक सम्पादक भी रहे जहाँ उन दिनों जोश मलीहाबादी सम्पादक थे. 1955 में प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो में इनफार्मेशन ऑफिसर नियुक्त हुए .इसके अतिरिक्त विभिन्न मंत्रालयों में इनफार्मेशन सर्विस में सेवारत रहे. 1977 में डायरेक्टर पब्लिक रिलेशन ,प्रेस इनफार्मेशन (श्रीनगर) के पद से सेवानिवृत के बाद जम्मू यूनिवर्सिटी के उर्दू विभाग में प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष नियुक्त हुए. आनन्द नारायन मुल्ला के देहांत के बाद अंजुमन तरक्क़ी उर्दू के सद्र भी रहे . 2 जुलाई 2005 को नई दिल्ली में देहांत हुआ.

काव्य संग्रह: तिब्ल व इल्म (1948),बेकराँ (1949),सितारों से ज़र्रों तक (1951), वतन में अजनबी (1954) ,इन्तेखाबे कलाम (1957) , नवाए परेशां (1961), कहकशां (1961), बच्चों की नज़्में (1976), बच्चों के इक़बाल (1977), बुए रमीदा (1987), गहवाराए इल्म व हुनर (1988). आलोचना/ यात्रावृतांत व डायरी, तिलोकचन्द महरूम,इक़बाल और उसका अह्द, मेरे गुज़िश्ता शबो रोज़, इक़बाल और मग़रबी मुफ़क्किरिन, इक़बाल और कश्मीर, आँखें तरस्तियाँ हैं, फ़िक्रे इक़बाल के बाज़ अहम पहलू,निशाने मंज़िल, पुश्किन के देश में, कोलम्बस के देश में, हयाते महरूम, हिन्दुस्तान में इक़बालियात, जुनुबी हिन्द में नौ हफ़्ते, इक़बाल ज़िंदगी: शख्सियत और शायरी , मुरक्क़ा इक़बाल. 

जगन्नाथ जी की कुछ और गजलें... 

 

मुमकिन नहीं कि बज़्म-ए-तरब फिर सजा सकूँ


मुमकिन नहीं कि बज़्म-ए-तरब फिर सजा सकूँ

अब ये भी है बहुत कि तुम्हें याद आ सकूँ


ये क्या तिलिस्म है कि तिरी जल्वा-गाह से

नज़दीक आ सकूँ न कहीं दूर जा सकूँ


ज़ौक़-ए-निगाह और बहारों के दरमियाँ

पर्दे गिरे हैं वो कि न जिन को उठा सकूँ


किस तरह कर सकोगे बहारों को मुतमइन

अहल-ए-चमन जो मैं भी चमन में न आ सकूँ


तेरी हसीं फ़ज़ा में मिरे ऐ नए वतन

ऐसा भी है कोई जिसे अपना बना सकूँ


'आज़ाद' साज़-ए-दिल पे हैं रक़्साँ वो ज़मज़मे

ख़ुद सुन सकूँ मगर न किसी को सुना सकूँ


मुद्दत हो गई साज़-ए-मोहब्बत खोल दे अब ये राज़


मुद्दत हो गई साज़-ए-मोहब्बत खोल दे अब ये राज़

वो मेरी आवाज़ हैं बाँहों में उन की आवाज़


कितनी मनाज़िल तय कर आया मेरा शौक़-ए-नियाज़

ऐ नज़रों से छुपने वाले अब तो दे आवाज़


क्यूँ हर गाम पे मेरा दिल है सज्दों पे मजबूर

क्या नज़दीक कहीं है तेरी जल्वा-गाह-ए-नाज़


अस्ल में एक ही कैफ़िय्यत की दो तस्वीरें हैं

तेरा किब्र-ओ-नाज़ हो या हो मेरा जज़्ब-ए-नियाज़

नशे में हूँ मगर आलूदा-ए-शराब नहीं


नशे में हूँ मगर आलूदा-ए-शराब नहीं

ख़राब हूँ मगर इतना भी मैं ख़राब नहीं


कहीं भी हुस्न का चेहरा तह-ए-नक़ाब नहीं

ये अपना दीदा-ए-दिल है कि बे-हिजाब नहीं


वो इक बशर है कोई नूर-ए-आफ़ताब नहीं

मैं क्या करूँ कि मुझे देखने की ताब नहीं


ये जिस ने मेरी निगाहों में उँगलियाँ भर दीं

तो फिर ये क्या है अगर ये तिरा शबाब नहीं


मिरे सुरूर से अंदाजा-ए-शराब न कर

मिरा सुरूर ब-अंदाजा-ए-शराब नहीं

प्रस्तुत‍ि: अलकनंदा स‍िंंह 

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