Saturday 13 January 2024

आज के ही दिन हुआ था ''बर्बाद गुलिस्तां... लिखने वाले शायर का इंतकाल


 ‘बर्बाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफ़ी है, हर शाख पे उल्लू बैठे हैं अंजाम ऐ गुलिस्तां क्या होगा।’ जैसा शेर लिखने वाले शौक़ बहराइची का इंतकाल आज के ही दिन यानी 13 जनवरी 1964 को हुआ था। उनका जन्‍म भगवान श्रीराम की नगरी अयोध्‍या के सैयदवाड़ा मौहल्‍ले में 6 जून 1884 हुआ। शौक़ बहराइची का वास्तविक नाम 'रियासत हुसैन रिज़वी' था। ये बहुत प्रसिद्ध शायर थे। नेताओं व ग़लत कार्यों में लिप्त व्यक्तियों पर कटाक्ष करने के लिए इस्‍तेमाल किया जाने वाला बहुचर्चित शेर ''बर्बाद गुलिस्तां करने को... इन्‍हीं के द्वारा लिखा गया था किंतु बहुत कम लोग हैं, जिन्हें यह पता होगा कि इस शेर को लिखने वाले शायर का नाम 'शौक़ बहराइची' है। 

जीवन परिचय
एक साधारण शिया मुस्लिम परिवार में पैदा हुए शौक़ बहराइची, बहराइच में जा बसने के कारण 'बहराइची' कहलाने लगे। यहीं पर उन्होंने ग़रीबी में भी शायरी से नाता जमाए रखा। रियासत हुसैन रिज़वी उर्फ ‘शौक़ बहराइची’ के नाम से शायरी के नए आयाम गढ़ने लगे। उनके बारे में जो भी जानकारी प्रामाणिक रूप से मिली, वह उनकी मौत के तकरीबन 50 साल बाद बहराइच निवासी व लोक निर्माण विभाग के रिटायर्ड इंजीनियर ताहिर हुसैन नक़वी के नौ वर्षों की मेहनत का नतीजा है। उन्होंने उनके शेरों को संकलित कर ‘तूफ़ान’ किताब की शक्ल दी गयी है। 
ग़रीबी में बीता जीवन
ताहिर हुसैन नक़वी बताते हैं “जितने मशहूर अन्तर्राष्ट्रीय शायर शौक़ साहब हुआ करते थे उतनी ही मुश्किलें उनके शेरों को ढूँढने में सामने आईं। निहायत ग़रीबी में जीने वाले शौक़ की मौत के बाद उनकी पीढ़ियों ने उनके कलाम या शेरों को सहेजा नहीं। अपनी खोज के दौरान तमाम कबाड़ी की दुकानों से खुशामत करके और ढूंढ ढूंढकर उनके लिखे हुए शेरों को खोजना पड़ा”। शौक़ बहराइची की एक मात्र आयल पेंटिग वाली फोटो के बारे में ताहिर नक़वी बताते हैं “यह फोटो भी हमें अचानक एक कबाड़ी की ही दुकान पर मिल गई अन्यथा इनकी कोई फोटो भी मौजूद नहीं थी।” 
व्यंग्य जिसे उर्दू में तंज ओ मजाहिया कहा जाता है, इसी विधा के शायर शौक़ ने अपना वह मशहूर शेर बहराइच की कैसरगंज विधानसभा से विधायक और 1957 के प्रदेश मंत्री मंडल में कैबिनेट स्वास्थ मंत्री रहे हुकुम सिंह की एक स्वागत सभा में पढ़ा था जहाँ से यह मशहूर होता ही चला गया। ताहिर नक़वी बताते हैं कि यह शेर जो प्रचलित है उसमें और उनके लिखे में थोड़ा सा अंतर कहीं कहीं होता रहता है। 
वह बताते हैं कि सही शेर यह है
 “बर्बाद ऐ गुलशन की खातिर बस एक ही उल्लू काफ़ी था, 
हर शाख पर उल्लू बैठा है अंजाम ऐ गुलशन क्या होगा।”

गुमनाम शायर
शौक़ बहराइची की मौत के 50 वर्ष बीत जाने के बाद भी उनके बारे में कहीं कोई सुध ना लेना, एक मशहूर शायर को गुमनाम मौत देने के लिए साहित्य की दुनिया को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। शौक़ की इस गुमनामियत पर उनका ही एक और मशहूर शेर सही बैठता है।
“अल्लाहो गनी इस दुनिया में सरमाया परस्ती का आलम, 
बेज़र का कोई बहनोई नहीं ज़रदार के लाखों साले हैं”
शौक़ बहराइची के  दिन बहराइच में काफ़ी ग़रीबी में बीते। यहाँ तक कि उन्हें कोई मदद भी नहीं मिली। आज़ादी के बाद सरकार की ओर से कुछ पेंशन बाँध देने के बाद भी जब पेंशन की रकम उन तक नहीं पहुंची तो बहुत बीमार चल रहे शायर शौक़ के मन ने उस पर भी तंज कर ही दिया।
“सांस फूलेगी खांसी सिवा आएगी लब पे जान हजी बराह आएगी, 
दादे फ़ानी से जब शौक़ उठ जाएगा तब मसीहा के घर से दवा आएगी”

पढ़‍िए उनकी कुछ और गज़लें - 

1.

ईमान की लग़्ज़िश का इम्कान अरे तौबा

ईमान की लग़्ज़िश का इम्कान अरे तौबा 
बद-चलनी में ज़ाहिद का चालान अरे तौबा 

उठ कर तिरी चौखट से हम और चले जाएँ 
इंग्लैण्ड अरे तौबा जापान अरे तौबा 

है गोद के पालों से अब ख़ौफ़-ए-दग़ा-बाज़ी 
ये अपने ही भांजों पर बोहतान अरे तौबा 

इंसानों को दिन दिन भर अब खाना नहीं मिलता 
मुद्दत से फ़रोकश हैं रमज़ान अरे तौबा 

लिल्लाह ख़बर लीजे अब क़ल्ब-ए-शिकस्ता की 
गिरता है मोहब्बत का दालान अरे तौबा 

दामान-ए-तक़द्दुस पर दाग़ों की फ़रावानी 
इक मौलवी के घर में शैतान अरे तौबा 

अब ख़ैरियतें सर करी मालूम नहीं होतीं 
गंजों को है नाख़ुन का अरमान अरे तौबा 

मशरिक़ पे भी नज़रें हैं मग़रिब पे भी नज़रें हैं 
ज़ालिम के तख़य्युल की लम्बान अरे तौबा 

ऐ 'शौक़' न कुछ कहिए हालत दिल-ए-मुज़्तर की 
होता है मसीहा को ख़फ़्क़ान अरे तौबा ।

2. 

है शैख़ ओ बरहमन पर ग़ालिब गुमाँ हमारा


है शैख़ ओ बरहमन पर ग़ालिब गुमाँ हमारा 
ये जानवर न चर लें सब गुल्सिताँ हमारा 

थी पहले तो हमारी पहचान सई-ए-पैहम 
अब सर-बरहनगी है क़ौमी निशाँ हमारा 

हर मुल्क इस के आगे झुकता है एहतिरामन 
हर मुल्क का है फ़ादर हिन्दोस्ताँ हमारा 

ज़ाग़ ओ ज़ग़न की सूरत मंडलाया आ के पैहम 
कस्टोडियन ने देखा जब आशियाँ हमारा 

मक्र-ओ-दग़ा है तुम से इज्ज़-ओ-ख़ुलूस हम से 
वो ख़ानदाँ तुम्हारा ये ख़ानदाँ हमारा 

फ़रियाद मय-कशों की सुनता नहीं जो बिल्कुल 
बहरा ज़रूर है कुछ पीर-ए-मुग़ाँ हमारा 

दर पर हमारे गुम हो हर इक हसीं तो कैसे 
हर आस्ताँ से ऊँचा है आस्ताँ हमारा 

हर ताजवर की इस पर ललचा रही हैं नज़रें 
है जैसे हल्वा सोहन हिन्दोस्ताँ हमारा 

हो गर तुम्हारी मर्ज़ी तो बहर-ए-रंज-ओ-ग़म से 
हो जाए पार बेड़ा अल्लाह-मियाँ हमारा 

चाह-ए-ज़क़न से उन के सैराब तो हुए हम 
मीठे कुओं से अच्छा खारा कुआँ हमारा 

हों शैख़ या बरहमन सब जानते हैं मुझ को 
है 'शौक़' नाम-ए-नामी ऐ मेहरबाँ हमारा ।

3.

ज़ाहिरन ये बुत तो हैं नाज़ुक गुल-ए-तर की तरह

ज़ाहिरन ये बुत तो हैं नाज़ुक गुल-ए-तर की तरह 
दिल मगर होता है कम-बख़्तों का पत्थर की तरह 

जल्वा-गाह-ए-नाज़ में देख आए हैं सौ बार हम 
रंग-ए-रू-ए-यार है बिल्कुल चुक़ंदर की तरह 

मूनिस-ए-तन्हाई जब होता नहीं है हम-ख़याल 
घर में भी झंझट हुआ करता है बाहर की तरह 

आप बेहद नेक-तीनत नेक-सीरत नेक-ख़ू 
हरकतें करते हैं लेकिन आप बंदर की तरह 

जिस के हामी हो गए वाइ'ज़ वो बाज़ी ले गया 
अहमियत है आप की दुनिया में जोकर की तरह 

अल्लाह अल्लाह ये सितम-गर की क़यामत-ख़ेज़ चाल 
रोज़ हंगामा हुआ करता है महशर की तरह 

पूछने वाले ग़म-ए-जानाँ की शीरीनी न पूछ 
ग़म के मारे रोज़ उड़ाते हैं मुज़ा'अफ़र की तरह 

ज़ेब-ए-तन वाइ'ज़ के देखी है क़बा-ए-ज़र-निगार 
सर पे अमामा है इक धोबी के गट्ठर की तरह 

दोस्त के ईफ़ा-ए-व'अदा का है अब तक इंतिज़ार 
गुज़रा अक्टूबर नवम्बर भी सितंबर की तरह 

नाज़ में अंदाज़ में रफ़्तार में गुफ़्तार में 
अर्दली भी हैं कलेक्टर के कलेक्टर की तरह 

नश्शा-बंदी चाहते तो हैं ये हामी दीन के 
फिर भी मिल जाए तो पी लें शीर-ए-मादर की तरह 

हो रहा है जिस क़दर भी 'शौक़'-साहब इंसिदाद 
उतनी ही कटती है रिश्वत मूली गाजर की तरह।

- अलकनंदा सि‍ंंह  
 

Wednesday 13 December 2023

आज व‍िश्व कव‍िताओं में से कुछ अनूद‍ित कव‍ितायें आप भी पढ़ें

 

 नोबल पुरस्कार से सम्मानित बॉब डिलन का मशहूर गीत 'ब्लॉइंग इन द विंड' का हिंदी अनुवाद


कितने रास्ते तय करे आदमी
कि तुम उसे इंसान कह सको?
कितने समन्दर पार करे एक सफ़ेद कबूतर
कि वह रेत पर सो सके ?
हाँ, कितने गोले दागे तोप
कि उनपर हमेशा के लिए पाबन्दी लग जाए?
मेरे दोस्त, इनका जवाब हवा में उड़ रहा है
जवाब हवा में उड़ रहा है।
हाँ, कितने साल क़ायम रहे एक पहाड़
कि उसके पहले समन्दर उसे डुबा न दे?
हाँ, कितने साल ज़िन्दा रह सकते हैं कुछ लोग
कि उसके पहले उन्हें आज़ाद किया जा सके?
हाँ, कितनी बार अपना सिर घुमा सकता है एक आदमी
यह दिखाने कि उसने कुछ देखा ही नहीं?
मेरे दोस्त, इनका जवाब हवा में उड़ रहा है
जवाब हवा में उड़ रहा है।
हाँ, कितनी बार एक आदमी ऊपर की ओर देखे
कि वह आसमान को देख सके?
हाँ, कितने कान हो एक आदमी के
कि वह लोगों की रुलाई को सुन सके?
हाँ, कितनी मौतें होनी होगी कि वह जान सके
कि काफ़ी ज़्यादा लोग मर चुके हैं ?
मेरे दोस्त, इनका जवाब हवा में उड़ रहा है
जवाब हवा में उड़ रहा है।

मूल अँग्रेज़ी से अनुवाद : भोला रबारी
......

Pakistani poet of Urdu language

Obaidullah Aleem: 

गुज़रो न इस तरह कि तमाशा नहीं हूँ मैं

गुज़रो न इस तरह कि तमाशा नहीं हूँ मैं
समझो कि अब हूँ और दोबारा नहीं हूँ मैं
इक तब्अ' रंग रंग थी सो नज़्र-ए-गुल हुई
अब ये कि अपने साथ भी रहता नहीं हूँ मैं
तुम ने भी मेरे साथ उठाए हैं दुख बहुत
ख़ुश हूँ कि राह-ए-शौक़ में तन्हा नहीं हूँ मैं
पीछे न भाग वक़्त की ऐ ना-शनास धूप
सायों के दरमियान हूँ साया नहीं हूँ मैं
जो कुछ भी हूँ मैं अपनी ही सूरत में हूँ 'अलीम'
'ग़ालिब' नहीं हूँ 'मीर'-ओ-'यगाना' नहीं हूँ मैं 
.....

Pakistani poet of Urdu language
परवीन शाकिर की नज़्म 'आज की शब तो किसी तौर गुज़र जाएगी'


आज की शब तो किसी तौर गुज़र जाएगी
रात गहरी है मगर चाँद चमकता है अभी
मेरे माथे पे तिरा प्यार दमकता है अभी
मेरी साँसों में तिरा लम्स महकता है अभी
मेरे सीने में तिरा नाम धड़कता है अभी
ज़ीस्त करने को मिरे पास बहुत कुछ है अभी
तेरी आवाज़ का जादू है अभी मेरे लिए
तेरे मल्बूस की ख़ुश्बू है अभी मेरे लिए
तेरी बाँहें तिरा पहलू है अभी मेरे लिए
सब से बढ़ कर मिरी जाँ तू है अभी मेरे लिए
ज़ीस्त करने को मिरे पास बहुत कुछ है अभी
आज की शब तो किसी तौर गुज़र जाएगी!
आज के ब'अद मगर रंग-ए-वफ़ा क्या होगा
इश्क़ हैराँ है सर-ए-शहर-ए-सबा क्या होगा
मेरे क़ातिल तिरा अंदाज़-ए-जफ़ा क्या होगा!
आज की शब तो बहुत कुछ है मगर कल के लिए
एक अंदेशा-ए-बेनाम है और कुछ भी नहीं
देखना ये है कि कल तुझ से मुलाक़ात के ब'अद
रंग-ए-उम्मीद खिलेगा कि बिखर जाएगा
वक़्त पर्वाज़ करेगा कि ठहर जाएगा
जीत हो जाएगी या खेल बिगड़ जाएगा
ख़्वाब का शहर रहेगा कि उजड़ जाएगा

- Legend News

Thursday 9 November 2023

राग कान्हरो में सुन‍िए बाबा नंददास द्वारा रच‍ित पद गायन 'दीपदान दै हटरी बैठे'


 दीपावली आए और ब्रज में कान्हा का उत्सव ना हो ...भला ऐसा हो सकता है क्या ....  

पुष्टिमार्गीय वल्लभ संप्रदाय के कव‍ियों ने अपनी अपनी राग रचनाओं से भगवान श्री कृष्ण को दुलारने की जो काव्य आराधना की, वह अनूठी है। आज हम ऐसी ही ऐ रचना का संदर्भ देते हुए बताने जा रह हैं अष्टछाप कवियों में से एक नंददास के बारे में 

पुष्टिमार्गीय वल्लभ संप्रदाय के अष्टछाप कवियों में से एक पदों के शिल्प-वैशिष्ट्य के कारण प्रसिद्ध नन्ददास (वि ० सं ० १५९० - ) ब्रजभाषा के एक सन्त कवि थे। वे वल्लभ संप्रदाय (पुष्टिमार्ग) के आठ कवियों (अष्टछाप कवि) में से एक प्रमुख कवि थे। ये गोस्वामी विट्ठलनाथ के शिष्य थे।

नन्ददास का जन्म सनाढ्य ब्राह्मण कुल में वि ० सं ० 1420 में (अष्टछाप और वल्लभ :डा ० दीनदयाल गुप्त :पृष्ठ २५६-२६१ ) अन्तर्वेदी राजापुर (वर्तमान श्यामपुर) में हुआ जो वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के कासगंज जिले में है। ये संस्कृत और बृजभाषा के अच्छे विद्वान थे। भागवत की रासपंचाध्यायी का भाषानुवाद इस बात की पुष्टि करता है। वैषणवों की वार्ता से पता चलता है कि ये रसिक किन्तु दृढ़ संकल्प से युक्त थे।

एक बार ये द्वारका की यात्रा पर गए और वहाँ से लौटते समय ये एक क्षत्राणी के रूप पर मोहित हो गये। लोक निन्दा की तनिक भी परवाह न करके ये नित्य उसके दर्शनों के लिए जाते थे। एक दिन उसी क्षत्राणी के पीछे-पीछे आप गोकुल पहुँचे। इसी बीच वि० सं० १६१६ में आपने गोस्वामी विट्ठलनाथ दीक्षा ग्रहण की और तदुपरान्त वहीं रहने लगे। डॉ० दीनदयाल गुप्त के अनुसार इनका मृत्यु-संवत १६३९ है।

चौरासी वैष्णवन की वार्ता के अनुसार नन्ददास, गोस्वामी तुलसीदास के छोटे भाई थे। विद्वानों के अनुसार वार्ताएं बहुत बाद में लिखी गई हैं। ''हिन्दी साहित्य का इतिहास : आचार्य रामचन्द्र शुक्ल : पृष्ठ १७४'' के आधार पर सर्वसम्मत निर्णय नहीं हो सकता। पर इतना निश्चित है कि जिस समय वार्ताएं लिखी गई होंगी उस समय यह जनश्रुति रही होगी कि नन्ददास तुलसीदास भाई हैं, चाहे चचेरे हों, ऐसा '' हिन्दी साहित्य : डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी : पृष्ठ१८८''  तथा  गुरुभाई '' हिन्दी सा० का इति० : रामचंद्र शुक्ल :पृष्ठ १२४ ''  में कहा गया है। 


राग कान्हरो में सुन‍िए बाबा नंददास का ये पद - 

इस ल‍िंक पर क्ल‍िक करें -

दीपदान दै हटरी बैठे, नंद बाबा के साथ। 

नाना के मेवा आए, बांटत अपुने हाथ॥ 

सोभित सब सिंगार बिराजत, अरु चंदन दिए माथ। 

नंददास प्रभु सिगरन आगे गिरि गोबरधन नाथ॥  

अब इसी हटरी का रसात्मक भाव भी देख‍िए - 

श्री गोकुलनाथजी एवं श्री हरिरायचरण कृत भावभावना में 'हटरी' का रसात्मक भाव स्पष्ट किया गया है....तदनुसार हटरी रसोद्दीपन का भाव है...

हटरी लीला में जब व्रजभक्तिन सौदा लेने को आती हैं...तो वहाँ अनेक प्रकार से हास्यादिक, कटाक्षादिक आश्लेशादिक करके भाव उद्दीपन किया जाता है....इस उद्दीपनलीला का संकेत श्रीहरिरायचरण भी स्वरचित पद के माध्यम से देते हैं----

गृह-गृह ते गोपी सब आई, भीर भई तहाँ ठठरी।
तोल-तोल के देत सबनको भाव अटल कर राख्यो अटरी।।

'रसिक' प्रीतम के नयनन लागी,श्रीवृषभान कुँवरि की।।

'हटरी' शब्द का अर्थ बताते हुए श्रीहरीरायचरण आज्ञा करे है की....

"हटरी" = हट + री

अर्थात एक सखी दूसरी सखी को कह रही है कि....

तू हट री अब मोंकू प्रभु के लावण्यामृत को पान रसास्वादन करिबे दे ।

ऐसे थे रस‍िक बाबा नंददास , नन्ददास ग्रन्थावली :सं० ब्रजरत्नदास :पदावली ७९ में राधा के अतिरिक्त कृष्ण अपने सौन्दर्य और रसिकता के कारण गोपियों के भी प्रियतम बन जाते हैं। श्यामसुन्दर के सुन्दर मुख को देखकर वे मुग्ध हो जाती हैं और कभी-कभी सतत दर्शनों में बाधा -रूप अपनी पलकों को कोसती हैं। बाबा नंददास  काव्य की दृष्ट‍ि से अतुलनीय हैं । 
- अलकनंदा स‍िंंह 

ये भी पढ़ें- 

 https://khudakewastey.blogspot.com/search/label/%23KumbhanDas

Wednesday 8 November 2023

अपने अपारम्परिक अंदाज़ के लिए मशहूर थे उर्दू शायर जौन एलिया, पढ़‍िए उनकी कुछ नज्में

 

भारत के प्रसिद्ध उर्दू शायर जौन एलिया का पूरा नाम सय्यद हुसैन जौन असग़र नक़वी था। 14 दिसम्बर 1931 को उत्तर प्रदेश के अमरोहा में पैदा हुए जौन एलिया का इंतकाल 8 नवम्बर 2002 पाकिस्‍तान के शहर कराची में हुआ। सादा लेकिन तीखी तराशी और चमकाई हुई ज़बान में निहायत गहरी और शोर अंगेज़ बातें कहने वाले हफ़्त ज़बान शायर, पत्रकार, विचारक, अनुवादक, गद्यकार, बुद्धिजीवी और स्व-घोषित नकारात्मकतावादी एवं अनारकिस्ट जौन एलिया एक ऐसे ओरिजनल शायर थे जिनकी शायरी ने न सिर्फ उनके ज़माने के अदब नवाज़ों के दिल जीत लिए बल्कि जिन्होंने अपने बाद आने वाले अदीबों और शायरों के लिए ज़बान-ओ-बयान के नए मानक निर्धारित किए। जौन एलिया ने अपनी शायरी में इश्क़ की नई दिशाओं का सुराग़ लगाया। वो बाग़ी, इन्क़िलाबी और परंपरा तोड़ने वाले थे लेकिन उनकी शायरी का लहजा इतना सभ्य, नर्म और गीतात्मक है कि उनके अशआर में मीर तक़ी मीर के नश्तरों की तरह सीधे दिल में उतरते हुए श्रोता या पाठक को फ़ौरी तौर पर उनकी कलात्मक विशेषताओं पर ग़ौर करने का मौक़ा ही नहीं देते। मीर के बाद यदा-कदा नज़र आने वाली तासीर की शायरी को निरंतरता के साथ नई गहराईयों तक पहुंचा देना जौन एलिया का कमाल है। 


जौन एलिया ने अपनी शाइरी की शुरुआत 8 साल की उम्र से की लेकिन उनका पहला काव्य संग्रह "शायद" उस वक़्त आया जब उनकी उम्र 60 साल की हो गयी थी और इसी किताब ने उनको शोहरत की बलन्दियों को पहुँचा दिया


पढ़‍िए उनकी कुछ नज़्में - 


तुम जब आओगी तो खोया हुआ पाओगी मुझे 

मेरी तन्हाई में ख़्वाबों के सिवा कुछ भी नहीं 

मेरे कमरे को सजाने की तमन्ना है तुम्हें 

मेरे कमरे में किताबों के सिवा कुछ भी नहीं 

इन किताबों ने बड़ा ज़ुल्म किया है मुझ पर 

इन में इक रम्ज़ है जिस रम्ज़ का मारा हुआ ज़ेहन 

मुज़्दा-ए-इशरत-ए-अंजाम नहीं पा सकता 

ज़िंदगी में कभी आराम नहीं पा सकता 


2


हर बार मेरे सामने आती रही हो तुम 

हर बार तुम से मिल के बिछड़ता रहा हूँ मैं 

तुम कौन हो ये ख़ुद भी नहीं जानती हो तुम 

मैं कौन हूँ ये ख़ुद भी नहीं जानता हूँ मैं 

तुम मुझ को जान कर ही पड़ी हो अज़ाब में 

और इस तरह ख़ुद अपनी सज़ा बन गया हूँ मैं 

तुम जिस ज़मीन पर हो मैं उस का ख़ुदा नहीं 

पस सर-ब-सर अज़िय्यत ओ आज़ार ही रहो 

बेज़ार हो गई हो बहुत ज़िंदगी से तुम 

जब बस में कुछ नहीं है तो बेज़ार ही रहो 

तुम को यहाँ के साया ओ परतव से क्या ग़रज़ 

तुम अपने हक़ में बीच की दीवार ही रहो 

मैं इब्तिदा-ए-इश्क़ से बे-मेहर ही रहा 

तुम इंतिहा-ए-इश्क़ का मेआ'र ही रहो 

तुम ख़ून थूकती हो ये सुन कर ख़ुशी हुई 

इस रंग इस अदा में भी पुरकार ही रहो 

मैं ने ये कब कहा था मोहब्बत में है नजात 

मैं ने ये कब कहा था वफ़ादार ही रहो 

अपनी मता-ए-नाज़ लुटा कर मिरे लिए 

बाज़ार-ए-इल्तिफ़ात में नादार ही रहो 

जब मैं तुम्हें नशात-ए-मोहब्बत न दे सका 

ग़म में कभी सुकून-ए-रिफ़ाक़त न दे सका 

जब मेरे सब चराग़-ए-तमन्ना हवा के हैं 

जब मेरे सारे ख़्वाब किसी बेवफ़ा के हैं 

फिर मुझ को चाहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं 

तन्हा कराहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं 


3

चाहता हूँ कि भूल जाऊँ तुम्हें 

और ये सब दरीचा-हा-ए-ख़याल 

जो तुम्हारी ही सम्त खुलते हैं 

बंद कर दूँ कुछ इस तरह कि यहाँ 

याद की इक किरन भी आ न सके 

चाहता हूँ कि भूल जाऊँ तुम्हें 

और ख़ुद भी न याद आऊँ तुम्हें 

जैसे तुम सिर्फ़ इक कहानी थीं 

जैसे मैं सिर्फ़ इक फ़साना था 


4

धुँद छाई हुई है झीलों पर 

उड़ रहे हैं परिंद टीलों पर 

सब का रुख़ है नशेमनों की तरफ़ 

बस्तियों की तरफ़ बनों की तरफ़ 

अपने गल्लों को ले के चरवाहे 

सरहदी बस्तियों में जा पहुँचे 

दिल-ए-नाकाम मैं कहाँ जाऊँ 

अजनबी शाम मैं कहाँ जाऊँ 



वो किताब-ए-हुस्न वो इल्म ओ अदब की तालीबा 

वो मोहज़्ज़ब वो मुअद्दब वो मुक़द्दस राहिबा 

किस क़दर पैराया परवर और कितनी सादा-कार 

किस क़दर संजीदा ओ ख़ामोश कितनी बा-वक़ार 

गेसू-ए-पुर-ख़म सवाद-ए-दोश तक पहुँचे हुए 

और कुछ बिखरे हुए उलझे हुए सिमटे हुए 

रंग में उस के अज़ाब-ए-ख़ीरगी शामिल नहीं 

कैफ़-ए-एहसासात की अफ़्सुर्दगी शामिल नहीं 

वो मिरे आते ही उस की नुक्ता-परवर ख़ामुशी 

जैसे कोई हूर बन जाए यकायक फ़लसफ़ी 

मुझ पे क्या ख़ुद अपनी फ़ितरत पर भी वो खुलती नहीं 

ऐसी पुर-असरार लड़की मैं ने देखी ही नहीं 

दुख़तरान-ए-शहर की होती है जब महफ़िल कहीं 

वो तआ'रुफ़ के लिए आगे कभी बढ़ती नहीं 


Tuesday 31 October 2023

लैटिन साहित्य के सबसे अच्छे दौर के व्यंग्यकार - सेनेका द यंगर


 सेनेका द यंगर रोमन दार्शनिक, राजनेता और नाटककार थे। लैटिन साहित्य के सबसे अच्छे दौर के व्यंग्यकार भी माने जाते हैं।

लूसियस एनायस सेनेका द यंगर जिसे आमतौर पर सेनेका के नाम से जाना जाता है, प्राचीन रोम के एक स्टोइक दार्शनिक , एक राजनेता थे, नाटककार , और एक काम में, व्यंग्यकार , लैटिन साहित्य के उत्तर-अगस्तन युग से।

सेनेका का जन्म हिस्पानिया के कोर्डुबा में हुआ था और उनका पालन -पोषण रोम में हुआ , जहां उन्हें अलंकार और दर्शनशास्त्र में प्रशिक्षित किया गया । उनके पिता सेनेका द एल्डर थे , उनके बड़े भाई लूसियस जुनियस गैलियो एनायनस थे , और उनके भतीजे कवि लुकान थे । 41 ई. में, सेनेका को सम्राट क्लॉडियस के अधीन कोर्सिका द्वीप पर निर्वासित कर दिया गया था ,लेकिन 49 में उसे नीरो का शिक्षक बनने के लिए वापस लौटने की अनुमति दी गई थी । जब 54 में नीरो सम्राट बना, तो सेनेका उसका सलाहकार बन गया और प्रेटोरियन प्रीफेक्ट सेक्स्टस अफ़्रानियस बुरस के साथ मिलकर , नीरो के शासनकाल के पहले पांच वर्षों के लिए सक्षम सरकार प्रदान की। समय के साथ नीरो पर सेनेका का प्रभाव कम होता गया और 65 में सेनेका को नीरो की हत्या की पिसोनियन साजिश में कथित संलिप्तता के लिए अपनी जान लेने के लिए मजबूर होना पड़ा , जिसमें वह शायद निर्दोष था। 

उनकी शांत और शांत आत्महत्या कई चित्रों का विषय बन गई 

एक लेखक के रूप में, सेनेका को उनके दार्शनिक कार्यों और उनके नाटकों के लिए जाना जाता है , जो सभी त्रासदियाँ हैं । उनके गद्य कार्यों में नैतिक मुद्दों से संबंधित 12 निबंध और 124 पत्र शामिल हैं। ये लेख प्राचीन स्टोइज़्म के लिए प्राथमिक सामग्री के सबसे महत्वपूर्ण निकायों में से एक हैं । एक त्रासदीवादी के रूप में, उन्हें मेडिया , थिएस्टेस और फेदरा जैसे नाटकों के लिए जाना जाता है । सेनेका का बाद की पीढ़ियों पर बहुत प्रभाव पड़ा - पुनर्जागरण के दौरान वह "एक ऋषि थे, जिनकी नैतिकता के दैवज्ञ, यहाँ तक कि ईसाई शिक्षा के एक दैवज्ञ के रूप में प्रशंसा और सम्मान किया जाता था; साहित्यिक शैली के स्वामी और नाटकीय कला के एक मॉडल थे।"

जान‍िए उनके महावाक्य - 

1. जब परिस्थितियां बदलती हैं तो रणनीति बदलने में कोई बुराई नहीं है। 
2. या तो रास्ता तलाशिए... या खुद बनाइए। 
3. हम असलियत में कम, काल्पनिक तौर पर ज्यादा दुखी रहते हैं। 4. खूबसूरती से चकित नहीं होना चाहिए, उन छिपे हुए गुणों को तलाशना चाहिए जो हमेशा बने रहेंगे। 
5. सब आपके नियंत्रण में हैं। आप खुद ही चीजों को आसान बनाते हैं या मुश्किल या हास्यास्पद। 
6. विपत्तियां हमें बुद्धिमान बनाती हैं जबकि समृद्धि सही-गलत का फर्क खत्म कर देती है। 
7. दोस्ती हमेशा फायदा पहुंचाती है, जबकि प्यार कई दफा तकलीफ देता है। 
8. आपने किसी को कुछ दिया है तो शांत रहें, लेकिन किसी ने आपको कुछ दिया है तो जरूर जिक्र करें। 
9. जो डरते हुए पूछता उसे अक्सर इनकार सुनना पड़ता है।

Saturday 21 October 2023

सुनने वालों का कलेजा चीर कर रख देते थे आम आदमी के कवि अदम गोंडवी


 जन-जन के कवि और शायर अदम गोंडवी का जन्मदिन कल है। 22 अक्टूबर 1947 को गोंडा (उत्तर प्रदेश) के अट्टा परसपुर गांव में पैदा हुए अदम गोंडवी की मृत्यु 18 दिसंबर 2011 को लखनऊ में हुई थी। घुटनों तक मटमैली धोती, सिकुड़ा मैला कुरता और गले में सफेद गमछा उनकी पहचान थी। अदम गोंडवी का वास्‍तविक नाम रामनाथ सिंह था। मंच पर मुशायरों के दौरान जब अदम गोंडवी ठेठ गंवई अंदाज़ में हुंकारते थे तो सुनने वालों का कलेजा चीर कर रख देते थे। जाहिर है कि जब शायरी में आम आवाम का दर्द बसता हो, शोषित-कमजोर लोगों को अपनी आवाज उसमें सुनाई देती हो तो ऐसी हुंकार कलेजा क्यों नहीं चीरेगी? अदम गोंडवी की पहचान जीवन भर आम आदमी के शायर के रूप में ही रही। उन्होंने हिंदी ग़ज़ल के क्षेत्र में हिंदुस्तान के कोने-कोने में अपनी पहचान बनाई थी। 

परिचय
गोस्वामी तुलसीदास के गुरु स्थान सूकर क्षेत्र के करीब अट्टा परसपुर गांव में देवी कलि सिंह और मांडवी सिंह के पुत्र के रूप में बालक रामनाथ सिंह का जन्म हुआ था, जो आगे चलकर ‘अदम गोंडवी’ के नाम से विख्यात हुए। अदम गोंडवी कबीर परंपरा के कवि थे। दुष्यंत कुमार ने अपनी गजलों से शायरी की जिस नई राजनीति की शुरुआत की थी, अदम गोंडवी ने उसे मुकाम तक पहुंचाने की कोशिश की। उस मुकाम तक, जहां से एक-एक चीज बिना धुंधलके के पहचानी जा सके।
अदम गोंडवी कवि थे और उन्हें कविता में गंवई जिंदगी की बजबजाहट, लिजलिजाहट और शोषण के नग्न रूपों को उधेड़ने में महारत हासिल थी। वह अपने गांव के यथार्थ के बारे में कहा करते थे- "फटे कपड़ों में तन ढांके गुजरता है जहां कोई/समझ लेना वो पगडंडी ‘अदम’ के गांव जाती है।"
जन-जन के कवि
अदम गोंडवी जब मुशायरे के मंच से अपनी रचनाएं पढ़ते थे तो उसमें न सिर्फ व्यवस्था के प्रति तीक्ष्ण व्यंग्य होता था बल्कि वे सीधे-साधे लोगों के दिलों में बस जाती थीं। यही वजह है कि वे जन-जन के कवि बन गए। अदम गोंडवी की शायरी में आम आदमी की गुर्राहट और आक्रामक मुद्रा का सौंदर्य मिसरे-मिसरे में मौजूद था। उनकी शायरी न हम वाह करने का अवसर देती है और न आह भरने की मजबूरी परोसती है। सीधे-सीधे लफ्जों में बेतकल्लुफ विचार उसमें होते थे। निपट गंवई अंदाज़ में महानगरीय चकाचैंध और चमकीली कविताई को हैरान कर देने वाली अदम गोंडवी की अदा सबसे जुदा और सबसे विलक्षण थी।
रचनाएं
अदम गोंडवी की रचनाएं हमेशा लोगों को प्रेरणा देती रहेंगी। उन्होंने अपनी बेबाक रचनाओं से राजनेताओं व अफसरों पर भी बहुत ही निडरता से कुछ इस तरह कटाक्ष करते हुए लिखा है-
सदन में घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे, ये अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे।
मुल्क जाए भाड़ में इससे उन्हें मतलब नहीं, एक ही ख्वाहिश है कि कुनबे में मुख्तारी रहे।
महज तनख्वाह से निबटेंगे क्या नखरे लुगाई के, हजारों रास्ते हैं सिन्हा साहब की कमाई के।
मिसेज सिन्हा के हाथों में जो बेमौसम खनकते हैं, पिछली बाढ़ के तोहफे हैं ये कंगन कलाई के। 
अपनी जीवंत गजल व शायरी से आम जनमानस व समाज के दबे, कुचले लोगों के दर्द को समाज के पटल पर अपनी लेखनी से बयां करने वाले अजीम शायर अदम गोंडवी ने गोंडा जनपद को अपने साहित्य के माध्यम से जो पहचान दिलाई है, लोग आज भी उनके कायल हैं। 

जैसे- 

काजू भुने प्लेट में व्हिस्की गिलास में,
उतरा है रामराज विधायक निवास में।
पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत,
इतना असर है खादी के उजले लिबास में।
आजादी का वो जश्न मनाएं तो किस तरह,
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में।
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें,
संसद बदल गई हैं यहां की नखास में। 
जनता के पास एक ही चारा है बगावत,
यह बात कर रहा हूं मैं होशो-हवास में।


बेचता यूं ही नहीं है आदमी ईमान को,
भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को।
सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए,
गर्म रक्खे कब तलक नारों से दस्तरखान को।
शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून,
पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को। 

जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे

जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे
कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे

सुरा व सुंदरी के शौक़ में डूबे हुए रहबर
दिल्ली को रंगीलेशाह का हम्माम कर देंगे

ये वंदेमातरम् का गीत गाते हैं सुबह उठकर
मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगना दाम कर देंगे

सदन को घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे
अगली योजना में घूसख़ोरी आम कर देंगे

मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी एक कुएँ में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा

कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई

कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को

डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में

होनी से बेखबर कृष्णा बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी

चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई

दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्णा थी पिता की गोद में

जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है

कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं

कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें

बोला कृष्णा से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में

दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर

क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया

कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्णा है चमारो के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ

जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है

भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ

आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई

वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है

कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी

बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था

क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था

रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में

घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"

निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर

गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"

"कैसी चोरी, माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा

होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -

"मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"

और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी

दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था

घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे

"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"
 
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से

फिर दहाड़े, "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा

इक सिपाही ने कहा, "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"

बोला थानेदार, "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो

ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है"

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्णा का हाल"
 
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को

धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को

मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में

गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही

हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए!


पुरस्कार व सम्मान
‘धरती की सतह पर’ व ‘समय से मुठभेड़’ जैसे चर्चित ग़ज़ल संग्रहों ने अदम गोंडवी को हिंदी भाषी क्षेत्रों में काफी ख्याति और सम्मान दिलाया। वर्ष 1998 में मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें 'दुष्यंत कुमार पुरस्कार' से नवाजा था। 

- अलकनंदा स‍िंंह 

Thursday 12 October 2023

सहज भाषा में गूढ़ से गूढ़ बात कह जाने वाले शायर हैं निदा फ़ाज़ली, पढ़‍िये उनकी ग़ज़लें और दोहे

आधुनिक उर्दू शायरी के लोकप्रिय शायर निदा फ़ाज़ली का आज जन्मदिन है। उनका जन्म 12 अक्तूबर 1938 को दिल्‍ली में हुआ था।  निदा फ़ाज़ली हिन्दी पढ़ने वालों के लिए भी उतने ही अजीज हैं, जितना उर्दू पाठकों के लिए। इनका पूरा नाम मुक़्तिदा हसन निदा फ़ाज़ली है, जो बाद में निदा फ़ाज़ली के रूप में प्रसिद्ध हुआ। 

निदा का अर्थ है स्वर/आवाज़/ Voice फ़ाज़िला कश्मीर के एक इलाके का नाम है जहाँ से निदा के पूर्वज आकर दिल्ली में बस गए थे, इसलिए उन्होंने अपने उपनाम में फ़ाज़ली जोड़ा। निदा फ़ाज़ली की मृत्यु 8 फरवरी 2016 को मुम्बई में हुई।

जीवन परिचय
निदा फ़ाज़ली की स्कूली शिक्षा ग्वालियर (मध्य प्रदेश) में हुई थी। उनके पिता एक शायर थे, जो भारत विभाजन के समय पाकिस्तान चले गए। भारतीयता के पोषक निदा फ़ाज़ली भारत को छोड़कर पाकिस्तान नहीं गए। निदा फ़ाज़ली ने गज़लों के साथ दोहे भी बखूबी कहे, नज़्मों में भी उन्हें महारत हासिल थी। 1960 के दशक के दौरान अपने समकालीन शायरों कैफ़ी आज़मी, सरदार अली जाफ़री और साहिर लुधियानवी पर एक समीक्षात्मक किताब मुलाकातें भी निदा फ़ाज़ली ने लिखी। है। उनकी एक ही बेटी है, जिसका नाम तहरीर है। 
निदा फ़ाज़ली ने सन् 1946 में जीविका की खातिर मुम्बई का रुख़ किया। 'धर्मयुग' और 'ब्लिट्ज' में आलेख भी लिखे। मुशायरों में भी बेहद लोकप्रियता हासिल की। फ़िल्म 'रज़िया सुल्तान' के निर्माण के समय शायर जानिसार अख्तर के निधन के बाद फ़िल्म निर्माता कमाल अमरोही ने इन्हें गीत लिखने के लिए अवसर दिया। इनके लिखे गीत काफ़ी लोकप्रिय भी हुए। 

भाषा शैली
निदा फ़ाज़ली की शायरी की भाषा आम आदमी को भी समझ में आ जाती है। यह कवि/शायर सहज भाषा में गूढ़ से गूढ़ बात कहने में माहिर है। निदा फ़ाज़ली एक सूफ़ी शायर हैं। रहीम, कबीर और मीरा से प्रभावित होते हैं तो मीर और ग़ालिब भी इनमें रच- बस जाते हैं। निदा फाज़ली की शायरी की जमीन विशुद्ध भारतीय है। वो छोटी उम्र से ही लिखने लगे थे। जब वह पढ़ते थे तो उनके सामने की पंक्ति में एक लड़की बैठा करती थी जिससे वो एक अनजाना, अनबोला सा रिश्ता अनुभव करने लगे थे लेकिन एक दिन कॉलेज के बोर्ड पर एक नोटिस दिखा- कुमारी टंडन का एक्सीडेण्ट हुआ और उनका देहान्त हो गया है। निदा बहुत दु:खी हुए और उन्होंने पाया कि उनका अभी तक का लिखा कुछ भी उनके इस दु:ख को व्यक्त नहीं कर पा रहा है, ना ही उनको लिखने का जो तरीक़ा आता था उसमें वो कुछ ऐसा लिख पा रहे थे जिससे उनके अंदर का दु:ख की गिरहें खुलें। एक दिन सुबह वह एक मंदिर के पास से गुजरे जहाँ पर उन्होंने किसी को सूरदास का भजन मधुबन तुम क्यौं रहत हरे, बिरह बियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यौं न जरे... गाते सुना, जिसमें कृष्ण के मथुरा से द्वारका चले जाने पर उनके वियोग में डूबी राधा और गोपियाँ फुलवारी से पूछ रही होती हैं ऐ फुलवारी, तुम हरी क्यों बनी हुई हो? कृष्ण के वियोग में तुम खड़े-खड़े क्यों नहीं जल गईं? वह सुन कर निदा को लगा कि उनके अंदर दबे हुए दु:ख की गिरहें खुल रही हैं। फिर उन्होंने कबीरदास, तुलसीदास, बाबा फ़रीद इत्यादि कई अन्य कवियों को भी पढ़ा और उन्होंने पाया कि इन कवियों की सीधी-सादी, बिना लाग लपेट की, दो-टूक भाषा में लिखी रचनाएँ अधिक प्रभावकारी है जैसे सूरदास की ही 'ऊधो मन न भए दस बीस। एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अराधै ते ईस॥ तब से वैसी ही सरल भाषा सदैव के लिए उनकी अपनी शैली बन गई। 

निदा फ़ाज़ली की 2 ग़ज़लें 

1- सफ़र में धूप तो होगी, जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो
यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिरा के अगर तुम सम्हल सको तो चलो
हर इक सफ़र को है महफूज़ रास्तों की तलाश
हिफ़ाज़तों की रिवायत बदल सको तो चलो
यही है ज़िन्दगी कुछ ख़्वाब चंद उम्मीदें
इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो
किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं
तुम अपने आप को खुद ही बदल सको तो चलो

2- अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं 
रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं 
पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है 
अपने ही घर में, किसी दूसरे घर के हम हैं 
वक्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से 
किसको मालूम, कहाँ के हैं किधर के हम हैं 
जिस्म से रूह तलक अपने कई आलम हैं 
कभी धरती के कभी चाँद नगर के हम हैं 
चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब 
सोचते रहते हैं, किस राहगुज़र के हम हैं 
गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम 
हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं 


निदा फ़ाज़ली के दोहे
सबकी पूजा एक सी, अलग-अलग हर रीत। 
मस्जिद जाए मौलवी, कोयल गाए गीत॥ 
पूजा -घर में मूरती, मीरा के संग श्याम।
जितनी जिसकी चाकरी, उतने उसके दाम॥ 
सीता-रावण, राम का, करें बिभाजन लोग।
एक ही तन में देखिए, तीनों का संजोग॥ 
माटी से माटी मिले, खो के सभी निशान।
किसमें कितना कौन है, कैसे हो पहचान॥ 

----------
बच्चा बोला देख कर मस्जिद आली-शान 
अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान 

घर को खोजें रात दिन घर से निकले पाँव 
वो रस्ता ही खो गया जिस रस्ते था गाँव 

नक़्शा ले कर हाथ में बच्चा है हैरान 
कैसे दीमक खा गई उस का हिन्दोस्तान 

वो सूफ़ी का क़ौल हो या पंडित का ज्ञान 
जितनी बीते आप पर उतना ही सच मान 

मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार 
दुख ने दुख से बात की बिन चिट्ठी बिन तार 

सम्मान और पुरस्कार
1998 में साहित्य अकादमी पुरस्कार - काव्य संग्रह खोया हुआ सा कुछ (1996)
2003 में स्टार स्क्रीन पुरस्कार - श्रेष्टतम गीतकार - फ़िल्म 'सुर के लिए
2003 में बॉलीवुड मूवी पुरस्कार - श्रेष्टतम गीतकार - फ़िल्म सुर के गीत 'आ भी जा' के लिए
मध्य प्रदेश सरकार का मीर तकी मीर पुरस्कार (आत्मकथा रूपी उपन्यास 'दीवारों के बीच' के लिए)
मध्य प्रदेश सरकार का खुसरो पुरस्कार- उर्दू और हिन्दी साहित्य के लिए
महाराष्ट्र उर्दू अकादमी का श्रेष्ठतम कविता पुरस्कार- उर्दू साहित्य के लिए
बिहार उर्दू अकादमी पुरस्कार
उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी का पुरस्कार
हिन्दी उर्दू संगम पुरस्कार (लखनऊ) 

- अलकनंदा स‍िंंह 
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...