Tuesday, 23 September 2025

पूर्णिया कॉलेज में है यह 'दिनकर स्मृति कक्ष'


 बिहार के पूर्णिया जिला स्थित पूर्णिया कॉलेज में है यह 'दिनकर स्मृति कक्ष'

आज राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की जयंती है
'जय हो' जग में जले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को,
जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को।
किसी वृन्त पर खिले विपिन में, पर, नमस्य है फूल,
सुधी खोजते नहीं, गुणों का आदि, शक्ति का मूल।
ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,
दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।
क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग,
सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।

तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक।

जिसके पिता सूर्य थे, माता कुन्ती सती कुमारी,
उसका पलना हुआ धार पर बहती हुई पिटारी।
सूत-वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर,
निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्‌भुत वीर।

तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी,
जाति-गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी।
ज्ञान-ध्यान, शस्त्रास्त्र, शास्त्र का कर सम्यक् अभ्यास,
अपने गुण का किया कर्ण ने आप स्वयं सुविकास।

- रश्म‍िरथी , प्रथम सर्ग

Tuesday, 16 September 2025

किवाड़ की खुली सांकल


 बचपन में हम देखते थे कि घर के पुरुषों के बाहर जाने पर घर की महिलाएं कभी किवाड़ तुरंत बन्द नहीं करती थी, सांकल खुली छोड़ देती थीं। कभी कभी पुरुष कुछ दूर जाकर लौट आते थे, ये कहते हुए कि कुछ भूल गया हूं और मुस्कुरा देते थे दोनों एक दूसरे को देखकर।


एक बार बच्चे ने अपनी मां से पूछ लिया कि मां पापा के जाने के बाद कुछ देर तक दरवाजा क्यों खुला रखती हो??


तब मां ने बच्चे को वो गूढ़ बात बताई जो हमारी सांस्कृतिक विरासत है। उन्होंने बच्चे को कहा कि किवाड़ की खुली सांकल किसी के लौटने की एक उम्मीद होती है। अगर कोई अपना हमसे दूर जा रहा है तो हमे उसके लौटने की उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए। उसका इंतजार जीवन के आखिरी पल तक करना चाहिए! 


आस और विश्वास से रिश्तों की दूरी मिट जाती है, इसीलिए मैं दिल की उम्मीद के साथ दरवाजे की सांकल भी खुली रखती हूं, जब भी वापस आए तो उसे खटकाने की जरूरत नहीं पड़े, वो खुद मन के घर में आ जाए।


जीवन में कुछ बातें हमेशा हमे सीख देती है, कि कोई रिश्तों से नाराज कितना भी हो, उसके लिए दिल के दरवाजे बन्द मत करो। जब कभी उसे आपकी याद आयेगी, उसे आपके पास आना हो तो वो हिचके नही, मस्ती में पूरे विश्वास से बिना कुंडी खटकाए दिल के अन्दर आ जाए।


Sunday, 14 September 2025

जनरल सैम मानेकशॉ से जुड़ा एक क‍िस्सा...फील्ड मार्शल का ड्राइवर


 


जैसा कि हम जानते हैं, ये ड्राइवर आर्मी हेडक्वार्टर्स की ट्रांसपोर्ट कंपनी, धौला कुआँ, दिल्ली से चयनित आर्मी सर्विस कोर के सिपाही होते हैं।

स्वाभाविक है कि सेना प्रमुख (Army Chief) के पास अपनी सरकारी ड्यूटी के लिए एक से अधिक ड्राइवर रहे होंगे। सभी सेवा में लगे सैनिकों की तरह, ड्राइवर को भी हर साल छुट्टी लेने का अधिकार होता है। ऐसे ही एक ड्राइवर थे हरियाणा के निवासी हवलदार श्याम सिंह।

एक दिन जनरल सैम मानेकशॉ, नॉर्थ ब्लॉक में एक बैठक से हँसते हुए बाहर निकले। ड्राइवर, सख्त सावधान की मुद्रा में खड़ा था और उसने तुरंत गाड़ी का दरवाजा खोल दिया। अप्रैल का महीना था – एक सुखद, नरम धूप और हल्की हवा वाला दिन।

“तुम्हें पता है श्याम सिंह,” जनरल ने हँसते हुए कहा, “आज रक्षामंत्री ने मेरा नाम ही बदल दिया। मुझे श्याम कहकर बोले – श्याम, मान भी जाओ।”

जनरल मानेकशॉ का इशारा रक्षामंत्री बाबू जगजीवन राम की उस विनती की ओर था, जो प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के कहने पर पूर्वी पाकिस्तान पर अप्रैल में हमले के लिए की गई थी। सैम ने यह कहकर मना कर दिया था कि अगर अप्रैल में हमला हुआ तो भारत को 100% हार मिलेगी।

“वैसे श्याम और सैम में ज्यादा फर्क नहीं है – बस एक H और Y का ही तो खेल है,” जनरल ने मुस्कुरा कर कहा।

जब युद्ध समाप्त हो गया और जनरल मानेकशॉ के रिटायरमेंट की तारीख नजदीक आने लगी, उन्होंने देखा कि श्याम सिंह कुछ असामान्य रूप से तनावग्रस्त रहने लगे हैं। उनके चेहरे पर बेचैनी साफ झलक रही थी, जो जनरल ने तुरंत भांप ली।

“क्या बात है श्याम सिंह, इन दिनों तुम्हारा चेहरा ऐसा लग रहा है जैसे तुम्हारे घर की भैंस ने दूध देना बंद कर दिया हो?”

“नहीं साहब, वो बात नहीं है,” और फिर वह कुछ और बोले बिना चुप हो गए।

दिन बीतते गए और रिटायरमेंट का समय करीब आता गया। एक दिन श्याम सिंह ने जनरल से कहा:

“साहब, एक निवेदन है जो सिर्फ आप ही पूरा कर सकते हैं।”

“हाँ, बोलो श्याम सिंह।”

“साहब, मैं समय से पहले सेवा से निवृत्त होना चाहता हूँ। कृपया मेरी छुट्टी की सिफारिश करें।”

“लेकिन बात क्या है? कोई ज़मीन-जायदाद का मुकदमा है या पारिवारिक परेशानी? तुम अपनी पूरी सेवा पूरी करो। मैं तुम्हें नायब सूबेदार बनवा दूँगा, लेकिन सेवा मत छोड़ो,” जनरल ने समझाया।

“नहीं साहब, बात कुछ और है, लेकिन मैं वह तब तक नहीं बता सकता जब तक सेवा से मुक्त नहीं हो जाता।”

जनरल ने उसकी साफगोई और इज़्ज़त की भावना को समझा और आवश्यक कार्रवाई कर दी। जब ड्राइवर की रिहाई के आदेश आ गए, जनरल ने फिर पूछा:

“अब तो खुश हो? अब बताओ क्यों जल्दी रिटायर हो रहे हो?”

ड्राइवर सावधान मुद्रा में खड़ा हो गया और बोला:

“साहब, आपकी गाड़ी चलाने के बाद मैं किसी और की गाड़ी नहीं चला सकता। यही मेरे जीवन का सबसे बड़ा सम्मान था। मैं इसी इज़्ज़त के साथ घर जाना चाहता हूँ।”

फील्ड मार्शल हँसे और बोले:

“तू बहुत बड़ा बेवकूफ है! तुम हरियाणवी लोग भी ना – एकदम ज़िद्दी और पक्के”

लेकिन अब जब छुट्टी के काग़ज़ बन चुके थे, कुछ नहीं किया जा सकता था। वह तो ठेठ हरियाणवी था – जो मन में ठान ले, फिर पीछे नहीं हटता।

फिर भी जनरल ने एक दिन उससे पूछा:

“रिटायरमेंट के बाद क्या करेगा?”

“कुछ न कुछ कर लूंगा साहब, कोई नौकरी ढूंढ़ लूंगा।”

“तुम्हारे पास खेती की ज़मीन कितनी है?”

“कुछ भी नहीं साहब, मैं तो गरीब परिवार से हूँ।”

जनरल सन्न रह गए। एक निर्धन व्यक्ति, जिसने सिर्फ इसलिए नौकरी छोड़ दी क्योंकि वह किसी और की गाड़ी नहीं चला सकता था।

जिस दिन ड्राइवर विदा हुआ, सैम मानेकशॉ ने उसे एक लिफाफा दिया।

“श्याम सिंह, इसे घर जाकर ही खोलना।”

“जी साहब।” ड्राइवर ने सलाम किया और चला गया।

घर पहुँचकर वह नौकरी ढूँढ़ने में व्यस्त हो गया और लिफाफा भूल ही गया। एक दिन उसे माल ढोने वाले ट्रक की ड्राइवरी का काम मिल गया। फिर एक दिन उसकी पत्नी बोली:

“मैं तुम्हारी आर्मी की वर्दी संदूक में रख रही थी, ये लिफाफा तुम्हारी जेब में मिला।”

“अरे, इसे तो मैं भूल ही गया था। मैंने इसे नहीं खोला क्योंकि मुझे ज्यादा पढ़ना- लिखना नहीं आता।... साहब ने शायद मुझे एक प्रशंसा पत्र दिया होगा, जैसे बड़े अफसर देते हैं।”

“फिर भी, इसे खोलो और स्कूल मास्टरजी से पढ़वा लो, मैं जानना चाहती हूँ इसमें क्या है।”

तो दोनों पति-पत्नी गाँव के स्कूल गए और हेडमास्टर से निवेदन किया कि वह पत्र पढ़कर सुनाएँ।

मास्टरजी ने चश्मा पहना, लिफाफा खोला और काग़ज़ को देखकर चुपचाप रह गए।

“क्या हुआ मास्टरजी, ऐसे क्या देख रहे हैं?” श्याम सिंह ने पूछा।

“क्या तुम्हें पता है ये क्या है?”

“नहीं साहब।”

“यह एक हस्तांतरण पत्र (transfer deed) है।

1971 की जीत के बाद हरियाणा सरकार ने फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ को 25 एकड़ ज़मीन युद्ध जागीर के रूप में दी थी।

उन्होंने वह सारी ज़मीन तुम्हारे नाम कर दी है। अब तुम 25 एकड़ के मालिक हो।”

यह सुनकर पत्नी ने गुस्से में पति को डाँटा:

“तू तो पूरा बेवकूफ निकला! मैं तो इस लिफाफे को चूल्हा जलाने के लिए जलाने ही वाली थी!

भगवान का शुक्र है मैंने पहले पूछ लिया!”

इस तरह यह कहानी है महान जनरल सैम मानेकशॉ की – जिन्होंने अपनी युद्ध जागीर सोनीपत के पास अपने ड्राइवर को दे दी और अपनी फील्ड मार्शल की पेंशन आर्मी विडोज़ वेलफेयर फंड को दान कर दी।

- अलकनंदा स‍िंंह (आजकल रोज एक कहानी पढ़ रही हूं) 

Friday, 5 September 2025

कड़ाह में तलीं, झारियों पर सजीं भंडारे की पूड़ियां


 भंडारे की पूड़ियों पर किसी को प्रबंध-काव्य लिखना चाहिए! लोक में उनकी आसक्ति और प्रभाव इतने व्यापक जो हैं। वे घर में बनाई जाने वाली पूड़ियों से थोड़ी पृथक होती हैं। किंचित लम्बोतर, ललछौंही-भूरी, मुलायम, अधिक अन्नमय, और व्यापक जनवृन्द के क्षुधा-निवारण के प्रयोजन में सिद्ध। 

बहुधा भंडारे की पूड़ियों में घर की गोलमटोल पूड़ियों सरीखे पुड़ नहीं होते, वे अद्वैत-भाव से ही आपकी पत्तल में सिधारती हैं। यों पूड़ी शब्द की उत्पत्ति ही पुड़ से हुई है- जैसे सतपुड़ा यानी सात तहों वाला पर्वत। पूड़ियाँ बेलते समय तो आटे की लोई एक ही पुड़ की, समतल भासती हैं, पर तले जाने पर उसमें दो पुड़े फूल आते हैं। पहला, बाहरी पुड़ा महीन और कोमल, जो जिह्वा को लालायित करता है, और दूसरा, आभ्यन्तर का, अन्न के सत्त्व को अपने में सँजोए, जिससे क्षुधा का उन्मूलन होगा!

किसी धर्मशाला के कक्ष में रसोई करने वाली स्त्रियों द्वारा तारतम्य के संगीत से बेली और तली जाने वाली पूड़ियों का मन को स्निग्ध कर देने वाला दृश्य कभी निहारिए! और फिर पूड़ियों की मियाद चुक जाने पर जूठे हाथ लिए बैठे उसकी बाट जोहते भंडारा-साधकों को देखिए। महाअष्टमी-महानवमी में तो यह पूड़ी-प्रसंग भारत-भूमि में यत्र-तत्र-सर्वत्र सजीव हो उठता है। भंडारों की रामभाजी और पूड़ी पर समस्त संसार का अन्नकूट निछावर है!

मैदा की पूड़ी लचुई या लूची कहलाई है। यह विशेषकर बंगभूमि में प्रचलित है। अवध में यही सोहारी कहलाई है। पूड़ियों का एक रूप बेड़ई या कचौड़ी है, वह उत्तर-मध्य भारत में बनने वाली मूँगदाल की कचौड़ी से भिन्न है। कुछ पूड़ियाँ तो पुरइन के पत्ते जैसी लम्बी-चौड़ी भी होती हैं। भोजपुर-अंचल में वह हाथीकान पूड़ी कहलाई है। यह बड़ी मुलायम होती है और एक पखवाड़े तक ख़राब नहीं होती।

मैं कहूँगा, भारत के निर्धनजन की राम-रसोई में पहली इकाई है- रोटियाँ। सेंक के भूरे-कत्थई ताप-बिंदुओं से सज्जित, किंतु बहुधा बिना घृत-लेपित। उन पर प्रगतिशील कवि-लोग बहुत काव्य रचते हैं। जिस दिन निर्धन का मन इठलाता है, उस दिन वो रोटियों के वर्तुल को त्रिभुज से बदलकर सेंक लेता है पराँठे। किंतु पूड़ियाँ? वे तो पर्वों-उत्सवों का मंगलगान हैं। भारतभूमि में पूड़ियाँ पर्व का पर्याय हैं। पूड़ियाँ नहीं तो पर्व नहीं। पूड़ियाँ तली जा रही हैं तो पर्व ही होगा, कुछ वैसा ही वह संयोग है। वे हिंदू-पर्वों की स्नान-ध्यान वाली सत्त्व-भावना को व्यंजित करती हैं- हल्दी और अजवाइन की पीताम्बरा पूड़ियाँ तो सबसे अधिक!

पूड़ियों की जो सबसे मधुर स्मृति मेरे मन में है, वह इस प्रकार है- अगस्त का महीना! नागदा-दाहोद लाइन पर बारिश की सुरंग के भीतर दौड़ती रेलगाड़ी! फिर मेघनगर में किकोरों के सावन के मध्य उतरना। वहाँ से बस पकड़कर झाबुआ जाना, जहाँ दाहोद से मेरी बुआ राखी मनाने आई होती थी। बुआ हाथ में मेहंदी लगाती थी। मेहंदी रचे हाथ से पूड़ियाँ मुझे खिलाती थी।

संसार में कोमलता का इससे सुंदर चित्र कोई दूसरा नहीं हो सकता कि कोई स्त्री मेहंदी लगे हाथों से आपको पूड़ियाँ खिलाए!

तब इसका क्या करें कि राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त को गर्म नहीं ठंडी पूड़ियाँ ही भाती थीं। कवि अज्ञेय ने स्मृतिलेखा में बताया है कि चिरगाँव में जब भी पूड़ियाँ बनतीं, वे बैठक से ही आवाज़ देते कि चार-छह पूड़ियाँ अलग रखवा देना। इन्हें वे अगली सुबह खाते। कहते कि बासी पूड़ी के बराबर कोई स्वाद नहीं जान पड़ता है।

ऐन यहीं पर मुझको एक पुरानी हिंदी फ़िल्म का संवाद याद आ रहा है, जिसे गुज़रे ज़माने के अभिनेता गोप ने अपनी अदायगी से तब ख़ूब मशहूर बना दिया था। संवाद कुछ यों था- 

"बड़े घरों की औरतें सुबह-सवेरे क्या करती हैं? अजी कुछ नहीं, बस आम के अचार से बासी पूड़ियाँ खाती हैं!"

यह तो हुई बड़े घरों की बात। और छोटे घरों-संकुचित हृदयों की अंतर्कथा? वह प्रेमचंद ने बतलाई है। बूढ़ी काकी- जो पूड़ियों के प्रति अपनी तृष्णा से भरकर जूठी पत्तलों से उनकी खुरचन बटोरकर खाने लगी थीं, जिसे देखकर सन्न रह गई थी गृहस्वामिनी।

ये सब लोक में, आख्यान में, सामूहिक-स्मृति में प्रतिष्ठित पूड़ी-प्रसंग हैं। जनमानस से एकाकार। गृहणियों के मन का प्रफुल्ल-उत्सव। पूड़ियाँ न होतीं तो पर्व नहीं हो सकते थे, पर्व मनाने वाले मन पुलक से नहीं भर सकते थे- तिस पर कड़ाह में तलीं, झारियों पर सजीं भंडारे की पूड़ियों की तो बात ही क्या। 


- अलकनंदा 'पूड़ी बाज' 

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