उसका भरोसा क्या यारों, वो शब्दों का व्यापारी है,
क्यों मुँह का मीठा वो न हो, जब पेशा ही बटमारी है।
रूप कोई भी धर लेता है पाँचों घी में रखने को,
तू इसको होशियारी कहता, लोग कहें अय्यारी है।
जनता को जो भीड़ बताते मँझधार में डूबेंगे,
काग़ज़ की है नैया, उनकी शोहरत भी अख़बारी है।
सुनकर चुप हो जाने वाले बात की तह तक पहुँचे हैं,
कौवे को कौवा नहीं कहते, यह उनकी लाचारी है।
पेड़ के पत्ते गिनने वालो तुम 'रहबर' को क्या जानो,
कपड़ा-लत्ता जैसा भी हो, बात तो उसकी भारी है।
(रचनाकाल : 11 अप्रैल 1976, तिहाड़ जेल)
किस कदर गर्म है हवा देखो
किस कदर गर्म है हवा देखो,
जिस्म मौसम का तप रहा देखो ।
बदगुमानी-सी बदगुमानी है,
पास होकर भी फ़ासला देखो ।
वे जो उजले लिबास वाले हैं,
उनकी आँखों में अज़दहा (अजगर) देखो ।
हो अंधेरा सफ़र, सफ़र ठहरा,
ले के चलते हैं हम दिया देखो ।
खेलता है जो मौत से होली,
क्या करेगा वो मनचला देखो ।
अम्न ही अम्न सुन लिया, लेकिन,
मक़तलों का भी सिलसिला देखो ।
इस ज़माने में जी लिया 'रहबर'
मर्दे-मोमिन (साहसी पुरुष) का हौसला देखो ।
(रचनाकाल : 01 मई 1980, दिल्ली)
चाँदनी रात है जवानी भी
चाँदनी रात है जवानी भी,
कैफ़ परवर भी और सुहानी भी ।
हल्का-हल्का सरूर रहता है,
ऐश है ऐश ज़िन्दगानी भी ।
दिल किसी का हुआ, कोई दिल का,
मुख्तसर-सी है यह कहानी भी ।
दिल में उलफ़त, निगाह में शिकवे
लुत्फ़ देती है बदगुमानी भी ।
बारहा बैठकर सुना चुपचाप,
एक नग़मा है बेज़बानी भी ।
बुत-परस्ती की जो नहीं कायल
क्या जवानी है वो जवानी भी ।
इश्क़ बदनाम क्यों हुआ 'रहबर
कोई सुनता नहीं कहानी भी ।
(रचनाकाल : 15 नवम्बर 1941, सेंट्रल जेल, संगरूर)
तबीयत में न जाने ख़ाम
बढ़ाता है तमन्ना आदमी आहिस्ता आहिस्ता,
गुज़र जाती है सारी ज़िंदगी आहिस्ता आहिस्ता ।
अज़ल से सिलसिला ऐसा है ग़ुंचे फूल बनते हैं,
चटकती है चमन की हर कली आहिस्ता आहिस्ता ।
बहार-ए-ज़िंदगानी परख़ज़ाँ चुपचाप आती है,
हमें महसूस होती है कमी आहिस्ता आहिस्ता ।
सफ़र में बिजलियाँ हैं, आंधियाँ हैं और तूफ़ाँ हैं,
गुज़र जाता है उनसे आदमी आहिस्ता आहिस्ता ।
हो कितनी शिद्दते-ए-ग़म वक़्त आख़िर पोंछ देता है,
हमारे दीदा-ए-तर (भीगी हुई आँख) की नमी आहिस्ता आहिस्ता ।
परेशाँ किसलिए होता है ऐ दिल बात रख अपनी
गुज़र जाती है अच्छी या बुरी आहिस्ता आहिस्ता ।
तबियत में न जाने खाम ऐसी कौन सी शै है,
कि होती है मयस्सर पुख़्तगी आहिस्ता आहिस्ता ।
इरादों में बुलंदी हो तो नाकामी का ग़म अच्छा,
कि पड़ जाती है फीकी हर ख़ुशी आहिस्ता आहिस्ता ।
छुपाएगी हक़ीक़त को नमूद-ए-जाहिरी(ऊपरी दिखावा, बनावट) कब तक,
उभरती है शफ़क (उषा, लालिमा) से रोशनी आहिस्ता आहिस्ता ।
ये दुनिया ढूँढ़ लेती है निगाहें तेज़ हैं इसकी
तू कर पैदा हुनर में आज़री(आजर इंसान का प्रसिद्ध मूर्तिकार था,यानी कला में पराकाष्ठा) आहिस्ता आहिस्ता ।
तख़य्युल (कल्पना) में बुलन्दी और ज़बाँ में सादगी 'रहबर'
निखर आई है तेरी शायरी आहिस्ता आहिस्ता ।
(रचनाकाल : 16 नवम्बर 1941, सेंट्रल जेल, संगरूर)
हंसराज रहबर: एक परिचय
9 मार्च 1913 को जन्मे हंसराज रहबर हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। बंद गली, भ्रांति पथ और दिशाहीन इनकी चर्चित रचना है।
उनका जन्म हरिआऊ संगवां (पूर्व रियासत पटियाला) ज़िला सुनाम में हुआ। आर्य हाई स्कूल, लुधियाना से मैट्रिक करने के बाद डी.ए.वी. कालेज, लाहौर से बी.ए. का इम्तिहान पास किया। देश के विभाजन के बाद प्राईवेट तौर पर इतिहास में एम.ए. की डिग्री प्राप्त की। स्कूल में पढ़ते हुए उनको उर्दू में शेयर कहने का शौक जागा। तब वह अर्श मलसियानी के शागिर्द बन गए । वह 1942 में हिंदी रोज़ाना 'मिलाप ' के संपादकीय मंडल में शामिल हो गए, परन्तु कुछ महीनों बाद गिरफ़्तारी के कारन यह सिलसिला टूट गया।
वह साहित्य के साथ-साथ राजनीति में भी गहरी रुचि लेने लगे और कई बार जेल गए। उनके बीस उपन्यास, दस कहानी-संग्रह और समीक्षा व आलोचना की सत्रह पुस्तकें प्रकाशित हुईं।
उनका निधन: 23 जुलाई 1994 को हो गया।
उनकी मुख्य कृतियाँ हैं; कहानी संग्रह: नव क्षितिज, हम लोग, झूठ की मुस्कान, वर्षगाँठ; उपन्यास : हाथ में हाथ, दिशाहीन, उन्माद, बिना रीढ़ का आदमी, पंखहीन तितली, बोले सो निहाल; आलोचना : प्रेमचंद : जीवन, कला और कृतित्व, प्रगतिवाद : पुनर्मूल्यांकन, गालिब बेनकाब, गालिब हकीकत के आईने में, इकबाल और उनकी शायरी अन्य : गांधी बेनकाब, नेहरू बेनकाब, भगत सिंह एक ज्वलंत इतिहास, योद्धा संन्यासी विवेकानंद, राष्ट्र नायक गुरु गोविंद अनुवाद : तुर्गनेव, बालजाक, लू शुन, हाली, जोश मलीहाबादी, इकबाल तथा कई अन्य प्रमुख लेखकों की रचनाओं का अनुवाद । उनकी रचना एहसास (ग़ज़लों और नज़्मों का संग्रह) २००4 में प्रकाशित हुई ।
- अलकनंदा सिंंह
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