Wednesday 4 September 2019

इलाहाबाद के अतर सुइया मुहल्ले में जन्‍मे थे ‘गुनाहों का देवता’ रचने वाले डॉ. धर्मवीर भारती

आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख लेखक, कवि, नाटककार और सामाजिक विचारक धर्मवीर भारती की मृत्‍यु 04 सितंबर 1997 को हुई थी।
25 दिसंबर 1926 को इलाहाबाद के अतर सुइया मुहल्ले में जन्‍मे डॉ. धर्मवीर भारती प्रख्यात साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग के प्रधान संपादक भी रहे। 1972 में पद्मश्री से सम्मानित डॉ. धर्मवीर भारती का उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ एक सदाबहार रचना मानी जाती है।
इसी प्रकार ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ को कहानी कहने का अनुपम प्रयोग माना जाता है, जिस पर श्याम बेनेगल ने इसी नाम से फिल्म बनायी। अंधा युग डॉ. भारती का प्रसिद्ध नाटक है। इब्राहीम अलकाजी, राम गोपाल बजाज, अरविन्द गौड़, रतन थियम, एम के रैना, मोहन महर्षि और कई अन्य भारतीय रंगमंच निर्देशकों ने इसका मंचन किया है।
भारती के साहित्य में उनके विशद अध्ययन और यात्रा-अनुभवों का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है।
आलोचकों में भारती जी को प्रेम और रोमांस का रचनाकार माना है। उनकी कविताओं, कहानियों और उपन्यासों में प्रेम और रोमांस का यह तत्व स्पष्ट रूप से मौजूद है परंतु उसके साथ-साथ इतिहास और समकालीन स्थितियों पर भी उनकी पैनी दृष्टि रही है जिसके संकेत उनकी कविताओं, कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, आलोचना तथा संपादकीयों में स्पष्ट देखे जा सकते हैं।

धर्मवीर भारती के काव्य में विविधता है, उनके काव्य में एक नहीं कई स्वर के सामने आते हैं। अगर आपको युद्ध और उसके बाद उपजे हालात एवं मनुष्य की महत्वाकांक्षा पर आधारित काव्य नाटक ‘अंधा युग’ पढ़ने को मिलेगा तो श्रृंगार और प्रेम की कवितायेँ भी मिलेंगी।
उन्होंने अपने काव्य में भी लगभग सभी विषयों को छुआ है, इसीलिए वे हर पाठक की ज़रूरत हैं। सदियों तक अपनी रचनाओं की बदौलत साहित्य जगत में एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर के रूप में मौजूद रहेंगे।
उस दिन जब तुमने फूल बिखेरे माथे पर,
अपने तुलसी दल जैसे पावन होंठों से,
मैं सहज तुम्हारे गर्म वक्ष में शीश छुपा,
चिड़िया के सहमे बच्चे-सा हो गया मूक,
लेकिन उस दिन मेरी अलबेली वाणी में
थे बोल उठे,
गीता के मँजुल श्लोक ऋचाएँ वेदों की।
रसमसाती धूप का ढलता पहर,
ये हवाएँ शाम की, झुक-झूमकर बरसा गईं
रोशनी के फूल हरसिंगार-से,
प्यार घायल साँप-सा लेता लहर,
अर्चना की धूप-सी तुम गोद में लहरा गईं
ज्यों झरे केसर तितलियों के परों की मार से,
सोनजूही की पँखुरियों से गुँथे, ये दो मदन के बान,
मेरी गोद में !
हो गये बेहोश दो नाजुक, मृदुल तूफ़ान,
मेरी गोद में !
ज्यों प्रणय की लोरियों की बाँह में,
झिलमिलाकर औ’ जलाकर तन, शमाएँ दो,
अब शलभ की गोद में आराम से सोयी हुईं
या फ़रिश्तों के परों की छाँह में
दुबकी हुई, सहमी हुई, हों पूर्णिमाएँ दो,
देवताओं के नयन के अश्रु से धोई हुईं ।
चुम्बनों की पाँखुरी के दो जवान गुलाब,
मेरी गोद में !
सात रंगों की महावर से रचे महताब,
मेरी गोद में !
भँवरों की पाँतें उतर-उतर
कानों में झुककर गुनगुनकर
हैं पूछ रहीं-‘क्या बात सखी ?
उन्मन पलकों की कोरों में क्यों दबी ढँकी बरसात सखी ?
चम्पई वक्ष को छूकर क्यों उड़ जाती केसर की उसाँस ?
तुम कितनी सुन्दर लगती हो
ज्यों किसी गुलाबी दुनिया में सूने खँडहर के आसपास
मदभरी चाँदनी जगती हो !

4 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 5.9.19 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3449 में दिया जाएगा

    धन्यवाद

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    Replies
    1. धन्यवाद द‍िलबाग जी

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  2. वाह ! धन्यवाद.
    यहाँ आ कर ऐसा प्रतीत हुआ ..
    जैसे कोई भूला हुआ ठिकाना
    दोबारा मिल गया हो.

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    Replies
    1. इस हौसला-अफज़ाई के ल‍िए बहुत बहुत धन्यवाद नूपुरम जी

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