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Friday, 15 October 2021

छायावादी युग के सशक्त हस्ताक्षर सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, पढ़‍िए उनकी रचनायें

 व‍िजयादशमी की हार्द‍िक शुभकामनायें------


 सूर्यकांत त्रिपाठी निराला हिन्दी के छायावादी युग के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं, यद्यपि छायावाद से संबंध रखने के बाद भी उनकी कविताएं यथार्थ के अधिक निकट हैं। निराला का जन्म पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले में 21 फरवरी 1896 को हुआ था। निराला का देहांत 15 अक्टूबर 1961 को हुआ। निराला की जयंती पर उनके द्वारा रचित चुनिंदा पंक्तियां…


मित्र के प्रति

कहते हो, ‘‘नीरस यह
बन्द करो गान
कहाँ छन्द, कहाँ भाव
कहाँ यहाँ प्राण ?
था सर प्राचीन सरस
सारस-हँसों से हँस
वारिज-वारिज में बस
रहा विवश प्यार
जल-तरंग ध्वनि, कलकल
बजा तट-मृदंग सदल
पैंगें भर पवन कुशल
गाती मल्लार।’’

मौन

बैठ लें कुछ देर
आओ,एक पथ के पथिक-से
प्रिय, अंत और अनन्त के
तम-गहन-जीवन घेर
मौन मधु हो जाए
भाषा मूकता की आड़ में
मन सरलता की बाढ़ में
जल-बिन्दु सा बह जाए
सरल अति स्वच्छ्न्द
जीवन, प्रात के लघुपात से
उत्थान-पतनाघात से
रह जाए चुप,निर्द्वन्द

रे, न कुछ हुआ तो क्या ?

रे, कुछ न हुआ, तो क्या ?
जग धोका, तो रो क्या ?
सब छाया से छाया,
नभ नीला दिखलाया,
तू घटा और बढ़ा
और गया और आया;
होता क्या, फिर हो क्या ?
रे, कुछ न हुआ तो क्या ?

धूलि में तुम मुझे भर दो

धूलि में तुम मुझे भर दो।
धूलि-धूसर जो हुए पर
उन्हीं के वर वरण कर दो
दूर हो अभिमान, संशय,
वर्ण-आश्रम-गत महामय,
जाति-जीवन हो निरामय
वह सदाशयता प्रखर दो।
फूल जो तुमने खिलाया,
सदल क्षिति में ला मिलाया,
मरण से जीवन दिलाया सुकर जो वह मुझे वर दो

बदलीं जो उनकी आँखें

बदलीं जो उनकी आँखें, इरादा बदल गया।
गुल जैसे चमचमाया कि बुलबुल मसल गया।

यह टहनी से हवा की छेड़छाड़ थी, मगर
खिलकर सुगन्ध से किसी का दिल बहल गया।

ख़ामोश फ़तह पाने को रोका नहीं रुका,
मुश्किल मुकाम, ज़िन्दगी का जब सहल गया।

मैंने कला की पाटी ली है शेर के लिए,
दुनिया के गोलन्दाजों को देखा, दहल गया।

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!
पूछेगा सारा गाँव, बंधु!

यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव बंधु!

वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबके दाँव, बंधु!

दुख भी सुख का बन्धु बना

दुख भी सुख का बन्धु बना
पहले की बदली रचना ।

परम प्रेयसी आज श्रेयसी,
भीति अचानक गीति गेय की,
हेय हुई जो उपादेय थी,
कठिन, कमल-कोमल वचना ।

ऊँचा स्तर नीचे आया है,
तरु के तल फैली छाया है,
ऊपर उपवन फल लाया है,
छल से छुट कर मन अपना ।

जागो फिर एक बार

जागो फिर एक बार!
प्यार जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें
अरुण-पंख तरुण-किरण
खड़ी खोलती है द्वार-
जागो फिर एक बार!

आँखे अलियों-सी
किस मधु की गलियों में फँसी,
बन्द कर पाँखें
पी रही हैं मधु मौन
अथवा सोयी कमल-कोरकों में?
बन्द हो रहा गुंजार-
जागो फिर एक बार!


राजे ने अपनी रखवाली की 


राजे ने अपनी रखवाली की;

किला बनाकर रहा;

बड़ी-बड़ी फ़ौजें रखीं ।

चापलूस कितने सामन्त आए ।

मतलब की लकड़ी पकड़े हुए ।

कितने ब्राह्मण आए

पोथियों में जनता को बाँधे हुए ।

कवियों ने उसकी बहादुरी के गीत गाए,

लेखकों ने लेख लिखे,

ऐतिहासिकों ने इतिहास के पन्ने भरे,

नाट्य-कलाकारों ने कितने नाटक रचे

रंगमंच पर खेले ।

जनता पर जादू चला राजे के समाज का ।

लोक-नारियों के लिए रानियाँ आदर्श हुईं ।

धर्म का बढ़ावा रहा धोखे से भरा हुआ ।

लोहा बजा धर्म पर, सभ्यता के नाम पर ।

ख़ून की नदी बही ।

आँख-कान मूंदकर जनता ने डुबकियाँ लीं ।

आँख खुली-- राजे ने अपनी रखवाली की ।

नयनों के डोरे लाल  

नयनों के डोरे लाल गुलाल-भरी खेली होली !

प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गई चोली,

एक वसन रह गई मंद हँस अधर-दशन अनबोली

कली-सी काँटे की तोली !

मधु-ऋतु-रात मधुर अधरों की पी मधुअ सुधबुध खो ली,

खुले अलक मुंद गए पलक-दल श्रम-सुख की हद हो ली--

बनी रति की छवि भोली!

कौन तम के पार ? 

कौन तम के पार ?-- (रे, कह)

अखिल पल के स्रोत, जल-जग,

          गगन घन-घन-धार--(रे, कह)


गंध-व्याकुल-कूल- उर-सर,

लहर-कच कर कमल-मुख-पर,

हर्ष-अलि हर स्पर्श-शर, सर,\

          गूँज बारम्बार !-- (रे, कह)


उदय मेम तम-भेद सुनयन,

अस्त-दल ढक पलक-कल तन,

निशा-प्रिय-उर-शयन सुख -धान

           सार या कि असार ?-- (रे, कह)


बरसता आतप यथा जल

कलुष से कृत सुहृत कोमल,

अशिव उपलाकार मंगल,

          द्रवित जल निहार !-- (रे, कह)

प्रस्‍तुत‍ि- अलकनंदा स‍िंंह

4 comments:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(१६ -१०-२०२१) को
    'मौन मधु हो जाए'(चर्चा अंक-४२१९)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. धन्‍यवाद अनीता बहन

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  3. वाह! निराला की सभी रचनाएँ एक से बढ़कर एक हैं, सुंदर चयन

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