आज कवि एवम् गद्यकार बलभद्र प्रसाद दीक्षित उर्फ “पढ़ीस” जी का जन्मदिन है। 25 सितम्बर 1898 को ग्राम अम्बरपुर, सीतापुर, उत्तर प्रदेश में जन्मे पढ़ीस जी का निधन 09 जनवरी 1943 को हुआ था।
अवधी भाषा में कविताओं के अलावा उन्होंने हिंदी में कई कहानियों का भी सृजन किया।
अगर आपके पास समय है तो पढ़ीस जी कि ‘क्या से क्या’, ‘चमार भाई’, ‘कंगले’, ‘कांग्रेसी भाई’, ‘काजी साहब’ कहानियाँ पढ़ डालिए। पढ़ने पर स्पष्ट हो जाएगा कि जिस लेखक को सिर्फ एक लोकभाषा का कवि जानकर साहित्य रसिको ने जिनकी उपेक्षा की वो दरअसल सामाजिक मतभेद, छुआछूत, साम्राज्यवाद के काल प्रबल आलोचक व हिन्दू - मुस्लिम एकता, समता व किसान हितों के प्रबल पक्षधर थे।
फरवरी सन् 1937 से लेकर मार्च 38 के बीच “पढ़ीस” जी के कुछ बालमनोवैज्ञानिक लेखों की श्रंखला उस जमाने की चर्चित पत्रिका “माधुरी” में छपी, जिसे वे “बच्चो के बाप” शीर्षक पुस्तक में संग्रहित कराना चाहते थे जो कि उनके जीवन तो क्या ? आज तक सफल नहीं हो सकी।
इनके कविता संग्रह “चकल्लस” की भूमिका स्वयं “महाप्राण निराला” ने लिखी थी।
निराला जी और पढ़ीस जी परम मित्र थे। निराला जी द्वारा लिखित चकल्लस की भूमिका की अंतिम पंक्तियाँ...
पुस्तक के पाठ से स्मरण हो आया ------- “वयं शस्त्रान्वेषणे हता:। मधुकर, त्वं खलु कृती।”
लीजिये पढ़िए "पढ़ीस" जी की पांच अवधी कविताऐं -
1. कयिसी चकल्लस आई!
अब च्यातउ (सजग हो) कढ़िले काका, बिथरे कर पुरला झारउ!
जंगल की डुँड़ी-डँगरी, बाड़ी तक पूँछ उठायिनि!
अँउँघानी आँखी ख्वालउ,
अब बड़ी चकल्लस आई।
द्याखउ तउ तनुकु उकसि कयि, दुनिया कस पल्टा खायिस,
उयि लाटि [लाट साहब] कमहटर[कमांडर] बच्चा, खरगू ते खीस निप्वारयिं!
जब हमका बेदु पढ़ावहिं,
तब बड़ी चकल्लस आई।
बड़कये काँग्रेस वाले, पहिंदे गज्जी के ज्वाड़ा,
तुम अपना का पहिंचान्यउ, तबहे तुमका पहिंचानिनि,
यहि पर कुछु स्वाचउ समुझउ,
तउ बड़ी चकल्लस आई।
द्यााखउ तउ को-को आवयि, यी खगई के ख्यातन मा
चकिया म्यलवारि न होई ? जो देयि किसनऊ झाँसा।
तुम चितवउ चारिउ कयिती,
तउ बड़ी चकल्लस आई।
सब अपने-अपने मन मा, हयिं बइठ बसंतु बनाए,
स्यावा का सोंगु[स्वाँग, नाटक] सजाये पउढ़े घर पर तनियाए।
तुम सबकी कलई ख्वालउ।
हो, बड़ी चकल्लस आई।
तुमरे टुकरन के ऊपर सब व्वार मचा लतिहाउजु[लत्तम-जूतम]
मुलु कोई कबहूँ जानिसि, यह किहिकी कयिसि तपस्या ?
सब हयि पढ़ीस के बच्चा,
बस बड़ी चकल्लस आई!
2.
बउरे आँबन की डारन क्वयिली मदमहती[मदमस्त] बूँकयि लागी;
भँउरा फूलन का चूमि-चूमि झन्नायि उठे, भन्नाय लाग;
कटनासु बसन्ती ब्वालन पर गरगय्या ते अठिलायि लाग;
तुइ बड़ी चुवानि सयानि देखु,
आवा बसन्तु छावा बसन्तु!
कोई बनरा अस बना-ठना, जानउ जनवासे जाइ रहा,
जिरई चुन-गुन बिरवा किरवा तकु, बिहँसि उठे अगवानी का;
अधखिली कली कचनार, कुआँरी कन्या की आभा ओढ़े,
पूजयि लागीं, परिछयि लागीं,
आवा बसन्तु छावा बसन्तु!
फूलन की केसरि भरी बयारी, लपटि-लपटि लहँकयि[तीव्र होना] लागीं,
बेली फूलन के घूँघुट काढ़े, दुलहिन असि महकयि लागीं,
सहिंजन से हँसि-हँसि फूल झरयि, पछियउहा जब धक्का मारयि-
करूआ कस फूलि-फूलि गावयि,
आवा बसन्तु छावा बसन्तु!
दिनु अयिस मातदिल जान परयि, गरमी-सरदी का भेदु भूला,
स्वॅतियन[वर्षा का नक्षत्र-‘स्वाती’] का पानी जूड़-जूड़, चीख्ति मा कयिस नीक लागयि,
कथरी-गुदरी काने धरिकयि, चरवाह कंज गोली ख्यालयिं,
गंधरब[गायन कला पारंगत -‘गंधर्व’] अलापि बसन्तु रहे,
आवा बसन्तु छावा बसन्तु!
माह की उजेरी पाँचयि ते, डूँड़ि-डँगरिउ[बिना पूँछ की दुबली-पतली] कूदयि लागीं,
ह्वरिहार अरंडा गाड़ि-गाड़ि, फिर अण्टु-सण्टु अल्लायि लाग,
लरिका खुरपा के बेंटु अयिस, तउनउ कबीर चिल्लायि चले,
बाबा बुढ़वा बउरायि उठे,
आवा बसन्तु छावा बसन्तु!
3. उयि क्यतने बड़े बहादुर हयिं?
धरती पर जब ते पाउँ धरिनि, सुभ करमन का संहारू किहिनि,
उलटी-पलटी बुद्धि के सहारे, अपनयि मतु पहचारि दिहिनि;
कोई जो सूधे दिल ते ब्वाला, बड़े दिमागन झारि दिहिनि-
उयि क्यतने बड़े बहादुर हयिं!
जो-नंगे भूखे परे रहीयँ, तिन का अउरउ नंगा किहनिनि;
जेतनी मरजादयि झंपी रहयि, बेदरदी से उधारि लिहिनिनि,
जबरन ते धक्का खायिनि तउ, निबरन के मुक्का जड़ि दिहिनिनि;
उयि क्यतने बड़े बहादुर हयिं!
कोई की सुन्दरि बिटिया देखिनि, तुरतयि पाछे लागि लिहिनिद्ध
अपनिन से कउनु बात पूँछयि, उयि जहाँ चहिनि उधारू मारू खायिनि-
कुतवा ब्वकरा अस घुसे छहोरिन, मारिनि अउर मारू खायिनि-
उयि क्यतने बड़े बहादुर हयिं!
हन्निन-भइँसन का मारिनि, ध्वाखा-धंधी मा, मचानु गाड़िनि!
ढुक्के-ढुक्के लुक्के लुक्के चुप्पे ते बाघु पछारि दिहिनि,
दूयिउ ते दउरि दहारि हिहिसिन तउ तंबा तकु तर कयि डारिनि;
उयि क्यतने बड़े बहादुर हयिं!
तोबइ, बंबयि, जहरीली गैसयि, बड़ी-बड़ी ईजाद किहिनि,
बदरे चढ़ि कयि, पिरथी पर डारिनि मानउ सक कुछु संघारिनि,
दिन-राति निहत्थे मनइन का जयिसी पायिनि तायिसि भूँजिनि;
उयि क्यतने बड़े बहादुर हयिं!
साह्यब का हाथा-पइयाँ ध्यरउ, द्याखउ असिलि बहादुरी जब,
खींसयि द्याखउ लूरखुरिया द्याखउ, अउर पालिसी द्याखउ अब;
उयि हत्या करयि क बड़े सिपाही, यिहि का मउका पावयिं तब
उयि क्यतने बड़े बहादुर हयिं!
4. कयिस-कयिस कनवजिया हउ?
घर मा, बँभनन माँ, हिन्दुन मा, हिन्दुस्तानिन, संसार बीच
मरजाद का झंडा गाड़ि दिह्यउ, अब कयिस-कयिस कनवजिया हउ।
तुम बड़े पवित्र, पूर पण्डित, नस-नस मा दउरा असिल खून,
तुम खटकुल की खीसयि द्याखउ ? तुम अयिस बड़े कनवजिया हउ।
बहिनी, बिटिया कंगाल जाति की, तुमरे कारन पिसी जायि,
तुम सह्यब बने सभा मा भूल्यउ, कयिस, अयिस कनवजिया हउ।
पढ़ि-पढ़ि पूरे पथरा भे हउ, घर-घर मा जगुआ छायि रहा।
यी सयिति दिल्ली ते घाखति हयि, अयस बड़े कनवजिया हउ।
ध्वड़हा, उँटहा लदुआ किसान निज करमु करयि तउ तुम डहुँकउ,
अपनी बिरादरी का तूरति हउ, अयिस नीक कनवजिया हउ।
तुम दकियानूसी बतन भूल, देस-काल ते पाछे हउ,
तुम का गल्लिन का गिटई हँसती, अयिस खरे कनवजिया हउ।
तुम जस-जस चउका पर झगरय्उ, तस जाति बीच भमोलु भवा,
दादा, अब हे कुछु चेति जाउ, तुम कयिस कनवजिया हउ।
5. चमारिनि
फूले मटरा के म्याड़न पर, हम जोलिन ते ठलुहायि करति
निःचिंत जुवानि जगी नस-नस, जागे मन-हे-मन खिलति
वह चटकि चमारिन च्वाट करयि, कच ढिल्लन पर डिंगारूअयिसि-
सतजुग वाली।
वुयि साँची-सूधी बातयि वहि की, आपुइ रूपु बनयिं कविता-
जस उवति सुर्ज्ज-किरनन की कॉबी हिरदउॅ भीतर घुसि जायि,
बेजा दबावु पर तिलमिलायि का नागिनि असि फनु काढ़ि देयि;
को चितयि सकयि?
दुनिया के पाप-पुण्य की कयिंची का वुहिका का कतरिसि-ब्यउँतिसि?
‘तुइ अस न हँसे,’ ‘तुइ वसयि रहे’ मुरही बातन के तीख तीर;
अपने साथी बिरवा पर मानउ लता अयिसि लपिटायि रही-
तन ते - मन ते।
‘मइँ तुहि ते, तब तुई महिते हयि,’ जिहि के चमार का एकु कौल
दूनउ वारन के खुले क्यॅवाँरन की पियार की क्वठरी मा,
अंतरजामी बनि, आँखी मँूदे, लुकी - लुकउवरि खेलि रहे,
को छुइ पावयि ?
ब्यल्हरातयि आवा, हँसतयि पूछिसि, ‘के री, रोटी कहाँ धरी ?’
‘‘रूखी-सूखी, सिकहर मोरे छइला, मोरे साजन।’’
कहि आँखिन पर बइठारि लिहिस, धनु धूरि भवा, युहु धरमु देखि,
समुझवु कोई?
प्रस्तुति - अलकनंदा सिंंह
साधुवाद
ReplyDeleteधन्यवाद जोशी जी
Deleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (27-09-2021 ) को 'बेटी से आबाद हैं, सबके घर-परिवार' (चर्चा अंक 4200) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
धन्यवाद रवींद्र जी
Deleteउम्दा प्रविष्टि
ReplyDeleteधन्यवाद ओंकार जी
ReplyDeleteसच दी आपकी लगन को नमन।
ReplyDeleteसादर
धन्यवाद अनीता जी, आपके संबोधन से अभिभूत हूं
Deleteगहन जानकारी पढ़ीस जी के बारे में, सच कहूं तो मैंने इन्हें नहीं पढ़ा कभी भी अलकनंदा जी ।
ReplyDeleteमौका मिला तो अवश्य पढ़ना चाहूंगी।
सार्थक पोस्ट।
धन्यवाद कुसुम जी, हौसला बढ़ाने के लिए शुक्रिया
Deleteबहुत ही सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteधन्यवाद मनोज जी
Deleteसुंदर, सार्थक रचना !........
ReplyDeleteब्लॉग पर आपका स्वागत है।
सुन्दर अति सुन्दर, हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।, एक राय मेरी रचना पर भी
ReplyDeleteपोस्ट चुराकर लेखक का नाम भी लिखना ठीक नही समझा ?
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