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Sunday, 17 October 2021

हिंदी साहित्य में स्त्रियों के अंतर्मन की आवाज़ थीं ‘शिवानी’


शिवानी जी एक सुप्रसिद्ध महिला उपन्यासकार थीं। वैसे तो, इनका वास्तविक नाम गौरा पन्त था, किन्तु ये उपनाम शिवानी के नाम से लेखन करती थीं। इनका जन्म 17 अक्टूबर 1923 को राजकोट, गुजरात मे हुआ था। और पढ़ाई शान्तिनिकेतन में हुई। शिवानी जी का निधन सन 2003 मे हुआ था।

उनकी लिखी कृतियाँ कृष्णकली, भैरवी, दो सखियां, शमशान चंपा, शान्तिनिकेतन, विषकन्या, चौदह फेरे आदि प्रमुख हैं। शिवानी जी की खासियत उनके कुमाऊँ अंचल के शब्द, जिस कारण मुझे उनकी कहानियां अतिप्रिय है।

वैसे तो किताबें पढ़ने का शौक मुझे बचपन से ही रहा। खासकर हिंदी साहित्य। बहुत सारे साहित्यकार मेरे पसंदीदा रहे हैं, जिन की मैंने लगभग सभी पुस्तकें और उपन्यास पढ़े। उनमें से एक है गौरा पंत जो शिवानी के नाम से साहित्य जगत में प्रसिद्ध है।

आज पढ़‍िए उनकी ल‍िखी कहानी "नथ" 

'नथ' कहानी में भी शिवानी ने अकिंचन अनपढ लदाखी पुट्टी के जीवन और उसके अंतिम सात्विक दान का जो ज़िक्र किया है, उसे जबरन आज के राष्ट्रप्रेमी राजनीति के या नारीवादी समीक्षक वादविशेष के तंग दायरे में न पढ़ें । शिवानी का जीवन और साहित्य दिखाते हैं कि हमारी स्त्री स्वाधीनता की एक खामोश लड़ाई पिछली सदी में भी जारी थी ।जिन स्त्रियों ने अगली पीढी के लिये राह बौद्धिक क्षेत्र में प्रशस्त की, उन्होंने इस सारी लडाई में निजी स्तर पर बहुत कुछ चुपचाप और लगातार सहा और झेला था। वे समाज के हर वर्ग की स्त्रियों की इस मूक, लगभग अलिखित दास्तान की प्रत्यक्षदर्शी हैं, और बखूबी जानती हैं कि यह लड़ाई स्त्री पुरुष के बीच सहज प्रेम और शारीरिक आकर्षण अथवा परिवार व्यवस्था के खिलाफ नहीं (जैसा कि अक्सर प्रचारित किया जाता है) बल्कि उस आत्म वंचना और छद्म परंपरावाद के खिलाफ थी, जिसके पीछे तब से आज तक धर्म, राजकीय सत्ता और अर्थनीति की बर्बर ताक़तें लामबंद हैं। 


शिवानी की ल‍िखी "छब्बीस कहानियाँ" से ली गई है कहानी 

"नथ" ----- 

पुट्टी ने उठकर अपनी छोटी-सी खिड़की के द्वार खोल दिये। धुएँ से काली दीवारों पर सुरज की किरणों का जाल बिछ गया। छत से झूलते हए छींके में धरे ताजे मक्खन की खुशबू से कमरा भर गया और पुट्टी के हृदय में एक टीस-सी उठ गयी — क्या करेगी उस खुशबू का जब उस मक्खन को खानेवाला ही नहीं रहा! ऐसे ही ताजे मक्खन की डली फाफर की काली रोटी पर धरकर खाते-खाते उसके पति ने उसके मुँह में अपना जूठा गस्सा दूंस दिया था — ठीक जाने के एक दिन पहले। उस दिन भी ऐसे ही खिड़की के पट से चोर-सा उजाला आकर पूरे कमरे में फैल गया था और उसी उजाले के पीछे-पीछे न जाने कहाँ से उसकी सास आकर खड़ी हो गयी थी। अपने धृष्ट फ़ौजी पुत्र की बहू को कर्कशा सास ने वहीं चीरकर धर दिया था — "हद है बेशर्मी की भी! हमारे कुमाऊँ की छोकरी होती, तो ऐसी बेशर्म थोड़े ही होती! है न तिब्बत की लामानी, इसी से गुण दिखा रही है!" सास के जाने के पश्चात् वह कितनी देर तक पति की छाती पर सिर धरे सुबकती रही थी, पर जिस छाती को चीनियों की गोलियों की वर्षा झेलनी थी, वह सुन्दर पत्नी की टेक बनती भी कैसे? गुमान सिंह के जाते ही पुट्टी पर विपत्तियों का पर्वत टूट पड़ा। सास, विधवा ननद और जिठानी की गालियाँ सुनती तो वह जान-बूझकर ही बहरी बन जाती-दोनों कानों पर हाथ धरकर इशारा करती कि उसे कुछ भी नहीं सुनाई दे रहा है। विधवा ननद का पर्वताकार शरीर क्रोध के भूकम्प से डोल उठता — “अन्धी, कानी, बहरी लड़कियाँ क्या अभी और बची हैं भौजी, तुम्हारे तिब्बत में? अभी हमारा एक भाई और भी तो है।" वह व्यंग्य-भरे स्वर में चीखकर कहती। अपने दोनों कानों पर हाथ धर अपनी भोली सूरत को और भी भोली बनाकर पुट्टी सधे अभिनय की मुद्रा में कहती, “क्या करूँ, न जाने क्या हो गया है इन कानों में! हरदम साँय-साँय की आवाज़ आती है! एकदम बज्जर गिर गया है — निगोड़े कानों में!" । 

"इतना घमण्ड था न अपने रूप का! तिब्बत के जादू से हमारे भैया को भेड़ बनाकर रख दिया! इसी से भगवान ने सज़ा दी! भगवान करे, तुम्हारे कानों पर ही नहीं, पूरे शरीर पर बज्जर गिरे। कुलच्छनी न होती, तो क्या गुमान को लद्दाख जाना पड़ता।"

पुट्टी अपनी हिरनी की-सी तरल दृष्टि से उसे देखकर हँसती रहती जैसे उसकी पुरुष गर्जना का एक शब्द भी उसके पल्ले न पड़ा हो।

माता, भाई, भौजाई और विधवा बहन से लोहा लेकर ही गुमान उसे ब्याह लाया था। अपनी माँ के साथ वह गाँव-गाँव में फेरी लगाकर बिसाती का छोटा-मोटा सामान बेचा करती थी। स्वास्थ्य से दमकते लाल चेहरे पर उसकी तीखी नाक और बड़ी-बड़ी आँखें लामा कन्याओं की भाँति चपटी और छोटी नहीं थीं। कानों में गन्दे पीले सूत में गूंथे फीरोजा और मूंगे झूलते थे। कन्धे से टखने तक झूलते उसके तिब्बती लबादे की टीली-ढाली बाँहों में वह एकदम ही बच्ची लगती, पर कभी-कभी लबादे की केंचुली उतारकर वह उसकी बाँहों में रहस्यमय सीवन से ढूंढ-ढूँढ़कर जुएँ मारती और अब लबादे की केंचुली से रहित उसका उन्मुक्त यौवन किसी लपलपाते नाग की भाँति देखनेवाले को डसने दौड़ पड़ता। गुमान ने भी उसे एक दिन बिना केंचुली के देख लिया। ग्राम के चौराहे पर उसकी माँ ने अपनी गन्दी चादर फैलाकर दुकान खोल दी थी। जम्बू, गन्फ्रेणी आदि मसाले की जड़ी-बूटियों के बीच वह स्वयं टाँग पसारकर धूप सेंक रही थी और एक टीले पर बैठी उसकी सुन्दरी पुत्री अपने लबादे की बाँहों से जुएँ बीन-बीनकर मार रही थी। गुमान सिंह छुट्टियों में घर आया हुआ था। सुबह उठकर वह घूमने निकला और माँ-बेटी की हाट के सामने ठिठककर खड़ा हो गया। पुट्टी अपनी सुडौल बाँहों को अपने लबादे की मुर्दा बाँहों से टटोल-टटोलकर जुएँ निकाल रही थी। गुमान को देखा, तो लजाकर उसने हाथ खींच लिए। उसके गालों की उठी मंगोल हड्डियों के बीच गुलाबी रस का सागर छलक उठा। चौड़े माथे पर गोंद की तरह चिपकाई काले केशों की पुट्टी से कुछ केश निकलकर हवा में फरफरा रहे थे। जीर्ण कुरते के बटनों की पूर्ति एक बडी-सी सेफ्टी पिन लगाकर की गयी थी। पर किसी वेगवती नदी के दो पाटों पर बाँधा गया रस्सी का पहाड़ी पुल जैसे साधारण-सी हवा में कॉप-काँप उठता है, उसी भाँति सेफ्टी पिन रह-रहकर काँप रही थी। गुमान अकारण ही चीज़ों का मोल-तोल करने लगा। कभी मैली चादर पर सजे छोटे आईने में अपनी मूंछ सँवारता, कभी नीले फीरोजा की अंगूठी पहनता और कभी उठाकर तिब्बती घण्टियाँ ही टनटनाने लगता। 

"क्यों बेकार में गड़बड़ करता!" पुट्टी की माँ ने अपनी टूटी-फूटी हिन्दी में उसे झिड़क दिया — “लेना है तो लो, नहीं तो जाओ!"

उसकी युवा पुत्री के आते ही ग्राम के मनचलों की भीड़ जम जाना नित्य का नियम था, पर वह बड़ी खूँखार और रूखी औरत थी। जौ की शराब और भेड़-बकरे के कच्चे गोश्त ने उसका रक्तचाप शायद और भी बढ़ा दिया था। असली और नकली ग्राहक को वह चट से बीनकर फटक देती थी। पर गुमान सिंह को दुबारा झिड़कने का साहस उसे भी नहीं हुआ। उस गोरे तरुण की निर्भीक दृष्टि में कुछ अजीब मोहिनी थी। फिर वह फ़ौजी जवान था — ऐसा फ़ौजी जो एक-दो दिन में ही निर्मम चीनी लुटेरों को भगाने लाम पर जा रहा था। पुट्टी की माँ का मन अकारण ही ममता से भर गया। चीनियों को वह कभी क्षमा नहीं कर पायी थी। उसके इकलौते बारह वर्ष के पुत्र को उन्होंने चीन के किसी स्कूल में पढ़ने भेज दिया था। उसके दमे के रोगी पति को सड़क की बेगार में जोत-जोतकर मार डाला था। उसके हाथी से विराट् याक को काट-काटकर हत्यारों ने अपनी फ़ौजी टुकड़ी को खिला दिया था और एक दिन भी वह चूकती, तो उसकी पुट्टी को भी उड़ा ले जाते। रात ही रात में वह 'मनी पद्मी हुम्' जपती पुत्री को खींचती, गिरती-पड़ती तिब्बत की सीमा पार कर गयी थी। उन्हीं चीनियों को मार भगाने गुमान जा रहा था, इसी से वह उसकी श्रद्धा का पात्र बन गया।

वह नित्य ही उस सराय में पहुँच जाता जहाँ पुट्टी अपनी माँ के साथ रहती थी। पुट्ठी उसके लिए मक्खन-नमकवाली गरम तिब्बती चाय और पशमसहित भूने गये भेड़ की रान के बड़े-बड़े टुकड़े तैयार कर लाती। पुट्टी की माँ दोनों पर अपनी छोटी-छोटी आँखों का अंकुश लगाये बैठी रहती। फिर भी न जाने कब पुट्टी के मंगोल कटाक्षों की अर्गला गुमान के हृदय-कपाट पर स्वयं ही लग गयी। जाने के तीन दिन पूर्व गुमान ने पुट्टी की माँ के सम्मुख उसकी पुत्री से विवाह का प्रस्ताव रखा, तो वह बड़े सोच में पड़ गयी। कुमय्यों के बीच खाली दाल-भात खाकर उसकी तिब्बती बेटी कैसे जियेगी? बिना जौ की शराब के उसके गले के नीचे रोटी का गस्सा नहीं उतरता और फिर दूध-चीनीवाली चाय भला कौन तिब्बती लड़की घुटक पायेगी? फिर वह गुमान की माँ और विधवा बहन को देख चुकी थी। उस क्रूर बुढ़िया के शासन में उसकी पुट्टी घुल-घुलकर रह जायेगी।

नहीं!' दृढ़ स्वर में अपना निश्चय प्रकट करने को उसने अपनी गरदन ऊँची की, तो देखा, गुमान और पुट्टी दोनों दीन याचक की दृष्टि से उसे देख रहे थे। दूसरे ही क्षण पुट्टी की माँ को ग्राम के मनचलों का ध्यान आया जो भूखे व्याघ्र की भाँति पुट्टी को किसी भी क्षण निगल जाने को तत्पर थे। उसने अपनी सहमति दे दी। पर अभी गुमान को अपनी माँ, बहन और बिरादरी से मोर्चा लेना था। माँ ने पहाड़ से कूद जाने की धमकी दी। बहन ने कहा, वह फाँसी लगा लेगी। पर तिब्बत की सुन्दरी कन्या को लाकर जब गुमान पाँच पंचों के सामने सीना तानकर खड़ा हो गया, तो पंच भी सहम गये। पुट्टी के सात्विक सौन्दर्य ने धर्म, जाति और रूढ़ियों की उलझी गाँठे क्षण-भर में सुलझाकर रख दीं। दूसरे ग्राम से पण्डित बुलाकर गुमान के युवा मित्रों ने फेरे फिरा दिये और कुछ याकूत, फीरोजे, चाँदी की तीन-चार दंतखुदनियाँ और चार बकरियों के दहेज के साथ जोर-जोर से रोकर पुट्टी की माँ ने उसे सराय से ससुराल के लिए विदा किया। न जाने कितनी गालियों से सास ने उसका वरण किया। जिठानी और ननद उसके विचित्र लबादे का मजाक बनाती ज़ोर-ज़ोर से हँस रही थीं। किन्तु उस बदसूरत लबादे के भीतर जगमगाते रत्न को एक ही व्यक्ति ने पहचाना — और वह था गुमान । वह जितना ही अपनी भोली विचित्र पत्नी को देखता, उतना ही उसके सौन्दर्य में डूबता चला जाता। पुट्टी बहुत कम बोलती और बोलने और हँसने में उसके गालों की ऊँची हड्डियाँ कुछ और भी ऊँची उठ जाती थीं।

गुमान का कमरा बेहद छोटा और अँधेरा था। एक कोने में ताजे खोदे गये मिट्टी से सने आलुओं का ढेर लगा था, दूसरी ओर दो टूटे हल दीवार से टिके थे जिन पर उसकी खाकी वर्दियाँ टॅगी थीं। काली दीवार पर एक बडा-सा आईना टँगा था. जिसे गुमान मद्रास से ख़रीदकर लाया था। उसी आईने में युगलप्रेमियों ने एकसाथ अपना चेहरा देखा, तो दिन भर की कड़वाहट धुल गयी। रात को अपनी नवेली पत्नी के लिए गुमान कमरे में ही खाना ले आया, तो वह कटकर रह गयी। बार-बार उसने गरदन हिलाकर कमरे में खाने की व्यवस्था पर असन्तोष प्रकट किया, टूटी-फूटी पहाड़ी में अपनी लज्जा व्यक्त करने की चेष्टा की, किन्तु वह जिधर गरदन फेरती, वहीं उसका सजीला पति उसके मुँह में गस्सा हँस देता। पुट्टी अपनी ढीली-ढीली वाँहों में मुँह ढाँकने की चेष्टा कर अपनी तिब्बती भाषा में न जाने क्या बुदबुदाती और गुमान उसकी विचित्र बड़बड़ाहट को दुहराता, तो वह खिलखिला उठती। गुमान होंठों पर अंगुली रखकर उसे इशारे से समझाता-“श्श! धीरे हँसो... बगलवाले कमरे में अम्मा लेटी हैं।" पुट्टी उसके गूंगे आदेश को चट समझ लेती। दोनों नन्दनवन के उन शीतल वृक्षों की स्वर्गिक छाया में थे जहाँ भाषा का कोई बन्धन नहीं रहता। वहाँ केवल एक ही भाषा ग्राह्य है, और वह है हृदय की। दूसरे दिन वह सास के पीछे-पीछे छाया-सी घूमती रही, पर वह एक शब्द भी नहीं बोली। ननद के साथ वह बरतन मलवाने बैठी, तो ननद ने उसकी ओर देखकर पच्च से थूक दिया। पुट्टी की आँखों में आँसू छलक आये। अभी तो उसका पति यहीं था। उसके जाने पर उसकी कैसी दुर्गति होगी!

दूसरे दिन उसकी माँ उससे मिलने आयी। पुत्री के कुम्हलाये चेहरे को देखकर उसका जी भर आया। अपनी भाषा में फुसफुसाकर उसने पुट्टी के हृदय का भेद लेने की बड़ी चेष्टा की, पर पुट्टी सिर झुकाये खड़ी रही। कुछ नहीं बोली। उसके पीछे खड़ी उसकी सास और ननद आग्नेय दृष्टि से उसकी माँ को देख रही थीं। किसी ने उससे बैठने को भी नहीं कहा। तब गुमान अपने मित्रों की टोली के साथ शिकार खेलने गया हुआ था। लौटने पर अपनी माँ के अपमान की बात पुट्टी ने अपने ही तक सीमित रखी।

इसी बीच गुमान सिंह के जाने का दिन आ गया। जाने से कुछ घण्टे पहले उसने अपने खाकी कुरते में लपेटा गया एक रहस्यमय उपहार पुट्टी को थमा दिया — "पुट्टी, इसमें तेरी पसन्द की एक चीज़ लाया हूँ, पर अभी मत खोलना, समझी! और अकेले में देखकर इसे आलू की ढेरी के नीचे गाड़कर रख देना।" पुट्टी डबडबाई आँखों से पति के हँसमुख चेहरे को देखती रही। कहती भी क्या? अपने हृदय की व्यथा को वह अपनी ही तिब्बती भाषा में ठीक से व्यक्त कर सकती थी। और उस भाषा के दुरूह शब्द उसका पति कैसे समझता! पतली मूंछों के नीचे पति की मीठी हँसी के सपने देखती बेचारी आलू के ढेर पर सिसकती रही। एकाएक उसे पति के शब्द याद आये — 'इसे अकेले में देखना पुट्टी!' हाथ की बादामी थैली को वह भूल ही गयी थी। क्या लाया होगा गुमान? काँपते हाथों से उसने पोटली खोली और चौंककर पीछे हट गयी। पोटली से यदि काला नाग भी फन उठाये निकल आता, तो भी वह शायद इतनी नहीं चौंकती। पोटली से उसके पीले गोल चेहरे की परिधि से भी बडी पीले चोखे सोने की नथ झकझक दमक उठी। लाल, सफ़ेद और हरे कुन्दन का जड़ाऊ लोलक उसके हाथ का स्पर्श पाकर घड़ी के पेण्ड्लम-सा डोल उठा। सहसा उसकी आँखें पति के प्रति कृतज्ञता से डबडबा आयीं। एक दिन उसने ग्राम के प्रधान की बहू की नयी नथ देखकर पति से आलू के इसी ढेर पर बैठकर एक नथ की फ़रमाइश की थी। हाथ के इशारे से ही उसने अपनी छोटी सुघड़ नासिका के इर्द-गिर्द अँगुली से घेरा खींच-खींचकर भूमिका बाँधी थी। पहले गुमान समझा नहीं था और फिर कैसे ठठाकर हँसा था! आज उसी आलू के ढेर पर नथ झकझक कर रही थी, पर उसे पहनकर बैठेगी तो देखेगा कौन! टप-टप कर उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे। न जाने कब उसकी माँ आकर चुपचाप उसके पीछे खड़ी हो गयी थी। सास और ननद गुमान को छोड़ने बस-स्टैण्ड गयी थीं। पुट्टी की माँ शायद बाजार करने जा रही थी। माथे पर पोटली की गाँठ बँधी थी। दामाद से वह कल ही मिल ली थी। सुबह से ही पुट्टी के लिए उसका मन न जाने क्यों व्याकुल हो उठा था। सूजी-सूजी आँखों से माँ को निहारकर पुट्टी ने इशारे से नथ दिखायी। पोटली को नीचे उतारकर माँ पुत्री के निकट खिसक आयी। नथ हाथ से उठायी, तो उसकी आँखें आश्चर्य से फट पड़ी।

"बाप रे बाप! कम से कम छह तोले की है पुट्टी! इतना रुपया तेरे आदमी के पास कहाँ से आया?"

"क्या पता, माँ! कह गये हैं, अम्मा से बचाकर जमीन में गाड़ देना।"

पुट्टी की माँ की आँखों में समधिन के प्रति घृणा उभर आयी — "ठीक ही तो कह गया। चुडैल अपनी बेटियों को दे देगी। ला...ला, जल्दी से कुछ ला, गाड़कर रख दूँगी, नहीं तो फिर बुढ़िया आ जायेगी। पर एक बार पहन तो बेटी, मैं भी देखू! ऐसी नथ और ऐसा तेरा रूप — एक बार तो देख जाता अभागा!"

सुन्दरी पुत्री के सौम्य चेहरे पर नथ की शोभा देखकर उसकी आँखें भर आयीं। डलिया में धरे टूटे दर्पण को निकालकर पुट्टी ने चटपट अपना चेहरा देखा, तो स्वयं लाज से लाल पड़ गयी — "छिः, कहीं भी अच्छी नहीं लग रही हूँ!" ऐसा कहकर वह माँ से अपने सौन्दर्य की स्तुति बार-बार सुनना चाह रही थी।

"तू अच्छी नहीं लग रही है, तो कौन अच्छी लगेगी, तेरी खूसट सास? अच्छा, ला, उतार नथ। मैं चट से गाड़ दूं। ऐसी चीज़ क्या बार-बार बनती है!"

जब तक पुट्टी की सास और ननद लौटी, मां-बेटी ने दो हाथ गहरा गड्ढा खोदकर नथ को गाड़ दिया था। नथ का इतिहास माँ-बेटी तक ही सीमित रह गया। फिर धीरे-धीरे युद्ध की दारुण विभीषिका में पुट्टी भटककर रह गयी। भाँति-भाँति के भयावने समाचार सुनकर वह तड़पकर रह जाती। कभी सनती, कमाऊँ के असंख्य वीर जवानों के पावन रक्त के अबीर से नेफा और लद्दाख के वन-वनान्त रँग गये हैं। कभी सुनती, नृशंस चीनी हत्यारों ने चारों ओर से घेरकर कुमाऊँ रेजीमेण्ट की एक पूरी टुकड़ी को मोर्टार तोपों से भून दिया है। भूखी-प्यासी वह कभी स्कूल के हेडमास्टर के रेडियो से कान सटाकर बैठ जाती, कभी बिलख-बिलखकर रोने लगती। हिन्दी वह ठीक से समझ नहीं पाती थी और ठीक से न समझे जाने पर युद्ध के भयावने समाचार उसे और भी भयानक लगते। सास दिन-भर बड़बड़ाती — "कुलच्छनी रो-रोकर कैसा अशगुन कर रही है...!"

बहुत दिनों तक गुमान की कोई चिट्ठी नहीं आयी और फिर एक दिन एक तार आया — "कुमाऊँ रेजीमेण्ट का गुमान सिंह दुश्मन की गोलियाँ झेलता हुआ आखिरी दम तक अपनी चौकी पर डटा रहा। अन्त में जाँघ में गोला फटकर लगने से वह वीरगति को प्राप्त हुआ।"

जब उसकी सास और ननद, छातियाँ पीट घायल हथिनी-सी चिंघाड़ रही थीं तब पुट्टी शान्त प्रस्तर प्रतिमा-सी आलुओं के ढेर पर बैठी थी। वही आलुओं का ढेर उसके प्रेम का ताजमहल था। उसी ढेर पर सौभाग्य ने उसका वरण किया था और आज वही वैधव्य का विषधर उसे डंस गया था। एक-एक आलू के साथ सहस्र स्मृतियों लिपटी पड़ी थीं। आलुओं की मिट्टी पर गुमान ने जाने के एक दिन पहले अपना और पुट्टी का नाम अँगुली से लिख दिया था। नाम के उसी घेरे को पुट्टी एकटक देख रही थी। पुट्टी की माँ बिलखती आयी, पर पुट्टी को देखकर स्तब्ध रह गयी। यह तो पुट्टी नहीं, जैसे स्वयं तिब्बत के मठाधीश बड़े लामा बैठे थे। उसकी आँखों में एक भी आँसू नहीं था। स्थिर दृष्टि उठाकर उसने अपनी माँ को देखा।

“मेरी बच्ची, मेरे साथ घर चलेगी?" वह अपना चेहरा उसके पास सटाकर बोली।

"नहीं...नहीं, मैं वहीं रहूँगी।” आलुओं की ढेरी को ममता से देखकर पुट्टी ने मुँह फेर लिया।

पुत्र की मृत्यु ने उसकी सास को जीती-जागती तोप बना दिया। वह दिन-रात आग उगलती, पर पुट्टी पत्थर बन गयी थी। रोज रात को वह पति की वरदी सूंघती, माथे से लगाती और फिर छाती से लगाकर आलुओं के ढेर पर लेट जाती। जिधर करवट बदलती, उधर ही वरदी को भी यत्न से लिटा देती और धुएँ से काली छत को देखती रहती।

एक दिन उसने सुना, उसके ग्राम से सत्तह मील दूर की तहसील पर कमिश्नर साहब आये हुए हैं और गाँव की स्त्रियों से सोना माँग रहे हैं। सोना जमा कर देश के लिए गोलियाँ खरीदी जायेंगी, बारूद आयेगा और उसी गोला-बारूद से चीनियों से लोहा लिया जायेगा। 

"पर किसके पास होगा इतना सोना?" पुट्टी ने सुना, उसकी सास अपनी पुत्री को कह रही थी — "हमारे दरिद्र गाँव में तो दो बेला एक मूठ अन्न भी नहीं जुटता। मेरे पास तो दस तोले की नथ है, पर क्यों हूँ! इन्होंने ही तो मेरा बेटा छीन लिया!"

पुट्टी मन-ही-मन सास पर झुंझला उठी। इस बुढ़ापे में भी नथ का लोभ नहीं गया! उसकी आँखें सहसा अँधेरे कमरे में जुगनू-सी चमकीं। उसके हाथ स्वयं ही टटोल-टटोलकर आलुओं के ढेर को हटाकर मिट्टी खोदने लगे।

गाँव की तहसील में बड़ी भीड़ थी। कमिश्नर साहब ने अपने बन्द गले के अफ़सरी कोट के बटन खोलकर बड़ा जोशीला भाषण दिया। उसमें उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि किस प्रकार उसकी पत्नी ने अपने गले की चेन खोलकर स्वेच्छा से रक्षा-कोष की झोली में डाल दी थी।

सभा में एक अजीब-सी स्तब्धता थी। तभी भीड़ को चीरकर एक तिब्बती किशोरी बढ़ गयी। उसके फटे लबादे की बाँहों से उसकी बताशे सी सफ़ेद कुहनियाँ निकल आयी थीं। तेज़ी से चलने के कारण वह अभी भी हाँफ रही थी। ललाट पर पसीने की बूंदें उसके चम्पई रंग को और भी मनोहारी बना रही थीं। जल्दी से हाथ की खाकी पोटली को कमिश्नर की थैली में डालकर वह भीड़ में खो गयी। न उसे अपनी उदारता की घोषणा करने का अवकाश था, न कोई कामना। कमिश्नर-महिषी की पतली आधे तोले की चेन नयी सोने की नथ की कुण्डली के नीचे न जाने कहाँ खो गयी! बातों के धनी कमिश्नर की सतर मूंछों को पुट्टी के आकस्मिक आगमन ने सहसा खींचकर नीचा कर दिया। अपनी पत्नी के सामान्य दान की ऊँची घोषणा का खोखलापन उन्हें स्वयं धिक्कार उठा। क्या वह पतली चेन उनकी पत्नी का एकमात्र आभूषण था? उनका सौ तोला सोना तो स्टेट बैंक के लॉकर से लाकर स्वयं उनकी माँ ने कहीं गाड़ दिया था। “युद्ध के दिनों में भला बैंक में सोना कीन धरेगा, बेटा!" — माँ ने कहा था। काँपते कण्ठ से उन्होंने भीड़ को सूचित कर दिया-“एक अज्ञात महिला अभी-अभी वह नथ दे गयी हैं। भीड़ में वह जहाँ कहीं भी हों, आकर इसकी रसीद ले जायें।"

हाथ में पकड़कर उन्होंने नथ उठाकर भीड़ को दिखायी। तिलमिलाते रौद्र की प्रखर किरणों में नथ झक-झक कर उठी। 

भीड़ से कोई भी महिला उठकर रसीद लेने नहीं आयी, केवल नथ ही चमक-चमककर पुट्टी के सात्विक दान की रसीद अपने सुनहले अक्षरों में स्वयं लिख गयी।

प्रसतुत‍ि - अलकनंदा स‍िंंह




8 comments:

  1. आंचलिक पहचान को शामिल करने से ही शिवानी ने अपनी पहचान बनायी थी|

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    1. जी जोशी जी, सही कहा आपने। आंचल‍िकता ही वह राह है जो हमें आमजन के द‍िलों तक ले जाती है

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  2. शिवानी की इस सुंदर कहानी को पढ़वाने के लिए शुक्रिया

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    1. धन्‍यवाद अनीता जी

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  3. सुन्दर कहानी

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  4. वाह ! बहुत ही हृदयविदारक कहानी, पर संतोष और कर्तव्य ने दर्द को मात दे दिया । साझा करने के लिए आपका बहुत बहुत आभार अलकनंदा जी ।

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    1. धन्‍यवाद ज‍िज्ञासा जी

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