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Wednesday 16 December 2020

डॉ.कलीम आजिज़: जिन्होंने आपातकाल के उस नाज़ुक दौरा में इंदिरा गांधी से सीधे पूछा, “तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो”


 वर्ष 1976 के दौरान विज्ञान भवन में भारत के राष्ट्रपति द्वारा उनकी प्रथम पुस्तक का लोकार्पण किया गया था। कलीम आजिज़ 60 और 70 के दशक में स्वतंत्रता दिवस की संध्या पर होने वाले लाल क़िले के मुशायरे में बिहार का प्रतिनिधित्व करने वाले एकमात्र शायर थे। यहीं उनकी प्रसिद्धि एक निडर और बेबाक शायर के रूप में भी हुई, लाल क़िला के डाईस से ही 1975 में डॉ. कलीम आजिज़ ने आपातकाल के उस नाज़ुक दौरा में उस समय मुशायरे में मौजूद भारत की प्रधानमंत्री इंदरा गांधी की जानिब इशारा करते हुए एक शेर पढ़ डाला:- दामन पे कोई छींट, न ख़ंजर पे कोई दाग, तुम क़त्ल करे हो, के करामात करो हो.. इस शेर उन्हे बहुत दाद मिला पर मुशायरा करवाने वालों का ख़ून सूख चुका था।

इसके बाद जीवन भर “तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो” जैसी गज़ल डॉ कलीम आजिज़ की पहचान बनी रही।
डॉ. कलीम आजिज़ साहेब की हालात ए ज़िन्दगी और गज़ल के संग्रह ‘वो जो शायरी का सबब हुआ’ जब शाए हुई तो आपबीती जगबीती बन गई। आज़ाद भारत में अश्क का सैलाब उमड़ गया। आज़ाद भारत की हुकूमत हिल सी गई। ज़ख़्म पर मरहम रखने के लिए डॉ. कलीम आजिज़ को सालों बाद जनवरी 1989 में इसी किताब के लिए पद्मश्री अवार्ड दिया गया। आज यह किताब पटना विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर के पाठ्यक्रम में शामिल है।
बात चीत के दौरान इस अज़ीम शायर ने एक बार कहा था कि मैंने पद्मश्री को कभी हाथ नहीं लगाया। राष्ट्रपति भवन से कई बार पद्मश्री अवार्ड लेने के लिए बुलावा आया लेकिन मैं नहीं गया। हार कर सरकार ने पद्मश्री का तमगा और प्रमाण-पत्र डाक से भेज दिया। बांकीपुर डाकघर में महीनों यह अवार्ड पड़ा रहा। हार कर डाकख़ाना से अवार्ड बीएन कॉलेज के सामने स्थित घर भिजवाया गया। डॉ. कलीम आजिज़ ने जिस चौकी पर बैठ कर कभी एक संवाददाता को साक्षात्कार दिया था, उसी के नीचे रखे बदरंग हो चुके टीन के एक बक्से की ओर इशारा कर कहा था कि तब से लेकर आज तक पद्मश्री इसी बक्से में बंद है। मुझे इसे देखना भी गवारा नहीं। यह मेरे ज़ख़्म का मरहम कभी नहीं हो सकता है।
तीन नवम्बर 1946 ई. के दौरान एक भयानक हिंसा की घटना का उनकी ज़िन्दगी और शायरी पर बड़ा गहरा असर पड़ा। जिसमें उनकी मां और छोटी बहन की मौत हो गई थी। इस ग़म की आग को वो सारी ज़िन्दगी अपने सीने में दबाए रहे। इस हादसे की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने कहा :-
वो जो शायरी का सबब हुआ, वो मुआमला भी अजब हुआ – मैं ग़ज़ल सुनाऊं हूं इसलिए कि ज़माना उसको भुला न दे।
कलीम आजिज ने अपनी बेमिसाल और ख़ूबसूरत शायरी से पूरी दुनिया में अपनी काव्यात्मक निपुणता एवं महानता का लोहा मनवा लिया। उनकी शायरी में एहसास की तीव्रता, फ़िक्र की नवीनता और प्रस्तुति की जो सुन्दरता का सम्मिश्रण मिलता है, वह अपनी मिसाल आप है। उनकी शायरी नवीन चिंतन की क्लासिकी शायरी का बेहतरीन नमूना है।

ये दीवाने कभी पाबंदियों का गम नहीं लेंगे
गरेबां चाक जब तक कर न लेंगे, दम नहीं लेंगे

लहू देंगे तो लेंगे प्यार, मोती हम नहीं लेंगे
हमें फूलों के बदले फूल दो, शबनम नहीं लेंगे

मुहब्बत करने वाले भी अजब खुद्दार होते है
जिगर पर ज़ख्म लेंगे, ज़ख्म पर मरहम नहीं लेंगे

संवारें जा रहे हैं हम, तो उलझी जाती हैं ज़ुल्फें
तुम अपने जिम्मे लो, अब ये बखेड़ा हम नहीं लेंगे
दिन एक सितम, एक सितम रात करो हो
वो दोस्त हो, दुश्मन को भी जो मात करो हो.

मेरे ही लहू पर गुज़र औकात करो हो,
मुझसे ही अमीरों की तरह बात करो हो.

हम ख़ाकनशीं तुम सुखन आरा ए सरे बाम,
पास आके मिलो दूर से क्या बात करो हो.

हमको जो मिला है वो तुम्हीं से तो मिला है,
हम और भुला दें तुम्हें, क्या बात करो हो.

प्रस्तुत‍ि: अलकनंदा स‍िंंह 

Monday 23 November 2020

मेरी कव‍िता: शेष रह गया बिंदु

यह चक्रवृत्‍त सी है एक पहेली कि
पहले आदमी बना या इंसान
शून्‍य की ही भांति एकटक
समय हमें घूर रहा है निरंतर ,
पूछ रहा है वह कि- शून्‍य, जो है पूर्ण,
वह कैसे रह पाया है पूर्ण
यही शून्‍यता है उसकी
कि शून्‍य में से शून्‍य के जाने पर भी
उसका शून्‍य ही बना रह जाना

यह ब्रह्म ही तो है
जो पूर्ण है - अकाट्य है,
जो अनादि है- अनंत भी ,
रेखा- त्रिभुज- चतुर्भुज के अनेक कोणों से मुक्‍त
इसी वृत्‍त- में समाये ब्रह्म- ब्रह्मांड में से,
खोजना है वह शेष-बिंदु अभी , कि जहां से
शुरू होता है इस धरती पर-
आदमी का इंसान में और
इंसान का आदमी में बदलते जाना।

- अलकनंदा सिंह

Sunday 22 November 2020

'चली फगुनहट बौरे आम' कव‍िता रचने वाले ग्रामीण भारत के प्रतिनिधि साह‍ित्यकार थे व‍िवेकी राय


 हिन्दी और भोजपुरी भाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार विवेकी राय की आज पुण्‍यतिथि है। उत्तर प्रदेश के जिला गाजीपुर में 19 नवंबर 1924 को जन्‍मे विवेकी राय की मृत्‍यु 22 नवंबर 2016 के दिन वाराणसी में हुई।

ग्रामीण भारत के प्रतिनिधि रचनाकार विवेकी राय ने 50 से अधिक पुस्तकों की रचना की थी। वे ललित निबंध, कथा साहित्य और कविता कर्म में समभ्यस्त थे। आज भी विवेकी राय को ‘कविजी’ उपनाम से जाना जाता है।
पिता के अभाव में उनका बचपन ननिहाल में मामा बसाऊ राय की देख-रेख में बीता था। विवेकी राय गाँव की खेती-बारी देखते थे और गाजीपुर में अध्यापन तथा साहित्य सेवा में भी लीन रहते थे। गाँव के उत्तरदायित्व का पूरा निर्वाह करते हुए उन्होंने बहुत लगन से विपुल साहित्य पढ़े और लिखे।

अब वे दिन सपने हुए हैं कि जब सुबह पहर दिन चढे तक किनारे पर बैठ निश्चिंत भाव से घरों की औरतें मोटी मोटी दातून करती और गाँव भर की बातें करती। उनसे कभी कभी हूं-टूं होते होते गरजा गरजी, गोत्रोच्चार और फिर उघटा-पुरान होने लगता। नदी तीर की राजनीति, गाँव की राजनीति। लडकियां घर के सारे बर्तन-भांडे कपार पर लादकर लातीं और रच-रचकर माँजती। उनका तेलउंस करिखा पानी में तैरता रहता। काम से अधिक कचहरी । छन भर का काम, पहर-भर में। कैसा मयगर मंगई नदी का यह छोटा तट है, जो आता है, वो इस तट से सट जाता है।
ये लाईनें हैं श्री विवेकी राय जी के एक लेख की जो उन्होंने एक नदी मंगई के बारे में लिखी हैं।

जब 7वीं कक्षा में अध्यन कर रहे थे उसी समय से डॉ.विवेकी राय जी ने लिखना शुरू किया। सन् 1945 ई. में आपकी प्रथम कहानी ‘पाकिस्तानी’ दैनिक ‘आज’ में प्रकाशित हुई। इसके बाद इनकी लेखनी हर विधा पर चलने लगी जो कभी थमनें का नाम ही नहीं ले सकी। इनका रचना कार्य कविता, कहानी, उपन्यास, निबन्ध, रेखाचित्र, संस्मरण, रिपोर्ताज, डायरी, समीक्षा, सम्पादन एवं पत्रकारिता आदि विविध विधाओं से जुड़ा रहा। अब तक इन सभी विधाओं से सम्बन्धित लगभग 60 कृतियाँ आपकी प्रकाशित हो चुकी हैं और लगभग 10 प्रकाशनाधीन हैं।

प्रकाशित कृतियाँ निम्न हैं-

काव्य संग्रह : अर्गला,राजनीगंधा, गायत्री, दीक्षा, लौटकर देखना आदि।

कहानी संग्रह : जीवन परिधि, नई कोयल, गूंगा जहाज बेटे की बिक्री, कालातीत, चित्रकूट के घाट पर, विवेकी राय की श्रेष्ठ कहानियाँ , श्रेष्ठ आंचलिक कहानियाँ, अतिथि, विवेकी राय की तेरह कहानियाँ आदि।

उपन्यास : बबूल,पूरुष पुराण, लोक ऋण, बनगंगी मुक्त है, श्वेत पत्र, सोनामाटी, समर शेष है, मंगल भवन, नमामि ग्रामम्, अमंगल हारी, देहरी के पार आदि।

फिर बैतलवा डाल पर, जुलूस रुका है, मन बोध मास्टर की डायरी, नया गाँवनाम, मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ ,जगत तपोवन सो कियो, आम रास्ता नहीं है, जावन अज्ञात की गणित है, चली फगुनाहट, बौरे आम आदि अन्य रचनाओं का प्रणयन भी डॉ. विवेकी राय ने किया है। इसके अलावा डॉ. विवेकी राय ने 5 भोजपुरी ग्रन्थों का सम्पादन भी किया है। सर्वप्रथम इन्होंने अपना लेखन कार्य कविता से शुरू किया। इसीलिए उन्हें आज भी ‘कविजी’ उपनाम से जाना जाता है।

अन्य लेखन कार्य
सन 1945 ई. में डॉ. विवेकी राय की प्रथम कहानी ‘पाकिस्तानी’ दैनिक ‘आज’ में प्रकाशित हुई थी। इसके बाद इनकी लेखनी हर विधा पर चलने लगी जो कभी थमने का नाम ही नहीं ले सकी। इनका रचना कार्य कविता, कहानी, उपन्यास, निबन्ध, रेखाचित्र, संस्मरण, रिपोर्ताज, डायरी, समीक्षा, सम्पादन एवं पत्रकारिता आदि विविध विधाओं से जुड़े रहे। इन सभी विधाओं से सम्बन्धित उनकी लगभग 60 कृतियाँ आपकी प्रकाशित हो चुकी हैं।
डॉ. विवेकी राय अनेक पुरस्कारों एवं मानद उपाधियों से सम्मानित किये गये थे। डॉ. राय ने हिंदी के साथ ही भोजपुरी साहित्य जगत में राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाई। उन्होंने आंचलिक उपन्यासकार के रूप में ख्याति अर्जित की।

आज उनकी कव‍िता पोखरा पढ़‍िए- 

1. 

राज भरपूर बा

नॉव मसहूर बा

काहे तू उदास पोखर

काहे मजबूर बा ?

तोहके बन्हावल केहू, तोहके सॅवारल केहू

हियरा क सुन्नर सपना, तोहके उरेहल केहू।

‘सरगे क सीढ़ी सोझे’ सोचि के बनावल केहू

तोहरा के देखि-देखि नैनवा जुरावल केहू।

आजू तोहर दाही ना, केहू तोहार मोही ना,

बाति-बीति गइली भइया, केहू तोरे छोही ना।

टूटलना जवानी जइसे सीढी छितराइल बाड़ी।

बेकसी गरीबी कादो भारी भहराइल बाड़ी।

पॉव का बेवाई अइसन फाटल दरार बाड़े

देखि नाहिं जाला हाय, उठती बजार बाड़े।

पोखरा के नाकि लट्ठा लाजे झुकि गइले

बरुजी बेचारी सारी चीख के चटकि रे गइली।


2

फोरी के पलस्तर पाजी जामि गइले झाड़-झारी

कॉटा फहरवले दखिन ओरी भगभाँड़ भारी

काल मरकीलवना ईंट-ईंट के उघरले बाड़े

पोखरा चिअरले दाँत मुँह करीखवले बाडे़

जूग बीति गइले सूने तुलसी के चउरा बाड़े

खाँची भर पसरल फइलल घूर बा, गन्हउरा बाड़े

रंग उड़ि गइले बाकी तनले सिवाला बा

आसनी बिछली मकरी कोने-कोने जाला बा

भीतर से सालेवाला भारी-भारी काँटा बा

झंखे लखरउआँ ठाढ़े सूने सूना भींडा बा

कुहुकेले कबहीं-कबहीं कारी कोइलरि निरदइया

ठनकेले कबहीं-कबहीं गइया चरवहवा भइया

फूल पर किरिनिया कबहीं घूँघरू बजावत आवे

रनिया बसन्ती कबहीं बेनिया डोलावति आवे

सभके द तरी तू

जरि घरी-घरी तू

दुनिया धधाइलि तोहार

दिल्ली बड़ी दूर बा।

- प्रस्तुत‍ि अलकनंदा स‍िंंह 


Friday 20 November 2020

नोबेल पुरस्कार के ल‍िए नाम‍ित हुए थे उर्दू के मशहूर शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

 













सेना, जेल तथा निर्वासन में जीवन व्यतीत करने वाले फ़ैज़ ने कई नज़्म, ग़ज़ल लिखी तथा उर्दू शायरी में आधुनिक प्रगतिवादी (तरक्कीपसंद) दौर की रचनाओं को सबल किया। उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए भी मनोनीत किया गया था। फ़ैज़ पर कई बार कम्युनिस्ट (साम्यवादी) होने और इस्लाम से इतर रहने के आरोप लगे थे पर उनकी रचनाओं में ग़ैर-इस्लामी रंग नहीं मिलते। जेल के दौरान लिखी गई उनकी कविता ‘ज़िन्दान-नामा’ को बहुत पसंद किया गया था। उनके द्वारा लिखी गई कुछ पंक्तियाँ अब भारत-पाकिस्तान की आम-भाषा का हिस्सा बन चुकी हैं, जैसे कि ‘और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा’। 13 फ़रवरी 1911 को अविभाजित भारत के सियालकोट शहर में जन्‍मे मशहूर शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का इंतकाल 73 साल की उम्र में 20 नवंबर 1984 के दिन पाकिस्‍तान के लाहौर में हुआ था।

उनके पिता एक बैरिस्टर थे और उनका परिवार एक रूढ़िवादी मुस्लिम परिवार था। उनकी आरंभिक शिक्षा उर्दू, अरबी तथा फ़ारसी में हुई जिसमें क़ुरआन को कंठस्थ करना भी शामिल था। उसके बाद उन्होंने स्कॉटिश मिशन स्कूल तथा लाहौर विश्वविद्यालय से पढ़ाई की। उन्होंने अंग्रेजी (१९३३) तथा अरबी (१९३४) में एमए किया। अपने कामकाजी जीवन की शुरुआत में वो एमएओ कालेज, अमृतसर में लेक्चरर बने। उसके बाद मार्क्सवादी विचारधाराओं से बहुत प्रभावित हुए। “प्रगतिवादी लेखक संघ” से १९३६ में जुड़े और उसके पंजाब शाखा की स्थापना सज्जाद ज़हीर के साथ मिलकर की जो उस समय के मार्क्सवादी नेता थे। १९३८ से १९४६ तक उर्दू साहित्यिक मासिक अदब-ए-लतीफ़ का संपादन किया।
फ़ैज़ ने आधुनिक उर्दू शायरी को एक नई ऊँचाई दी। साहिर, क़ैफ़ी, फ़िराक़ आदि उनके समकालीन शायर थे। १९५१‍ – १९५५ की क़ैद के दौरान लिखी गई उनकी कविताएँ बाद में बहुत लोकप्रिय हुईं और उन्हें “दस्त-ए-सबा (हवा का हाथ)” तथा “ज़िन्दान नामा (कारावास का ब्यौरा)” नाम से प्रकाशित किया गया। इनमें उस वक़्त के शासक के ख़िलाफ़ साहसिक लेकिन प्रेम रस में लिखी गई शायरी को आज भी याद की जाती है –

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल, ज़बाँ अब तक तेरी है
तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा
बोल कि जाँ अब तक तेरी है
आईए हाथ उठाएँ हम भी
हम जिन्हें रस्म-ए-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोज़-ए-मुहब्बत के सिवा
कोई बुत कोई ख़ुदा याद नहीं
लाओ, सुलगाओ कोई जोश-ए-ग़ज़ब का अंगार
तैश की आतिश-ए-ज़र्रार कहाँ है लाओ
वो दहकता हुआ गुलज़ार कहाँ है लाओ
जिस में गर्मी भी है, हरकत भी, तवानाई भी
हो न हो अपने क़बीले का भी कोई लश्कर
मुन्तज़िर होगा अंधेरों के फ़ासिलों के उधर
उनको शोलों के रजाज़ अपना पता तो देंगे
ख़ैर हम तक वो न पहुंचे भी सदा तो देंगे
दूर कितनी है अभी सुबह बता तो देंगे
(क़ैद में अकेलेपन में लिखी हुई)
निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन
के जहाँ चली है रस्म के कोई न सर उठा के चले
गर कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले
चंद रोज़ और मेरी जाँ, फ़क़त चंद ही रोज़
ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पर मजबूर है हम
और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें
अपने अजदाद की मीरास हैं, माज़ूर हैं हम
आज बाज़ार में पा-बेजौला चलो
दस्त अफशां चलों, मस्त-ओ-रक़सां चलो
ख़ाक़-बर-सर चलो, खूँ ब दामां चलो
राह तकता है सब, शहर ए जानां चलो। 

प्रस्तुति‍: अलकनंदा स‍िंंह 

Saturday 7 November 2020

रचनाओं में सघन बुनावट व राजनीतिक संवेदना वाले कव‍ि एवं साहित्यकार चंद्रकांत देवताले


 मध्य प्रदेश के जिला बैतूल अंतर्गत गाँव जौलखेड़ा में 07 नवंबर को जन्‍मे प्रसिद्ध भारतीय कवि एवं साहित्यकार चंद्रकांत देवताले अपनी रचनाओं में सघन बुनावट और उनमें निहित राजनीतिक संवेदना के लिए जाने जाते हैं।

देश की 24 भाषाओं में विशेष साहित्यिक योगदान के लिए प्रख्यात साहित्यकारों में शामिल चंद्रकांत देवताले का देहावसान 14 अगस्त 2017 को हुआ..
उन्होंने अपनी कविता की कच्ची सामग्री मनुष्य के सुख दुःख, विशेषकर औरतों और बच्चों की दुनिया से इकट्ठी की थे. चूंकि बैतूल में हिंदी और मराठी बोली जाती है, इसलिए उनके काव्य संसार में यह दोनों भाषाएं जीवित थीं. मध्य भारत का वह हिस्सा जो महाराष्ट्र से छूता है, उसमें मराठी भाषा पहली या दूसरी भाषा के रूप में बोली जाती रही है. बैतूल भी ऐसी ही जगह है. अपने प्रिय कवि मुक्तिबोध की तरह देवताले मराठी से आंगन की भाषा की तरह बरताव करते थे. यह उनकी कविताओं में बार-बार देखा जा सकता है.
2012 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्‍मानित ने कवि गजानन माधव मुक्तिबोध पर पीएचडी की थी और इंदौर के एक कॉलेज में पढ़ाते थे.
वह अपनी बात सीधे और मारक ढंग से कहते हैं। कविता की उनकी भाषा में अत्यंत पारदर्शिता और एक विरल संगीतात्मकता दिखाई देती है.
देवताले की कविताओं में जूता पॉलिश करते एक लड़के से लेकर अमेरिका के राष्ट्रपति तक जगह पाते हैं. वे ‘दुनिया के सबसे गरीब आदमी’ से लेकर ‘बुद्ध के देश में बुश’ तक पर कविताएं लिखते थे लेकिन सुखद यह है कि कविता के इस पूरे फैलाव में कहीं भी उनके गुस्से में कमी नहीं आती. वे अपने गुस्से को सर्जनात्मक बनाकर उससे भूख का निवारण चाहते हैं.

देवताले जी की प्रमुख कृतियां हैं- हड्डियों में छिपा ज्वर, दीवारों पर खून से, लकड़बग्घा हँस रहा है, रोशनी के मैदान की तरफ़, भूखंड तप रहा है, हर चीज़ आग में बताई गई थी, पत्थर की बैंच, इतनी पत्थर रोशनी, उजाड़ में संग्रहालय आदि।

चंद्रकांत देवताले की 2 मशहूर कविताएं:

पत्थर की बैंच
जिस पर रोता हुआ बच्चा
बिस्कुट कुतरते चुप हो रहा है

जिस पर एक थका युवक
अपने कुचले हुए सपनों को सहला रहा है

जिस पर हाथों से आंखे ढांप
एक रिटायर्ड बूढ़ा भर दोपहरी सो रहा है

जिस पर वे दोनों
जिन्दगी के सपने बुन रहे हैं

पत्थर की बैंच
जिस पर अंकित है आंसू, थकान
विश्राम और प्रेम की स्मृतियां

इस पत्थर की बैंच के लिए भी
शुरु हो सकता है किसी दिन
हत्याओं का सिलसिला
इसे उखाड़ कर ले जाया
अथवा तोड़ा भी जा सकता है
पता नहीं सबसे पहले कौन आसीन हुआ होगा
इस पत्थर की बैंच पर!

मेरे होने के प्रगाढ़ अँधेरे को
पता नहीं कैसे जगमगा देती हो तुम
अपने देखने भर के करिश्मे से

कुछ तो है तुम्हारे भीतर
जिससे अपने बियाबान सन्नाटे को
तुम सितार-सा बजा लेती हो समुद्र की छाती में

अपने असंभव आकाश में
तुम आज़ाद चिड़िया की तरह खेल रही हो
उसकी आवाज़ की परछाई के साथ
जो लगभग गूँगा है
और मै कविता के बंदरगाह पर खड़ा
आँखे खोल रहा हूँ गहरी धुंध में

लगता है काल्पनिक ख़ुशी का भी
अंत हो चुका है
पता नहीं कहाँ किस चट्टान पर बैठी
तुम फूलों को नोच रही हो
मै यहाँ दुःख की सूखी आँखों पर
पानी के छींटें मार रहा हूँ

हमारे बीच तितलियों का अभेद्य पर्दा है शायद

जो भी हो
उड़ रहा हूँ तुम्हारी खनकती आवाज़ के
समुन्दर पर
हंस ध्वनि की तन की तरंगों के साथ
जुगलबंदी कर रहे हैं
मेरे फड़फड़ाते होंठ

याद है न जितनी बार पैदा हुआ
तुम्हें मैंने बैजनी कमल कहकर पुकारा
और अब भी अकेलेपन की पहाड़ से उतरकर
मैं आऊँगा हमारी परछाइयों के ख़ुशबूदार
गाते हुए दरख़्त के पास

मैं आता रहूँगा उजली रातों में
चन्द्रमा को गिटार-सा बजाऊँगा
तुम्हारे लिए

Monday 26 October 2020

प्रीति सिंह का बेस्ट सेलिंग उपन्यास है #FlirtingwithFate


 

अंग्रेजी भाषा की भारतीय साहित्यकार एवं उपन्यासकार प्रीति सिंह का बेस्ट सेलिंग उपन्यास है #FlirtingwithFate। जी हां, अंग्रेजी भाषा की भारतीय साहित्यकार एवं उपन्यासकार प्रीति सिंह का आज जन्‍मदिन है। प्रीति सिंह 26 अक्‍टूबर 1971 के दिन अंबाला (हरियाणा) में पैदा हुई थीं।

सन् 2012 में प्रकाशित इनका पहला उपन्यास #FlirtingwithFate बेस्ट सेलिंग उपन्यास रहा और वे अपनी दूसरी किताब “क्रॉसरोड्स” के साथ एक अवॉर्ड विजेता लेखिका बनी। प्रीति सिंह का एक अन्‍य उपन्यास क्रॉसरोड्स, भारत का पहला ऐसा उपन्यास है, जिसमें पात्रों के रूप में वास्तविक जीवन के लोगों का समावेश है। प्रीति सिंह के इस उपन्यास को इंडिया बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स (India Book of World Records) में नाम दर्ज किया जा चुका हैं।
प्रीति सिंह एक सैनिक परिवार से ताल्लुक रखती हैं। उनके पिता मेजर जनरल श्री कुलवंत सिंह भारतीय सेना से सेवानिवृत्त हैं।
प्रीति सिंह के पहले क्राइम थ्रिलर उपन्यास “फ्लर्टिंग विथ फेट” को राष्ट्रमंडल बुकर पुरस्कार (Commonwealth Booker Prize) के लिए नामांकित और बेस्ट डेब्यू क्राइम फिक्शन 2012 से पुरस्कृत किया गया था। फ्लर्टिंग विथ फेट 80 के दशक की एक कहानी पर आधारित है जो कि शिमला से शुरू होती है। यह थ्रिलर उपन्‍यास एक युवा लड़के के बचपन से शुरू होने वाले सफर की कहानी है जो कि युवा होने पर समझता है कि आदमी जो बोता है, वही काटता है।

अपनी दूसरी पुस्तक क्रॉसरोड्स में प्रीति सिंह ने नारी की मनोस्थिति को एक कहानी के माध्यम से संजोया है। कहानी में असफल प्रेमिका के भीतर के कश्मकश को दर्शाया गया है जिसमें उसके सामने कई दोराहे आते हैं और वह कब क्या फ़ैसला ले, किसके आसरे जिए, इन्हीं का ताना-बाना है। क्रॉसरोड्स, करीब करीब हर भारतीय महिला के सफर की एक अनकही कहानी है। ये कहानी है कविता के सफर की, जो कि घरेलू हिंसा और परेशान किए जाने से मानसिक दबाव में है और एक पत्नी के तौर पर खोई हुई खुशियों और मानसिक शांति को प्राप्त करने के लिए एक अलग रास्ता चुनने का फैसला करती है। वर्ष 2015 में इनके उपन्यास क्रॉसरोड्स का हिंदी में अनुवाद लेखिका पारुल रस्तोगी द्वारा किया गया।

प्रस्तुति‍ : अलकनंदा स‍िंंह 

Tuesday 20 October 2020

‘सरस्वतीचंद्र’ रचने वाले गुजराती साहित्य के कथाकार गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी

 


आधुनिक गुजराती साहित्य के कथाकार गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी की आज 165वीं जयंती है। 20 अक्टूबर 1855 को जन्‍मे गोवर्धन राम की मृत्‍यु 01 अप्रेल 1907 को हुई। गोवर्धनराम कवि, चिंतक, विवेचक, चरित्र लेखक और इतिहासकार भी थे, हालांकि उन्‍हें प्रसिद्धि कथाकार के रूप में ही मिली।

जिस प्रकार आधुनिक गुजराती साहित्य की पुरानी पीढ़ी के अग्रणी ‘नर्मद’ माने जाते हैं, उसी प्रकार उनके बाद की पीढ़ी का नेतृत्व गोवर्धनराम के द्वारा हुआ। संस्कृत साहित्य के गंभीर अनुशीलन तथा रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद आदि विभूतियों के विचारों के प्रभाव से उनके हृदय में प्राचीन भारतीय आर्य संस्कृति के पुनरुत्थान की तीव्र भावना जाग्रत हुई। उनका अधिकांश रचनात्मक साहित्य मूलत: इसी भावना से संबद्ध एवं उद्भूत है।
‘सरस्वतीचंद्र’ उनकी सर्वप्रमुख साहित्यिक कृति है। कथा के क्षेत्र में इसे गुजराती साहित्य का सर्वोच्च कीर्तिशिखर कहा गया है। आचार्य आनंदशंकर बापूभाई ध्रुव ने इसकी गरिमा और भाव समृद्धि को लक्षित करते हुए इसे ‘सरस्वतीचंद्र पुराण’ की संज्ञा प्रदान की थी, जो इसकी लोकप्रियता तथा कल्पना बहुलता को देखते हुए सर्वथा उपयुक्त प्रतीत होती है।
‘स्नेहामुद्रा’ गोवर्धनराम की ऊर्मिप्रधान भाव गीतियों का, संस्कृतनिष्ठ शैली में लिखित एक विशिष्ठ कविता संग्रह है जो सन 1889 में प्रकाशित हुआ था। इसमें समीक्षकों की मानवीय, आध्यात्मिक एवं प्रकृति परक प्रेम की अनेक प्रतिभा एक समर्थ काव्य विवेचक के रूप में प्रकट हुई है। विल्सन कॉलेज, साहित्य सभा के समक्ष प्रस्तुत अपने गवेषणपूर्ण अंग्रेज़ी व्याख्यानों के माध्यम से गोवर्धनराम जी ने प्राचीन गुजराती साहित्य के इतिहास को व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत करने का प्रथम प्रयास किया। इनका प्रकाशन ‘क्लैसिकल पोएट्स ऑफ़ गुजरात ऐंड देयर इनफ्लुएंस ऑन सोयायटी ऐंड मॉरल्स’ नाम से हुआ है।
सन् 1905 में ‘गुजराती साहित्य परिषद’ के प्रमुख के रूप में दिये गए अपने भाषण में गोवर्धनराम ने आचार्य आनंदशंकर बापूभाई ध्रुव से प्राप्त सूत्र को पकड़कर नरसी मेहता के काल निर्णय की जो समस्या उठाई, उस पर इतना वादविवाद हुआ कि वह स्वयं ऐतिहासिक महत्व की वस्तु बन गई।
जीवनचरितलेखक के रूप में उनकी क्षमता "लीलावती जीवनकला" (ई. 1906) तथा "नवलग्रंथावलि (ई. 1891) के उपोदघात से अंकित की जाती है। लीलावती उनकी दिवगंता पुत्री थी और उसके चरितलेखन में तत्वचिंतन एवं धर्मदर्शन को प्रधानता देते हुए उन्होंने सूक्ष्म देह की गतिविधि को प्रस्तुत किया है। नवलराम की जीवनकथा की उपेक्षा इसमें आत्मीयता का तत्व अधिक है। नवलराम की जीवनकथा की अपेक्षा इसमें आत्मीयता का तत्व अधिक है। गोवर्धनराम ने अपनी जीवनी के संबंध में भी कुछ "नोट्स लिख छोड़े थे जो अब "स्केच बुक" के नाम से प्रकाशित हो चुके हैं।

Thursday 8 October 2020

अमेरीकी कवयित्री Louise Glück को दिया जाएगा साहित्य का #NobelPrize


स्वीडन। द रॉयल स्वीडिस अकादमी ने 2020 के साहित्य के नोबेल प्राइज की घोषणा कर दी है. अमेरीकी कवयित्री लूईस ग्लूक को साहित्य क्षेत्र का नोबेल पुरस्कार दिया जाएगा. उनकी 2006 में लिखी गई “Averno” (एवर्नों) और 2014 में लिखी गई “Faithful and Virtuas Night” (फैथफूल एंड वर्चुअस नाइट) के लिए उन्हें साल 2020 का साहित्य का नोबेल प्राइज दिया गया. 

द नोबेल प्राइज ने अपने आधिकारिक सोशल मीडिया से ट्वीट कर इस बात की जानकारी दी. लूईस ग्लूक को ईनाम के रूप में 10 मिलीयन स्वीडन डॉलर दिए जाएंगे.

केमिस्ट्री का नोबेल 7 नवंबर को दिया गया
कल बुधवार 7 अक्टूबर को अमेरीका की जेनिफर ए डौडना और फ्रांस की एमेन्युएल कारपेंटियर को जीनोम एडिटिंग मेथड के विकास के लिए इस साल के केमिस्ट्री का नोबेल पुरस्कार दिया गया.
फिजिक्स का नोबेल तीन वैज्ञानिकों को मिला
6 अक्टूबर को अमेरीका के रोजर पेनरोज को जनरल रिलेटिवीटी थ्योरी में ब्लैक होल फॉर्मेशन में खोज के लिए, तो वहीं अमेरीका के रीनहार्ड गेंजेल और एंड्रीय घेज को गैलेक्सी के सेन्टर में सुपरमेसीव कम्पाउंड की खोज के लिए संयुक्त रूप से फिजिक्स का नोबेल प्राइज दिया गया.
मेडिसिन क्षेत्र में सोमवार को दिया गया नोबेल
5 अक्टूबर को मेडिसिन के क्षेत्र में हेपटाइटिस सी वायरस की खोज के लिए तीन वैज्ञानिकों को नोबेल प्राइज दिया गया. हार्वे अल्टर, माइकल हॉफटन और चार्ल्स राइस को संयुक्त रूप से हेपटाइटिस सी वायरस की खोज के लिए नोबेल प्राइज दिया गया.
पढ़‍िए उनकी ये रचना The Past ज‍िसे 2014 में ल‍िखा गया था - -----

Small light in the sky appearing
suddenly between
two pine boughs, their fine needles

now etched onto the radiant surface
and above this
high, feathery heaven—

Smell the air. That is the smell of the white pine,
most intense when the wind blows through it
and the sound it makes equally strange,
like the sound of the wind in a movie—

Shadows moving. The ropes
making the sound they make. What you hear now
will be the sound of the nightingale, Chordata,
the male bird courting the female—

The ropes shift. The hammock
sways in the wind, tied
firmly between two pine trees.

Smell the air. That is the smell of the white pine.

It is my mother’s voice you hear
or is it only the sound the trees make
when the air passes through them

because what sound would it make,
passing through nothing?
 
प्रसतुत‍ि - अलकनंदा स‍िंंह 

Saturday 19 September 2020

तीसरा सप्तक के प्रमुख कवियों में से एक रहे हैं कुँवर नारायण

 


नई कविता आंदोलन के सशक्त हस्ताक्षर कुँवर नारायण तीसरा सप्तक (१९५९) के प्रमुख कवियों में रहे हैं, आज ही के द‍िन यान‍ि १९ सितंबर १९२७ को वे जन्मे थे।

कुंवर नारायण का रचना संसार इतना व्यापक एवं जटिल है कि उसको कोई एक नाम देना सम्भव नहीं। उन्होंने अपनी मूल विधा कविता ही रखी परंतु उन्होंने कहानी, लेख व समीक्षाओं के साथ-साथ सिनेमा, रंगमंच एवं अन्य कलाओं पर भी बखूबी लेखनी चलायी है। इसके चलते जहाँ उनके लेखन में सहज संप्रेषणीयता आई वहीं वे प्रयोगधर्मी भी बने रहे। उनकी कविताओं-कहानियों का कई भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है। ‘तनाव‘ पत्रिका के लिए उन्होंने कवाफी तथा ब्रोर्खेस की कविताओं का भी अनुवाद किया है। 2009 में कुँवर नारायण को वर्ष 2005 के लिए देश के साहित्य जगत के सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

आज पढ़‍िये उनकी कुछ रचनायें

अयोध्या, 1992

हे राम,
जीवन एक कटु यथार्थ है
और तुम एक महाकाव्य !

तुम्हारे बस की नहीं
उस अविवेक पर विजय
जिसके दस बीस नहीं
अब लाखों सर – लाखों हाथ हैं,
और विभीषण भी अब
न जाने किसके साथ है.

इससे बड़ा क्या हो सकता है
हमारा दुर्भाग्य
एक विवादित स्थल में सिमट कर
रह गया तुम्हारा साम्राज्य

अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है,
‘मानस’ तुम्हारा ‘चरित’ नहीं
चुनाव का डंका है !

हे राम, कहां यह समय
कहां तुम्हारा त्रेता युग,
कहां तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
कहां यह नेता-युग !

सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ
किसी पुरान – किसी धर्मग्रन्थ में
सकुशल सपत्नीक….
अबके जंगल वो जंगल नहीं
जिनमें घूमा करते थे वाल्मीक !

अबकी बार लौटा तो

अबकी बार लौटा तो
बृहत्तर लौटूंगा
चेहरे पर लगाए नोकदार मूँछें नहीं
कमर में बांधें लोहे की पूँछे नहीं
जगह दूंगा साथ चल रहे लोगों को
तरेर कर न देखूंगा उन्हें
भूखी शेर-आँखों से

अबकी बार लौटा तो
मनुष्यतर लौटूंगा
घर से निकलते
सड़को पर चलते
बसों पर चढ़ते
ट्रेनें पकड़ते
जगह बेजगह कुचला पड़ा
पिद्दी-सा जानवर नहीं

अगर बचा रहा तो
कृतज्ञतर लौटूंगा

अबकी बार लौटा तो
हताहत नहीं
सबके हिताहित को सोचता
पूर्णतर लौटूंगा

किसी पवित्र इच्छा की घड़ी में

व्यक्ति को
विकार की ही तरह पढ़ना
जीवन का अशुद्ध पाठ है।

वह एक नाज़ुक स्पन्द है
समाज की नसों में बन्द
जिसे हम किसी अच्छे विचार
या पवित्र इच्छा की घड़ी में भी
पढ़ सकते हैं ।

समाज के लक्षणों को
पहचानने की एक लय
व्यक्ति भी है,
अवमूल्यित नहीं
पूरा तरह सम्मानित
उसकी स्वयंता
अपने मनुष्य होने के सौभाग्य को
ईश्वर तक प्रमाणित हुई !

Tuesday 15 September 2020

तीसरा सप्तक के प्रमुख कवियों में से एक हैं सर्वेश्वर दयाल सक्सेना


 

15 सितम्बर को पैदा हुए सर्वेश्वर दयाल सक्सेना हिन्दी के प्रसिद्ध कवि और साहित्यकार हैं। वह बाल साहित्य पर ध्यान देना चाहते थे और बाल पत्रिका पराग के संपादक भी थे। वह तीसरा सप्तक के प्रमुख कवियों में से एक हैं।

ईश्वर

बहुत बड़ी जेबों वाला कोट पहने
ईश्वर मेरे पास आया था,
मेरी मां, मेरे पिता,
मेरे बच्चे और मेरी पत्नी को
खिलौनों की तरह,
जेब में डालकर चला गया
और कहा गया,
बहुत बडी दुनिया है
तुम्हारे मन बहलाने के लिए।
मैंने सुना है,
उसने कहीं खोल रक्खी है
खिलौनों की दुकान,
अभागे के पास
कितनी जरा-सी पूंजी है
रोजगार चलाने के लिए।

जब-जब सिर उठाया
जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया।
मस्तक पर लगी चोट,
मन में उठी कचोट,

अपनी ही भूल पर मैं,
बार-बार पछताया।
जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया।

दरवाजे घट गए या
मैं ही बडा हो गया,
दर्द के क्षणों मेंकुछ
समझ नहीं पाया।
जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया।

‘शीश झुका आओ बोला
बाहर का आसमान,
‘शीश झुका आओ बोली
भीतर की दीवारें,
दोनों ने ही मुझे
छोटा करना चाहा,
बुरा किया मैंने जो
यह घर बनाया।

जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया।

सब कुछ कह लेने के बाद

सब कुछ कह लेने के बाद
कुछ ऐसा है जो रह जाता है,
तुम उसको मत वाणी देना।

वह छाया है मेरे पावन विश्वासों की,
वह पूँजी है मेरे गूँगे अभ्यासों की,
वह सारी रचना का क्रम है,
वह जीवन का संचित श्रम है,
बस उतना ही मैं हूँ,
बस उतना ही मेरा आश्रय है,
तुम उसको मत वाणी देना।

वह पीड़ा है जो हमको, तुमको, सबको अपनाती है,
सच्चाई है-अनजानों का भी हाथ पकड़ चलना सिखलाती है,
वह यति है-हर गति को नया जन्म देती है,
आस्था है-रेती में भी नौका खेती है,
वह टूटे मन का सामर्थ है,
वह भटकी आत्मा का अर्थ है,
तुम उसको मत वाणी देना।

वह मुझसे या मेरे युग से भी ऊपर है,
वह भावी मानव की थाती है, भू पर है,
बर्बरता में भी देवत्व की कड़ी है वह,
इसीलिए ध्वंस और नाश से बड़ी है वह,

अन्तराल है वह-नया सूर्य उगा लेती है,
नये लोक, नयी सृष्टि, नये स्वप्न देती है,
वह मेरी कृति है
पर मैं उसकी अनुकृति हूँ,
तुम उसको मत वाणी देना।

सुर्ख़ हथेलियाँ

पहली बार
मैंने देखा
भौंरे को कमल में
बदलते हुए,
फिर कमल को बदलते
नीले जल में,
फिर नीले जल को
असंख्य श्वेत पक्षियों में,
फिर श्वेत पक्षियों को बदलते
सुर्ख़ आकाश में,
फिर आकाश को बदलते
तुम्हारी हथेलियों में,
और मेरी आँखें बन्द करते
इस तरह आँसुओं को
स्वप्न बनते
पहली बार मैंने देखा ।

अजनबी देश है यह

अजनबी देश है यह, जी यहाँ घबराता है
कोई आता है यहाँ पर न कोई जाता है

जागिए तो यहाँ मिलती नहीं आहट कोई,
नींद में जैसे कोई लौट-लौट जाता है

होश अपने का भी रहता नहीं मुझे जिस वक्त
द्वार मेरा कोई उस वक्त खटखटाता है

शोर उठता है कहीं दूर क़ाफिलों का-सा
कोई सहमी हुई आवाज़ में बुलाता है

देखिए तो वही बहकी हुई हवाएँ हैं,
फिर वही रात है, फिर-फिर वही सन्नाटा है

हम कहीं और चले जाते हैं अपनी धुन में
रास्ता है कि कहीं और चला जाता है

दिल को नासेह की ज़रूरत है न चारागर की
आप ही रोता है औ आप ही समझाता है ।

प्यार : एक छाता

विपदाएँ आते ही,
खुलकर तन जाता है
हटते ही
चुपचाप सिमट ढीला होता है;
वर्षा से बचकर
कोने में कहीं टिका दो,
प्यार एक छाता है
आश्रय देता है गीला होता है।

व्यंग्य मत बोलो

व्यंग्य मत बोलो।
काटता है जूता तो क्या हुआ
पैर में न सही
सिर पर रख डोलो।
व्यंग्य मत बोलो।

अंधों का साथ हो जाये तो
खुद भी आँखें बंद कर लो
जैसे सब टटोलते हैं
राह तुम भी टटोलो।
व्यंग्य मत बोलो।

क्या रखा है कुरेदने में
हर एक का चक्रव्यूह कुरेदने में
सत्य के लिए
निरस्त्र टूटा पहिया ले
लड़ने से बेहतर है
जैसी है दुनिया
उसके साथ होलो
व्यंग्य मत बोलो।

भीतर कौन देखता है
बाहर रहो चिकने
यह मत भूलो
यह बाज़ार है
सभी आए हैं बिकने
राम राम कहो
और माखन मिश्री घोलो।
व्यंग्य मत बोलो।

हँसा ज़ोर से जब

हँसा ज़ोर से जब, तब दुनिया
बोली इसका पेट भरा है

और फूट कर रोया जब
तब बोली नाटक है नखरा है

जब गुमसुम रह गया, लगाई
तब उसने तोहमत घमंड की
कभी नहीं वह समझी इसके
भीतर कितना दर्द भरा है

दोस्त कठिन है यहाँ किसी को भी
अपनी पीड़ा समझाना
दर्द उठे तो, सूने पथ पर
पाँव बढ़ाना, चलते जाना