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Friday 20 November 2020

नोबेल पुरस्कार के ल‍िए नाम‍ित हुए थे उर्दू के मशहूर शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

 













सेना, जेल तथा निर्वासन में जीवन व्यतीत करने वाले फ़ैज़ ने कई नज़्म, ग़ज़ल लिखी तथा उर्दू शायरी में आधुनिक प्रगतिवादी (तरक्कीपसंद) दौर की रचनाओं को सबल किया। उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए भी मनोनीत किया गया था। फ़ैज़ पर कई बार कम्युनिस्ट (साम्यवादी) होने और इस्लाम से इतर रहने के आरोप लगे थे पर उनकी रचनाओं में ग़ैर-इस्लामी रंग नहीं मिलते। जेल के दौरान लिखी गई उनकी कविता ‘ज़िन्दान-नामा’ को बहुत पसंद किया गया था। उनके द्वारा लिखी गई कुछ पंक्तियाँ अब भारत-पाकिस्तान की आम-भाषा का हिस्सा बन चुकी हैं, जैसे कि ‘और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा’। 13 फ़रवरी 1911 को अविभाजित भारत के सियालकोट शहर में जन्‍मे मशहूर शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का इंतकाल 73 साल की उम्र में 20 नवंबर 1984 के दिन पाकिस्‍तान के लाहौर में हुआ था।

उनके पिता एक बैरिस्टर थे और उनका परिवार एक रूढ़िवादी मुस्लिम परिवार था। उनकी आरंभिक शिक्षा उर्दू, अरबी तथा फ़ारसी में हुई जिसमें क़ुरआन को कंठस्थ करना भी शामिल था। उसके बाद उन्होंने स्कॉटिश मिशन स्कूल तथा लाहौर विश्वविद्यालय से पढ़ाई की। उन्होंने अंग्रेजी (१९३३) तथा अरबी (१९३४) में एमए किया। अपने कामकाजी जीवन की शुरुआत में वो एमएओ कालेज, अमृतसर में लेक्चरर बने। उसके बाद मार्क्सवादी विचारधाराओं से बहुत प्रभावित हुए। “प्रगतिवादी लेखक संघ” से १९३६ में जुड़े और उसके पंजाब शाखा की स्थापना सज्जाद ज़हीर के साथ मिलकर की जो उस समय के मार्क्सवादी नेता थे। १९३८ से १९४६ तक उर्दू साहित्यिक मासिक अदब-ए-लतीफ़ का संपादन किया।
फ़ैज़ ने आधुनिक उर्दू शायरी को एक नई ऊँचाई दी। साहिर, क़ैफ़ी, फ़िराक़ आदि उनके समकालीन शायर थे। १९५१‍ – १९५५ की क़ैद के दौरान लिखी गई उनकी कविताएँ बाद में बहुत लोकप्रिय हुईं और उन्हें “दस्त-ए-सबा (हवा का हाथ)” तथा “ज़िन्दान नामा (कारावास का ब्यौरा)” नाम से प्रकाशित किया गया। इनमें उस वक़्त के शासक के ख़िलाफ़ साहसिक लेकिन प्रेम रस में लिखी गई शायरी को आज भी याद की जाती है –

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल, ज़बाँ अब तक तेरी है
तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा
बोल कि जाँ अब तक तेरी है
आईए हाथ उठाएँ हम भी
हम जिन्हें रस्म-ए-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोज़-ए-मुहब्बत के सिवा
कोई बुत कोई ख़ुदा याद नहीं
लाओ, सुलगाओ कोई जोश-ए-ग़ज़ब का अंगार
तैश की आतिश-ए-ज़र्रार कहाँ है लाओ
वो दहकता हुआ गुलज़ार कहाँ है लाओ
जिस में गर्मी भी है, हरकत भी, तवानाई भी
हो न हो अपने क़बीले का भी कोई लश्कर
मुन्तज़िर होगा अंधेरों के फ़ासिलों के उधर
उनको शोलों के रजाज़ अपना पता तो देंगे
ख़ैर हम तक वो न पहुंचे भी सदा तो देंगे
दूर कितनी है अभी सुबह बता तो देंगे
(क़ैद में अकेलेपन में लिखी हुई)
निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन
के जहाँ चली है रस्म के कोई न सर उठा के चले
गर कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले
चंद रोज़ और मेरी जाँ, फ़क़त चंद ही रोज़
ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पर मजबूर है हम
और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें
अपने अजदाद की मीरास हैं, माज़ूर हैं हम
आज बाज़ार में पा-बेजौला चलो
दस्त अफशां चलों, मस्त-ओ-रक़सां चलो
ख़ाक़-बर-सर चलो, खूँ ब दामां चलो
राह तकता है सब, शहर ए जानां चलो। 

प्रस्तुति‍: अलकनंदा स‍िंंह 

5 comments:

  1. बहुत सुन्दर जानकारी। आभार।

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  2. धन्यवाद जोशी जी

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (22-11-2020) को  "अन्नदाता हूँ मेहनत की  रोटी खाता हूँ"   (चर्चा अंक-3893)   पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    --   
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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  4. बहुत सुन्दर आलेख ।

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  5. बहुत ही सुंदर जानकारी आदरणीय दी।सराहनीय लेख होते है आपके ।
    सादर

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