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Monday, 5 August 2024

मनोहर श्याम जोशी.. नाम लेते ही याद आता है बुन‍ियाद, कक्का जी कह‍िन या और भी बहुत कुछ


 मनोहर श्याम जोशी का नाम लेते ही याद आता है एक साहित्‍यकार व्यंग्यकार, पत्रकार, संपादक, स्तंभ लेखक दूरदर्शन धारावाहिक लेखक, विचारक, फिल्म पटकथा लेखक, डबिंग आर्टिस्‍ट…. 

उनका नाम लेते ही ‘कुरु-कुरु स्वाहा’, ‘कसप’, ‘हमज़ाद’, ‘क्‍याप’ जैसे उपन्‍यास याद आते हैं. उनका नाम सुनते ही दूरदर्शन के पहले प्रसिद्ध और लोकप्रिय धारावाहिक ‘बुनियाद’, ‘हमलोग’, ‘कक्‍काजी कहिन’, ‘मुंगेरी लाल के हसीन सपने’ के किरदार स्‍मृति में तैर जाते हैं. दूरदर्शन का विस्‍तार उनके बिना पूर्ण नहीं होता. ‘दिनमान’ और ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के संपादक रहते हुए की गई पत्रकारिता याद आती है. विज्ञान से लेकर राजनीति तक लिखे गए स्‍तंभों का स्‍मरण हो जाता है. हिंदी में विज्ञान लेखन को प्रोत्‍साहित और पुष्पित करने वाला दूरदृष्‍टा संपादक के रूप में उनका उल्‍लेख होता है.

9 अगस्त 1933 को राजस्थान के अजमेर में जन्‍मे मनोहर श्‍याम जोशी की जड़ें कुमाऊं उत्‍तराखंड से जुड़ी थी और उनका उपन्‍यास ‘कसप’ कुमाऊं आंचलिकता के कारण ही श्रेष्‍ठ प्रेम उपन्‍यासों में शुमार किया जाता है. लखनऊ विश्वविद्यालय से विज्ञान में ग्रेजुएशन करने वाले मनोहर श्याम जोशी अपने साक्षात्‍कारों में खुद बताते हैं कि हमारे घर में बड़ा साहित्यिक माहौल था खुद मुझे साहित्य में कोई रूचि नहीं थी. मैं ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकें ज्यादा पढ़ा करता था. बीएससी के पहले साल में शिक्षामंत्री सम्पूर्नांद ने मेरे निबंध ‘रोमांस ऑफ इलेक्ट्रांस’ पर ‘कल के वैज्ञानिक पुरस्कार’ दिया था. आने वाले कल में वैज्ञानिक तो नहीं बने लेकिन पत्रकारिता और साहित्‍य के बड़े नाम जरूर बने. वैसे अपने इस पुरस्‍कार तथा मसिजीवी बने जाने पर उन्‍होंने खुद कहा है कि यह तो निबंध के शीर्षक से ही जाहिर हो जाना चाहिए था कि यह लड़का साहित्यिकार हो जाए तो हो जाए वैज्ञानिक नहीं हो सकता.

वर‍िष्ठ पत्रकार पंकज शुक्ला ल‍िखते हैं क‍ि वे लेखक बने लेकिन विज्ञान छूटा नहीं. अपने प्रिय विषय विज्ञान का ज्ञान हिंदी के पाठकों तक पहुंचाने में उन्होंने अपने संपादकीय अधिकार का भरपूर प्रयोग किया. ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान ‘ में ‘विज्ञान कथा’ विशेषांक प्रकाशित होना इस दिशा में बड़ा कदम माना जाता है. अंग्रेज़ी साप्ताहिक ‘वीकेंड रिव्यू’ का संपादन करते वक्त हिंदी पत्रकारिता में भी अंग्रेज़ी जैसी विविधता और ‘बोल्डनेस’ लाने का प्रयत्‍न किया. भारतीय पत्रकारिता में ‘क्रिकेट-विशेषांक’ सबसे पहले ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में निकाला गया. इसी तरह मनोवैज्ञानिक समस्याओं पर स्तंभ शुरू किया गया. महिलाओं, युवाओं, बच्चों, बूढ़ों आदि के बारे में सर्वेक्षण आधारित कई आलेख प्रस्तुत किए गए, जिसका अनुसरण आज का मीडिया कर रहा है.

फिर टेलीविजन धारावाहिक ‘हम लोग’ लिखने के लिए सन् 1984 में संपादक की कुर्सी छोड़ दी और तब से आजीवन स्वतंत्र लेखन किया. उन्होंने ‘हे राम’, ‘पापा कहते हैं’, ‘भ्रष्टाचार’ आदि अनेक फिल्मों की भी पटकथाएं लिखीं. दक्षिण की फिल्‍मों की हिंदी डबिंग करवाने में उनका सानी कोई नहीं था. इसके लिए भाषा का व्‍यापक ज्ञान होना आवश्‍यक है क्‍योंकि संवाद बोल रहे किरदार के लिपसिंक हों ऐसे तमिल के पर्याय हिंदी शब्‍दों का उपयोग कर डायलॉग लिखना आसान नहीं होता.

जाने कितना है जो उनके बिना अधूरा ही रहता फिर भी जीवन के अंतिम दिनों में वे ‘अधूरेपन’ से परेशान थे. ‘पालतू बोहेमियन मनोहर श्‍याम जोशी एक याद’ संस्‍मरण में प्रभात रंजन लिखते हैं कि जीवन के अंतिम समय में उनकी निराशा बढ़ती जा रही थी. एक तरह की जल्दबाजी लगती थी. वे अपने सभी अधूरे उपन्यासों को पूरा कर लेने की लगातार कोशिश कर रहे थे. इसीलिए कभी एक को लिखने लगते, कभी दूसरे को. ऐसा लग रहा था, जैसे वे कोई काम अधूरा छोड़कर नहीं जाना चाहते थे, उनकी कई कहानियां जो 1950 के दशक में प्रकाशित हुई थीं और जिनकी प्रति उनके पास नहीं थी, उन पत्रिकाओं के अंकों की तलाश के लिए वे अपने सभी मिलने-जुलने वालों से कह रहे थे. पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित स्तंभों की फाइलें सहेज रहे थे. यहां तक कि प्रभात रंजन को बुला कर उन्‍होंने अपने अधूरे उपन्‍यासों की सूची बनवाई थी.

लेखन का यह अधूरापन

खूब मेहनत और शोध के बाद मारवाड़ी जीवन पर ‘शुभ लाभ’ की पटकथा लिखी जानी थी लेकिन इसे अधूरा छोड़ दिया गया. इसका कारण था कि वे ‘शुभ लाभ’ लिख पाते इसके पहले अलका सरवगी का ‘कलि कथा वाया बाईपास’ आ गया था. उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उन्‍होंने कहा था कि अब मारवाड़ी समुदाय पर दोबारा इतना अच्छा कथात्मक साहित्य नहीं लिखा जा सकता है. ‘जीवन में संयोग भी होते हैं’, कहते हुए वे दूसरे कमरे में चले गए.

ऐसे कई संयोग हुए और इसे दुर्योग ही कहिए कि पूरी मेहनत के बाद भी संयोग से उसी विषय पर कोई ओर कृति पहले आने के कारण वह रचना अधूरी ही रह गई. और ऐसे एक नहींं कई काम इसलिए अधूरे रह गए कि उनके पूर्ण होने के ठीक पहले कोई और  कृति आ गई. सबकुछ होने के बाद भी इस तरह  अधूरे छूट जाने की भी खास किस्‍म की कसक होती है.

कृतित्‍व में अधूरेपन का होना शायद जीवन में अधूरेपन के दंश का ही प्रभाव रहा. इसे स्‍वीकार करते हुए अपने एक साक्षात्‍कार में उन्‍होंने कहा था कि मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि मुझे बुनियादी साहित्य-संस्कार और तेवर मां से विरासत में मिला है. मां का व्यक्तित्व विचित्र प्रकार का था. एक तरफ वह बहुत धर्मपरायण और धर्मभीरु महिला थीं. निहायत दबी-ढकी, नपी-तुली जिंदगी जीने वाली. हमें धर्मभीरुता का संस्कार भी उसी से मिला. उसी के चलते अपने तमाम तथाकथित विद्रोह के बावजूद, जनेऊ को कील पर टांग देने और मुसलमानों के घड़े से पानी पी लेने के बावजूद कर्मकांड को कभी पूरी तरह से अस्वीकार नहीं कर पाया हूं. और इस मामले में मेरी माननेवालों और न माननेवालों के बीच की स्थिति बन गई.

7-8 वर्ष की उम्र में पिता को खो देने वाले जोशी जी बताते हैं कि पिता की अनुपस्थिति  के कारण मेरे जीवन में ही नहीं साहित्य में भी जबर्दस्त अनाथ काम्पलेक्स ढूंढा और दिखाया जा सकता है. मुझे खुद ही कभी-कभी आश्चर्य होता है मेरे लिए कोई व्यक्ति पिता प्रतीक बन जाता है और मुझे अपने बारे में उसकी राय अच्छी बनाने की, अपने किए पर उसकी दाद पाने की जरूरत महसूस होती है. कभी-कभी अपनी इस कमजोरी पर मैं इतना झुंझलाता हूं कि उसके द्वारा उपेक्षित किए जाने पर अपना आपा खो बैठते हुए उल्टा-सीधा कहने लगता हूं. मृत्युभय और असुरक्षा की सतत भावना भी मेरे अनाथ काम्पलेक्स के हिस्से हैं.

वे बताते हैं कि कुछ पैदाइशी डर था और कुछ परिस्थितियों ने बना दिया. कोई विद्रोह करते हुए या बड़ा खतरा मोल लेते हुए मुझे यह डर सताता रहा. इसी के चलते विशेष महत्वाकांक्षी न होते हुए भी मैंने महत्वपूर्ण गोया लायक बनने कर कोशिश की और अपने को बराबर नालायक ही पाता रहा. इसी के चलते मैं न तो कलाकारों वाले सांचे में फिट हो सका और न घरेलू सांचे में. जैसा कि मैंने बहुत पहले अपने बारे में कहा था मैं एक पालतू बोहेमियन होकर रह गया. लेखक जोशीजी घर-परिवार में थोड़े बोहेमियन होने के नाते विचित्र समझे गए और बोहेमियन बिरादरी को उनका घरेलूपन अजीब नज़र आया. यह उनके पालतू बोहेमियन, अधूरे विद्रोही होने का ही प्रमाण है कि शराब पीते हुए भी उनका सारा ध्यान इस ओर रहा कि कहीं होश न खो बैठूं. इसी के चलते उन्हें हर सुरा-संध्या के अंत में किसी लड़खड़ाते मित्र को उनके घर पहुंचाने का और उनके स्वजनों की फटकार सुनने का सौभाग्य प्राप्त होता रहा.

एक रचनाकार अपने गढ़े पात्रों के जरिए खुद भी यात्रा करता है. यह यात्रा एक रचना से दूसरी और एक विधा से दूसरी विधा तक जारी रहती है. फिर भी जो संपूर्ण दिखता है, वह भीतर कहीं अधूरा भी रहता है. विशिष्‍टता इसमें हैं कि उस अधूरेपन को महसूस, स्‍वीकार कर पूर्ण करने के जतन होते रहें. इस‍ लिहाज से मनोहर श्‍याम जोशी के साहित्‍य से अलग उनकी जीवन यात्रा भी एक सबक है, पूर्णता पाने के जतन का सबक. अपना काम ईमानदारी से करते जाने का सबक.

प्रस्तुत‍ि : अलकनंदा स‍िंंह 

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