आज 22 सितंबर 1931 को जन्मे थे तमिल भाषा के लेखक व उपन्यासकार अशोकमित्रन। उनका निधन 23 मार्च, 2017 को हुआ था। अशोकमित्रन का मूल नाम जगदीस त्यागराजन था।
उनकी कृति में 200 लघु कथाएं, 8 उपन्यास, 15 अन्य लंबी कथाएं शामिल हैं। उनकी बहुत-सी लघु कथाएं अँग्रेजी, हिंदी, मलयालम, तेलगू और अन्य भाषाओं में अनुवादित की गई है। उन्हें वर्ष 1996 में उनके लघु कथाओं के संग्रह अप्पाविन सिनेहिदर के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार (तमिल) से सम्मानित किया गया था।
वर्ष 1931 में सिकंदराबाद में जन्में अशोकमित्रन वर्ष 1952 में चेन्नई चले गए थे। जिसके बाद वे तमिल साहित्य के एक प्रभावशाली साहित्यकार के रूप में उभरे। वे संक्षिप्त और सूक्ष्म हास्य के लिए जाने जाते थे। उन्होंने 1960 के दशक में अपना साहित्यिक नाम अशोकमित्रन ग्रहण किया था। वर्ष 2014 में तमिलनाडू की निवर्तमान मुख्यमंत्री जयललिता ने तमिल साहित्य में उनके योगदान के लिए उन्हे 'तिरु वी का' पुरस्कार प्रदान किया था।
उनको 1992 में 'दिल्ली मेमोरियल अवार्ड' भी मिला। उनकी रचनाओं को 'के.के. बिरला पुरस्कार' मिला। तुलनात्मक अध्ययन के लिए उन्हें फेलोशिप भी दी गई। 1966 से 1989 तक कुछ समय के लिए 'कलैआडी' पत्रिका के संपादक भी रहे। उनके उपन्यासों में 'अप्पाविन स्नेगदी', 'तन्नीर' एवं 'मानसरोवर' बहुचर्चित रहा। 'तन्नीर' का अंग्रेजी अनुवाद भी हुआ है।।
पढ़िए उनकी कहानी- 'सुंदर'
हमने ठान लिया था कि जैसे भी हो, एक गाय खरीदकर ही चैन लेंगे। भैंसों को पल्ले बाँधकर रोने से तो बेहतर है कि पिछवाड़े एक गाय ही बाँध ली जाए। घर में लक्ष्मी आ जाएगी।
भैंसों को हमने आदर-सत्कार सहित बुलावा नहीं दिया था। एक बार हुआ यह कि किसी कारण से एक भैंस हमारे घर आ टपकी। हमने तो सोचा था कि वह कुछ दिनों की मेहमान होगी, परंतु वह स्थायी रूप से बस गई। जब उसमें दूध-उत्पादेयता की क्षमता सर्द हो गई, तब हमने दूध प्राप्ति हेतु एक और भैंस खरीद ली। दोनों जब एक ही साथ सर्द पड़ गई तो तीसरी आ गई।
हम जहाँ रहते थे, वहाँ साधारणतया कामकाज के लिए नौकर-चाकरों का मिलना अत्यंत कठिन था। हमारे घर के लोग ही बारी-बारी से रोज गोबर इकट्ठा करते थे। पाँच-छह दिनों में एक बार गोबर के उपले बनाते। गोबर को कोयले के चूरे के साथ मिलाकर गोले बनाकर सुखाते। इसकी उपलब्धि यह हुई कि हम अच्छी-खासी गरमी में भी गरम पानी से ही नहाते।
पिछवाड़े के एक कोने में गोबर का एक पहाड़ सा सदा रहता। दूसरे कोने में उपलों और गोलों का ढेर रहता। इन दो पहाड़ों के बीचोबीच इनकी कारणकर्ता भैंसें जुगाली करती हुई विराजमान रहतीं। शायद इन भैंसों का आपस में कोई गूढ़ समझौता हुआ होगा। किसी भी वक्त दो को दोहने की आवश्यकता ही नहीं रहती। ऐसे भी महीने थे, जब तीनों में से एक ने भी एक बूंद दूध नहीं दिया था।
अच्छे वक्त का अंत तो आता ही है, साथ ही कभी-कभी बुरे वक्त का भी। एक भैंस मर गई। दूसरी खो गई। तीसरी का बच्चा होनेवाला था। चार–पाँच महीनों बाद मेरी बड़ी बहन नन्हे से बच्चे के साथ कुछ महीने हमारे साथ रहनेवाली थी। ऐसे समय में दूधवाले की कृपा पर आश्रित होने की बजाय एक गाय ही क्यों न खरीद लें? वैसे भी पिछवाड़े में दो गाय को बाँधने के लिए जगह तो है ही।
यह खबर गाँव भर में फैल गई कि हम गाय खरीदनेवाले हैं। इस विषय में उन्हीं लोगों ने खूब दिलचस्पी दिखाई, जिनका गाय से कोई लेना-देना नहीं था। उनकी नोंक-झोंक से इतना खीज गए कि सोचा गाय न खरीदें, दूसरी ओर यह भी निश्चय हुआ कि इनके लिए ही सही, एक गाय घर में अवश्य लाएँगे।
हम भी लगभग पंद्रह गायों को देख चुके थे। पहली बार गर्भिणी हुई गाय से लेकर आठ बार जन्मदात्री की शोभा से मंडित एवं वृद्धा गाय तक। पहले मैं और पिताजी गाय को देख जाते और गाय के रंग, सींग, पूँछ की लंबाई आदि बुनियादी मुद्दों का भी माँ को भिन्न-भिन्न विवरण देते। माँ को पिताजी के सामर्थ्य पर शंका थी, अतः कभी हम तीनों गाय देखने जाते। हमारे पहुँचने तक गाय को दुहा जा चुका होता। वह कितना दूध देती है, उसे कैसा दुहा जाता है, यह देखने के लिए हम दुबारा जाते। एक-दो लोगों ने तो इतना कहा भी कि हम गाय को अपने पास दो दिन रखने के पश्चात ही निर्णय लें। एक ने यहाँ तक कहा, आधे पैसे अब दीजिए, आधे अगले महीने दे दीजिए। इन सभी को छोड़कर हम बाजार के पास वाले मारवाड़ी के घर से फौरन पूरे पैसे देकर एक गाय खरीद लाए।
जाने क्या-क्या कारणों के लिए गाय को तीन-चार बार देख–जाँच लेने के बाद नकारनेवाले हम इस मारवाड़ी के मामले में पाँच ही मिनटों में राजी हो गए। कारण यह था-बाजार के पास बाजार से भी बड़ी सब्जीमंडी थी। जिसमें जान-पहचानवाले एक सब्जीवाले ने माँ-पिताजी को बताया कि पास ही एक गाय बिक्री के लिए है और तुंरत दोनों को वहाँ ले भी गया। उसी वक्त गाय को दुहा जा रहा था। फेन सहित दूध बालटी भर दुहा गया। हमारी भैंसों ने भी कभी इतना दूध नहीं दिया था। माँ-पिताजी दोनों ने हामी भरी और एक रुपए का अग्रिम दे आए। दूसरे दिन 299 रुपए देकर गाय को घर लाया गया। साथ ही एक माह का बछड़ा भी।
गाय के आते ही माँ ने उसकी कर्पूर आरती उतारी, उसे कुंकुम का टीका लगाया और उसे 'लक्ष्मी' के नाम से संबोधित किया।
'लक्ष्मी...क्यों...?' मैंने पूछा।
'गाय का नाम' माँ ने कहा।
'सुंदर...?'
'हाँ माँ...उन्होंने वैसे ही तो बुलाया था।'
'कैसा नाम है? सुंदर...?'
'हाँ, माँ...। तुमने ध्यान नहीं दिया? सुंदर...सुंदर कहते हुए ही तो वह औरत उसकी पीठ पर हाथ फेर रही थी।'
'देखो, मैं बुलाता हूँ...सुंदर। गाय ने मुड़कर देखा।'
'देखा, इस गाय का नाम सुंदर ही है।'
'सुंदर तो पुल्लिंग है?'
'हो सकता है कि यह पुरुष-गाय हो?'
'छिह-छिह। ज्यादा बुद्धिमानी मत दिखाओ।'
हमारे मन को क्लेश का कारण केवल यह नहीं था कि गाय का नाम 'सुंदर' था। उसके थन पूरी तरह से काले थे। श्याम–थन गायों का दूध मंदिर के अलावा और कहीं भी उपयुक्त नहीं होना चाहिए। ऐसा हमारे घरों में कहा जाता है। मुझे इन बातों की खास जानकारी नहीं थी।
श्याम–थनवाली गाय भी तो गाय ही है। इसलिए यह तय किया गया कि महीने में एक बार दूध को मंदिर में अभिषेक के लिए दे दिया जाए।
गाय को अपने नए नामकरण की आदत पड़ जाए। इस कारण हम अकसर पिछवाड़े में जाकर 'लक्ष्मी...लक्ष्मी' कहकर पुकारने लगे। गाय ने इसकी कोई परवाह ही नहीं की। साथ ही वह बेचैनी से इधर-उधर हिलती-डुलती रही। शाम हुई। गाय को पहली बार हम दुहनेवाले थे। जब भैंस दूध दिया करती थी, तब एक आदमी दूध दुहने आया करता था। उसे सूचना देने के बावजूद वह नहीं आया। आखिरकार पीतल के बड़े मुँह के लोटे को लेकर माँ गाय के पास गई।
मैंने बछड़े की रस्सी खोल दी। वह माँ के थन से मुँह लगाकर चूसने लगा। गाय के थन रिसने लगे। मैंने बछड़े को फिर से बाँध दिया। गाय के पास बैठकर माँ ने उसके थन को छुआ। गाय ने लात मारी।
मैंने बछडे को एक कोने में बाँध दिया और गाय की पिछली टाँगों को बाँधने के लिए रस्सी हुँढने लगा। भैंसों को दुहते समय उनकी पिछली टाँगों को बाँधने की कभी नौबत न आई थी। अगर वे दूध नहीं देना चाहतीं तो परे हट जातीं। मगर टाँग उठाकर उन्होंने कभी नहीं मारा।
जैसे-तैसे एक रस्सी को ढूँढ़ निकाला और गाय की पिछली टाँगों को बाँध देने के बाद मैंने और माँ ने बारी-बारी से उसे दुहा। वह माँ को भी पास आने नहीं दे रही थी। माँ ने इस बात को भी नजरअंदाज कर दिया कि उसका नाम लक्ष्मी है। उसके मुँह और पीठ पर थपथपा दिया। सबकुछ करने के बाद भी पाव भर भी दूध नहीं मिला। अगले दिन सुबह की भी वही कहानी थी। उस शाम की स्थिति बदतर थी। गाय ने दूध दिया ही नहीं।
गाय सींग मारनेवाली थी। साथ ही एक बात भी उजागर हुई। गाय को हमारे घर आए लगभग 36 घंटे बीत चुके थे। वह बैठी तक नहीं, खड़ी ही रही। हमने उसके खाने के लिए भूसी और खली रखी थी, उन्हें खाने में भी उसने खास दिलचस्पी नहीं दिखाई। जब दूसरे दिन भी उसने हमें पास फटकने नहीं दिया तो मैं उस मारवाड़ी के घर गया। उस गली में सबके सब मारवाड़ी परिवार ही थे। जैन धर्मावलंबी होने के कारण सूर्यास्त से पूर्व भोजन समाप्त कर बत्ती बुझा चुके थे। बुजुर्गों ने मुँह पर कपड़ा बाँध रखा था। गाय के विक्रेता के घर तक पहुँचने के लिए मुझे चार-पाँच घरों के आँगन में बँधी हुई गायों को खतरनाक ढंग से पार करके आना पड़ा। अपने विक्रेता के घर को पहचानने से पहले मैं एक बार अपना पैर गोबर के ढेर में घुसेड़ चुका था। एक स्त्री बाहर खड़ी थी, उससे मैंने कहा, 'आपकी गाय दूध नहीं देती।'
'उसे चारा दिया?' उस स्त्री के मुँह पर बँधा परदा उसके बोलने से फड़फड़ाने लगा।
'वह कुछ भी नहीं खाती, बस लात मारती रहती है।' वह घर के अंदर गई और ऊँची आवाज में ताबड़तोड़ बरसने लगी। फिर उसने आस-पड़ोस सबको यह कहा, 'सुंदर को ये लोग भूखा मार रहे हैं।' इसी तरह की बातें वह किए जा रही थी। सभी ने मुझे घेर लिया और मुझ पर प्रश्नों की बौछार करने लगे। 'क्या आप पत्थर दिल हैं? आप क्या गाय को मार डालेंगे? गाय को भूखा मारोगे तो कोटि जन्म नरक में उलटे लटका में भूने जाओगे।'
वह स्त्री मेरे साथ चल पड़ी। रास्ते में भी आते-आते लोगों से अपनी भाषा में यह कहती हुई आई कि मैं उसकी गाय को भूखा मार रहा हूँ। मुझे ताज्जुब हुआ कि वह स्त्री कैसे एक ही बात को घंटों दोहराए जा रही
हम घर पहुँचे। गाय ने उसे देखकर उछल-कूद करना शुरू कर दिया। जोर से रँभाई, पूँछ उठाकर मूत्र त्यागा, ऐसे साँस लिया, मानो पूरे विश्व को हिला देगी। वह मारवाड़ी स्त्री 'सुंदर!' कहकर पुकारती हुई उससे लिपट गई। अपने मुँह पर लगे श्वेत आवरण को हटाकर उसने गाय को चूमा। गाय के कान के पास पिस्कू पकड़कर जमीन पर फेंक उसे पैर से कुचल डाला। 'सुंदर मेरे सुंदर' कह-कहकर देर तक गाय को दुलारती–पुचकारती रही। इस दृश्य को देखकर मैं रुआँसा हो उठा। मेरे भाई-बहन तो रो ही पड़े।
केवल मेरी माँ अविचलित थी। एकाएक अनपेक्षित रूप से वह चिल्लाने लगी। 'कया सोचकर तुमने ऐसी गाय हमारे मत्थे मढ़ दी? पैसे गिनकर रखो और ले जाओ अपनी गाय।'
'गाय को अगर चारा नहीं दोगे तो वह दूध कैसे देगी? गाय को भूखा मारोगे तो कोटि जन्म उलटे भूने जा बदले में वह भी चिल्लाई।
हमारी माँ में भी इतना सामर्थ्य है, यह हममें से कोई नहीं जानता था। सवा घंटा बरसने के बाद वह मारवाड़ी स्त्री भी शांत हो गई। 'एक बरतन दो।' उसने सहज भाव से कहा।
उसने गाय की पिछली टाँगों को बाँधे बिना, बछड़े को एक बूंद दूध पिलाया और गाय को दुहा। एक बड़ा लोटा भर दुहने के बाद उसने दूसरा बरतन लिया और उसमें भी दूध दुहा। अब हमारी माँ नहीं चिल्लाई। उस रात सोने से पहले हम सभी ने दूध पिया।
रात के वक्त हमारे घर के पिछवाडे कोई भी बिना बत्ती के नहीं जा सकता। कारण यह था कि रसोई से बाहर आने पर आठ-दस सीढ़ियाँ थीं, जिन्हें उतरने के बाद ही समतल भूमि पर आया जा सकता था। मगर आँगन में केवल दो ही सीढ़ियाँ थीं। घर बनाते समय जमीन में जो भी ऊँच-नीच थी उसे बिना समतल किए बनाई गई थीं। पिछवाड़े में गोशाला के चारों ओर एक ऊँची दीवार थी। रात के वक्त सोने से पहले हममें से कोई एक इस पिछवाड़े के दरवाजे पर एक बड़ा सा ताला लगाकर आ जाता था। उस दिन रात को मैं ही लालटेन लेकर उस दरवाजे को ताला लगाकर आया। गाय हमारे घर में पहली बार बैठी हुई थी। यही नहीं, वह जुगाली भी कर रही थी। मुझे लगा कि आखिरकार वह हमारी पारिवारिक व्यवस्था के साथ घुल-मिल गई है। उसे मैंने 'सुंदर' कहकर पुकारा और उसके माथे को सहलाया।
सुबह माँ की चीख-पुकार सुन सभी उठ बैठे। सुंदर ने रात को ही रस्सी तोड़ ली होगी। जैसे ही माँ ने रसोई के पिछवाड़ेवाला दरवाजा खोला, एक ही छलाँग में सुंदर आठ-दस सीढ़ियाँ लाँघकर रसोई में घुस गई थी। माँ डर गई थी और चीखने-पुकारने लगी थीं। पिताजी ने आँगन के बाहर वाला दरवाजा खोला, यह सोचकर कि शायद कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाए जो गाय को सँभाल सके। ज्यों ही बाहर का दरवाजा खला, सुंदर बाहर की ओर लपकी। जब तक हम यह सोच ही रहे थे कि हमें अब क्या करना चाहिए, तब तक सुंदर बाजार की ओर दौड़ती हुई हमारी आँखों से ओझल हो चुकी थी। माँ ने उस मारवाड़ी स्त्री को कोसा। गाय को कोसा। सब्जीवाले को कोसा। चूँकि मैंने दौड़ती हुई गाय को लाठी मारकर घर की ओर नहीं भगाया, इसलिए मुझे भी कोसा। आधे घंटे बाद मैं बरतन समेत बछड़े को लेकर मारवाड़ी स्त्री के घर की ओर निकल पड़ा।
उस स्त्री ने मुझे देखते ही जोर-जोर से भला-बुरा कहना शुरू कर दिया। पता नहीं क्यों मुझे अपराधबोध होने लगा। वैसे जाँच-पड़ताल कर देखा जाए तो इसकी कोई गुंजाइश नहीं थी। वह अपनी गाय को बेचना चाहती थी, तभी तो हमने खरीदी थी। उसके मुँहमाँगे दाम को हमने चुकाया था। वह मुझे और मेरे घरवालों को बुरा-भला कहे क्या यह उचित था!
उस वक्त यह सब मुझे सूझा ही नहीं। संकोच का अनुभव करते हुए मैंने कहा, 'गाय को दुह लेता हूँ।' उस स्त्री ने बड़े दानवीर की भाँति स्वीकृति दी। सुंदर को दुहने के लिए मुझे आया देख सात-आठ बच्चों और बुजुर्गों ने मुझे घेर लिया। सुंदर ने लात नहीं मारी। यह आश्चर्य की बात थी। जब मैं घर लौटा तो माँ ने पूछा, 'गाय कहाँ है?' मैंने माँ की ओर दूध का बरतन बढ़ाया। उसे पकड़ते हुए माँ ने दुबारा प्रश्न किया, 'गाय कहाँ...?'
'मैं अभी उसे साथ नहीं ला सका, शाम को ले आऊँगा।' माँ ने मेरी ओर अविश्वास से भरी नजरों से देखा।
'उस पिशाचनी से गाय के पैसे वापस ले आएँ।' माँ ने पिताजी से कहा, लेकिन पिताजी ने कोई जवाब नहीं दिया।
शाम को जब मैं दूध दुहने गया तो गाय ने बहुत ही कम दूध दिया। ऊपर से दूध में से एक तरह की बदबू भी आ रही थी। पहले मैं इसका कारण न जान सका, मगर बाद में मुझे पता चल गया। दिन में मंडी का चक्कर लगाते हुए सुंदर कचरेदानों को भी नहीं छोड़ती थी। मारवाड़ी स्त्री गाय के लिए चारा नहीं डालती थी। वह जिम्मेदारी तो हमारे इलाके के लगभग तीन सौ सब्जीवालों, बाजार और उसके आस-पास के कचरादानों पर थी। इस बार माँ को मुझे डाँटने-फटकारने के लिए कई कारणों के होते हुए भी मैं बहादुरी से बोला-
'गाय को वहीं रहने दो माँ। वह वहीं खुश है।'
'पैसे देकर खरीदी गई गाय किसी और के घर बाँधी जाएगी? उस धोखेबाज औरत ने हमसे पैसे क्यों लिये? हर बार वहाँ जाकर दूध दुहने से तो बेहतर होगा कि सीधी तरह दूध कहीं से खरीद लें। गाय वहाँ रहेगी...? वह तो आधा दूध स्वयं ही दुह लेगी। मगर जब मैं यह कहती हैं कि पैसे लौटा दो और अपनी गाय ले जाओ तो वह बिना मुँह खोले भाग खड़ी होती है।
पिताजी ने इस गाय के विषय में दखल ही नहीं दिया। यह निश्चय किया गया कि अगले दिन मैं स्कूल से छुट्टी लेकर माँ के साथ जाकर सुंदर को घसीट लाऊँ।
'सुंदर।'
सवेरे-सवेरे मैं जाकर गाय को दुह आया। अब भी बहुत कम ही दूध दिया। उस स्त्री ने कहा कि बछड़े ने दूध पी लिया था। दूध की बदबू असहनीय थी। दोपहर का खाना समाप्त होते ही माँ ने मुझसे कहा। 'चल रे!'
दो व्यक्तियों द्वारा संचालित घोर विस्फोट को सँभालने का अशोभनीय कार्य मुझ पर थोपा गया। जिससे बचने का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। अतः मैं अर्धचेतनावस्था में माँ के साथ दोपहर की कड़कती धूप में डेढ़ मील की दूरी पर स्थित बाजार की ओर चल पड़ा।
क्रोध का ऐसा विस्फोट हुआ, सारा बाजार उस मारवाड़ी स्त्री के यहाँ जमा हो गया। यही कहा जा सकता है कि दो भाषाएँ स्त्रियों की विशेष प्रयुक्तियों से समृद्ध हो तीव्र गति से विकासोन्मुख हो गई। मुझे ऐसा लगा कि मेरी माँ का पलड़ा ऊँचा था। वह मारवाड़ी स्त्री तब-तब लाचार दिखाई देती, जब-जब माँ उससे यह कहती, 'पैसे वापस दे और ले गाय को रख अपने पास।'
पचास लोग बीच-बचाव के लिए आ गए। अब हम अपनी गाय को ले जा सकते थे, मगर वह आए तब न? जितनी बार मैंने सुंदर की रस्सी खूटी से खोलने की कोशिश की, उतनी ही बार वह मारवाड़ी स्त्री दौड़ती हुई आती और गाय से लिपटकर जोर-जोर से रोने लगती। माँ जैसे ही पैसों की माँग करती, वह चुप हो जाती। सुंदर ने उछलकर मुझे पास आने से रोक दिया। माँ को तभी यह युक्ति सूझी होगी। एक बैलगाड़ी लिवा लाओ।' उन्होंने मुझसे कहा।
'सुंदर को बैलगाड़ी में कैसे चढ़ाएँगे?' मैंने पूछा। 'मैंने तुमसे कहा है कि बैलगाड़ी ला और तू मुझसे सवाल-जवाब कर रहा है?' माँ गरजी और मैं बैलगाड़ी लेने चल पड़ा।
बैलगाड़ी आने पर माँ उस पर बछड़े को लेकर बैठ गई। मुझे भी गाड़ी में बैठने को कहा। वहाँ के ही एक आदमी से सुंदर की रस्सी खूटी से खोलकर हाथ में पकड़ाने को कहा। माँ ने उस रस्सी को गाडी के पीछे बाँध दिया। मैं उस क्षण का इंतजार कर रहा था, जब संदर रस्सी तोड़कर भाग जाएगी। मगर सुंदर बैलगाड़ी के पीछे-पीछे चलते हुए शांतिपूर्वक आ गई।
इसके बाद दो हफ्तों के अंदर सुंदर पाँच-छह बार रस्सी तोड़कर मारवाड़ी के घर भाग गई। हर बार मुझे बैलगाड़ी ले जाकर उसे वापस लाना पड़ा। मैं समझ पा रहा था कि स्वतंत्र रूप से सब्जी मंडी में विचरण करते हुए कचरादानों में मुँह मारना दो सौ वुर्गफीट के दायरे में घूमना, मनचाहा व्यवहार करने की तुलना में एकांत विशाल गौशाला में उसे खूटी से बँधे रहना, खली -आदि खाना क्यों नहीं भाया। बाजार का शोरगुल उसके लिए इतना आवश्यक था कि वह अपने एक माह के बछड़े को भी छोड़कर भागने में तत्पर थी। कई अच्छे कारणों के लिए मनुष्य अपना स्वभाव परिवर्तित करने में असमर्थ है तो केवल मालिक के बदल जाने के कारण एक गाय से उसके स्वभाव के बदल जाने की अपेक्षा करना कितना अन्याय है।
कुछ ही दिनों में हम गाय से बिल्कुल तंग आ चुके थे। मारवाड़ी औरत पैसे वापस करनेवाली नहीं थी। मौका पाते ही गाय अपनी पुरानी मालकिन के पास दौड़ जाती। दूध तो बिल्कुल कम देती थी। गाय भी श्याम–थन थी। इतने दिन उसके दूध को पीकर न जाने कितने पाप लग गए होंगे। उसे बेच देना ही अच्छा था।
सुंदर को खरीदने के लिए एक आदमी मिल ही गया। बहुत शांत स्वभाव का था। हमने उससे कहा कि हमने गाय 350 रुपयों में खरीदी थी और 300 रुपयों में देने के लिए तैयार हो। वह तुरंत मान गया। एक दिन शाम को वह अपने साथ दो आदमियों को आया और गाय तथा बछड़े को ले गया।
उस रात मैंने पिताजी से पूछा, 'क्या आपने उन्हें बताया कि सुंदर अकसर रस्सी तोड़कर मारवाड़ी के घर भाग जाती है? '
पिताजी का ध्यान कहीं और था, उन्होंने जवाब नहीं दिया। आमतौर पर वे ऐसा बरताव नहीं करते।
मैंने माँ से पूछा, माँ ने मुझे डपट दिया सुंदर...। क्या सुंदर-सुंदर' लगा रखा है। घर की बला टली।
'वह तो ठीक है, मगर क्या नए खरीददार को यह बताया गया कि गाय के गुम हो जाने पर उसे बाजार में जाकर ढूँढ़ना होगा?'
माँ ने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया। उलटे मुझे डाँटने लगीं—'सुंदर नहीं...बंदर कहो उसे।'
मैंने सोचा, कम-से-कम उस मारवाड़ी के घर में तो माँ ने ऐसा नहीं कहा था, यही शुक्र है। अगर कह देती तो वह मारवाड़ी स्त्री चिल्लाई होती कि इसने मेरे बच्चे को बंदर कहा।
रात को मैं पिछवाड़े का दरवाजा बंद कर आया। इतने बड़े तमाशे के बीच सुंदर मेरी ओर से लापरवाह ही रही। ऐसा होते हुए भी मैं ही उसका नाम लेकर उसे याद करता था। उसके किसी गुण ने मुझे आकृष्ट कर लिया था।
मुझे उसके नए मालिक पर दया आई। बिना किसी सवाल के पूरा पैसा देकर गाय ले गया था, पता नहीं वह उसकी गौशाला में है या बाजार की तरफ भाग गई। मुझे उस रात नींद ही नहीं आई। मुझे बार-बार बस यही खयाल आता कि जरूर सुंदर मारवाड़ी के घर भाग गई होगी। जैसे भी हो, गाय को ढूँढ़ते हुए वह सुबह यहाँ जरूर आएगा। यहीं से एक बैलगाड़ी लेकर जाना होगा। वह इस वक्त शायद आ ही रहा हो?
सुबह दरवाजा खुलने पर वह दिखाई नहीं दिया। रस्सी तोड़कर आई हुई सुंदर खड़ी थी।
- अलकनंदा सिंंह
ओह! बहुत मार्मिक और रोचक रचना है अलकनंदा जी।गाय और अन्य पालतू जानवरों में ये गुण बहुधा पाया जाता है कि वे अपने मालिक के खूँटे को कभी नहीं भूलते। सुन्दर पहले मारवाडी औरत के प्रति प्रेम में थी फिर दूसरे खूँटे की आसक्ति उसे लौटा लायी।बहुत दिनों बाद एक अच्छी और लोक संस्कारों वाली कथा पढ़कर बहुत अच्छा लगा।अशोक मित्रन जी के जीवन और लेखनी से परिचय करवाने के लिए आभार आपका।खेद है कि इतने प्रसिद्ध रचनाकार के बारे में आज ही जान पाई।अशोकमित्रन जी की पुण्य स्मृति को सादर नमन🙏🙏
ReplyDeleteधन्यवाद रेणु जी , इतनी विस्तृत और शानदार टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार
Deleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 23 सितंबर 2022 को 'तेरे कल्याणकारी स्पर्श में समा जाती है हर पीड़ा' ( चर्चा अंक 4561) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
धन्यवाद रवींद्र जी
Deleteबहुत ही अच्छी कहानी पढ़वाने के लिए धन्यवाद अलकनंदा जी!
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद अनीता जी
Deleteगाय को पूज्य बनाते मानते कब ऐसे सहज स्नेह से छिटकते गए , इसका स्मरण कराती अनुपम कथा |
ReplyDeleteआदरणीय स्व. अशोकमित्रन जी को आदरांजलि समेत ,
आदरणीय अलकनंदा जी को अनुपम संकलन के लिए साधुवाद !
सादर वन्दे जी !
बहुत बहुत धन्यवाद तरुण जी
Deleteअशोकमित्रन जी के परिचय के साथ उनकी कृतियों पर प्रकाश डालती सुंदर पोस्ट।
ReplyDeleteकहानी रोचक रही और गाय के स्वभाव का सटीक चित्रण।
सुंदर कथा ।
साधुवाद अलकनंदा जी।
धन्यवाद कुसुम जी
Delete