आज भगवान परशुराम की जयंती जोर शोर से मनाई जा रही है। जातिवादी व्यवस्था में घिरे समाज में आज भगवान परशुराम को ब्राह्मणों ने अपना आराध्य माना हुआ है। एक पक्ष के तौर पर देखा जाये तो यह ठीक लग सकता है परंतु समग्रता में भगवान परशुराम न तो ब्राह्मणों के हितैषी थे और ना ही क्षत्रियों के विरोधी। वो तो आतताइयों के विरोधी थे और निर्बलों के रक्षक।
मेरा आशय सिर्फ इतना है कि मात्र मूर्ति की आराधना करके भगवान परशुराम के वास्तविक धर्म को नहीं जाना जा सकता। परशुराम धर्म भारत की जनता का धर्म है परशुराम भारत की जागरूक जनता के प्रतीक थे।
अब देखिए न कि राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने तो इसी ''परशुराम धर्म'' पर ही ''परशुराम की प्रतीक्षा'' लिख दी, उनकी इस काव्यकृति से मैं ही क्या कोई भी आतताइयों को ललकार सकता है। आज जबकि सभी अपने-अपने स्वार्थ भाव के पोषण में लगे हैं तब आवश्यकता है एक ऐसे धर्म की जो सर्वजन हितकारी हो और लोगों के लिए हो। परशुराम धर्म वह धर्म है जो पौरुषमयी चेतना का वाहक है, अर्थात् अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए आज के युग का एकमात्र धर्म यही है।
परशुराम धर्म एक दाहक धर्म अवश्य है पर उसमें प्रासंगिक औचित्य भी है, और समय की मांग भी यही है। यह समय की आवाज को न सुनना वालों के लिए यह उनके बहरेपनन की गवाही भी है और कायरता एवं नपुंसकता का स्वीकार्य भी।
राष्ट्रकवि दिनकर के अनुसार इतने गूढ़ संदेशों को धारण करने वाला भगवान परशुराम का धर्म ही परशुराम धर्म कहलाया तथा इस धर्म के निर्वाहक के लिए 8 आवश्यक तत्व हैं पहला- स्वतंत्रता की कामना, दूसरा -वीर भाव , तीसरा- जागृति,चौथा- निवृत्ति मूल्क मार्ग का परित्याग,पांचवां- वर्ग वैमनस्य का विरोध,छठवां- भविष्य के प्रति सतर्क तथा आस्था मूल्क दृष्टि,सातवां - परशुराम धर्म की महत्ता और औचित्य जीवन और आठवां तत्व है- जीवन मानकर सिर ऊंचा कर जीवित करना।
आज अधिक न लिखते हुए मेरे साथ आप भी पढ़िये परशुराम की प्रतीक्षा के ये अंश जो कालजयी है...आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने कि अपने रचनाकाल में थे।
तीन खंडों में लिखी गई इस कविता -''परशुराम की प्रतीक्षा'' का (शक्ति और कर्तव्य) कुछ भाग मुझे यहां उद्धृत करना अधिक प्रिय लगा- आप भी पढ़ें।
वीरता जहां पर नहीं‚ पुण्य का क्षय है‚
वीरता जहां पर नहीं‚ स्वार्थ की जय है।
तलवार पुण्य की सखी‚ धर्मपालक है‚
लालच पर अंकुश कठिन‚ लोभ–सालक है।
असि छोड़‚ भीरु बन जहां धर्म सोता है‚
पातक प्रचंडतम वहीं प्रगट होता है।
तलवारें सोतीं जहां बंद म्यानों में‚
किस्मतें वहां सड़ती हैं तहखानों में।
बलिवेदी पर बालियें–नथें चढ़ती हैं‚
सोने की ईंटें‚ मगर‚ नहीं कढ़ती हैं।
पूछो कुबेर से कब सुवर्ण वे देंगे?
यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे?
तूफान उठेगा‚ प्रलय बाण छूटेगा‚
है जहां स्वर्ण‚ बम वहीं‚ स्यात्‚ फूटेगा।
जो करें‚ किंतु‚ कंचन यह नहीं बचेगा‚
शायद‚ सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।
हम पर अपने पापों का बोझ न डालें‚
कह दो सब से‚ अपना दायित्व संभालें।
कह दो प्रपंचकारी‚ कपटी‚ जाली से‚
आलसी‚ अकर्मठ‚ काहिल‚ हड़ताली से‚
सी लें जबान‚ चुपचाप काम पर जायें‚
हम यहां रक्त‚ वे घर पर स्वेद बहायें।
हम दे दें उस को विजय‚ हमें तुम बल दो‚
दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।
हों खड़े लोग कटिबद्ध वहां यदि घर में‚
है कौन हमें जीते जो यहां समर में?
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गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ?
शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ?
उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था,
तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था;
सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे,
निर्वीर्य कल्पनाओं में भूल गये थे;
गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं,
तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं;
शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,
शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का;
सारी वसुन्धरा में गुरु-पद पाने को,
प्यासी धरती के लिए अमृत लाने को
जो सन्त लोग सीधे पाताल चले थे,
(अच्छे हैं अबः; पहले भी बहुत भले थे।)
हम उसी धर्म की लाश यहाँ ढोते हैं,
शोणित से सन्तों का कलंक धोते हैं।
- रामधारी सिंह ‘दिनकर’
प्रस्तुति: अलकनंदा सिंंह
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 5-5-22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4421 में दिया जाएगा | चर्चा मंच पर आपकी उपस्थिति चर्चाकारों का हौसला बढ़ाएगी
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबाग
धन्यवाद दिलबाग जी
Deleteबहुत सुन्दर लेख अलकनन्दा जी । 'परशुराम की प्रतीक्षा'' (शक्ति और कर्तव्य) का अंश साझा करने के लिए हृदय से आभार ।
ReplyDeleteधन्यवाद मीना जी
Delete'वो तो आतताइयों के विरोधी थे और निर्बलों के रक्षक'। भगवान परशुराम की जयंती पर उनके जीवन और राष्ट्र्कवि द्वारा उनके कर्मों की महत्ता पर प्रकाश डालती कालजयी रचना के साथ सुंदर आलेख !
ReplyDeleteधन्यवाद अनीता जी
Delete"परशुराम धर्म भारत की जनता का धर्म है परशुराम भारत की जागरूक जनता के प्रतीक थे।"
ReplyDeleteसत्य कहा आपने,यदि परशुराम को पूजते हो तो पहले उसके आचरण को भी अपनाओं।
कालजयी रचना 'परशुराम की प्रतीक्षा'' का अंश साझा करने के लिए हृदयतल से आभार एवं नमन अलकनंदा जी
धन्यवाद कामिनी जी
Deleteभगवान परशुराम की जयंती पर उनके विचार आपके शब्दों में पढ़कर अच्छा लगा। गज़ब लिखा।
ReplyDeleteराष्ट्र्कवि की रचना फिर क्या कहना.. वाह!
धन्यवाद अनीता जी
Deleteभगवान परशुराम की जयंती पर उनके जीवन पर राष्ट्र्कवि द्वारा उनके कर्मों पर कालजयी रचना की आपने सुन्दर प्रस्तुति दी हैं l
ReplyDeleteधन्यवाद मनोज जी
Deleteभगवान परशुराम की जयंती पर उनके विचार आपके शब्दों में पढ़कर अच्छा लगा...सुंदर आलेख
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